श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 430 आसा महला ३ ॥ अन रस महि भोलाइआ बिनु नामै दुख पाइ ॥ सतिगुरु पुरखु न भेटिओ जि सची बूझ बुझाइ ॥१॥ ए मन मेरे बावले हरि रसु चखि सादु पाइ ॥ अन रसि लागा तूं फिरहि बिरथा जनमु गवाइ ॥१॥ रहाउ ॥ इसु जुग महि गुरमुख निरमले सचि नामि रहहि लिव लाइ ॥ विणु करमा किछु पाईऐ नही किआ करि कहिआ जाइ ॥२॥ आपु पछाणहि सबदि मरहि मनहु तजि विकार ॥ गुर सरणाई भजि पए बखसे बखसणहार ॥३॥ बिनु नावै सुखु न पाईऐ ना दुखु विचहु जाइ ॥ इहु जगु माइआ मोहि विआपिआ दूजै भरमि भुलाइ ॥४॥ दोहागणी पिर की सार न जाणही किआ करि करहि सीगारु ॥ अनदिनु सदा जलदीआ फिरहि सेजै रवै न भतारु ॥५॥ सोहागणी महलु पाइआ विचहु आपु गवाइ ॥ गुर सबदी सीगारीआ अपणे सहि लईआ मिलाइ ॥६॥ मरणा मनहु विसारिआ माइआ मोहु गुबारु ॥ मनमुख मरि मरि जमहि भी मरहि जम दरि होहि खुआरु ॥७॥ आपि मिलाइअनु से मिले गुर सबदि वीचारि ॥ नानक नामि समाणे मुख उजले तितु सचै दरबारि ॥८॥२२॥१५॥३७॥ {पन्ना 430} पद्अर्थ: अन = अन्य। भोलाइआ = भूला हुआ, गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। भेटिओ = मिला। जि = जो। सची = सदा स्थिर हरी की भक्ति की। बूझ = समझ। बुझाइ = समझाता है।1। बावले = पागल! सादु = स्वाद। रसि = रस में। गवाइ = गवा के।1। रहाउ। इसु जुग महि = मानस जनम में। निरमल = पवित्र। लिव = सुरति। लाइ = लगा के। करम = बख्शिश।2। आपु = आत्मिक जीवन। मरहि = अन रसों की ओर से निर्लिप हो जाते हैं। मनहु = मन में से।3। विचहु = अंदर से। मोहि = मोह में। विआपिआ = फसा हुआ। भरमि = भटकना में। भुलाइ = गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।4। दोहागणी = दुर्भाग्यपूर्ण जीव सि्त्रयां। सार = कद्र। जाणही = जानती। किआ करि = किस वास्ते?।5। महलु = हरि चरण निवास। आपु = स्वै भाव। सहि = सह ने, पति प्रभू ने।6। मिलाइअनु = मिलाए हैं उसने। सबदि = शबद के द्वारा। नामि = नाम में। मुख उजले = उज्जवल मुंह वाले। दरबारि = दरबार में। तितु = उस (दरबार) में। सचै = सदा स्थिर रहने वाले।8। अर्थ: हे मेरे पगले मन! परमात्मा के नाम का रस चख, परमात्मा के नाम का स्वाद ले। तू अपना जीवन व्यर्थ गवा-गवा के अन्य पदार्थों कें स्वाद में फंसा हुआ भटक रहा है।1। रहाउ। मनुष्य अन्य पदार्थों के स्वादों में फस के गलत राह पर पड़ा रहता है, नाम से टूट के दुख सहता रहता है, उसे महापुरुख गुरू नहीं मिलता जो उसे सदा-स्थिर प्रभू की सिफत सालाह की समझ दे।1। (हे भाई!) दुनिया में वही मनुष्य पवित्र जीवन वाले होते हैं जो गुरू की शरण पड़े रहते हैं, उस सदा स्थिर हरी में सुरति जोड़ के उसके नाम में लीन रहते हैं। पर क्या कहा जाय? प्रभू की बख्शिश के बिना कुछ नहीं मिलता।2। (जिनपे बख्शिश होती है वह) अपना जीवन खोजते हैं, गुरू शबद के द्वारा मन में से विकार दूर कर के अन-रसों से निर्लिप हो जाते हैं। वे गुरू की शरण ही पड़े रहते हैं, बख्शिशें करने वाला बख्शिंद हरी उनपे बख्शिश करता है।3। (हे भाई!) हरि-नाम के बिना सुख नहीं मिलता, अंदर से दुख-कलेश दूर नहीं होता। पर ये जगत माया के मोह में फसा रहता है (नाम भूल के) माया की भटकना में पड़ के गलत रास्ते पर पड़ा रहता है।4। (नाम-हीन जीव-सि्त्रयां ऐसे ही हैं जैसे) छुटॅड़ें अपने पति के मिलाप की कद्र नहीं जानतीं, व्यर्थ ही शारि रिक श्रृंगार करती हैं, हर वक्त सदा ही (अंदर-अंदर से) जलती फिरती हैं, पति कभी सेज पर आता ही नहीं।5। भाग्यशाली जीव-सि्त्रयां (अपने) अंदर से स्वै भाव दूर करके प्रभू पति के चरणों में जगह ढूँढ लेती हैं, गुरू के शबद की बरकति से वे अपना जीवन सुंदर बनाती हैं, पति प्रभू ने उनको अपने साथ मिला लिया है।6। हे भाई! माया का मोह घोर अंधकार है (इसमें फस के) अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य मौत को मन से भुला देते हैं, आत्मिक मौत मर के पैदा होने-मरने के चक्कर में पड़े रहते हैं, जम के दरवाजे पर ख्वार होते हैं।7। जिनको परमात्मा ने स्वयं अपने चरणों में जोड़ लिया वे गुरू के शबद के माध्यम से प्रभू के गुणों की विचार करके प्रभू-चरणों में लीन हो गए। हे नानक! जो मनुष्य हरि-नाम में रमे रहते हैं वह सदा-स्थिर परमात्मा के दरबार में सुर्खरूह हो जाते हैं।8।22।15।37। अष्टपदियां महला १ --------------- 22 आसा महला ५ असटपदीआ घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पंच मनाए पंच रुसाए ॥ पंच वसाए पंच गवाए ॥१॥ इन्ह बिधि नगरु वुठा मेरे भाई ॥ दुरतु गइआ गुरि गिआनु द्रिड़ाई ॥१॥ रहाउ ॥ साच धरम की करि दीनी वारि ॥ फरहे मुहकम गुर गिआनु बीचारि ॥२॥ नामु खेती बीजहु भाई मीत ॥ सउदा करहु गुरु सेवहु नीत ॥३॥ सांति सहज सुख के सभि हाट ॥ साह वापारी एकै थाट ॥४॥ जेजीआ डंनु को लए न जगाति ॥ सतिगुरि करि दीनी धुर की छाप ॥५॥ वखरु नामु लदि खेप चलावहु ॥ लै लाहा गुरमुखि घरि आवहु ॥६॥ सतिगुरु साहु सिख वणजारे ॥ पूंजी नामु लेखा साचु सम्हारे ॥७॥ सो वसै इतु घरि जिसु गुरु पूरा सेव ॥ अबिचल नगरी नानक देव ॥८॥१॥ {पन्ना 430} पद्अर्थ: पंच = सत, संतोख, दया, धर्म, धैर्य। पंच = काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार।1। इन् बिधि = इस तरीके से। नगरु = शरीर शहर। वुठा = बसा, बस गया। दुरतु = पाप। गुरि = गुरू ने। गिआनु = आत्मिक जीवन की समझ। द्रिढ़ाई = पक्की कर दी, दृढ़ कर दी।1। रहाउ। साच धरम = सदा स्थिर प्रभू के सिमरन की नित्य की कार। वारि = वाड़। फरहे = खिडकियां, ज्ञानेन्द्रियां। मुहकम = मजबूत। बीचारि = विचार के, सोच मण्डल में टिका के।2। खेती = शरीर पैली में। नीत = नित्य, सदा।3। सहज = आत्मिक अडोलता। सभि हाट = सारी दुकानें, सारी ज्ञानेन्द्रियां। थाट = बनावट। ऐकै थाट = एक ही रूप में।4। जेजीआ = वह टेक्स जो मुस्लिम हकूमत के समय गैर मुस्लिम भरते थे। जगाति = मसूल, चुंगी। सतिगुरि = गुरू ने। छाप = (टेक्स से) माफी की मोहर। धुर की = धुर दरगाह की, प्रभू दर से परवान हुई।5। वखरु = सौदा। लदि = लाद के। खेप = काफला। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहके। घरि = प्रभू के महल में।6। साहु = शाहूकार। पूँजी = रास, सरमाया। साचु = सदा स्थिर प्रभू। सम्हारे = सम्हारे, संभाले, हृदय में संभाल के रखता है।7। इतु = इस में। घरि = घर में। इतु घरि = इस घर में। जिसु = जिस को। अबिचल = अटॅल, कभी ना डोलने वाली। देव = देव की, परमात्मा की।8। अर्थ: गुरू ने (जिस मनुष्य को) आत्मिक जीवन की सूझ पक्की तरह से दे दी (उसके अंदर से) विकार-पाप दूर हो गए। और, हे मेरे भाई! इस तरह उस मनुष्य का शरीर-नगर बस गया।1। रहाउ। (हे भाई! जिस मनुष्य को गुरू ने ज्ञान की दाति दी उस मनुष्य ने अपने शरीर-नगर में सत-संतोष-दया-धर्म-धैर्य -ये) पाँचों प्रफुल्लित कर लिए, और कामादिक (विकार) पाँचों नाराज कर लिए। (सत्य-संतोष आदि) पाँचों (अपने शरीर रूपी नगर में) बसा लिए, और कामादिक पाँचों (नगर में से) निकाल बाहर किए।1। (हे भाई! जिस गुरू ने ज्ञान बख्शा, उसने अपने शरीर नगरी की रक्षा के लिए) सदा-स्थिर प्रभू के नित्य की सिमरन की वाड़ दे ली, गुरू के दिए ज्ञान को सोच-मण्डल में टिका के उसने अपनी खिडकियां (ज्ञानेन्द्रियां) पक्की कर लीं।2। हे मेरे मित्र! हे मेरे भाई! तुम भी सदा गुरू की शरण लो, शरीर-खेती में परमात्मा का नाम बीजा करो, शरीर नगर में परमात्मा के नाम का सौदा करते रहो।3। हे भाई! जो (सिख-) वणजारे (गुरू-) शाह के साथ एक रूप हो जाते हैं उनकी सारे हाट (दुकानें, ज्ञानेन्द्रियां) शांति, आत्मिक अडोलता और आत्मिक आनंद के हाट बन जाते हैं।4। (हे भाई! जिन्हें गुरू ने ज्ञान की दाति दी उनके शरीर-नगर के वास्ते) गुरू के प्रभू-दर से परवान हुई माफी की मोहर की मोहर बख्श दी, कोई (पाप-विकार उनके हरि-नाम के सौदे पर) जजीआ दण्ड महिसूल नहीं लगा सकता (कोई विकार उनके आत्मिक जीवन में कोई खराबी पैदा नहीं कर सकता)।5। हे मेरे मित्र! हे मेरे भाई! गुरू की शरण पड़ के तुम भी हरि-नाम सिमरन का सौदा लाद के (आत्मिक जीवन का) व्यापार करो, (ऊँचे आत्मिक जीवन का) लाभ कमाओ और प्रभू के चरणों में ठिकाना प्राप्त करो।6। (हे भाई! नाम का सरमाया गुरू के पास है) गुरू (ही इस सरमाए का) शाहूकार है (जिस से आत्मिक जीवन का) व्यापार करने वाले सिखहरि-नाम का सरमाया हासिल करते हैं (जिस सिख को गुरू ने ज्ञान की दाति दी है वह) सदा-स्थिर प्रभू को अपने हृदय में संभाल के रखता है (यही है) लेखा-हिसाब (जो वह नाम-वणज में करता रहता है)।7। हे नानक! (कह– हे भाई!) पूरा गुरू जिस मनुष्य को प्रभू की सेवा-भक्ति की दाति बख्शता है वह इस (ऐसे हृदय-) घर में बसता रहता है जो परमात्मा के रहने के लिए (विकारों में) कभी ना डोलने वाली नगरी बन जाता है।8।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |