श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 394 आसा घरु ७ महला ५ ॥ हरि का नामु रिदै नित धिआई ॥ संगी साथी सगल तरांई ॥१॥ गुरु मेरै संगि सदा है नाले ॥ सिमरि सिमरि तिसु सदा सम्हाले ॥१॥ रहाउ ॥ तेरा कीआ मीठा लागै ॥ हरि नामु पदारथु नानकु मांगै ॥२॥४२॥९३॥ {पन्ना 394} पद्अर्थ: रिदै = हृदय में। धिआई = मैं ध्याऊँ। सगल = सारे। तरांई = मैं पार लांघ जाऊँ।1। संगि = साथ। तिसु = उस (परमात्मा) को। समाले = संभालूँ, मैं हृदय में टिका के रखूँ।1। रहाउ। नानकु मांगै = नानक माँगता है।2। अर्थ: (हे भाई! मेरा) गुरू सदा मेरे साथ बसता है मेरे अंग-संग रहता है (प्रभू की कृपा से) मैं उस (परमात्मा) को सदा सिमर के सदा अपने दिल में बसाए रखता हूँ।1। (हे भाई! अंग-संग बसते गुरू की ही कृपा से) मैं परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में ध्याता हूँ (इस तरह मैं संसार-समुंद्र से पार लांघने के योग्य हो रहा हूँ) अपने संगियों-साथियों (ज्ञानेन्द्रियों) को पार लंघाने के काबिल बन रहा हूँ।1। (हे प्रभू! ये तेरे मिलाए हुए गुरू की मेहर ही है कि) मुझे तेरा किया हुआ हरेक काम अच्छा लग रहा है और (तेरा दास) नानक तेरे से (तेरी) सबसे कीमती वस्तु तेरा नाम मांग रहा है।2।42।93। आसा महला ५ ॥ साधू संगति तरिआ संसारु ॥ हरि का नामु मनहि आधारु ॥१॥ चरन कमल गुरदेव पिआरे ॥ पूजहि संत हरि प्रीति पिआरे ॥१॥ रहाउ ॥ जा कै मसतकि लिखिआ भागु ॥ कहु नानक ता का थिरु सोहागु ॥२॥४३॥९४॥ {पन्ना 394} पद्अर्थ: साधू = गुरू। मनहि = मन का। आधारु = आसरा।1। चरन कमल = कमल फूल जैसे सुंदर कोमल चरण। पूजहि = पूजते हैं। पिआरे = प्यार से।1। रहाउ। मसतकि = माथे पर। सोहागु = अच्छे भाग्य। थिरु = सदा कायम रहने वाला।2। अर्थ: (हे भाई!) हरी के संत जन, प्रीति से प्यार से गुरदेव के सुंदर कोमल चरण पूजते रहते हैं।1। रहाउ। हे भाई! (जो भी मनुष्य निम्रता धार के गुरू की संगति करता है) गुरू की संगति की बरकति से वह संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है (क्योंकि) परमात्मा का नाम उसके मन का आसरा बना रहता है।1। हे नानक! जिस मनुष्य के माथे पे (पूर्बले जन्मों के कर्मों के) लिखे लेख जाग पड़ते हैं उसको मिली ये सौभाग्यता (गुरू की संगति की बरकति से) सदैव कायम रहती है।2।43।94। नोट: नं: 92, 93 और 94 ये तीन शबद दो–दो बंदों वाले हैं। आसा महला ५ ॥ मीठी आगिआ पिर की लागी ॥ सउकनि घर की कंति तिआगी ॥ प्रिअ सोहागनि सीगारि करी ॥ मन मेरे की तपति हरी ॥१॥ भलो भइओ प्रिअ कहिआ मानिआ ॥ सूखु सहजु इसु घर का जानिआ ॥ रहाउ ॥ हउ बंदी प्रिअ खिजमतदार ॥ ओहु अबिनासी अगम अपार ॥ ले पखा प्रिअ झलउ पाए ॥ भागि गए पंच दूत लावे ॥२॥ ना मै कुलु ना सोभावंत ॥ किआ जाना किउ भानी कंत ॥ मोहि अनाथ गरीब निमानी ॥ कंत पकरि हम कीनी रानी ॥३॥ जब मुखि प्रीतमु साजनु लागा ॥ सूख सहज मेरा धनु सोहागा ॥ कहु नानक मोरी पूरन आसा ॥ सतिगुर मेली प्रभ गुणतासा ॥४॥१॥९५॥ {पन्ना 394} पद्अर्थ: पिर की = प्रभू पति की। आगिआ = रजा। सउकनि घर की = मेरे हृदय घर में बसती सौकन। सउकनि = पति के मिलाप में रोक डालने वाली माया। कंति = कंत ने। तिआगी = खलासी कर दी है। सीगारि करी = मुझे सोहणी बना दिया है। तपसि = तपश। हरी = हर ली, दूर कर दी है।1। भलो भइओ = अच्छा हुआ, मेरे भाग्य जाग पड़े। प्रिअ कहिआ = प्यारे का हुकम। सहजु = आत्मिक अडोलता। इसु घर का = इस हृदय घर का।1। रहाउ। हउ = मैं। बंदी = दासी। खिजमतदार = सेवा करने वाली। ओहु = वह प्रभू पति। अगम = अपहुँच। अपार = बेअंत। ले = लेकर। झलउ = मैं झलती हूँ। पाऐ = पैरों में (खड़े हो के)। दूत = वैरी। लावै = काटे, (आत्मिक जीवन को) काटने वाले।2। कुलु = ऊँचा खानदान। किआ जाना = मैं क्या जानूँ? किउ = किस तरह? भानी = पसंद आई। मोहि = मुझे। कंत = कंत ने। कीनी = बना ली।3। मुखि लागा = मुंह पर लगा, दिखा, दर्शन हुए। धनु = धन्य, भाग्यशाली। मोरी = मेरी। सतिगुर = सतिगुर ने। गुणतासा = गुणों का खजाना।4। अर्थ: (हे सखी!) मेरे भाग्य जाग गए हैं (कि गुरू की कृपा से) मैंने प्यारे (प्रभू पति) की रजा (मीठी कर के) माननी आरम्भ कर दी है, अब मेरे इस हृदय घर में बसते सुख और आत्मिक अडोलता से मेरी गहरी सांझ बन गई है।1। रहाउ। (हे सखी! गुरू की कृपा से जब से) मुझे प्रभू पति की रजा मीठी लग रही है (तब से) प्रभू-पति ने मेरा हृदय-घर कब्जा करके बैठी मेरी सौतन (माया) से मेरी खलासी करा दी है। प्यारे ने सोहागनि बना के मुझे (मेरे आत्मिक जीवन को) सुंदर बना दिया है, और मेरे मन की (तृष्णा की) तपस दूर कर दी है।1। (हे सखी! अब) मैं प्यारे प्रभू-पति की दासी बन गई हूँ सेवादारनी बन गई हूँ। (हे सखी! मेरा) वह (पति) कभी मरने वाला नहीं, अपहुँच और बेअंत है। (हे सखी! गुरू की कृपा से जब से) पंखा (हाथ में) पकड़ के उसके पैरों में खड़े हो के मैं उस प्यारे को झलती रहती हूँ (तब से मेरे आत्मिक जीवन की जड़ें) काटने वाले कामादिक पाँचों विकार भाग गए हैं।2। (हे सखी!) मेरा ना कोई ऊँचा खानदान है, ना (किसी गुण की बरकति से) मैं शोभा की मालिक हूँ, मुझे पता नहीं कि मैं कैसे प्रभू-पति को अच्छी लग रही हूँ। (हे सखी! ये गुरू पातशह ही की मेहर है कि) मुझ अनाथ को, गरीबनी को, निमाणी को, कंत प्रभू ने (बाँह से) पकड़ के अपनी रानी बना लिया है।3। (हे सहेलिए! जब से) मुझे मेरा सज्जन प्रीतम मिला है, मेरे अंदर आनंद बन रहा है आत्मिक अडोलता पैदा हो गई है, मेरे भाग्य जाग पड़े हैं। हे नानक! कह– (हे सखिए! प्रभू-पति के मिलाप की) मेरी आस पूरी हो गई है, सतिगुरू ने ही मुझे गुणों के खजाने उस प्रभू से मिलाया है।4।1।95। नोट: शबद नं: 94 से फिर चार बंदों वाले शबद शुरू हो गए हैं। आसा महला ५ ॥ माथै त्रिकुटी द्रिसटि करूरि ॥ बोलै कउड़ा जिहबा की फूड़ि ॥ सदा भूखी पिरु जानै दूरि ॥१॥ ऐसी इसत्री इक रामि उपाई ॥ उनि सभु जगु खाइआ हम गुरि राखे मेरे भाई ॥ रहाउ ॥ पाइ ठगउली सभु जगु जोहिआ ॥ ब्रहमा बिसनु महादेउ मोहिआ ॥ गुरमुखि नामि लगे से सोहिआ ॥२॥ वरत नेम करि थाके पुनहचरना ॥ तट तीरथ भवे सभ धरना ॥ से उबरे जि सतिगुर की सरना ॥३॥ माइआ मोहि सभो जगु बाधा ॥ हउमै पचै मनमुख मूराखा ॥ गुर नानक बाह पकरि हम राखा ॥४॥२॥९६॥ {पन्ना 394} पद्अर्थ: माथै = माथे पे। त्रिकुटी = तिउड़ी। करूरि = गुस्से भरी। फूड़ि = खरवीं।1। रामि = राम ने, परमात्मा ने। उपाई = पैदा की। उनि = उस (स्त्री) ने। हम = मुझे। गुरि = गुरू ने।1। रहाउ। ठगउरी = ठॅग बूटी, वह नशीली बूटी जो खिला के ठॅग भोले राहगीरों को ठॅग लिया करते हैं। जोहिआ = ताक में दृष्टि में रखा हुआ है। मोहिआ = मोह में फसा लिया। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ कर। नामि = नाम में। से = वह लोग। सोहिआ = सोहने बन गए।2। क्रि = कर के। पुनह चरना = पुनह आचरण, प्रायश्चित, पछतावे के तौर पर किए हुए धार्मिक कर्म। तट = नदी का किनारा। धरना = धरती। उबरे = (माया के पंजे से) बचे। जि = जो।3। मेहि = मोह में। पचै = ख्वार होता है। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाला। गुर = हे गुरू!4। अर्थ: हे मेरे भाई! परमात्मा ने (माया) एक ऐसा स्त्री पैदा की हुई है कि उसने सारे जगत को खा लिया है (अपने काबू में किया हुआ है), मुझे तो गुरू ने (उस माया स्त्री से) बचा के रखा है।1। रहाउ। (हे भाई! उस माया-स्त्री के) माथे पे त्रिकुटी (पड़ी रहती) है उसकी निगाह गुस्से से भरी रहती है वह (सदा) कड़वा बोलती है, जीभ भी कटु है (सारे जगत के आत्मिक जीवन को हड़प करके भी) वह भूखी की भूखी रहती है (जगत में आ रहे सब जीवों को हड़पने को तैयार रहती है) वह (माया-स्त्री) प्रभू-पति को कहीं दूर बसता समझती है (प्रभू-पति की परवाह ही नहीं करती)।1। (हे भाई! माया-स्त्री ने) ठॅगबूटी खिला के सारे जगत को अपनी ताक में रखा हुआ है। (जीव की भी क्या बिसात? उसने तो) ब्रहमा को, विष्णु को, शिव को अपने मोह में फंसाया हुआ है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के परमात्मा के नाम में जुड़े रहते हैं (उससे बच के) सोहने आत्मिक जीवन वाले बने रहते हैं।2। (हे भाई! अनेकों लोग) वर्त रख-रख के धार्मिक नियम निबाह-निबाह के और (किए पापों के प्रभाव मिटाने के लिए) पछतावे के तौर पर धार्मिक रस्में कर-कर के थक गए, अनेकों तीर्थों पर सारी धरती पर भटक चुके (पर इस माया-स्त्री से ना बच सके)। (हे भाई!) सिर्फ वही लोग बचते हैं जो गुरू की शरण पड़ते हैं।3। (हे भाई!) सारा जगत माया के मोह में बंधा पड़ा है। अपने मन के पीछे चलने वाला मूर्ख मनुष्य अहंकार में दुखी होता रहता है। हे नानक! (कह–) हे गुरू! मुझे तूने ही मेरी बाँह पकड़ के (इसके पँजे से) बचाया है।4।2।96। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |