श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 393 आसा महला ५ ॥ सगल सूख जपि एकै नाम ॥ सगल धरम हरि के गुण गाम ॥ महा पवित्र साध का संगु ॥ जिसु भेटत लागै प्रभ रंगु ॥१॥ गुर प्रसादि ओइ आनंद पावै ॥ जिसु सिमरत मनि होइ प्रगासा ता की गति मिति कहनु न जावै ॥१॥ रहाउ ॥ वरत नेम मजन तिसु पूजा ॥ बेद पुरान तिनि सिम्रिति सुनीजा ॥ महा पुनीत जा का निरमल थानु ॥ साधसंगति जा कै हरि हरि नामु ॥२॥ प्रगटिओ सो जनु सगले भवन ॥ पतित पुनीत ता की पग रेन ॥ जा कउ भेटिओ हरि हरि राइ ॥ ता की गति मिति कथनु न जाइ ॥३॥ आठ पहर कर जोड़ि धिआवउ ॥ उन साधा का दरसनु पावउ ॥ मोहि गरीब कउ लेहु रलाइ ॥ नानक आइ पए सरणाइ ॥४॥३८॥८९॥ {पन्ना 393} पद्अर्थ: सगल = सारे। जपि = जप के। ऐकै = एक (परमात्मा) का। गाम = गाना। साध का संगु = गुरमुखि की संगति। जिसु = जिस (गुरमुख) को। भेटत = मिल के। रंगु = प्रेम।1। गुर प्रसादि = गुरू की कृपा से। ओइ = (शब्द ‘ओह’ का बहुवचन) अनेकों। जिसु मनि = जिस मनुष्य के मन में। प्रगासा = रोशनी। ता की = उस मनुष्य की। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा, माप, आत्मिक बड़ेपन का माप।1। रहाउ। मजन = स्नान (बहुवचन)। तिसु = उस (मनुष्य) के। तिनि = उस (मनुष्य) ने। पुनीत = पवित्र। जा का = जिस मनुष्य का। थानु = हृदय स्थान। जा के = जिसके हृदय में।2। पतित पुनीत = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाली। पग रेन = चरणों की धूड़। जा कउ = जिस मनुष्य को।3। कर जोड़ि = (दोनों) हाथ जोड़ के। धिआवउ = ध्याऊँ। मोहि = मुझे।4। अर्थ: (हे भाई!) गुरू की कृपा से जिस मनुष्य के मन में प्रभू-नाम सिमरने से (आत्मिक जीवन का) प्रकाश हो जाता है उसकी उच्च आत्मिक अवस्था बयान नहीं की जा सकती, उसका आत्मिक बड़प्पन बताया नहीं जा सकता, वह मनुष्य अनेकों किस्म के आत्मिक आनंद भोगता है।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू की संगति बहुत पवित्र करने वाली है, गुरू को मिलने से परमात्मा का प्रेम (दिल में) पैदा हो जाता है, (गुरू की संगति में रह के) परमात्मा का नाम जपके सारे सुख प्राप्त हो जाते हैं। (हे भाई!) परमात्मा की सिफत सालाह करने में ही और सारे धर्म आ जाते हैं।1। (हे भाई!) गुरू की संगति की बरकति से जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है (नाम की बरकति से) जिस मनुष्य का हृदय-स्थल बहुत पवित्र-निर्मल हो जाता है उसने तो जैसे सारे बर्त-नेम, सारे तीर्थ-स्नान और सारी ही पूजा आदि कर लिए, उसने जैसे वेद-पुराण-स्मृतियां आदि सारे ही धर्म-पुस्तकें सुन लीं।2। (हे भाई! गुरू की कृपा से) जिस मनुष्य को प्रभू-पातशाह मिल जाता है उस मनुष्य की ऊँची आत्मिक अवस्था, उस मनुष्य का आत्मिक बड़प्पन बयान नहीं किया जा सकता, उस मनुष्य के चरणों की धूड़ विकारों में गिरे हुए अनेकों लोगों को पवित्र करने की समर्था रखती है, वह मनुष्य सारे भवनों में शिरोमणी हो जाता है।3। हे नानक! (कह– हे प्रभू! जो गुरसिख, गुरू की कृपा से) तेरी शरण आ पड़े हैं, मुझ गरीब को उनकी संगति में मिला दे (ता कि) मैं उनके दर्शन करता रहूँ और आठों पहर दोनों हाथ जोड़ के तेरा ध्यान धरता रहूँ।4।38।89। आसा महला ५ ॥ आठ पहर उदक इसनानी ॥ सद ही भोगु लगाइ सुगिआनी ॥ बिरथा काहू छोडै नाही ॥ बहुरि बहुरि तिसु लागह पाई ॥१॥ सालगिरामु हमारै सेवा ॥ पूजा अरचा बंदन देवा ॥१॥ रहाउ ॥ घंटा जा का सुनीऐ चहु कुंट ॥ आसनु जा का सदा बैकुंठ ॥ जा का चवरु सभ ऊपरि झूलै ॥ ता का धूपु सदा परफुलै ॥२॥ घटि घटि स्मपटु है रे जा का ॥ अभग सभा संगि है साधा ॥ आरती कीरतनु सदा अनंद ॥ महिमा सुंदर सदा बेअंत ॥३॥ जिसहि परापति तिस ही लहना ॥ संत चरन ओहु आइओ सरना ॥ हाथि चड़िओ हरि सालगिरामु ॥ कहु नानक गुरि कीनो दानु ॥४॥३९॥९०॥ {पन्ना 393} पद्अर्थ: इसनानी = स्नान करने वाला। उदक = पानी। सद = सदा। सुगिआनी = (हरेक के दिल की) अच्छी तरह जानने वाला, हरि, सालिग राम। बिरथा = व्यथा, पीड़ा, दुख। काहू = किसी की। बहुरि बहुरि = बार बार। लागह = हम लगते हैं। पाई = पैरो पर। तिसु पाई = उस (सालिगराम) के पैरों पर।1। सालिगराम = नैपाल के दक्षण में बहती नदी गण्डका में गाँव सालग्राम के नजदीक धारीदार और गोल छोटे-छोटे पत्थर निकलते हैं। उन्हें विष्णु की मूर्ति माना जा रहा है। उस गाँव के नाम पे उस का नाम भी सालिग्राम रखा गया है। हमारै = हमारे घर में, हमारे वास्ते। सेवा = प्रभू की सेव भक्ति। अरचा = चंदन आदि सुगंधि की भेटा। बंदन = नमस्कार।1। रहाउ। जा का = जिस (हरि = सालिगराम) का। चहुकुंट = चारों तरफ, सारे जगत में। परफुलै = फूल देती है।2। घटि घटि = हरेक शरीर में। संपटु = वह डब्बा जिसमें ठाकुर रखे जाते हैं। रे = हे भाई! अभग = ना नाश होने वाली। संगि = साथ। महिमा = वडिआई।3। जिसहि परापति = जिसके भाग्यों में उसकी प्राप्ति लिखी हुई है। तिस ही = उसे ही। हाथ चढ़ियो = मिल गया। गुरि = गुरू ने।4। अर्थ: (हे पण्डित!) परमात्मा-देव की सेवा-भक्ति हमारे घर में सलिगराम (की पूजा) है। (हरि-नाम-सिमरन ही हमारे वास्ते सालिगराम की) पूजा, सुगंधि भेट व नमस्कार है।1। रहाउ। (हे पण्डित!) हम उस (हरी-सालिगराम) के पैरों में बारंबार पड़ते हैं जो किसी की भी दर्द-पीड़ा नहीं रहने देता। वह (जलों-थलों में हर जगह बसने वाला हरी सालिगराम) आठों पहर ही पानियों का स्नान करने वाला है, हरेक के दिल की अच्छी तरह जानने वाला वह हरि-सालिगराम (सब जीवों के अंदर बैठ के) सदा ही भोग लगाता रहता है (पदार्थ छकता रहता है)।1। (हे पण्डित!) उस (हरि-सालिग्राम की रजा) का घण्टा (सिर्फ मन्दिर में सुने जाने की जगह) सारे जगत में ही सुना जाता है। (साध-संगति रूप) बैकुंठ में उसका निवास सदा ही टिका रहता है, सब जीवों पर उसका (पवन) -चक्र झूल रहा है, (सारी बनस्पति) सदैव फूल दे रही है यही है उसके वास्ते धूप।2। (हे पण्डित!) हरेक शरीर में वह बस रहा है, हरेक का हृदय ही उसका (ठाकुरों वाला) डब्बा है, उसकी संत-सभा कभी खत्म होने वाली नहीं है, साध-संगति में वह हर वक्त बसता है, जहाँ उसकी सदा आनन्द देने वाली सिफत सालाह हो रही है, ये सिफत सालाह उसकी ही आरती है, उस बेअंत और सुंदर (हरी-सालिगराम) की सदा महिमा हो रही है।3। (पर, हे पण्डित!) जिस मनुष्य के भाग्यों में उस (हरी-सालिगराम) की प्राप्ति लिखी है उसी को वह मिलता है, वह मनुष्य संतों क चरणों में लगता है वह संतों के शरण पड़ा रहता है। हे नानक! कह– जिस मनुष्य को गुरू ने (नाम की) दाति बख्शी, उसे हरी-सालिगराम मिल जाता है।4।39।90। आसा महला ५ पंचपदा१ ॥ जिह पैडै लूटी पनिहारी ॥ सो मारगु संतन दूरारी ॥१॥ सतिगुर पूरै साचु कहिआ ॥ नाम तेरे की मुकते बीथी जम का मारगु दूरि रहिआ ॥१॥ रहाउ ॥ जह लालच जागाती घाट ॥ दूरि रही उह जन ते बाट ॥२॥ जह आवटे बहुत घन साथ ॥ पारब्रहम के संगी साध ॥३॥ चित्र गुपतु सभ लिखते लेखा ॥ भगत जना कउ द्रिसटि न पेखा ॥४॥ कहु नानक जिसु सतिगुरु पूरा ॥ वाजे ता कै अनहद तूरा ॥५॥४०॥९१॥ {पन्ना 393} नोट: पंचपदा–पाँच बंदों वाला एक शबद। पद्अर्थ: जिह पैडै = जिस रास्ते में। पनिहारी = पानी भरने वाली, कामादिक विकारों का पानी भरने वाली, विकारों में फसी हुई जीव स्त्री। मारगु = रास्ता।1। साचु = सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा का नाम। मुकते = खुली। बीथी = वीथी, गली।1। जह = जहाँ। जागाती = मसूलिया। घाट = पत्तन। बाट = वाट, रास्ता।2। आवटे = आवर्क्तए, दुखी होते हैं। घन = बहुत। साथ = काफले। संगी = साथी।3। चित्र गुपतु = जीवों के कर्मों के गुप्त चित्र लिखने वाले। कउ = को। द्रिसटि न पेखा = निगाह मार के भी नहीं देख सकते।4। ता कै = उसके हृदय में। अनहद = एक रस। तूरा = बाजे।5। अर्थ: हे प्रभू! पूरे गुरू ने जिस मनुष्य को तेरा सदा स्थिर रहने वाला उपदेश दे दिया, जम दूतों (आत्मिक मौत) वाला रास्ता उस मनुष्य से दूर किनारे रह जाता है उसको तेरे नाम की बरकति से जीवन-सफर में खुला रास्ता मिल जाता है।1। रहाउ। (हे भाई!) विकारों में फंसी हुई जीव-स्त्री जिस जीवन-रास्ते में (आत्मिक जीवन की राशि-पूँजी) लुटा बैठती है, वह रास्ता संत-जनों से दूर रह जाता है।1। (हे भाई!) जहाँ लालची महसूलिए का पत्तन है (जहाँ जम-महसूलिये किए कर्मों के बारे में फटकार लगाते हैं) वह रास्ता संत-जनों से परे रह जाता है।2। (हे भाई!) जिस जीवन-यात्रा में (माया में ग्रसित जीवों के) अनेकों ही काफले (किए मंद-कर्मों के कारण) दुखी होते रहते हैं, गुरमुखि मनुष्य (उस सफर में) परमात्मा के सत्संगी बने रहते हैं (इस करके गुरमुखों को कोई दुख नहीं व्याप्ता)।3। (हे भाई! माया ग्रसित जीवों के किए कर्मों का लेखा लिखने वाले) चित्र-गुप्त सब जीवों के किए कर्मों का हिसाब लिखते रहते हैं, पर परमात्मा की भक्ति करने वाले लोगों की तरफ वे आँख उठा के भी नहीं देख सकते।4। हे नानक! कह– जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है उसके हृदय में सदा प्रभू की सिफत सालाह के एक-रस बाजे बजते रहते हैं (इस वास्ते) उसे विकारों की प्रेरना नहीं सुनती।5।40।91। आसा महला ५ दुपदा १ ॥ साधू संगि सिखाइओ नामु ॥ सरब मनोरथ पूरन काम ॥ बुझि गई त्रिसना हरि जसहि अघाने ॥ जपि जपि जीवा सारिगपाने ॥१॥ करन करावन सरनि परिआ ॥ गुर परसादि सहज घरु पाइआ मिटिआ अंधेरा चंदु चड़िआ ॥१॥ रहाउ ॥ लाल जवेहर भरे भंडार ॥ तोटि न आवै जपि निरंकार ॥ अम्रित सबदु पीवै जनु कोइ ॥ नानक ता की परम गति होइ ॥२॥४१॥९२॥ {पन्ना 393} पद्अर्थ: साधू = गुरू। संगि = संगति में। सरब = सारे। काम = काम। पूरन = पूरे हो जाते हैं। जसहि = यश में, सिफतसालाह में। अघाने = तृप्त रहते हैं। जीवा = मैं जीता हूँ। सारिगपाने = (सारंग = धनुष। पानि, पाणि, हाथ। जिसके हाथ में धनुष है, जो सब का नाश करने वाला भी है) परमात्मा।1। परसादि = प्रसादि, कृपा से। सहज = आत्मिक अडोलता।1। लाल = हीरे। भंडार = खजाने। जपि = जप के। अंम्रित = आत्मिक जीवन देने वाला जल। जनु कोइ = जो भी मनुष्य। परम गति = सबसे उच्च आत्मिक आवस्था।2। अर्थ: (हे भाई! जो भी मनुष्य) गुरू की किरपा से उस परमात्मा की शरण पड़ जाता है (जो सब कुछ करने व सब कुछ कराने की ताकत रखने वाला है) वह मनुष्य वह आत्मिक ठिकाना तलाश लेता है, जहाँ उसे आत्मिक अडोलता मिली रहती है। (उसके अंदर से माया के मोह का) अंधेरा दूर हो जाता है (उसके अंदर, मानो) चंद्रमा चढ़ जाता है (आत्मिक जीवन की रौशनी हो जाती है)।1। (हे भाई! जिन मनुष्यों को) गुरू अपनी संगति में रख के परमात्मा का नाम सिमरन सिखाता है, उनके सारे मनोरथ, सारे काम सफल हो जाते हैं (उनके अंदर से तृष्णा की आग) बुझ जाती है, वह परमात्मा की सिफत-सालाह में टिक के (माया की ओर से) तृप्त रहते हैं। (हे भाई!) मैं ज्यों-ज्यों परमात्मा का नाम जपता हूँ, मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा होता है।1। हे नानक! (उच्च आत्मिक जीवन वाले गुण, मानो) हीरे जवाहरात हैं, परमात्मा का नाम जप-जप के मनुष्य के अंदर इनके खजाने भर जाते हैं और कभी इनकी कमी नहीं रहती। गुरू का शबद आत्मिक जीवन देने वाला जल (अमृत) है, जो भी मनुष्य ये नाम-जल पीता है उसकी सबसे उच्च आत्मिक अवस्था बन जाती है।2।41।92। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |