श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 423 आसा महला ३ ॥ सतिगुर हमरा भरमु गवाइआ ॥ हरि नामु निरंजनु मंनि वसाइआ ॥ सबदु चीनि सदा सुखु पाइआ ॥१॥ सुणि मन मेरे ततु गिआनु ॥ देवण वाला सभ बिधि जाणै गुरमुखि पाईऐ नामु निधानु ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुर भेटे की वडिआई ॥ जिनि ममता अगनि त्रिसना बुझाई ॥ सहजे माता हरि गुण गाई ॥२॥ विणु गुर पूरे कोइ न जाणी ॥ माइआ मोहि दूजै लोभाणी ॥ गुरमुखि नामु मिलै हरि बाणी ॥३॥ गुर सेवा तपां सिरि तपु सारु ॥ हरि जीउ मनि वसै सभ दूख विसारणहारु ॥ दरि साचै दीसै सचिआरु ॥४॥ गुर सेवा ते त्रिभवण सोझी होइ ॥ आपु पछाणि हरि पावै सोइ ॥ साची बाणी महलु परापति होइ ॥५॥ गुर सेवा ते सभ कुल उधारे ॥ निरमल नामु रखै उरि धारे ॥ साची सोभा साचि दुआरे ॥६॥ से वडभागी जि गुरि सेवा लाए ॥ अनदिनु भगति सचु नामु द्रिड़ाए ॥ नामे उधरे कुल सबाए ॥७॥ नानकु साचु कहै वीचारु ॥ हरि का नामु रखहु उरि धारि ॥ हरि भगती राते मोख दुआरु ॥८॥२॥२४॥ {पन्ना 423} पद्अर्थ: भरमु = भटकना। निरंजनु = (निर+अंजन) माया की कालिख से रहित। मंनि = मन में। चीनि् = परख के।1। मन = हे मन! ततु = अस्लियत। बिधि = हालत। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। निधानु = खजाना।1। रहाउ। भेटे = मिले। जिनि = जिस (गुरू) ने। ममता = अपनत्व। सहजे = आत्मिक अडोलता में।2। जाणी = जानता। मोहि = मोह में।3। तपां सिरि = सारे तपों के सिर पर। सारु = श्रेष्ठ। मनि = मन में। दरि = दर पे। सचिआरु = सुर्खरू।4। आपु = अपने आत्मिक जीवन को। महलु = प्रभू चरणों में निवास।5। ते = साथ। उधारे = विकारों से बचा लेता है। उरि = हृदय में। साचि दुआरे = सदा स्थिर दर पर।6। जि = जो। गुरि = गुरू ने। अनदिनु = हररोज। कुल = खानदान। सबाऐ = सभी।7। नानकु कहै = नानक कहता है। साचु = अटॅल। धारि = टिका के। मोख दुआर = मुकती का दरवाजा।8। अर्थ: हे मेरे मन! (परमात्मा के बारे में ये) सच्चाई सुन (ये) जानने की बात सुन- वह सारे पदार्थ देने की समर्था वाला परमात्मा हरेक ढंग जानता है। (सारे सुखों का) खजाना (उसका) नाम गुरू की शरण पड़ने से मिलता है।1। रहाउ। (हे भाई!) गुरू ने मेरी भटकना समाप्त कर दी है, निर्लिप प्रभू का नाम मेरे मन में बसा दिया है, जब मैं गुरू के शबद को पहचान के (शबद की कद्र समझ के) सदा टिके रहने वाला आत्मिक आनंद ले रहा हूँ।1। (हे मेरे मन!) गुरू को मिलने (से पैदा हुई) आत्मिक उच्चता (की बात सुन) कि उस गुरू ने (जिस मनुष्य की) अपनत्व दूर कर दी तृष्णा की आग बुझा दी, वह मनुष्य आत्मिक अडोलता में मस्त रह के परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता रहता है।2। (हे मेरे मन!) गुरू को मिले बिना कोई मनुष्य (प्रभू के बारे में तत्व-ज्ञान) नहीं जान सकता (क्योंकि गुरू की शरण पड़े बिना) मनुष्य माया के मोह में और ही लोभों में फसा रहता है। गुरू की शरण पड़े रहने पर ही नाम मिलता है, प्रभू की सिफत-सालाह की बाणी (की कद्र) पड़ती है।3। (हे मेरे मन!) गुरू की बताई सेवा सबसे श्रेष्ठ तप है। सारे दुख दूर करने वाला परमात्मा (गुरू की कृपा से ही) मन में आ बसता है, और मनुष्य सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर सुर्ख-रू दिखता है।4। (हे मेरे मन!) गुरू की बताई सेवा की बरकति से तीनों भवनों में व्यापक परमात्मा की सूझ प्राप्त होती है और वह मनुष्य अपना आत्मिक जीवन पड़ताल के परमात्मा को मिल लेता है। सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी की बरकति से उसे परमात्मा के चरणों में जगह मिल जाती है।5। (हे मेरे मन!) गुरू की बताई सेवा का सदका मनुष्य अपनी सारी कुलों को भी बिकारों से बचा लेता है, मनुष्य परमात्मा के पवित्र नाम को अपने हृदय में टिकाए रखता है, उसको सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पर सदा टिकवीं वडिआई मिल जाती है।6। (हे मेरे मन!) उन मनुष्यों को बहुत भाग्यशाली (समझो) जिन्हें गुरू ने परमात्मा की सेवा-भक्ति में जोड़ दिया। गुरू उनके हृदय में हर वक्त परमात्मा की भक्ति और सदा-स्थिर नाम का सिमरन पक्का कर देता है। (हे मन!) हरि-नाम की बरकति से, उनके सारे कुल भी विकारों से बच जाते हैं।7। (हे भाई!) नानक (तुझे) अटॅल (नियम की) विचार बताता है (और वह विचार ये है कि) परमात्मा का नाम सदा अपने हृदय में टिकाए रख। जो मनुष्य परमात्मा की भक्ति (के रंग) में रंगे जाते हैं उनको (विकारों से) खलासी पाने का दरवाजा मिल जाता है।8।2।24। आसा महला ३ ॥ आसा आस करे सभु कोई ॥ हुकमै बूझै निरासा होई ॥ आसा विचि सुते कई लोई ॥ सो जागै जागावै सोई ॥१॥ सतिगुरि नामु बुझाइआ विणु नावै भुख न जाई ॥ नामे त्रिसना अगनि बुझै नामु मिलै तिसै रजाई ॥१॥ रहाउ ॥ कलि कीरति सबदु पछानु ॥ एहा भगति चूकै अभिमानु ॥ सतिगुरु सेविऐ होवै परवानु ॥ जिनि आसा कीती तिस नो जानु ॥२॥ तिसु किआ दीजै जि सबदु सुणाए ॥ करि किरपा नामु मंनि वसाए ॥ इहु सिरु दीजै आपु गवाए ॥ हुकमै बूझे सदा सुखु पाए ॥३॥ आपि करे तै आपि कराए ॥ आपे गुरमुखि नामु वसाए ॥ आपि भुलावै आपि मारगि पाए ॥ सचै सबदि सचि समाए ॥४॥ सचा सबदु सची है बाणी ॥ गुरमुखि जुगि जुगि आखि वखाणी ॥ मनमुखि मोहि भरमि भोलाणी ॥ बिनु नावै सभ फिरै बउराणी ॥५॥ तीनि भवन महि एका माइआ ॥ मूरखि पड़ि पड़ि दूजा भाउ द्रिड़ाइआ ॥ बहु करम कमावै दुखु सबाइआ ॥ सतिगुरु सेवि सदा सुखु पाइआ ॥६॥ अम्रितु मीठा सबदु वीचारि ॥ अनदिनु भोगे हउमै मारि ॥ सहजि अनंदि किरपा धारि ॥ नामि रते सदा सचि पिआरि ॥७॥ हरि जपि पड़ीऐ गुर सबदु वीचारि ॥ हरि जपि पड़ीऐ हउमै मारि ॥ हरि जपीऐ भइ सचि पिआरि ॥ नानक नामु गुरमति उर धारि ॥८॥३॥२५॥ {पन्ना 423-424} पद्अर्थ: आसा आस करे = आशाएं ही आशाएं बनाता है। सभ कोई = हरेक जीव। निरासा = आशाओं से स्वतंत्र। लोई = लोग। सोई = वह स्वयं ही।1। सतिगुरि = गुरू ने। नामे = नाम से ही। तिसै रजाई = उस परमात्मा की रजा से ही।1। रहाउ। कीरति = सिफत सालाह। कलि = इस जगत में। चूकै = खत्म होता है। सेविअै = सेवा करने से। जिनि = जिस परमात्मा ने।2। तिसु = उस (गुरू) को। दीजै = दें। जि = जो। मंनि = मनि, मन में। आपु = स्वै भाव, अहंम्। गवाइ = गवा के।3। तै = और। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। मारगि = रास्ते पर। सबदि = शबद द्वारा। सचि = सदा-स्थिर प्रभू में।4। जुगि जुगि = हरेक युग में। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। मोहि = मोह में। भरमि = भटकना में। बउराणी = कमली, पागल।5। मूरखि = मूर्ख ने। करम = (निहित धार्मिक) कर्म। सबाइआ = सारा ही।6। अंम्रित सबदु = आत्मिक जीवन देने वाला शबद। मारि = मार के। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अनंदि = आनंद में। नामि = नाम मे। रते = रंगे हुए। सचि = सदा स्थिर में। पिआरि = प्यार में।7। जपि = जन के, जपें। वीचारि = विचार के। भइ = भय में।8। अर्थ: (हे भाई! दुनिया में) हरेक जीव आशाएं ही आशाएं बनाता रहता है। जो मनुष्य परमात्मा की रजा को समझ लेता है वह आशाओं के जाल में से निकल जाता है। (हे भाई!) बेअंत दुनिया आशाओं (के जाल) में (फस के माया के मोह की नींद में) सो रही है। वही मनुष्य (इस नींद में से) जागता है जिस को (गुरू की शरण में ला के) परमात्मा स्वयं जगाता है।1। (हे भाई! माया की) तृष्णा की अग्नि परमात्मा के नाम से ही बुझती है, ये नाम उस मालिक की रजा के अनुसार मिलता है (गुरू के द्वारा)। गुरू ने (जिस को) हरि-नाम (सिमरना) सिखा दिया (उसकी माया वाली भूख मिट गई)। (हे भाई!) हरि-नाम के बिना (माया वाली) भूख दूर नहीं होती।1। रहाउ। (हे भाई! इस विकार-ग्रसित) जगत में परमात्मा की सिफत सालाह करता रह, गुरू के शबद से जान-पहचान बनाए रख। परमात्मा की भक्ति ही है (जिसकी बरकति से मन में से) अहंकार दूर होता है, और गुरू की बताई सेवा करने से मनुष्य परमात्मा की हजूरी में कबूल हो जाता है। (हे भाई! इन आशाओं के जाल में से निकलने के लिए) उस परमात्मा से गहरी सांझ बना जिसने आशा (मनुष्य के मन में) पैदा की है।2। (हे भाई!) जो (गुरू अपना) शबद सुनाता है और मेहर करके परमात्मा का नाम (हमारे) मन में बसाता है उसे कौन सी भेटा देनी चाहिए? (हे भाई!) स्वै भाव दूर करके अपना ये सिर (गुरू के आगे) भेट करना चाहिए (जो मनुष्य अपने आप को गुरू के हवाले करता है वह) परमात्मा की रजा को समझ के सदा आत्मिक आनंद में रहता है।3। (हे भाई! सब जीवों में व्यापक हो के) परमात्मा सब कुछ स्वयं ही कर रहा है, और स्वयं ही जीवों से करवाता है। वह स्वयं ही गुरू के द्वारा (मनुष्य के मन में अपना) नाम बसाता है। परमात्मा स्वयं ही कुमार्ग पर डालता है स्वयं ही सही रास्ते पर लाता है (जिसे सही रास्ते पर लाता है वह मनुष्य) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह के शबद में जुड़ के सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहता है।4। (हे भाई!) सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह का शबद ही सदा स्थिर प्रभू के सिफत सालाह की बाणी ही हरेक युग में दुनिया गुरू के माध्यम से उचारती आई है (और माया के मोह के भ्रम से बचती आई है)। पर, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य (हरेक युग में ही) माया के मोह में फसा रहा, माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ा रहा। (हे भाई!) परमात्मा के नाम से टूट के (हरेक युग में ही) पागल हो के दुनिया भटकती रही है।5। (हे भाई!) तीनों ही भवनों में एक ही माया का प्रभाव चला आ रहा है। मूर्ख मनुष्य ने (गुरू से टूट के स्मृतियों-शास्त्रों आदि को) पढ़-पढ़ के (अपने अंदर बल्कि) माया का प्यार ही पक्का किया। मूर्ख मनुष्य (गुरू से टूट के शास्त्रों अनुसार निहित) अनेकों धार्मिक कर्म करता है और निरा दुख ही सहेड़ता है। गुरूकी बताई सेवा करके ही मनुष्य सदा टिके रहने वाले आत्मिक आनंद का रस लेता है।6। हे भाई! गुरू के शबद को विचार के (और, अपने अंदर से) अहंकार दूर करके (भाग्यशाली मनुष्य) आत्मिक जीवन देने वाला स्वादिष्ट नाम रस हर वक्त पा सकता है। (गुरू) कृपा करके उसको आत्मिक अडोलता में आत्मिक आनंद में टिकाए रखता है। (हे भाई!) परमात्मा के नाम-रंग में रंगे हुए मनुष्य सदा प्रभॅ-प्यार में मगन रहते हैं सदा-स्थिर हरि-नाम में लीन रहते हैं।7। हे भाई! गुरू के शबद को अपनी सोच-मण्डल में टिका के (और अंदर से) अहंकार दूर करके परमात्मा के नाम का ही जाप करना चाहिए परमात्मा का नाम ही पढ़ना चाहिए, परमात्मा के डर-अदब में रहके सदा-स्थिर हरी के प्रेम में मस्त हो के हरी-नाम का जाप ही करना चाहिए। हे नानक! (कह– हे भाई!) गुरू की मति ले कर परमात्मा का नाम अपने हृदय में टिकाए रख।8।3।25। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |