श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 431

आसावरी महला ५ घरु ३    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मन हरि सिउ लागी प्रीति ॥ साधसंगि हरि हरि जपत निरमल साची रीति ॥१॥ रहाउ ॥ दरसन की पिआस घणी चितवत अनिक प्रकार ॥ करहु अनुग्रहु पारब्रहम हरि किरपा धारि मुरारि ॥१॥ मनु परदेसी आइआ मिलिओ साध कै संगि ॥ जिसु वखर कउ चाहता सो पाइओ नामहि रंगि ॥२॥ जेते माइआ रंग रस बिनसि जाहि खिन माहि ॥ भगत रते तेरे नाम सिउ सुखु भुंचहि सभ ठाइ ॥३॥ सभु जगु चलतउ पेखीऐ निहचलु हरि को नाउ ॥ करि मित्राई साध सिउ निहचलु पावहि ठाउ ॥४॥ मीत साजन सुत बंधपा कोऊ होत न साथ ॥ एकु निवाहू राम नाम दीना का प्रभु नाथ ॥५॥ चरन कमल बोहिथ भए लगि सागरु तरिओ तेह ॥ भेटिओ पूरा सतिगुरू साचा प्रभ सिउ नेह ॥६॥ साध तेरे की जाचना विसरु न सासि गिरासि ॥ जो तुधु भावै सो भला तेरै भाणै कारज रासि ॥७॥ सुख सागर प्रीतम मिले उपजे महा अनंद ॥ कहु नानक सभ दुख मिटे प्रभ भेटे परमानंद ॥८॥१॥२॥ {पन्ना 431}

पद्अर्थ: मन = हे मन! संगि = संगति में। जपत = जपते हुए। रीति = मर्यादा।1। रहाउ।

घणी = बहुत। चितवत = याद करते हुए। अनुग्रहु = कृपा। मुरारि = (मुर+अरि) हे प्रभू!।1।

परदेसी = कई देशों (जूनियों) में भटकना। साध = गुरू। चाहता = चाहना। नामहि = नाम के प्यार में।2।

जेते = जितने भी। भुंचहि = खाते हैं, माणते हैं। सभ थाइ = हर जगह। ठाइ = जगह में। ठाउ = जगह।3।

चलतउ = नाशवंत। नाउ = नाम। को = का। पावहि = तू पा लेगा। (शब्द ‘ठाइ’ और ‘ठाउ’ में फर्क याद रखें)।4।

बंधपा = रिश्तेदार। निवाहू = सदा निभाने वाला। दीना का = गरीबों का। नाथ = पति।5।

बोहिथ = जहाज। तेह लगि = उस (चरणों से) लग के। नेह = प्यार।6।

साध = सेवक। जाचना = मांग। सासि गिरासि = हरे सांस से और ग्रास से। रासि = ठीक (हो जाता है)।7।

सुख सागर = सुखों का समुंद्र। भेटे = मिले। परमानंद = सब से श्रेष्ठ आनंद के मालिक।8।

अर्थ: हे मेरे मन! जिस मनुष्य की प्रीति परमात्मा के साथ बन जाती है, गुरू की संगति में परमात्मा का नाम जपते हुए उसकी रोजाना यही कार बन जाती है कि सदा स्थिर प्रभू का नाम जपता रहता है।1। रहाउ।

हे प्रभू! तेरे अनेकों किस्म के गुणों को याद करते हुए (मेरे अंदर) तेरे दर्शनों की चाहत और भी प्रवीण हो गई है। हे पारब्रहम! हे मुरारी! मेहर कर, कृपा कर (दीदार बख्श)।1।

अनेकों जूनियों में भटकता जब कोई मन गुरू की संगति में आ मिलता है जिस (उच्च आत्मिक जीवन के) सौदे को वह सदा तरसता आ रहा था वह उस को परमात्मा के नाम के प्यार में जुड़ा मिल जाता है।2।

माया के जितने भी करिश्में व स्वादिष्ट पदार्थ दिखाई दे रहे हैं ये एक छिन में नाश हो जाते हैं (इनमें प्रर्वित्त होने वाले आखिर में पछताते हैं, पर, हे प्रभू!) तेरे भगत तेरे नाम-रंग में रंगे रहते हैं, वे हर जगह आनंद का रस लेते रहते हैं।3।

हे भाई! सारा संसार नाशवंत दिख रहा है, सदा कायम रहने वाला सिर्फ एक परमात्मा का नाम ही है। गुरू से प्यार डाल (उससे ये हरी-नाम मिलेगा, और) तू वह ठिकाना पा लेगा जो कभी भी नाश होने वाला नहीं।4।

हे भाई! मित्र, सज्जन, पुत्र व रिश्तेदार - कोई भी सदा के साथी नहीं बन सकते। सदा साथ निभाने वाला सिर्फ उस परमात्मा का नाम ही है जो गरीबों का रक्षक है।5।

हे भाई! जिस मनुष्य के वास्ते गुरू के सुंदर कोमल चरण जहाज बन गए वह इन चरनों में जुड़ के संसार समुंदर से पार लांघ गया। जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल गया, उसका परमात्मा से सदा के लिए पक्का प्यार बन गया।6।

हे प्रभू! तेरे सेवक की (तेरे से सदा यही) मांग है कि सांस लेते रोटी खाते कभी भी ना विसर। जो कुछ तुझे अच्छा लगता है तेरे सेवक को भी वही अच्छा लगता है, तेरी रजा में चलने से तेरे सेवक के सारे काम सिरे चढ़ जाते हैं।7।

हे नानक! कह– सुखों के समुंद्र प्रीतम-प्रभू जी जिस मनुष्य को मिल जाते हैं उसके अंदर बड़ा आनंद पैदाहो जाता है, सबसे श्रेष्ठ आनंद के मालिक प्रभू जी जिसे मिलते हैं उसके सारे दुख-कलेश दूर हो जाते हैं।8।1।2।39।

नोट: ये अष्टपदी आसावरी रागिनी में गाई जाने वाली है, घर तीसरे में।

आसावरी की अष्टपदी महला ५ ----01
आसा की अष्टपदी महला ५ --------01
जोड़------------------------------------02
महला १ ---------------22
महला ३ ---------------15
कुल जोड़---------------39


आसा महला ५ बिरहड़े घरु ४ छंता की जति    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पारब्रहमु प्रभु सिमरीऐ पिआरे दरसन कउ बलि जाउ ॥१॥ जिसु सिमरत दुख बीसरहि पिआरे सो किउ तजणा जाइ ॥२॥ इहु तनु वेची संत पहि पिआरे प्रीतमु देइ मिलाइ ॥३॥ सुख सीगार बिखिआ के फीके तजि छोडे मेरी माइ ॥४॥ कामु क्रोधु लोभु तजि गए पिआरे सतिगुर चरनी पाइ ॥५॥ जो जन राते राम सिउ पिआरे अनत न काहू जाइ ॥६॥ हरि रसु जिन्ही चाखिआ पिआरे त्रिपति रहे आघाइ ॥७॥ अंचलु गहिआ साध का नानक भै सागरु पारि पराइ ॥८॥१॥३॥ {पन्ना 431-432}

नोट: बिरहड़े–बिरह भरे। ये ‘बिरहड़े’ गिनती के 3 हैं, अष्टपदियों में ही गिने गए हैं। जति–चाल। इनकी चाल छंतों वाली है।

पद्अर्थ: बल जाउ = मैं कुर्बान जाता हूँ।1।

बीसरहि = भूल जाते हैं। सो = उस (प्रभू) को।2।

वेची = मैं बेच दूँ। संत पहि = गुरू के पास। देइ मिलाइ = मिला देता है।3।

बिखिआ = माया। माइ = हे माँ!।4।

पाइ = पड़ के।5।

अनत = अन्यत्र, किसी और जगह। जाइ = जांदा।6।

रहे अघाइ = तृप्त रहते हैं।7।

अंचलु = पल्ला। गहिआ = पकड़ा। साध = गुरू। भै = भयानक। पारि पराइ = पार परै।8।

अर्थ: हे प्यारे! सदा परमात्मा का सिमरन करना चाहिए, मैं उस परमात्मा के दर्शन से सदके जाता हूँ।1।

हे प्यारे! जिस परमात्मा का सिमरन करने से सारे दुख भूल जाते हैं, उसे त्यागना नहीं चाहिए।2।

हे प्यारे! मैं तो अपना ये शरीर उस गुरू के पास बेचने को तैयार हूँ जो प्रीतम-प्रभू से मिला देता है।3।

हे मेरी माँ! मैंने माया के सुख माया के सुहज सभ त्याग दिए हैं (नाम-रस के मुकाबले में ये सारे) बेस्वादे हैं।4।

हे प्यारे! जब से मैं गुरू के चरणों में जा लगा हूँ, काम, क्रोध, लोभ, मोह सारे मेरा पीछा छोड़ गए हैं।5।

हे प्यारे! जो मनुष्य परमात्मा के प्रेम रंग से रंगे जाते हैं (परमात्मा को छोड़ के उनमें से कोई भी) किसी और जगह नहीं जाता।6।

हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा के नाम का स्वाद चख लेते हैं वह (मायावी पदार्थों से) तृप्त हो जाते हैं, अघा जाते हैं।7।

हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू का पल्ला पकड़ लिया वह इस भयानक संसार-समुंदर से पार लंघ जाता है।8।1।3।

नोट: अंक १ का भाव है ‘बिरहड़ा’ नंबर १।

अंक ३– पिछली 2 अष्टपदियां महला ५ और ये १ बिरहड़ा। जोड़–3।

जनम मरण दुखु कटीऐ पिआरे जब भेटै हरि राइ ॥१॥ सुंदरु सुघरु सुजाणु प्रभु मेरा जीवनु दरसु दिखाइ ॥२॥ जो जीअ तुझ ते बीछुरे पिआरे जनमि मरहि बिखु खाइ ॥३॥ जिसु तूं मेलहि सो मिलै पिआरे तिस कै लागउ पाइ ॥४॥ जो सुखु दरसनु पेखते पिआरे मुख ते कहणु न जाइ ॥५॥ साची प्रीति न तुटई पिआरे जुगु जुगु रही समाइ ॥६॥ जो तुधु भावै सो भला पिआरे तेरी अमरु रजाइ ॥७॥ नानक रंगि रते नाराइणै पिआरे माते सहजि सुभाइ ॥८॥२॥४॥ {पन्ना 431-432}

पद्अर्थ: कटीअै = काटा जाता है। हरि राइ = प्रभू पातशाह।1।

सुघरु = सुघड़, सुंदर आत्मिक घाड़त वाला, सुचॅजा। सुजाणु = सुजान। जीवनु = जिंदगी। दिखाइ = दिखाता है।2।

जीअ = (‘जीउ’ का बहुवचन)। ते = से। बिखु = जहर। खाइ = खा के।3।

तिस कै पाइ = उसके पैरों सदके। लागउ = मैं लगता हूँ।4।

पेखते = देखते हुए। मुख ते = मुंह से।5।

तुटई = टूटती, टूटे। जुगु जुगु = हरेक युग में, सदा के लिए।6।

अमरु = ना मरने वाली। रजाइ = रजा, हुकम।7।

माते = मस्त। सहजि = आत्मिक अडोलता में। सुभाइ = प्रेम में। रंगि = रंग में, प्यार में।8।

अर्थ: हे प्यारे! जब प्रभू-पातशाह मिल जाता है तब जनम-मरण के चक्कर का दुख काटा जाता है।1।

हे भाई! (मेरा) प्रभू (-पातशाह) सुंदर है सुचॅजा है सियाना है, जब वह मुझे दीदार देता है तो मेरे अंदर जान पड़ जाती है (प्रभू का दीदार ही मेरी जिंदगी है)।2।

हे प्यारे प्रभू! जो जीव तुझसे विछुड़ जाते हैं वे (माया के मोह का) जहर खा के मानस जनम में आए हुए भी आत्मिक मौत मर जाते हैं।3।

(पर) हे प्यारे जीव! (जीवों के भी क्या वश?) जिस जीव को तू स्वयं (अपने साथ) मिलाता है वही तुझे मिलता है। मैं उस (भाग्यशाली) के चरणों में लगता है।4।

हे प्यारे (प्रभू)! तेरे दर्शन करके जो आनंद (अनुभव होता है) वह मुंह से बयान नहीं किया जा सकता।5।

हे प्यारे! जिसने सदा-स्थिर प्रभू के साथ पक्का प्यार डाल लिया, उसका वह प्यार कभी टूट नहीं सकता, वह प्यार तो युगों-युगों तक उसके हृदय में टिका रहता है।6।

हे प्यारे (प्रभू)! तेरा हुकम अमिट है, जीवों के वास्ते वही काम भलाई वाला है जो तुझे अच्छा लगता है।7।

हे नानक! (कह–) हे प्यारे! जो मनुष्य नारायण के प्रेम रंग में रंगे जाते हैं वे आत्मिक अडोलता में मस्त रहते हैं वे उसके प्रेम में मस्त रहते हैं।8।2।4।

सभ बिधि तुम ही जानते पिआरे किसु पहि कहउ सुनाइ ॥१॥ तूं दाता जीआ सभना का तेरा दिता पहिरहि खाइ ॥२॥ सुखु दुखु तेरी आगिआ पिआरे दूजी नाही जाइ ॥३॥ जो तूं करावहि सो करी पिआरे अवरु किछु करणु न जाइ ॥४॥ दिनु रैणि सभ सुहावणे पिआरे जितु जपीऐ हरि नाउ ॥५॥ साई कार कमावणी पिआरे धुरि मसतकि लेखु लिखाइ ॥६॥ एको आपि वरतदा पिआरे घटि घटि रहिआ समाइ ॥७॥ संसार कूप ते उधरि लै पिआरे नानक हरि सरणाइ ॥८॥३॥२२॥१५॥२॥४२॥ {पन्ना 431-432}

पद्अर्थ: बिधि = ढंग। पाहि = पास। कहउ = मैं कहूँ। सुनाइ = सुनाके।1।

पहिरहि = पहनते हैं। खाइ = खाता है।2।

आगिआ = हुकम। जाइ = जगह।3।

करी = मैं करता हूँ। अवरु = अन्य।4।

रैणि = रात। सुहावणे = सोहाने, सुखदाई। जितु = जिस में।5।

साई = वही। धुरि = धुर से। मसतकि = माथे पर। लिखाइ = लिखा के।6।

ऐको आपि = परमात्मा एक खुद ही। घटि घटि = हरेक घट में।7।

कूप = कूआँ। ते = से, में से। उधारि लै = बचा ले।8।

अर्थ: हे प्यारे प्रभू! (तू अपने पैदा किए हुए जीवों को दातें देने के) सारे तरीकों को स्वयं ही जानता है। मैं और किसे सुना के कहूँ?।1।

हे प्रभू! सारे जीवों को दातें देने वाला तू स्वयं ही है। (सारे जीव तेरे ही दिए वस्त्र) पहनते हैं, (हरेक जीव तेरा ही दिया अन्न) खाता है।2।

हे प्यारे प्रभू! तेरे हुकम में ही (जीव को) कभी सुख मिलता है कभी दुख। (तेरे बिना जीव के वास्ते) कोई और (आसरे की) जगह नहीं है।3।

हे प्यारे प्रभू! मैं वही कुछ कर सकता हूँ जो तू मुझसे करवाता है (तुझसे आक़ी हो के) और कुछ भी किया नहीं जा सकता।4।

हे प्यारे हरी! वे हरेक दिन-रात सारे सुहाने लगते हैं जब तेरा नाम सिमरा जाता है।5।

हे प्यारे प्रभू! तेरी धुर-दरगाह से (खुद अपने) माथे पर (कर्मों का जो) लेख लिखा के (हम जीव आए हैं, उस लेख के अनुसार) वही काम (हम जीव) कर सकते हैं।6।

हे प्यारे प्रभू! तू एक खुद ही (सारे जगत में) मौजूद है, हरेक शरीर में तू खुद ही टिका हुआ है।7।

हे नानक! (कह–) हे हरी! मैं तेरी शरण आया हूँ मुझे (माया के मोह भरे) संसार कूँएं में से निकाल ले।8।3।22।15।2।42।

बिरहड़े -----------------------------03
अष्टपदियां महला १--------------22
अष्टपदियां महला १--------------15
अष्टपदियां महला १--------------02
जोड़--------------------------------42

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh