श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 429 आसा महला ३ ॥ सतिगुर ते गुण ऊपजै जा प्रभु मेलै सोइ ॥ सहजे नामु धिआईऐ गिआनु परगटु होइ ॥१॥ ए मन मत जाणहि हरि दूरि है सदा वेखु हदूरि ॥ सद सुणदा सद वेखदा सबदि रहिआ भरपूरि ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि आपु पछाणिआ तिन्ही इक मनि धिआइआ ॥ सदा रवहि पिरु आपणा सचै नामि सुखु पाइआ ॥२॥ ए मन तेरा को नही करि वेखु सबदि वीचारु ॥ हरि सरणाई भजि पउ पाइहि मोख दुआरु ॥३॥ सबदि सुणीऐ सबदि बुझीऐ सचि रहै लिव लाइ ॥ सबदे हउमै मारीऐ सचै महलि सुखु पाइ ॥४॥ इसु जुग महि सोभा नाम की बिनु नावै सोभ न होइ ॥ इह माइआ की सोभा चारि दिहाड़े जादी बिलमु न होइ ॥५॥ जिनी नामु विसारिआ से मुए मरि जाहि ॥ हरि रस सादु न आइओ बिसटा माहि समाहि ॥६॥ इकि आपे बखसि मिलाइअनु अनदिनु नामे लाइ ॥ सचु कमावहि सचि रहहि सचे सचि समाहि ॥७॥ बिनु सबदै सुणीऐ न देखीऐ जगु बोला अंन्हा भरमाइ ॥ बिनु नावै दुखु पाइसी नामु मिलै तिसै रजाइ ॥८॥ जिन बाणी सिउ चितु लाइआ से जन निरमल परवाणु ॥ नानक नामु तिन्हा कदे न वीसरै से दरि सचे जाणु ॥९॥१३॥३५॥ {पन्ना 429} पद्अर्थ: ते = से। सोइ = वह गुरू। सहजे = आत्मिक अडोलता में। गिआनु = आत्मिक जीवन की सूझ।1। ऐ = हे! हदूरि = अंग-संग। सद = सदा। सबदि = शबद के द्वारा।1। रहाउ। आपु = आत्मिक जीवन। इक मनि = एक मन से, सुरति जोड़ के। रवहि = माणतीं हैं।2। को = कोई। मोखु दुआरु = (माया के मोह से) खलासी का दरवाजा।3। सचि = सदा-स्थिर प्रभू में। लिव = लगन। महलि = महल में, प्रभू चरणों में।4। जुग महि = जगत में। सोभ = शोभा। बिलमु = देर, विलम्ब।5। मुऐ = आत्मिक मौत मरे हुए। सादु = स्वाद। समाहि = लीन रहते हैं।6। इकि = (‘इक’ का बहुवचन)। मिलाइअनु = उसने मिलाए हैं। अनदिनु = हर रोज।7। भरमाइ = भटकता फिरता है। पाइसी = पाएगा। तिसै रजाइ = उस प्रभू की रजा अनुसार।8। सिउ = साथ। दरि सचे = सदा-स्थिर प्रभू के दर पर। जाणू = प्रमुख, जाने जाते।9। अर्थ: हे मेरे मन! कहीं ये ना समझ लेना कि परमात्मा (तुझसे) दूर बसता है, उसे सदा अपने अंग-संग बसता देख। (जो कुछ तू बोलता है उसे वह) सदा सुन रहा है, (तेरे कामों को वह) सदा देख रहा है। गुरू के शबद में (जुड़, तुझे हर जगह) व्यापक दिख पड़ेगा।1। रहाउ। जब प्रभू उस गुरू से मिला देता है तब गुरू से गुणों की दाति मिलती है, जिसकी बरकति से आत्मिक अडोलता में टिक के हरि-नाम का सिमरन किया जा सकता है, और अंदर आत्मिक जीवन की समझ अंकुरित हो जाती है।1। गुरू के सन्मुख रहने वाली जीव-सि्त्रयां अपने आत्मिक जीवन को खोजती (आत्म चिंतन, स्वै-मंथन करती) रहती हैं, सुरति जोड़ के सिमरन करती हैं, सदा अपने प्रभू-पति का मिलाप पातीं हैं, और सदा-स्थिर प्रभू नाम में जुड़ के आत्मिक आनंद हासिल करती हैं।2। हे मन! गुरू के शबद के द्वारा विचार करके देख (प्रभू के बिना) तेरा कोई (सच्चा) साथी नहीं है, दौड़ के प्रभू की शरण आ पड़, (इस तरह माया के मोह के बंधनों से) छुटकारे का रास्ता पा लेगा।3। हे मन! गुरू के शबद के द्वारा ही हरी-नाम सुना जा सकता है। शबद के द्वारा ही (सही जीवन राह) समझा जा सकता है। (जो मनुष्य गुरू-शबद में चित्त जोड़ता है वह) सदा-स्थिर हरी में सुरति जोड़े रखता है; शबद की बरकति से ही (अंदर से) अहंकार को खत्म किया जा सकता है (जो मनुष्य गुरू-शबद का आसरा लेता है वह) सदा-स्थिर रहने वाले हरी के चरणों में आनंद पाता है।4। हे मन! जगत में नाम की बरकति से ही शोभा मिलती है, हरी नाम के बिना मिली हुई शोभा असल शोभा नहीं। माया के प्रताप से मिली हुई शोभा चार दिन ही रहती है, इसके नाश होते हुए देर नहीं लगती।5। जिन लोगों ने हरी-नाम भुला दिया उन्होंने आत्मिक मौत सहेड़ ली वे आत्मिक मौत मरे रहते हैं। जिन्हें हरी-नाम के रस का स्वाद ना आया वे विकारों के गंद में मस्त होते हैं। जैसे गंदगी के कीड़े गंदगी में।6। कई ऐसे भाग्यशाली हैं जिन्हें परमात्मा ने हर समय अपने नाम में लगा के मेहर करके खुद ही अपने चरणों में जोड़ रखा है। वे सदा-स्थिर नाम-सिमरन की कमाई करते हैं, सदा-स्थिर नाम में टिके रहते हैं, हर वक्त सदा-स्थिर हरी में लीन रहते हैं।7। हे भाई! जगत माया के मोह में अंधा और बहरा हो रहा है (माया की खातिर) भटकता फिरता है। गुरू के शबद से वंचित रह के हरि-नाम सुना नहीं जा सकता, (सर्व-व्यापक प्रभू) देखा नहीं जा सकता। नाम से टूट के (माया में अंधा-बहरा हुआ) जगत दुख ही सहता रहता है। (जगत के भी क्या वश?) हरी-नाम उस हरी की रजा से ही मिल सकता है।8। जिन मनुष्यों ने गुरू की बाणी से अपना चित्त जोड़ा है वे मनुष्य पवित्र जीवन वाले हो जाते हैं वे प्रभू की हजूरी में कबूल पड़ते हैं। हे नानक! उन्हें परमात्मा का नाम कभी नहीं भूलता, सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा के दर पे वह प्रमुख हैं।9।13।35। आसा महला ३ ॥ सबदौ ही भगत जापदे जिन्ह की बाणी सची होइ ॥ विचहु आपु गइआ नाउ मंनिआ सचि मिलावा होइ ॥१॥ हरि हरि नामु जन की पति होइ ॥ सफलु तिन्हा का जनमु है तिन्ह मानै सभु कोइ ॥१॥ रहाउ ॥ हउमै मेरा जाति है अति क्रोधु अभिमानु ॥ सबदि मरै ता जाति जाइ जोती जोति मिलै भगवानु ॥२॥ पूरा सतिगुरु भेटिआ सफल जनमु हमारा ॥ नामु नवै निधि पाइआ भरे अखुट भंडारा ॥३॥ आवहि इसु रासी के वापारीए जिन्हा नामु पिआरा ॥ गुरमुखि होवै सो धनु पाए तिन्हा अंतरि सबदु वीचारा ॥४॥ भगती सार न जाणन्ही मनमुख अहंकारी ॥ धुरहु आपि खुआइअनु जूऐ बाजी हारी ॥५॥ बिनु पिआरै भगति न होवई ना सुखु होइ सरीरि ॥ प्रेम पदारथु पाईऐ गुर भगती मन धीरि ॥६॥ जिस नो भगति कराए सो करे गुर सबद वीचारि ॥ हिरदै एको नामु वसै हउमै दुबिधा मारि ॥७॥ भगता की जति पति एकुो नामु है आपे लए सवारि ॥ सदा सरणाई तिस की जिउ भावै तिउ कारजु सारि ॥८॥ भगति निराली अलाह दी जापै गुर वीचारि ॥ नानक नामु हिरदै वसै भै भगती नामि सवारि ॥९॥१४॥३६॥ {पन्ना 429} पद्अर्थ: सबदौ = शबद से, शबद की बरकति से। जापदे = प्रमुख हो जाते हैं, जाने जाते हैं। सची = सदा स्थिर हरी की सिफत सालाह वाली। आपु = स्वै भाव। सचि = सदा सिथर प्रभू में।1। पति = इज्जत। मानै = आदर करता है। सभु कोइ = हरेक जीव।1। रहाउ। मेरा = अपनत्व, ममता। जाति = अलगपन, अलग अस्तित्व। मरै = ‘मैं मेरी’ खत्म हो जाए।2। भेटिआ = मिला। नवै निधि = नौ ही खजाने। अखॅुट = कभी ना खत्म होने वाले।3। रासि = पूँजी, सौदा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख। अंतरि = मन में।4। सार = कर्द। जाणनी = जानते। मनमुखि = मन के पीछे चलने वाले। खुआइअनु = उस (हरी) ने गवा दिए हैं, तुड़वा दिए हैं।5। पदारथु = कीमती चीज। मन = मन को। धीरि = धीरज आता है।6। दुबिधा = दुचित्तापन, मेर तेर। मारि = मार के।7। जति पति = जाति पाति, ऊँची जाति और ऊँची कुल। ऐकुो = (असल शब्द ‘एकु’ है यहाँ ‘एको’ पढ़ना है)। भावै = भाता है, पसंद आता है। सारि = सिरे चढ़ाता है। तिस की = उसकी (‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है); देखें गुरबाणी व्याकरण।8। निराली = अनोखी। अलाह दी = परमात्मा की। वीचारि = विचार से। भै = अदब में। नामि = नाम में।9। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा के भक्तों के वास्ते परमात्मा का नाम ही इज्जत है (नाम जप के) उनकी जिंदगी सफल हो जाती है, हरेक जीव उनका आदर-मान करता है।1। रहाउ। गुरू के शबद की बरकति से ही भक्त (जगत में) उजागर हो जाते हैं, परमातमा की सिफत-सालाह ही उनका हर समय का बोल-चाल हो जाता है। (नाम की बरकति से) उनके अंदर से स्वै-भाव दूर हो जाता है, उनका मन नाम को कबूल कर लेता है, सदा-स्थिर हरी में उनका मिलाप हो जाता है।1। ‘मैं मैं, मेरी मेरी’ -ये ही परमात्मा से मनुष्य की दूरी पैदा कर देती है, इसी कारण मनुष्य के अंदर क्रोध और अहंकार पैदा हुए रहते हैं। जब गुरू के शबद के द्वारा ‘मैं मेरी’ मिट जाती है तब ये दूरी ये अभाव भी खत्म हो जाता है, हरी-ज्योति में सुरति लीन हो जाती है, रॅब मिल जाता है।2। (जब हम जीवों को) पूरा गुरू मिल जाता है, हमारी जिंदगी कामयाब हो जाती है, हमें हरी-नाम मिल जाता है, जो जगत के नौ ही खजाने हैं, नाम-धन से हमारे (हृदय के) खजाने भर जाते हैं, ये खजाने कभी खाली नहीं हो सकते।3। इस नाम-धन के वही वणजारे (गुरू के पास) आते हैं जिन्हें ये नाम- (धन) प्यारा लगता है। जो मनुष्य गुरू की शरण आ पड़ता है वह नाम-धन हासिल कर लेता है। ऐसे मनुष्यों के अंदर गुरू-शबद बस जाता है, प्रभू के गुणों की विचार आ बसती है।4। (पर) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य अहंकारी हो जाते हैं वे प्रभू की भक्ति की कद्र नहीं समझते, (उनके भी क्या वश?) प्रभू ने स्वयं ही धुर से अपने हुकम से कुमार्ग पर डाल दिया है, वे जीवन-बाजी हार जाते हैं (जैसे कोई जुआरी) जूए में (हार खाता है)।5। अगर हृदय में प्रभू के वास्ते प्यार ना हो तो उसकी भक्ति नहीं की जा सकती, (भक्ति के बिना) शरीर को आत्मिक आनंद नहीं मिलता। प्रेम की दाति (गुरू से ही) मिलती है, गुरू की बताई हुई भक्ति की बरकति से मन में शांति आ टिकती है।6। (हे भाई!) गुरू के शबद की विचार करके वही मनुष्य प्रभू की भक्ति कर सकता है जिससे प्रभू स्वयं भक्ति करवाता है, (गुरू-शबद की बरकति से अपने अंदर से वह मनुष्य) अहंकार और मेर-तेर खत्म कर लेता है, उसके हृदय में एक परमात्मा का नाम आ बसता है।7। परमात्मा का नाम भक्तों के लिए ऊँची जाति है नाम ही उनके वास्ते ऊँची कुल है, परमात्मा खुद ही उनके जीवन को सुंदर बना देता है। भगत सदा ही उस प्रभू की शरण पड़े रहते हैं, जैसे प्रभू को ठीक लगता है वैसे ही उनका हरेक काम सफल कर देता है।8। गुरू के शबद के विचार की बरकति से ये समझ आ जाती है कि परमात्मा की भक्ति अनोखी ही बरकति देने वाली है। हे नानक! जिस मनुष्य के हृदय में प्रभू का नाम आ बसता है, प्रभू की भक्ति उसको प्रभू के डर-अदब में रख के प्रभू के नाम में जोड़े रख के उसके आत्मिक जीवन को सुंदर बना देती है।9।14।36। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |