श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ५ ॥ भूपति होइ कै राजु कमाइआ ॥ करि करि अनरथ विहाझी माइआ ॥ संचत संचत थैली कीन्ही ॥ प्रभि उस ते डारि अवर कउ दीन्ही ॥१॥ काच गगरीआ अ्मभ मझरीआ ॥ गरबि गरबि उआहू महि परीआ ॥१॥ रहाउ ॥ निरभउ होइओ भइआ निहंगा ॥ चीति न आइओ करता संगा ॥ लसकर जोड़े कीआ स्मबाहा ॥ निकसिआ फूक त होइ गइओ सुआहा ॥२॥ ऊचे मंदर महल अरु रानी ॥ हसति घोड़े जोड़े मनि भानी ॥ वड परवारु पूत अरु धीआ ॥ मोहि पचे पचि अंधा मूआ ॥३॥ जिनहि उपाहा तिनहि बिनाहा ॥ रंग रसा जैसे सुपनाहा ॥ सोई मुकता तिसु राजु मालु ॥ नानक दास जिसु खसमु दइआलु ॥४॥३५॥८६॥ {पन्ना 392}

पद्अर्थ: भूपति = (भू = धरती। पति = मालिक) राजा। अनरथ = अर्नथ, धक्के, पाप। विहाझी = इकट्ठी कर ली। संचत = एकत्र करते हुए। कीनी = बना ली। प्रभि = प्रभू ने। थैली = (भाव) खजाना। डारि = सुटा के।1।

काच गगरीआ = कच्ची मिट्टी की गागरि। अंभ = अम्भस्, पानी। मझरीआ = बीच। गरबि = अहंकार करके। ऊआ हू महि = उसी (संसार समुंद्र) में ही। परीआ = पड़ जाती है, डूब जाती है।1। रहाउ।

निरभउ = निडर, निधड़क। निहंगा = निसंग, ढीठ। चीति = चिक्त में। करता = करतार। जोड़े = जमा किए। संबाहा = इकट्ठे।2।

अरु = और। हसति = हाथी। जोड़े = कपड़े। मनि भानी = मन भाते। मोहि = मोह में। पचे पचि = पच पच, जल जल के, ख्वार हो हो के। मूआ = आत्मिक मौत मर गया।3।

जिनहि = जिस (परमात्मा) ने। उपाहा = पैदा किया। बिनाहा = नाश कर दिया।4।

अर्थ: (हे भाई! ये मानस शरीर पानी में पड़ी हुई) कच्ची मिट्टी की गागर (जैसा है जो हवा से उछल-उछल के) पानी में ही (गलती जाती है। इस तरह मनुष्य भी) अहंकार कर-करके उसी (संसार-समुंद्र) में ही डूब जाता है (अपना आत्मिक जीवन गर्क कर लेता है)।1। रहाउ।

(हे भाई! अगर किसी ने) राजा बन के राज (का आनंद भी) भोग लिया (लोगों पे) ज्यादतियां कर-कर के माल-धन भी जोड़ लिया, जोड़-जोड़ के (अगर उसने) खजाना (भी) बना लिया (तो भी क्या हुआ?) परमात्मा ने (आखिर) उससे छीन के किसी और को दे दिया (मौत के समय वह अपने साथ तो ना ले जा सका)।1।

(हे भाई! राज के गुमान में यदि वह मौत से) निडर हो गया निधड़क हो गया (यदि उसने) फौजें जमां कर कर के बड़ा सारा लश्कर बना लिया (तो भी क्या हुआ?) जब (आखिरी समय) उसके श्वास निकल गए तो (उसका) शरीर मिट्टी हो गया।2।

(हे भाई! यदि उसको) ऊँचे महल-माढ़ियां (रहने के लिए मिल गए) और (सुंदर) रानी (मिल गई। अगर उसने) हाथी घोड़े (बढ़िया) मन-भाते कपड़े (इकट्ठे कर लिए। यदि वह) पुत्रो-बेटियों वाला बड़े परिवार वाला बन गया, तो भी तो (माया के) मोह में ख्वार हो हो के (वह) माया के मोह में (अंधा हो के) आत्मिक मौत ही सहेड़ बैठा।3।

(हे भाई!) जिस परमात्मा ने (उसे) पैदा किया था उसी ने उसको नाश भी कर दिया। उसके भोगे हुए रंग-तमाशे और मौज-मेले सपने की ही तरह हो गए।

हे दास नानक! (कह–) वही मनुष्य (माया के मोह से) बचा रहता है उसके पास (सदा कायम रहने वाला) राज और धन है जिस पर पति प्रभू दयावान होता है (और जिसे अपने नाम का खजाना बख्शता है)।4।35।86।

आसा महला ५ ॥ इन्ह सिउ प्रीति करी घनेरी ॥ जउ मिलीऐ तउ वधै वधेरी ॥ गलि चमड़ी जउ छोडै नाही ॥ लागि छुटो सतिगुर की पाई ॥१॥ जग मोहनी हम तिआगि गवाई ॥ निरगुनु मिलिओ वजी वधाई ॥१॥ रहाउ ॥ ऐसी सुंदरि मन कउ मोहै ॥ बाटि घाटि ग्रिहि बनि बनि जोहै ॥ मनि तनि लागै होइ कै मीठी ॥ गुर प्रसादि मै खोटी डीठी ॥२॥ अगरक उस के वडे ठगाऊ ॥ छोडहि नाही बाप न माऊ ॥ मेली अपने उनि ले बांधे ॥ गुर किरपा ते मै सगले साधे ॥३॥ अब मोरै मनि भइआ अनंद ॥ भउ चूका टूटे सभि फंद ॥ कहु नानक जा सतिगुरु पाइआ ॥ घरु सगला मै सुखी बसाइआ ॥४॥३६॥८७॥ {पन्ना 392}

पद्अर्थ: इन् सिउ = इस (माया) से। घनेरी = बहुती। जउ मिलिअै = जब इससे साथ बनाएं। गलि = गले से। लागि = लग के। छुटो = छूटा, बचता है। पाई = पैरों पर।1।

जग मोहनी = जगत को मोहने वाली। निरगुन = माया के तीन गुणों से ऊपर रहने वाला प्रभू। वधाई = मन की चढ़ती कला, उत्शाह भरी अवस्था। वजी = बज गई (जैसे बाजा बजता है), प्रबल हो गई।1। रहाउ।

सुंदरि = सुंदरी, मोहनी। बाटि = रास्ते में। घटि = घाट पे, पत्तन पे। ग्रिहि = घर मे। बनि = बन में। जोहै = ताकती है। मनि = मन में। तनि = तन में, दिल में। प्रसादि = कृपा से।2।

अगरक = आगे आगे चलने वाले, चौधरी, मुसाहब। ठगाऊ = ठॅग। उनि = उन (चौधरियों) ने। साधे = काबू कर लिए।3।

मोरै मनि = मेरे मन में। सभि = सारे। फंद = फाहे, जाल।4।

अर्थ: (हे भाई! गुरू की कृपा से जब से) मुझे माया के तीन गुणों के प्रभाच से ऊपर रहने वाला परमात्मा मिला है मेरे अंदर उत्साह भरी अवस्था प्रबल हो गई है, तब से ही मैंने सारे जगत को मोहने वाली माया (के मोह) को त्याग के परे फेंक दिया है।1। रहाउ।

(हे भाई!) अगर इस (माया) से ज्यादा प्रीति करें तो ज्यों-ज्यों इससे साथ बनाते जाते हैं, त्यों-त्यों इससे मोह बढ़ता जाता है। (आखिर) जब ये गले से चिपकी हुई छोड़ती ही नहीं, तब सतिगुरू के चरणों में लग के इससे निजात पाते हैं।1।

(हे भाई! ये माया) ऐसी सुन्दर है कि (मनुष्य के) मन को (तुरन्त) मोह लेती है। रास्ते में (चलते हुए) पत्तन से (गुजरते हुए) घर में (बैठे हुए) जंगल-जंगल में (भटकते हुए भी ये मन को मोहने के लिए) ताक लगाए रखती है। मीठी बन के ये मन में तन में आ चिपकती है। पर मैंने गुरू की कृपा से देख लिया है कि ये बड़ी खोटी है।2।

(हे भाई! कामादिक) उस माया के मुहासब (भी) बड़े ठॅग हैं, माँ हो पिता हो किसी को भी ठगने से नहीं बख्शते। जिन-जिन ने इनके साथ मेल-मुलाकात रखी, उनको इन चौधरियों ने अच्छी तरह बांध लिया, पर मैंने गुरू की कृपा से इन सभी को काबू कर लिया है।3।

हे नानक! जब से मुझे सतिगुरू मिल गए हैं तब से अब मेरे मन में आनंद बना रहता है (मेरे अंदर से इन कामादिक चौधरियों का) डर-भय उतर गया है इनके डाले हुए सारे जाल टूट गए हैं। मैंने अब अपना सारा घर सुखी बसा लिया है (मेरी सारी ज्ञानेन्द्रियों वाला परिवार इनकी मार से बच के आत्मिक आनंद ले रहा है)।4।36।87।

आसा महला ५ ॥ आठ पहर निकटि करि जानै ॥ प्रभ का कीआ मीठा मानै ॥ एकु नामु संतन आधारु ॥ होइ रहे सभ की पग छारु ॥१॥ संत रहत सुनहु मेरे भाई ॥ उआ की महिमा कथनु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ वरतणि जा कै केवल नाम ॥ अनद रूप कीरतनु बिस्राम ॥ मित्र सत्रु जा कै एक समानै ॥ प्रभ अपुने बिनु अवरु न जानै ॥२॥ कोटि कोटि अघ काटनहारा ॥ दुख दूरि करन जीअ के दातारा ॥ सूरबीर बचन के बली ॥ कउला बपुरी संती छली ॥३॥ ता का संगु बाछहि सुरदेव ॥ अमोघ दरसु सफल जा की सेव ॥ कर जोड़ि नानकु करे अरदासि ॥ मोहि संतह टहल दीजै गुणतासि ॥४॥३७॥८८॥ {पन्ना 392}

पद्अर्थ: निकटि = नजदीक। मानो = मानता है। संतन = संतों का। आधारु = आसरा। पग = पैर। छारु = स्वाह, धूड़।1।

रहत = जीवन जुगति, रहिणी। उआ की = उस (रहनी) की। महिमा = उपमा।1। रहाउ।

वरतणि = रोज का आहर। जा कै = जिसके हृदय में। अनद रूप कीरतनु = आनंद स्वरूप प्रभू की सिफत सालाह। बिस्राम = टेक, सहारा। सत्र = शत्रु। समान = बराबर।2।

अघ = पाप। काटनहार = काटने की ताकत वाला। जीअ के दातार = आत्मिक जीवन देने वाले। सूरबीर = सूरमे। बली = बलवान, बहादुर। कउला = माया। बपुरी = बिचारी। संती = संतों ने। छली = वश में कर ली।3।

ता का = उस (संत) का। बाछहि = चाहते हैं। सुरदेव = आकाशीय देवते। अमोघ = व्यर्थ ना जाने वाला। सफल = फल देने वाली। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। मोहि = मुझे। गुणतासि = हे गुणों के खजाने हरी!।4।

अर्थ: हे मेरे भाई! (परमात्मा के) संत की जीवन-जुगति सुन (उसका जीवन इतना ऊँचा है कि) उसका बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता।1। रहाउ।

परमात्मा का भक्त परमात्मा को आठों पहर अपने नजदीक बसता समझता है, जो कुछ परमात्मा करता है उसको मीठा करके मानता है। (हे भाई!) परमात्मा का नाम ही संत-जनों (की जिंदगी) का आसरा (बना रहता) है। संत-जन सबके पैरों की धूड़ बने रहते हैं।1।

(हे भाई! संत वह है) जिसके हृदय में सिर्फ हरि सिमरन का ही आहर टिका रहता है, सदा आनंद में रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह ही (संत की जिंदगी का) सहारा है। (हे भाई! संत वह है) जिसे मित्र और शत्रु एक ही जैसे (मित्र ही) लगते हैं (क्योंकि संत सब जीवों में) अपने प्रभू के बिना किसी और को (बसता) नहीं समझता।2।

(हे भाई! परमात्मा का संत औरों के) करोड़ों ही पाप दूर करने की ताकत रखता है। (हे भाई!) परमात्मा के संत (दूसरों के) दुख दूर करने के योग्य हो जाते हैं वह (लोगों को) आत्मिक जीवन देने की समर्था रखते हैं। (प्रभू के संत विकारों के मुकाबले में) शूरवीर होते हैं, किए वचनों की पालना करते हैं। (संतों की निगाह में ये माया भी बेचारी से प्रतीत होती है) इस बेचारी माया को संतों ने अपने वश में कर लिया होता है।3।

(हे भाई!) परमात्मा के संत का मिलाप आकाशी देवते भी तलाश्ते रहते हैं। संत का दर्शन व्यर्थ नहीं जाता, संत की सेवा जरूर फल देती है।

(हे भाई!) नानक (दोनों) हाथ जोड़ के अरजोई करता है– हे गुणों के खजाने प्रभू! मुझे संत जनों की सेवा की दाति बख्श।4।37।88।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh