श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 406 आसा महला ५ ॥ अगम अगोचरु दरसु तेरा सो पाए जिसु मसतकि भागु ॥ आपि क्रिपालि क्रिपा प्रभि धारी सतिगुरि बखसिआ हरि नामु ॥१॥ कलिजुगु उधारिआ गुरदेव ॥ मल मूत मूड़ जि मुघद होते सभि लगे तेरी सेव ॥१॥ रहाउ ॥ तू आपि करता सभ स्रिसटि धरता सभ महि रहिआ समाइ ॥ धरम राजा बिसमादु होआ सभ पई पैरी आइ ॥२॥ सतजुगु त्रेता दुआपरु भणीऐ कलिजुगु ऊतमो जुगा माहि ॥ अहि करु करे सु अहि करु पाए कोई न पकड़ीऐ किसै थाइ ॥३॥ हरि जीउ सोई करहि जि भगत तेरे जाचहि एहु तेरा बिरदु ॥ कर जोड़ि नानक दानु मागै अपणिआ संता देहि हरि दरसु ॥४॥५॥१४०॥ {पन्ना 406} पद्अर्थ: अलख = हे अपहुँच प्रभू! अगोचरु = (अ+गो+चरु। गो = ज्ञानेन्द्रियां। चरु = पहुँच) जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच नहीं हो सकती। मसतकि = माथे पर। क्रिपालि = कृपालु ने। प्रभि = प्रभू ने। सतिगुरि = सतिगुर ने।1। कलिजुगु = (भाव) कलजुगी जीवों को, विकारी जीवों को। गुरदेव = हे गुरदेव! मल मूत = गंदे। जि = जो। मुघद = मूर्ख। सभि = सारे।1। रहाउं बिसमादु = हैरान। धरता = सहारा देने वाला।2। भणीअै = कहा जाता है। अहि करु = इस हाथ। किसै थाइ = किसी दूसरी जगह।3। करहि = तू करता है। जाचहि = मांगते हैं। बिरदु = मूल प्राकृतिक स्वभाव। कर = (दोनों) हाथ। जोड़ि = जोड़ के। हरि = हे हरी!4। अर्थ: हे सतिगुरु! तूने (तो) कलयुग को भी बचा लिया है (जिसे और युगों से बुरा समझा जाता है, भाव जो भी पहले) गंदे व मूर्ख (थे वह) सारे तेरी सेवा में आ के लगे हैं (तेरी बताई प्रभू की सेवा-भगती करने लग पड़े हैं)।1। रहाउ। हे अपहुँच प्रभू! तू मनुष्यों की ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, तेरे दर्शन वही मनुष्य करता है, जिसके मस्तक के भाग्य जाग पड़ते हैं। (हे भाई! जिस मनुष्य पर) कृपा के घर परमात्मा ने कृपा की निगाह की सतिगुरू ने उसे परमात्मा के नाम (-सिमरन की दाति) बख्श दी।1। हे प्रभू! तू स्वयं सारी सृष्टि को पैदा करने वाला है तू स्वयं (ही) सारी सृष्टि को आसरा देने वाला है, तू स्वयं ही सारी सृष्टि में व्यापक है (फिर कोई युग अच्छा कैसे? और कोई जुग बुरा कैसे? चाहे इस कलियुग को चारों युगों से बुरा कहा जाता है, फिर भी) धर्मराज हैरान हो रहा है (कि गुरू की कृपा से विकारों से हट के) सारी लुकाई तेरे चरणों में जुड़ रही है। (सो, अगर पुराने विचारों की तरफ भी जाएं तो भी ये कलियुग बुरा युग नहीं, और ये जुग जीवों को बुरे-कर्मों की ओर नहीं प्रेरता)।2। हे भाई! सतियुग को, त्रेते को, द्वापर को (अच्छा) युग कहा जाता है (पर, प्रत्यक्ष दिख रहा है कि बल्कि) कलियुग सारे युगों में श्रेष्ठ है (क्योंकि इस जुग में) जो हाथ कोई कर्म करता है, वही हाथ उसका फल भुगतता है। कोई मनुष्य किसी और मनुष्य की जगह (विकारों के कारण) पकड़ा नहीं जाता।3। हे भाई! (कोई भी युग हो, तू अपने भक्तों की लाज सदा रखता आया है) तू वही कुछ करता है जो तेरे भक्त तुझसे मांगते हैं, ये तेरा बिरद है (मूल स्वभाव है)। हे हरी! (तेरा दास नानक भी अपने) दोनों हाथ जोड़ के (तेरे दर से) दान मांगता है कि नानक को अपने संत-जनों का दर्शन दे।4।5।140। रागु आसा महला ५ घरु १३ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सतिगुर बचन तुम्हारे ॥ निरगुण निसतारे ॥१॥ रहाउ ॥ महा बिखादी दुसट अपवादी ते पुनीत संगारे ॥१॥ जनम भवंते नरकि पड़ंते तिन्ह के कुल उधारे ॥२॥ कोइ न जानै कोइ न मानै से परगटु हरि दुआरे ॥३॥ कवन उपमा देउ कवन वडाई नानक खिनु खिनु वारे ॥४॥१॥१४१॥ {पन्ना 406} पद्अर्थ: सतिगुर = हे सतिगुरू! निरगुण = गुण हीन लोग।1। रहाउ। बिखादी = झगड़ालू। अपवादी = बुरे वचन बोलने वाले। ते = वह लोग। संगारे = (तेरी) संगत में।1। नरकि = नर्क में।2। मानै = आदर देता। दुआरे = दर पर।3। देउ = में दूँ। वारे = कुर्बान।4। अर्थ: हे सतिगुरू! तेरे बचनों ने (तेरी शरण पड़े अनेकों) गुण-हीन लोगों को (संसार-समुंद्र से) पार लंघा दिया।1। रहाउ। हे सतिगुरू! तेरी संगति में रह के वे लोग भी पवित्र आचरण वाले बन गए, जो पहले बड़े कटु स्वभाव वाले थे, बुरे आचरण वाले थे और गलत बोल बोलने वाले थे।1। हे सतिगुरु! तूने उन लोगों के कुलों के कुल (विकारों में गिरने से) बचा लिए, जो अनेकों जूनियों में भटकते आ रहे थे और (जनम-मरण के चक्कर के) नर्क में पड़े हुए थे।2। हे सतिगुरू! तेरी मेहर से वे मनुष्य भी प्रभू के दर पर आदर-मान पाने के लायक हो गए, जिन्हें पहले कोई जानता-पहचानता ही नहीं था जिन्हें (जगत में) कोई आदर नहीं था देता।4। हे नानक! (कह– हे सतिगुरू!) मैं तेरे जैसा और किसे कहूँ? मैं तेरी क्या सिफत करूँ? मैं तुझसे हरेक पल कुर्बान जाता हूँ।4।1।141। नोट: यहाँ से घरु 13 के शबदों का संग्रह आरम्भ होता है। देखें अंक1। आसा महला ५ ॥ बावर सोइ रहे ॥१॥ रहाउ ॥ मोह कुट्मब बिखै रस माते मिथिआ गहन गहे ॥१॥ मिथन मनोरथ सुपन आनंद उलास मनि मुखि सति कहे ॥२॥ अम्रितु नामु पदारथु संगे तिलु मरमु न लहे ॥३॥ करि किरपा राखे सतसंगे नानक सरणि आहे ॥४॥२॥१४२॥ {पन्ना 406} पद्अर्थ: बावर = कमले, झल्ले, पागल।1। रहाउ। बिखै रस = विषियों के रस में। मिथिआ गहन गहे = झूठे मैदान फतह करते हैं।2। मिथन मनोरथ = झूठी मनो कामनाएं। उलास = चाव, खुशियां। मनि = मन में। मुखि = मुंह से। सति = सदा कायम रहने वाले।2। अंम्रित नामु = आत्मिक जीवन देने वाला हरि नाम। मरमु = भेद।3। आहे = आए हैं।4। अर्थ: (माया के मोह में) बावरे हुए मनुष्य (गलफ़त की नींद में) सोए रहते हैं।1। रहाउ। (हे भाई! ऐसे लोग) परिवार के मोह और विषियों के स्वादों में मस्त हो के झूठे मैदान मारते रहते हैं।1। (हे भाई! माया के मोह में पागल हुए मन) उन पदार्थों की लालसा करते रहते हैं जिनसे साथ नहीं निभना जो सुपने में प्रतीत हो रहे मौज-मेलों की भांति हैं, (ऐसे लोग) इन पदार्थों को अपने मन में सदा कायम रहने वाला समझते हैं, मुंह से भी उन्हें ही पक्के साथी कहते हैं।2। हे भाई! आत्मिक जीवन देने वाला हरि-नाम ही सदा साथ देने वाला पदार्थ है, पर माया के मोह में झल्ले हुए मनुष्य इस हरि-नाम का भेद तिल भर भी नहीं समझते।3। (जीवों के भी क्या वश?) हे नानक! प्रभू मेहर करके जिन मनुष्यों को साध-संगति में रखता है वही उस प्रभू की शरण में आए रहते हैं।4।2।142। आसा महला ५ तिपदे ॥ ओहा प्रेम पिरी ॥१॥ रहाउ ॥ कनिक माणिक गज मोतीअन लालन नह नाह नही ॥१॥ राज न भाग न हुकम न सादन ॥ किछु किछु न चाही ॥२॥ चरनन सरनन संतन बंदन ॥ सुखो सुखु पाही ॥ नानक तपति हरी ॥ मिले प्रेम पिरी ॥३॥३॥१४३॥ {पन्ना 406-407} पद्अर्थ: प्रेम पिरी = प्यारे का प्रेम।1। रहाउ। कनिक = सोना। माणिक = मोती। गज मातीअन = बड़े बड़े मोती।1। साद = स्वादिष्ट खाने। चाही = मैं चाहता हूँ।2। बंदन = नमस्कार। सुखो सुखु = सुख ही सुख। पाही = मैं पाता हूँ। हरी = हर ली, दूर की।3। अर्थ: (हे भाई! मुझे तो) प्यारे (प्रभू) का वह प्रेम ही (चाहिए)।1। रहाउ। (हे भाई! प्रभू के प्यार के बदले में) सोना, मोती, बड़े बड़े मोती, हीरे लाल- मुझे इनमें से कुछ भी नहीं चाहिए, नहीं चाहिए।1। (हे भाई! प्रभू के प्यार की जगह) ना राज, ना धन-पदार्थ, ना हकूमत ना ही स्वादिष्ट खाने- मुझे किसी भी चीज की जरूरत नहीं।2। हे भाई! संत-जनों के चरणों की शरण, संत-जनों के चरणों पे नमस्कार- मैं इसी में सुख ही सुख अनुभव करता हूँ। हे नानक! अगर प्यारे प्रभू का प्रेम मिल जाए तो वह मन में से तृष्णा की जलन दूर कर देता है।3।3।143। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |