श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 387 आसा महला ५ ॥ एको एकी नैन निहारउ ॥ सदा सदा हरि नामु सम्हारउ ॥१॥ राम रामा रामा गुन गावउ ॥ संत प्रतापि साध कै संगे हरि हरि नामु धिआवउ रे ॥१॥ रहाउ ॥ सगल समग्री जा कै सूति परोई ॥ घट घट अंतरि रविआ सोई ॥२॥ ओपति परलउ खिन महि करता ॥ आपि अलेपा निरगुनु रहता ॥३॥ करन करावन अंतरजामी ॥ अनंद करै नानक का सुआमी ॥४॥१३॥६४॥ {पन्ना 387} पद्अर्थ: ऐको ऐकी = एक परमात्मा ही। निहारउ = निहारूँ, मैं देखता हूँ। समारउ = मैं हृदय में टिकाए रखता हूँ।1। रामा = रमा, सुंदर। गावउ = मैं गाता हूँ। संत प्रतापि = गुरू के बख्शे प्रताप से।1। रहाउ। समग्री = चीजें, पदार्थ। सूति = सूत्र में, मर्यादा में। सोई = वह परमात्मा ही।2। ओपति = उत्पत्ति। परलउ = सारे जगत का नाश। अलेपा = निर्लिप, अलग। निरगुनु = माया के तीनों गुणों से निर्लिप।3। अनंद करै = हर समय प्रसन्न रहता है।4। अर्थ: हे भाई! गुरू के बख्शे प्रताप की बरकति से गुरू की संगति में रहके मैं सदा परमात्मा का नाम सिमरता रहता हूँ मैं परमातमा के सुंदर गुण गाता रहता हूँ।1। रहाउ। (हे भाई! गुरू के प्रताप के सदके ही) मैं परमातमा को हर जगह ही बसता अपनी आँखों से देखता हूँ, और सदा ही परमात्मा का नाम अपने दिल में टिकाए रखता हूँ।1। (हे भाई! गुरू के बख्शे प्रताप की बरकति से मुझे यह निश्चय है कि) वह परमात्मा ही हरेक शरीर के अंदर बस रहा है जिस (की रजा) के धागे में सारे पदार्थ परोए हुए हैं।2। (हे भाई! गुरू की संगति में टिके रहने के सदका अब मैं जानता हूँ कि) परमात्मा एक पल में सारे जगत की उत्पत्ति और नाश कर सकता है। (सारे जगत में व्यापक होता हुआ भी) प्रभू स्वयं सबसे अलग रहता है और माया के तीन गुणों के प्रभाव से मुक्त है।3। (हे भाई! गुरू के प्रताप की बरकति से मुझे ये यकीन बन गया है कि) हरेक के दिल की जानने वाला परमात्मा (सब में व्यापक हो के) सब कुछ करने व जीवों से करवाने की स्मर्था रखता है (इतनाव्यस्त होते हुए भी) मुझ नानक का पति-प्रभू सदा प्रसन्न रहता है।4।13।64। आसा महला ५ ॥ कोटि जनम के रहे भवारे ॥ दुलभ देह जीती नही हारे ॥१॥ किलबिख बिनासे दुख दरद दूरि ॥ भए पुनीत संतन की धूरि ॥१॥ रहाउ ॥ प्रभ के संत उधारन जोग ॥ तिसु भेटे जिसु धुरि संजोग ॥२॥ मनि आनंदु मंत्रु गुरि दीआ ॥ त्रिसन बुझी मनु निहचलु थीआ ॥३॥ नामु पदारथु नउ निधि सिधि ॥ नानक गुर ते पाई बुधि ॥४॥१४॥६५॥ {पन्ना 387} पद्अर्थ: कोटि = करोड़ों। रहे = रह गए, समाप्त हो गए। भवारे = भटकना में, चक्कर में। दुलभ = जो बड़ी मुश्किल से मिली है।1। किलबिख = पाप। पुनीत = पवित्र। धूरि = चरण धूड़।1। रहाउ। उधारन जोग = बचाने की ताकत रखने वाला। तिसु = उस मनुष्य को। धुरि = प्रभू की हजूरी से।2। धुरि = मन में। गुरि = गुरू ने। त्रिसन = तृष्णा। निहचलु = अडोल।3। नउ निधि = जगत के सारे ही नौ खजाने। सिधि = मानसिक ताकतें, करामाती ताकतें। बुधि = अक्ल, बुद्धि, सूझ। ते = से।4। अर्थ: (हे भाई! जिन अति भाग्यशाली मनुष्यों को) संत जनों की चरण धूड़ (मिल गई वह) पवित्र जीवन वाले हो गए, (उनके सारे) दुख कलेश दूर हो गए।1। रहाउ। (हे भाई! जिनको संत जनों की चरण-धूड़ प्राप्त हुई, उनके) करोड़ों जन्मों के चक्कर खत्म हो गए, उन्होंने मुश्किल से मिले इस मानस जनम की बाजी जीत ली, (उन्होंने माया के हाथों) हार नहीं खाई।1। (हे भाई!) परमात्मा की भक्ति करने वाले संत-जन औरों को भी विकारों से बचाने की स्मर्था रखते हैं, पर संत-जन मिलते सिर्फ उस मनुष्य को ही हैं जिसके भाग्यों में धुर-दरगाह से मिलाप के लेख लिखे होते हैं।2। (हे भाई! जिस मनुष्य को) गुरू ने उपदेश दे दिया उसके मन में (सदा) आनंद बना रहता है, (उसके अंदर से माया की) तृष्णा (की आग) बुझ जाती है, उसका मन (माया के हमलों के मुकाबले में) डोलने से हट जाता है।3। हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू से (सही आत्मिक जीवन की) सूझ प्राप्त कर ली उसे सबसे कीमती पदार्थ परमात्मा का नाम मिल जाता है। उसे, मानो, दुनिया के सारे नौ खजाने मिल जाते हैं उसे करामाती ताकतें प्राप्त हो जाती हैं (भाव, उसे दुनिया के धन-पदार्थ और रिद्धियों-सिद्धियों की लालसा नहीं रह जाती)।4।14।65। आसा महला ५ ॥ मिटी तिआस अगिआन अंधेरे ॥ साध सेवा अघ कटे घनेरे ॥१॥ सूख सहज आनंदु घना ॥ गुर सेवा ते भए मन निरमल हरि हरि हरि हरि नामु सुना ॥१॥ रहाउ ॥ बिनसिओ मन का मूरखु ढीठा ॥ प्रभ का भाणा लागा मीठा ॥२॥ गुर पूरे के चरण गहे ॥ कोटि जनम के पाप लहे ॥३॥ रतन जनमु इहु सफल भइआ ॥ कहु नानक प्रभ करी मइआ ॥४॥१५॥६६॥ {पन्ना 387} पद्अर्थ: तिआस = प्यास, तृष्णा। अगिआन = अज्ञानता, ज्ञान का ना होना, परमात्मा से गहरी जान पहचान का ना होना। साध = गुरू। अघ = पाप। घनेरे = बहुत।1। सहज = आत्मिक अडोलता। घना = बहुत। निरमल = पवित्र।1। रहाउ। मूरखु = मूर्खपन। ढीठा = ढीठपन, ढीठता। भाणा = रजा।2। गहे = पकड़े। कोटि = करोड़ों।3। सफल = कामयाब। मइआ = दया।4। अर्थ: (हे भाई! जो मनुष्य) सदा परमात्मा का नाम सुनते रहते हैं (सिफत सालाह करते सुनते रहते हैं) गुरू द्वारा बताई (इस) सेवा की बरकति से उनके मन पवित्र हो जाते हैं, उन्हें बड़ा सुख आनंद प्राप्त होता है (उनके अंदर) आत्मिक अडोलता बनी रहती है।1। रहाउ। (हे भाई! जो मनुष्य हरी नाम सुनते हैं उनके अंदर से पहले) अज्ञानता के अंधेरे के कारण पैदा हुई माया की तृष्णा मिट जाती है, गुरू की (बताई) सेवा के कारण उनके अनेकों ही पाप कट जाते हैं।1। (हे भाई! हरि नाम सुनने वालों के) मन की मूर्खता और ढीठता नाश हो जाती है, उन्हें परमात्मा की रजा प्यारी लगने लग पड़ती है (फिर वे उस रजा के आगे अड़ते नहीं, जैसे पहले मूर्खता के कारण अड़ते थे)।2। (हे भाई!) जिन लोगों ने पूरे गुरू के चरण पकड़ लिए हैं उनके (पिछले) करोड़ों जन्मों के किए पाप उतर जाते हैं।3। (हे नानक!) कह– (जिन मनुष्यों पर) परमात्मा ने (अपने नाम के दाति की) मेहर की उनका ये कीमती मानस जनम कामयाब हो जाता है।4।15।16। आसा महला ५ ॥ सतिगुरु अपना सद सदा सम्हारे ॥ गुर के चरन केस संगि झारे ॥१॥ जागु रे मन जागनहारे ॥ बिनु हरि अवरु न आवसि कामा झूठा मोहु मिथिआ पसारे ॥१॥ रहाउ ॥ गुर की बाणी सिउ रंगु लाइ ॥ गुरु किरपालु होइ दुखु जाइ ॥२॥ गुर बिनु दूजा नाही थाउ ॥ गुरु दाता गुरु देवै नाउ ॥३॥ गुरु पारब्रहमु परमेसरु आपि ॥ आठ पहर नानक गुर जापि ॥४॥१६॥६७॥ {पन्ना 387} पद्अर्थ: सद सदा = सदा सदा, सदा ही। समारे = संभाल, हृदय में संभाल के रख। झारे = झाड़ना।1। रे = हे! जागनहारे = हे जागने योग्य! आवसि = आएगा। कामा = काम। मिथिआ = नाशवंत।1। रहाउ। सिउ = साथ। रंगु = प्यार। लाइ = जोड़।2। थाउ = आसरा, सहारा। देवै = देता है।3। गुर जापि = गुरू का जाप जप, गुरू को याद रख।4। अर्थ: हे जागने योग्य मन! (माया के मोह की नींद में से) सुचेत हो। परमात्मा के नाम के बिना और कोई (पदार्थ) तेरे काम नहीं आएगा। (परिवार का) मोह और (माया का) पसारा ये कोई भी साथ निभाने वाले नहीं हैं।1। रहाउ। हे मन! अपने सतिगुरू को सदा ही (अपने अंदर) संभाल के रख। (हे भाई!) गुरू के चरणों को अपने केसों से झाड़ा कर (गुरू-दर पर विनम्रता से पड़ा रह)।1। (हे भाई!) सतिगुरू की बाणी से प्यार जोड़। जिस मनुष्य पर गुरू दयावान होता है उसका हरेक दुख दूर हो जाता है।2। (हे भाई!) गुरू के बिना और कोई जगह नहीं (जहाँ माया के मोह की नींद में सोए मन को जगाया जा सके)। गुरू (परमात्मा का) नाम बख्शता है, गुरू नाम की दाति देने के समर्थ है (नाम की दाति दे के सोए हुए मन को जगा देता है)।3। हे नानक! (कह–हे भाई!) आठों पहर (हर वक्त) गुरू को याद रख, गुरू पारब्रहम (का रूप) है गुरू परमेश्वर (का रूप) है।4।16।67। आसा महला ५ ॥ आपे पेडु बिसथारी साख ॥ अपनी खेती आपे राख ॥१॥ जत कत पेखउ एकै ओही ॥ घट घट अंतरि आपे सोई ॥१॥ रहाउ ॥ आपे सूरु किरणि बिसथारु ॥ सोई गुपतु सोई आकारु ॥२॥ सरगुण निरगुण थापै नाउ ॥ दुह मिलि एकै कीनो ठाउ ॥३॥ कहु नानक गुरि भ्रमु भउ खोइआ ॥ अनद रूपु सभु नैन अलोइआ ॥४॥१७॥६८॥ {पन्ना 387} पद्अर्थ: पेडु = पेड़, बड़ा तना जो वृक्ष के सारे फैलाव का सहारा होता है। बिसथारी = बिखरी हुई हैं। साख = शाखा, टहनियां, सारा जगत पसारा। राख = रक्षक।1। जत कत = जिधर किधर। पेखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। ओही = वह (परमातमा) ही। गुपतु = छुपा हुआ, अदृष्ट। आकारु = दिखाई देता जगत।2। सरगुण = माया के तीनों गुणों वाला पसारा। निरगुण = माया के तीनों गुणों से निर्लिप। थापै = बनाता है। नाउ = नाम। मिलि = मिल के। ऐकै ठाउ = एक ही जगह।3। गुरि = गुरू ने। भ्रमु = भटकना। अनद रूपु = वह परमातमा सदा ही आनंद में रहता है। नैन = आखों के साथ। अलोइआ = देख लिया।4। अर्थ: (हे भाई!) मैं जिधर-किधर देखता हूँ मुझे एक परमात्मा ही दिखता है, वह परमात्मा स्वयं ही हरेक शरीर में बस रहा है।1। रहाउ। (हे भाई! ये जगत, मानो, एक बड़े फैलाव वाला वृक्ष है) परमात्मा खुद ही (इस जगत-वृक्ष को सहारा देने वाला) बड़ा तना है (जगत-पसारा उस वृक्ष की) शाखाओं का फैलाव फैला हुआ है। (हे भाई! ये जगत) परमात्मा की (बीजी हुई) फसल है, स्वयं ही वह इस फसल का रखवाला है।1। (हे भाई!) परमात्मा स्वयं ही सूर्य है (और ये जगत, मानो, उसकी) किरणों का बिखराव है, वह स्वयं ही अदृश्य (रूप में) है और स्वयं ही ये दिखाई देता पसारा है।2। (हे भाई! अपने अदृश्य और दृष्टमान रूपों का) निर्गुण और सर्गुण नाम वह प्रभू स्वयं ही स्थापित करता है (दोनों में फर्क नाम-मात्र को ही है, कहने को ही है), इन दोनों (रूपों) ने मिल के एक परमात्मा में ही ठिकाना बनाया हुआ है (इन दोनों का ठिकाना परमात्मा स्वयं ही है)।3। हे नानक! कह– गुरू ने (जिस मनुष्य के अंदर से माया वाली) भटकना और डर दूर कर दी उसने हर जगह उस परमात्मा को ही अपनी आँखों से देख लिया जो सदा ही आनंद में रहता है।4।17।68। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |