श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 386 आसा महला ५ ॥ जहा पठावहु तह तह जाईं ॥ जो तुम देहु सोई सुखु पाईं ॥१॥ सदा चेरे गोविंद गोसाई ॥ तुम्हरी क्रिपा ते त्रिपति अघाईं ॥१॥ रहाउ ॥ तुमरा दीआ पैन्हउ खाईं ॥ तउ प्रसादि प्रभ सुखी वलाईं ॥२॥ मन तन अंतरि तुझै धिआईं ॥ तुम्हरै लवै न कोऊ लाईं ॥३॥ कहु नानक नित इवै धिआईं ॥ गति होवै संतह लगि पाईं ॥४॥९॥६०॥ {पन्ना 386} पद्अर्थ: पठावहु = तू भेजता है। तह तह = वहां वहां। जाई = मैं जाता हूँ। जो = जो कुछ। पाई = मैं पाता हूँ।1। चेरे = दास। गोविंद = हे गोविंद! क्रिपा ते = कृपा से। त्रिपति अघाई = पूरी तरह से संतोष में रहता हूँ।1। रहाउ। पैन्उ = मैं पहनता हूँ, पहनूँ। खाई = मैं खाता हूँ। तउ प्रसादि = तेरी कृपा से। प्रभ = हे प्रभू! वलाई = मैं उम्र गुजारता हूँ।2। लवै = बराबर।3। इवै = इसी तरह। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। संतह पाई = संत जनों के चरणों में।4। अर्थ: हे गोबिंद! हे गुसाई! (मेहर कर, मैं) सदा तेरा दास बना रहूँ (क्योंकि) तेरी कृपा से ही मैं माया की तृष्णा से सदा तृप्त रहता हूँ।1। रहाउ। (हे गोबिंद! ये तेरी ही मेहर है कि) जिधर तू मुझे भेजता हॅ, मैं उधर उधर ही (खुशी से) जाता हूँ, (सुख हो चाहे दुख हो) जो कुछ तू मुझे देता है, मैं उसको (सिर माथे पे) सुख (जान के) मानता हूँ।1। हे प्रभू! जो कुछ तू मुझे (पहनने को खाने को) देता है वही मैं (संतोष से) पहनता हूँ और खाता हूँ। तेरी कृपा से मैं (अपना जीवन) सुख आनंद से व्यतीत कर रहा हूँ।2। हे प्रभू! मैं अपने मन में अपने हृदय में (सदा) तुझे ही याद करता रहता हूँ, तेरे बराबर का मैं और किसी को नहीं समझता।3। हे नानक! (प्रभू दर पर अरदास करता रह और) कह– (हे प्रभू! मेहर कर) मैं इसी तरह सदा तुझे सिमरता रहूँ। (तेरी मेहर हो तो तेरे) संत जनों के चरणों में लग के मुझे ऊँची आत्मिक अवस्था मिली रहे।4।9।60। आसा महला ५ ॥ ऊठत बैठत सोवत धिआईऐ ॥ मारगि चलत हरे हरि गाईऐ ॥१॥ स्रवन सुनीजै अम्रित कथा ॥ जासु सुनी मनि होइ अनंदा दूख रोग मन सगले लथा ॥१॥ रहाउ ॥ कारजि कामि बाट घाट जपीजै ॥ गुर प्रसादि हरि अम्रितु पीजै ॥२॥ दिनसु रैनि हरि कीरतनु गाईऐ ॥ सो जनु जम की वाट न पाईऐ ॥३॥ आठ पहर जिसु विसरहि नाही ॥ गति होवै नानक तिसु लगि पाई ॥४॥१०॥६१॥ {पन्ना 386} पद्अर्थ: मारगि = रस्ते पर। चलत = चलते हुए। हरे हरि = हरी ही हरी।1। स्रवन = कानों से। सुनीजै = सुननी चाहिए। अंम्रित कथा = आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह। जासु सुनी = जिसको सुन के। मनि = मन में। मन = मन के। सगले = सारे।1। रहाउ। कारजि = हरेक कार्य में। कामि = हरेक काम में। बाट = राह चलते हुए। घाट = पत्तन (से गुजरते हुए)।2। दिनसु = दिन। रैनि = रात। जम की वाट = जम के रास्ते, उस जीवन राह पे जहां आत्मिक मौत आ दबाए।3। विसरहि नाही = तू नहीं बिसरता। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। तिसु पाई = उसके चरणों में।4। अर्थ: (हे भाई!) कानों से (परमात्मा की) आत्मिक जीवन देने वाली सिफत सालाह सुनते रहना चाहिए जिसके सुनने से मन में आत्मिक आनंद पैदा होता है और मन के सारे दुख-रोग दूर हो जाते हैं।1। रहाउ। (हे भाई!) उठते बैठते सोते (जागते हर वक्त) परमात्मा को याद करते रहना चाहिए, रास्ते में चलते हुए भी सदा परमात्मा की सिफत सालाह करते रहना चाहिए।1। (हे भाई!) हरेक काम काज करते हुए, रास्ते पर चलते हुए, नदी घाट पार करते हुए परमात्मा का नाम जपते रहना चाहिए और गुरू की कृपा की बरकति से आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम जल पीते रहना चाहिए।2। (हे भाई1) दिन-रात परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाते रहना चाहिए (जो ये काम करता रहता है) जिंदगी के सफर में आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती।3। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) जिस मनुष्य को आठों पहर किसी (भी वक्त) तू नहीं बिसरता, उसके चरणों में लग के (और मनुष्यों को भी) ऊँची आत्मिक अवस्था मिल जाती है।4।10।61। आसा महला ५ ॥ जा कै सिमरनि सूख निवासु ॥ भई कलिआण दुख होवत नासु ॥१॥ अनदु करहु प्रभ के गुन गावहु ॥ सतिगुरु अपना सद सदा मनावहु ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुर का सचु सबदु कमावहु ॥ थिरु घरि बैठे प्रभु अपना पावहु ॥२॥ पर का बुरा न राखहु चीत ॥ तुम कउ दुखु नही भाई मीत ॥३॥ हरि हरि तंतु मंतु गुरि दीन्हा ॥ इहु सुखु नानक अनदिनु चीन्हा ॥४॥११॥६२॥ {पन्ना 386} पद्अर्थ: जा कै सिमरनि = जिस (परमात्मा) के सिमरन से। सूख निवासु = (मन में) आनंद का वासा। कलिअण = सुख शांत, खैरीयत।1। करहु = करोगे। मनावहु = खुश करो, प्रसंन्नता हासिल करो।1। रहाउ। सचु सबदु = सदा स्थिर सिफत सालाह वाला गुर शबद। घरि = हृदय घर में।2। पर का = किसी और का। न राखहु चीत = चित्त में ना रखो। भाई मीत = हे भाई! हे मित्र!।3। तंतु = टूणा। मंतु = मंत्र। गुरि = गुरू ने। नानक = हे नानक! अनदिनु = हर रोज। चीना = (बसता) पहचान लिया।4। अर्थ: (हे भाई! अपने गुरू के उपदेश के अनुसार चल के) सदा ही गुरू की प्रसन्नता प्राप्त करते रहो (गुरू के हुकम अनुसार) परमात्मा की सिफत सालाह करते रहा करो (इसका नतीजा ये होगा कि सदा) आत्मिक आनंद पाते रहोगे।1। रहाउ। (हे भाई! गुरू के कहे अनुसार उस परमात्मा का सिमरन करते रहो) जिसके सिमरन की बरकति से (मन में) सुख का वासा हो जाता है, सदा सुख-शांति बनी रहती है और दुखों का नाश हो जाता है।1। (हे भाई!) सदा स्थिर परमात्मा की सिफत सालाह वाले गुर-शबद को हर समय हृदय में रखो (शबद अनुसार अपना जीवन घड़ते रहो। इस शबद की बरकति से अपने) हृदय-घर में अडोल टिके रहोगे (भटकना खत्म हो जाएगी) और परमात्मा को अपने अंदर ही पा लोगे।2। हे भाई! हे मित्र! कभी किसी का बुरा ना चितवा करो (कभी मन में ये इच्छा ना पैदा होने दो कि किसी का नुकसान हो। इसका नतीजा ये होगा कि) तुम्हें भी कोई दुख नहीं व्यापेगा।3। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू ने परमात्मा के नाम का ही टूणा दिया है, परमात्मा के नाम का ही मंत्र दिया है (वह मंत्र-टूणों द्वारा दूसरों का बुरा चितवने की जगह, अपने अंदर) हर समय (परमात्मा के नाम से पैदा हुआ) आत्मिक आनंद बसा पहचान लेता है।4।11।62। आसा महला ५ ॥ जिसु नीच कउ कोई न जानै ॥ नामु जपत उहु चहु कुंट मानै ॥१॥ दरसनु मागउ देहि पिआरे ॥ तुमरी सेवा कउन कउन न तारे ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै निकटि न आवै कोई ॥ सगल स्रिसटि उआ के चरन मलि धोई ॥२॥ जो प्रानी काहू न आवत काम ॥ संत प्रसादि ता को जपीऐ नाम ॥३॥ साधसंगि मन सोवत जागे ॥ तब प्रभ नानक मीठे लागे ॥४॥१२॥६३॥ {पन्ना 386} पद्अर्थ: नीच कउ = छोटी जाति वाले मनुष्य को। न जानै = नहीं जानता पहचानता, किसी गिनती में नहीं गिनता। चहु कुंट = चारों तरफ, सारे संसार में। मानै = माना जाता है, आदर पाता है।1। मागउ = मांगूँ, मैं मांगता हूँ। पिआरे = हे प्यारे! क्उन कउन = किस किस को, हरेक को।1। रहाउ। निकटि = नजदीक। सगल = सारी। उआ के = उसके। मलि = मलमल के। धोई = धोती है।2। संत प्रसादि = गुरू की कृपा से। ता को नाम जपीअै = उसे याद किया जाता है।3। मन = हे मन! नानक = हे नानक!।4। अर्थ: हे प्यारे प्रभू! मैं तेरा दर्शन मांगता हूँ (मुझे अपने दर्शनों की दाति) दे। जिसने तेरी सेवा-भक्ति की उस उस को (तूने अपने दर्शन दे के) संसार-समुंद्र से पार लंघा दिया।1। रहाउ। हे प्रभू! जिस मनुष्य को नीच जाति का समझ के कोई जानता-पहचानता भी नहीं, तेरा नाम जपने की बरकति से सारे जगत में उसका आदर-मान होने लगता है।1। हे प्रभू! (कंगाल जान के) जिस मनुष्य के पास भी कोई नहीं फटकता (तेरा नाम जपने की बरकति से फिर) सारी लुकाई उसके पैर मल-मल के धोने लग पड़ती है। हे प्रभू! जो मनुष्य (पहले) किसी का कोई काम सँवारने के काबिल नहीं था (अब) गुरू की कृपा से (तेरा नाम जपने के कारण) उसे हर जगह याद किया जाता है।3। हे नानक! (कह–) हे मन! साध-संगति में आ के (माया के मोह की नींद में) सोए हुए लोग जाग पड़ते हैं (आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त कर लेते हैं, और) तब उन्हें प्रभू जी प्यारे लगने लग पड़ते हैं।4।12।63। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |