श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 407 आसा महला ५ ॥ गुरहि दिखाइओ लोइना ॥१॥ रहाउ ॥ ईतहि ऊतहि घटि घटि घटि घटि तूंही तूंही मोहिना ॥१॥ कारन करना धारन धरना एकै एकै सोहिना ॥२॥ संतन परसन बलिहारी दरसन नानक सुखि सुखि सोइना ॥३॥४॥१४४॥ {पन्ना 407} पद्अर्थ: गुरहि = गुरू ने। लोइना = (इन) आँखों से।1। रहाउ। ईतहि = इस लोक में। ऊतहि = उस लोक में। घटि घटि = हरेक शरीर में। मोहिना = हे मोहन प्रभू! ।1। कारन करना = जगत का मूल रचने वाला। धरना = सृष्टि। सोहिना = हे सोहणे प्रभू!।2। परसन = छूने। सुखि = सुख में। सोइना = लीनता।3। अर्थ: (हे मोहन प्रभू!) गुरू ने मुझे इन आँखो से तेरे दर्शन करा दिए हैं।1। रहाउ। (अब) हे मोहन! इस लोक में, परलोक में, हरेक शरीर में, हरेक हृदय में (मुझे) तू ही दिख रहा है।1। (अब) हे सोहाने प्रभू! (मुझे यकीन हो गया है कि) एक तू ही सारे जगत का मूल रचने वाला है, एक तू ही सारी सृष्टि को सहारा देने वाला है।2। हे नानक! (कह–हे मोहन प्रभू!) मैं तेरे संतों के चरण छूता हूँ उनके दर्शनों से सदके जाता हूँ। (संतों की कृपा से ही तेरा मिलाप होता है, और) सदा के लिए आत्मिक आनंद में लीनता प्राप्त होती है।3।4।144। आसा महला ५ ॥ हरि हरि नामु अमोला ॥ ओहु सहजि सुहेला ॥१॥ रहाउ ॥ संगि सहाई छोडि न जाई ओहु अगह अतोला ॥१॥ प्रीतमु भाई बापु मोरो माई भगतन का ओल्हा ॥२॥ अलखु लखाइआ गुर ते पाइआ नानक इहु हरि का चोल्हा ॥३॥५॥१४५॥ {पन्ना 407} पद्अर्थ: अमोला = जो किसी भी मूल्य से ना मिल सके। ओहु = वह (मनुष्य)। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुहेला = आसान।1। रहाउ। संगि = साथ। सहाई = साथी। ओहु = वह (परमात्मा)। अगाह = जो पकड़ा ना जा सके।1। मोरो = मेरा। ओला = सहारा।2। अलखु = जिस का सही स्वरूप समझ में ना आ सके। गुर ते = गुरू से। चोला = चोहल, अजब करिश्में।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा का अमोलक नाम प्राप्त हो जाता है वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिका रहता है वह मनुष्य आसान जीवन व्यतीत करता है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा ही सदा साथ रहने वाला साथी है, वह कभी छोड़ के नहीं जाता, पर वह (किसी चतुराई-समझदारी से) वश में नहीं आता उसके बराबर और कोई नहीं है।1। हे भाई! वह परमात्मा ही मेरा प्रीतम है मेरा भाई है मेरा पिता है और मेरी माँ है, वह परमात्मा ही अपने भक्तों (की जिंदगी) का सहारा है।2। हे नानक! (कह– हे भाई!) उस परमात्मा का सही स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता, गुरू ने मुझे उसकी समझ बख्श दी है, गुरू से मैंने उसका मिलाप हासिल किया है। ये उस परमात्मा का एक अजब तमाशा है (कि वह गुरू के द्वारा मिल जाता है)।3।4।145। आसा महला ५ ॥ आपुनी भगति निबाहि ॥ ठाकुर आइओ आहि ॥१॥ रहाउ ॥ नामु पदारथु होइ सकारथु हिरदै चरन बसाहि ॥१॥ एह मुकता एह जुगता राखहु संत संगाहि ॥२॥ नामु धिआवउ सहजि समावउ नानक हरि गुन गाहि ॥३॥६॥१४६॥ {पन्ना 407} पद्अर्थ: निबाहि = सदा वास्ते दिए रख। ठाकुर = हे ठाकुर! आहि = तमन्ना करके।1। रहाउ। पदारथु = कीमती चीज। सकारथु = सफल कामयाब। बसाहि = बसाए रख।1। मुकता = मुक्ति। जुगता = युक्ति। संगाहि = संगति में।2। धिआवउ = मैं सिमरता हूँ। सहजि = आत्मिक अडोलता में। गाहि = गाह के, डुबकी लगा के।3। अर्थ: हे मेरे मालिक! मैं तमन्ना करके (तेरी शरण) आया हूँ, मुझे अपनी भक्ति सदा दिए रख।1। रहाउ। हे मेरे मालिक! अपने चरण मेरे दिल में बसाए रख, मुझे अपना कीमती नाम दिये रख, ता कि मेरा जीवन सफल हो जाए।1। हे मेरे मालिक! मुझे अपने संतों की संगति में रखे रख, यही मेरे वास्ते मुक्ति है, और यही मेरे वास्ते जीवन-युक्ति है।2। हे नानक! (कह–) हे हरी! (मेहर कर) तेरे गुणों में डुबकी लगा के मैं तेरा नाम सिमरता रहूँ और आत्मिक अडोलता में टिका रहूँ।3।6।146। आसा महला ५ ॥ ठाकुर चरण सुहावे ॥ हरि संतन पावे ॥१॥ रहाउ ॥ आपु गवाइआ सेव कमाइआ गुन रसि रसि गावे ॥१॥ एकहि आसा दरस पिआसा आन न भावे ॥२॥ दइआ तुहारी किआ जंत विचारी नानक बलि बलि जावे ॥३॥७॥१४७॥ {पन्ना 407} पद्अर्थ: सुहावे = सुख देने वाले, सोहने। पावे = प्राप्त किए।1। रहाउ। आपु = स्वै भाव। रसि = रस से, आनंद से। गावे = गाए हैं।1। ऐकहि = एक (परमात्मा) की ही। पिआसा = चाहत। आन = कुछ और।2। नानक = हे नानक! ।3। अर्थ: (हे भाई!) मालिक प्रभू के चरण सोहणे हैं, पर प्रभू के संतों को (इनका मिलाप) प्राप्त होता है।1। रहाउ। (हे भाई! परमात्मा के संत) स्वैभाव दूर करके परमातमा की सेवा-भक्ति करते हैं और उसके गुण बड़े आनंद से गाते रहते हैं।1। (हे भाई! परमात्मा के संतों को) एक परमात्मा की (सहायता की) ही आशा टिकी रहती है, उन्हें परमात्मा के दर्शनों की चाहत लगी रहती है (इसके बिना) कोई और (दुनियावी आशाएं) अच्छी नहीं लगती।2। हे नानक! (कह– हे प्रभू! तेरे संतों के हृदय में तेरे चरणों का प्रेम होना-ये) तेरी ही मेहर है (नहीं तो) बिचारे जीवों का क्या जोर है। हे प्रभू! मैं तुझसे कुर्बान जाता हूँ।3।7।147। आसा महला ५ ॥ एकु सिमरि मन माही ॥१॥ रहाउ ॥ नामु धिआवहु रिदै बसावहु तिसु बिनु को नाही ॥१॥ प्रभ सरनी आईऐ सरब फल पाईऐ सगले दुख जाही ॥२॥ जीअन को दाता पुरखु बिधाता नानक घटि घटि आही ॥३॥८॥१४८॥ {पन्ना 407} पद्अर्थ: मन माही = मन में।1। रहाउ। रिदै = हृदय में। को = कोई (और)।1। आईअै = आना चाहिए। सगले = सारे। जाही = जाते हैं, दूर हो जाते हैं।2। को = का। बिधाता = सृजनहार। घटि घटि = हरेक घट में। आही = है।3। अर्थ: (हे भाई! अपने) मन में एक परमात्मा को सिमरता रह।1। रहाउ। (हे भाई!) परमात्मा का नाम सिमरा करो, हरि-नाम अपने दिल में बसाए रखो। परमात्मा के बिना और कोई (सहायता करने वाला) नहीं है।1। (हे भाई!) आओ, परमात्मा की शरण पड़े रहें (और परमात्मा से) सारे फल हासिल करें। (परमात्मा की शरण पड़ने से) सारे दुख दूर हो जाते हैं।2। हे नानक! (कह–) सृजनहार अकाल-पुरख सब जीवों को दातें देने वाला है, वह हरेक शरीर में मौजूद है।3।8।148। आसा महला ५ ॥ हरि बिसरत सो मूआ ॥१॥ रहाउ ॥ नामु धिआवै सरब फल पावै सो जनु सुखीआ हूआ ॥१॥ राजु कहावै हउ करम कमावै बाधिओ नलिनी भ्रमि सूआ ॥२॥ कहु नानक जिसु सतिगुरु भेटिआ सो जनु निहचलु थीआ ॥३॥९॥१४९॥ {पन्ना 407} पद्अर्थ: सो = वह मनुष्य। मूआ = आत्मिक मौत मर गया।1। रहाउ। सुखीआ = सुखी। पावै = प्राप्त कर लेता है।1। राजु = राजा। हउ करम = अहंकार के कर्म। भ्रमि = भ्रम में, वहम में। सूआ = तोता। नलिनी = (वह नलकी जिससे तोते को पकड़ते हैं। एक खाली नलकी किसी सीख आदि में परो के दोनों सिरों पर डंडों आदि का सहारा दे के चरखी सी बना ली जाती है। उसके ऊपर चोगा रखने का प्रबंध किया जाता है। नीचे पानी भरा खुला बरतन रखा जाता है। तोता चोगे की लालच में चरखी के ऊपर बैठता है, वह उस तोते के भार से उलट जाती है। नीचे पानी देख के तोता पानी में गिरने से बचने के लिए नलकी को कस के पकड़े रखता है और पकड़ा जाता है।) 2। भेटिआ = मिल गया। निहचलु = अॅटल आत्मिक जीवन वाला। थीआ = हो गया।3। अर्थ: हे भाई! जिस मनुष्य को परमात्मा की याद भूल गई वह आत्मिक मौत मर गया।1। रहाउ। जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता रहता है, वह सारे (मन-इच्छित) फल हासिल कर लेता है और आसान जीवन गुजारता है।1। (पर, हे भाई! परमात्मा का नाम बिसार के जो मनुष्य अपने आप को) राजा (भी) कहलवाता है वह अहंकार पैदा करने वाले काम (ही) करता है वह (राज के गुरूर में ऐसे) बंधा रहता है जैसे (डूबने से बचे रहने के) वहम में तोता नलकी से चिपका रहता है।2। हे नानक! कह– जिस मनुष्य को सतिगुरू मिल जाता है वह मनुष्य अॅटल आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।3।9।149। आसा महला ५ घरु १४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ओहु नेहु नवेला ॥ अपुने प्रीतम सिउ लागि रहै ॥१॥ रहाउ ॥ जो प्रभ भावै जनमि न आवै ॥ हरि प्रेम भगति हरि प्रीति रचै ॥१॥ प्रभ संगि मिलीजै इहु मनु दीजै ॥ नानक नामु मिलै अपनी दइआ करहु ॥२॥१॥१५०॥ {पन्ना 407-408} पद्अर्थ: नेहु = प्यार। नवेला = नया, सजरा। सिउ = साथ।1। रहाउ। प्रभ भावै = प्रभू को प्यारा लगता है। जनमि = (बार बार) जनम में। रचै = मस्त रहता है।1। संगि = साथ। मिलीजै = मिल सकते हैं। दीजै = अगर दिया जाए। नानक = नानक को।2। अर्थ: हे भाई! जो प्यार प्यारे प्रीतम प्रभू से बना रहता है वह प्यार सदा नया बना रहता है (दुनिया वाले प्यार जल्दी ही फीके पड़ जाते हैं)।1। रहाउ। हे भाई! जो मनुष्य प्रभू को प्यारा लगने लग जाता है (वह उस प्यार की बरकति से बार-बार) जनम में नहीं आता। जिस मनुष्य को हरी का प्रेम प्राप्त हो जाता है हरी की भक्ति प्राप्त हो जाती है वह (सदा) हरी की प्रीति में मस्त रहता है।1। (पर, हे भाई! इस प्यार का मूल्य भी देना पड़ता है) प्रभू (के चरणों) में (तभी) मिल सकते हैं अगर (अपना) ये मन उसके हवाले कर दें, (ये बात परमात्मा की मेहर से ही हो सकती है, इस वास्ते) हे नानक! (अरदास कर और कह– हे प्रभू!) अपनी मेहर कर (ता कि तेरे दास) नानक को तेरा नाम (तेरे नाम का प्यार) प्राप्त हो जाए।2।1।150। नोट: घरु 14 के शबदों का संग्रह आरम्भ हुआ है। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |