श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
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Page 424 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला ३ असटपदीआ घरु ८ काफी ॥ गुर ते सांति ऊपजै जिनि त्रिसना अगनि बुझाई ॥ गुर ते नामु पाईऐ वडी वडिआई ॥१॥ एको नामु चेति मेरे भाई ॥ जगतु जलंदा देखि कै भजि पए सरणाई ॥१॥ रहाउ ॥ गुर ते गिआनु ऊपजै महा ततु बीचारा ॥ गुर ते घरु दरु पाइआ भगती भरे भंडारा ॥२॥ गुरमुखि नामु धिआईऐ बूझै वीचारा ॥ गुरमुखि भगति सलाह है अंतरि सबदु अपारा ॥३॥ गुरमुखि सूखु ऊपजै दुखु कदे न होई ॥ गुरमुखि हउमै मारीऐ मनु निरमलु होई ॥४॥ सतिगुरि मिलिऐ आपु गइआ त्रिभवण सोझी पाई ॥ निरमल जोति पसरि रही जोती जोति मिलाई ॥५॥ पूरै गुरि समझाइआ मति ऊतम होई ॥ अंतरु सीतलु सांति होइ नामे सुखु होई ॥६॥ पूरा सतिगुरु तां मिलै जां नदरि करेई ॥ किलविख पाप सभ कटीअहि फिरि दुखु बिघनु न होई ॥७॥ आपणै हथि वडिआईआ दे नामे लाए ॥ नानक नामु निधानु मनि वसिआ वडिआई पाए ॥८॥४॥२६॥ {पन्ना 424} नोट: ये अष्टपदियां राग आसा और राग काफी दोनों ही मिश्रित रागों में गानी हैं। पद्अर्थ: ते = से। ऊपजै = पैदा होती है। जिनि = जिस (गुरू) ने। वडिआई = आदर मान।1। चेति = सिमर। भाई = हे भाई! भजि = दौड़ के।1। रहाउ। गिआनु = ज्ञान, आत्मिक जीवन की सूझ। ततु = अस्लियत। भंडारा = खजाने।2। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। सलाह = सिफत सालाह। अंतरि = हृदय में। अपारा = बेअंत का।3। निरमलु = पवित्र।4। आपु = स्वै भाव, अहम्। पसरि रही = व्याप्त है।5। गुरि = गुरू ने। ऊतम = श्रेष्ठ। अंतरु = अंदर का, हृदय (शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतरु’ में फर्क स्मरणीय है)।6। करेई = करे, करता है। किलविख = पाप। कटीअहि = काटे जाते हैं। बिघनु = रूकावट।7। हथि = हाथ में। दे = दे कै। नामे = नाम में। निधानु = खजाना। मनि = मन में।8। अर्थ: हे मेरे भाई! (अगर तू विकारों की आग से बचना चाहता है तो) एक परमात्मा का नाम सिमरता रह। जगत को (विकारों में) जलता देख के मैं तो दौड़ के (गुरू की) शरण आ पड़ा हूँ (जिसने मुझे नाम की दाति बख्श दी है)।1। रहाउ। हे मेरे भाई! जिस गुरू ने (मेरी) तृष्णा की आग बुझा दी है (तू भी उसकी शरण पड़), गुरू के पास से ही आत्मिक ठंढ प्राप्त होती है। हे भाई! गुरूसे ही परमात्मा का नाम मिलता है (जिसकी बरकति से लोक-परलोक में) बड़ा आदर प्राप्त होता है।1। हे भाई! गुरू से आत्मिक जीवन की सूझ प्राप्त होती है, आत्मिक जीवन की सूझ ही सबसे बड़ी अस्लियत है और श्रेष्ठ विचार है। (हे भाई! मुझे तो) गुरू से ही परमात्मा का ठिकाना मिला है और (मेरे अंदर) परमात्मा की भक्ति के खजाने भर गए हैं।2। हे मेरे भाई! गुरू की शरण पड़ने से ही प्रभू का नाम सिमरा जा सकता है (गुरू की शरण पड़ कर ही मनुष्य) इस विचार को समझ सकता है। गुरू की शरण आने से परमात्मा की भक्ति सिफत सालाह प्राप्त होती है, हृदय में बेअंत प्रभू के सिफत सालाह का शबद आ बसता है।3। हे भाई! जो मनुष्य गुरू के सन्मुख रहता है उसके अंदर आत्मिक आनंद पैदा हो जाता है, उसे कभी भी कोई दुख नहीं छू सकता। गुरू की शरण पड़ने से (अंदर से) अहंकार दूर कर सकते हैं, मन पवित्र हो जाता है।4। हे भाई ! यदि गुरू मिल जाए तो अहँकार का नाश हो जाता है। यह बात समझ में आ जाती है कि परमात्मा तीनों ही भवनों में व्यापक है, हर जगह परमात्मा की पवित्र ज्योति प्रकाशमान है, (इस तरह) परमात्मा की जोति में सुरति जुड़ जाती है।5। हे भाई! (जिस मनुष्य को) पूरे गुरू ने (आत्मिक जीवन की) समझ बख्श दी (उस की) अक्ल श्रेष्ठ हो जाती है, उसका दिल (विकारों की सड़न से बच के) ठंडा-ठार हुआ रहता है, हरि नाम से उसको आनंद प्राप्त होता है।6। (पर, हे भाई!) पूरा गुरू भी तभी मिलता है जब परमात्मा स्वयं मेहर की निगाह करता है। (जिस को गुरू मिल जाता है उसके) सारे पाप-विकार काटे जाते हैं, उसे फिर कोई दुख नहीं व्याप्तता, उसके जीवन सफर में कोई रुकावट नहीं प्ड़ती।7। हे नानक! (कह– हे भाई! सारी) महानताएं (वडिआईयां) परमात्मा के अपने हाथ में हैं, वह स्वयं ही (आदर) बख्श के (जीव को) अपने नाम में जोड़ता है। (जिस मनुष्य के) मन में उस का नाम खजाना आ बसता है (वह मनुष्य लोक-परलोक में) आदर-मान पाता है।8।4।26। |
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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |