श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रागु आसा महला १ पटी लिखी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

ससै सोइ स्रिसटि जिनि साजी सभना साहिबु एकु भइआ ॥ सेवत रहे चितु जिन्ह का लागा आइआ तिन्ह का सफलु भइआ ॥१॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: सोइ = वही प्रभू। जिनि = जिस प्रभू ने। साहिबु = मालिक।

अर्थ: वही एक प्रभू सब जीवों का मालिक है जिसने ये जगत रचना की है। जो लोग उस प्रभू को सदा सिमरते रहे, जिनका मन (उसके चरणों में) जुड़ा रहा, उनका जगत में आना सफल हो गया (भाव, उन्होंने जगत में जनम ले के मानस जनम का असल मनोरथ हासिल कर लिया)।1।

मन काहे भूले मूड़ मना ॥ जब लेखा देवहि बीरा तउ पड़िआ ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: मूढ़ = मूर्ख। काहे भूले = क्यूँ असली जीवन राह से विछुड़ता जा रहा है? बीरा = हे भाई! तउ = तब। पढ़िआ = विद्वान।

अर्थ: हे (मेरे) मन! हे मूर्ख मन! असल जीवन-राह से क्यूँ विछुड़ता जा रहा है? हे वीर! जब तू अपने किए कर्मों का हिसाब देगा (और हिसाब में सुर्खरू माना जाएगा) तब ही तू पढ़ा-लिखा (विद्वान) समझा जा सकेगा।1। रहाउ।

नोट: शब्द ‘रहाउ’ का अर्थ है ‘ठहर जाओ’। इस सारी बाणी का केन्द्रिय भाव इन दो तुकों में है।

भाव, अर्थात पढ़ के विद्वान बन जाना ही जिंदगी का असली मनोरथ नहीं है वही मनुष्य कामयाब जीवन वाला कहा जा सकता है जिसके अमल ठीक हैं।

ईवड़ी आदि पुरखु है दाता आपे सचा सोई ॥ एना अखरा महि जो गुरमुखि बूझै तिसु सिरि लेखु न होई ॥२॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: आदि = सब का आदि, आरम्भ। पुरखु = व्यापक हरी। सचा = सदा-स्थिर रहने वाला। ऐना अखरा महि = इन अक्षरों से पढ़ के हासिल की गई विद्या से। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। तिसु सिरि = उस के सिर पर। लेखु = हिसाब, लेखा, कर्जा। सोई = वह प्रभू।

अर्थ: जो व्यापक प्रभू सारी रचना का मूल है जो सब जीवों को रिजक देने वाला है, वह स्वयं ही सदा कायम रहने वाला है। (विद्वान वही मनुष्य है) जो गुरू की शरण पड़ कर अपनी विद्या से उस (प्रभू के असल को) समझ लेता है (और जीवन-राह से भटकता नहीं)। उस मनुष्य के सिर पर (विकारों का कोई) करजा नहीं चढ़ता।2।

ऊड़ै उपमा ता की कीजै जा का अंतु न पाइआ ॥ सेवा करहि सेई फलु पावहि जिन्ही सचु कमाइआ ॥३॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: उपमा = वडिआई, महिमा। सेई = वही लोग। सचु कमाइआ = वह कमाई की जो सदा साथ निभ सके।

अर्थ: जिस परमात्मा के गुणों का आखिरी छोर नहीं ढूँढा जा सकता, (मनुष्य जनम पा के) उसकी सिफत सालाह करनी चाहिए (ये एक कमाई है जो मनुष्य के सदा साथ निभ सकती है)। जिन लोगों ने ये सदा साथ निभने वाली कमाई की है, जो (सदा प्रभू का) सिमरन करते हैं, वही मनुष्य जीवन का मनोरथ हासिल करते हैं।3।

ङंङै ङिआनु बूझै जे कोई पड़िआ पंडितु सोई ॥ सरब जीआ महि एको जाणै ता हउमै कहै न कोई ॥४॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: ङिआनु = ज्ञान, गहरी सांझ, जान पहचान। हउमै = हउ हउ, मैं मैं।

अर्थ: वही मनुष्य पढ़ा हुआ वही पण्डित है, जो परमात्मा के साथ जान-पहचान (डालना) समझ ले, जो ये समझ ले कि परमात्मा ही सारे जीवों में मौजूद है। (जो आदमी ये भेद समझ लेता है, उसकी पहचान ये है कि) वह फिर कभी ये नहीं कहता कि मैं ही होऊँ (वह आदमी फिर स्वार्थी नहीं रह सकता)।4।

ककै केस पुंडर जब हूए विणु साबूणै उजलिआ ॥ जम राजे के हेरू आए माइआ कै संगलि बंधि लइआ ॥५॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: पुंडर = पुंडरीक, सफेद कमल फूल (भाव, सफेद कमल के फूल जैसे सफेद)। उजलिआ = उज्जवल, सफेद। हेरू = देखने वाले, ढूँढने वाले, ताक रखने वाले। संगलि = संगल ने।

अर्थ: (पर ये कैसी पण्डिताई है कि) जब (उधर तो) सिर के बाल सफेद फूल जैसे हो जाएं, साबन बरते बिना ही सफेद हो जाएं, (सिर पर ये सफेद केस बाल) यमराज के भेजे हुए (मौत के समय) की ताक वाले (दूत) आ तैनात हो जाएं, और इधर अभी इसे माया के (मोह की) जंजीरों ने बाँध रखा हो? (ये पढ़े हुए विद्वान का रवईआ नहीं, ये तो मूरख का रवईआ है)।5।

खखै खुंदकारु साह आलमु करि खरीदि जिनि खरचु दीआ ॥ बंधनि जा कै सभु जगु बाधिआ अवरी का नही हुकमु पइआ ॥६॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: खुंदकार = ख़ुदावंद गार, ख़ुदा, परमात्मा।

(नोट: 'खुंदकार' शब्द श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में दो बार आया है। नाम देव जी ने भी तिलंग राग के शबद में प्रयोग किया है: “मैं अंधुले की टेक, तेरा नामु खुंदकारा)।

साह आलमु = दुनिया का बादशाह। करि खरीदि = खरीदारी कर, वणज कर। जिनि = जिस (खुंदकार) ने। बंधनि जा कै = जिसकी मर्यादा में। नही पाइआ = नही चल सकता।

अर्थ: जो खुदा सारी दुनिया का बादशाह है; जिसके हुकम में सारा जगत नाथा हुआ है और (जिसके बिना) किसी और का हुकम नहीं चल सकता, और (सारे जगत को) रोजी दी हुई है, (हे भाई! अगर तू सचमुच पण्डित है, तो) उसकी सिफत सालाह का सौदा कर।6।

गगै गोइ गाइ जिनि छोडी गली गोबिदु गरबि भइआ ॥ घड़ि भांडे जिनि आवी साजी चाड़ण वाहै तई कीआ ॥७॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ:

अनवै: जिनि गोइ गाइ छोडी, जिनि घड़ि भांडे आवी साजी (उसने) चाड़ण वाहै तई कीआ (उस जीव के लिए अगर) गली गोबिदु गरबि भइआ।

छोडी– नोट: गुरू नानक देव जी ने ये शब्द किस अर्थ में बरता है ये समझने के लिए उनकी ही बाणी में से प्रमाण;

धधै धारि कला जिनि छोडी– बंद नंबर: 22

ललै लाइ धंधै जिनि छोडी– बंद नंबर 31

आइड़ै आपि करे जिनि छोडी– बंद नंबर 35

धुरि छोडी तिनै पाइ– आसा की वार पउड़ी 24

चखि छोडी सहसा नहीं कोइ– बिलसवल पंन्ना 796

धुरि तै छोडी कीमति पाइ–रामकली पंन्ना 878

दुरमति परहरि छाडी ढोलि– ओंकार पंन्ना 933

भ्राति तजि छोडि– मारू पंन्ना 991

घरि छोडी– धारी

लाइ छोडी–लगाई

करे छोडी–करी, की

पाइ छोडी–पाई

चखि छोडी–चखी

परहरि छाडी–परहरी

तजि छोडी–त्यागी

इसी तरह;

गोइ गाइ छोडी–गोई गाई, (मिट्टी) गोई गाई है, जैसे कुम्हार बर्तन घड़ने से पहले मिट्टी गूँदता है, वैसे ही प्रभू ने, ‘दुयी कुदरति साजीअै”।

घड़ि = घड़ के। घड़ि भांडे = बर्तन घड़ के, जीव पैदा करके। आवी = भट्ठी, संसार। चाढ़न वाहै = भट्ठी में बर्तन चढ़ाने और उतारने, जनम और मरन। तई = तैयार। गली = सिर्फ बातों से। गारबि = अहंकारी। गरब = अहंकार।

अर्थ: जिस (गोबिंद) ने (ये सारी) कुदरति (स्वयं ही) रची है, (कुदरति रच के) जिस (गोबिंद) ने जीव-बर्तन बना के संसार-रूपी आवी (भट्ठी) तैयार की है, उस गोबिंद को जो (अपने आप को पढ़ा हुआ पण्डित समझने वाला) मनुष्य निरी (विद्वता की) बातों से (समझ चुका फर्ज करके) अहंकारी बनता है उस (तथाकथित पण्डित) के वास्ते उस गोविंद ने जनम-मरन (का चक्कर) अहंकारी बनाता है, उस (तथाकथित पण्डित) के वास्ते उस गोबिंद ने जनम मरन (का चक्र) तैयार किया हुआ है।7।

घघै घाल सेवकु जे घालै सबदि गुरू कै लागि रहै ॥ बुरा भला जे सम करि जाणै इन बिधि साहिबु रमतु रहै ॥८॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: घाल घालै = कड़ी मेहनत करे। सबदि = शबद में। लागि रहै = जुड़ा रहे, अपनी सुरति टिकाए रखे। बुरा भला = दुख सुख, किसी से बुरा सलूक व बुरा सलूक। सम = बराबर, एक जैसा। इन बिधि = इस तरीके से। रमतु रहै = सिमरता रहता है, सिमर सकता है।

अर्थ: (हे मन! विद्या पर गुमान करने की जगह) अगर मनुष्य सेवक (-स्वभाव) बन के (सेवकों वाली) कड़ी मेहनत करे, अगर अपनी सुरति गुरू के शबद में जोड़े रखे (अपनी विद्या का आसरा लेने की जगह गुरू के शबद में भरोसा बनाए), यदि (घटित होते) दुख-सुख को एक-समान ही समझे, (बस!) यही तरीका है जिस से प्रभू को (सही मायने में) सिमर सकता है।8।

चचै चारि वेद जिनि साजे चारे खाणी चारि जुगा ॥ जुगु जुगु जोगी खाणी भोगी पड़िआ पंडितु आपि थीआ ॥९॥ {पन्ना 432}

पद्अर्थ: जिनी = जिस प्रभू ने। चारे = चार ही। खाणी = उत्पत्ति का श्रोत: अण्डज, जेरज, सेतज, उतभुज। जोगी = निरलेप। भोगी = भोगने वाला, पदार्थों को बरतने वाला।

अर्थ: जिस परमात्मा ने (अंडज, जेरज, सेतज, उतभुज) चारों खाणियों के जीव स्वयं ही पैदा किए हैं, जिस प्रभू ने (जगत रचना करके, सूरज-चाँद आदि बना के, समय का वजूद करके) चारों युग खुद ही बनाएं हैं, जिस प्रभू ने (अपने पैदा किए हुए ऋषियों से) चार वेद रचे हैं, जो हरेक युग में मौजूद है, जो चारों खाणियों के जीवों में व्यापक हो के खुद ही रचे सारे पदार्थ खुद ही भोग रहा है, फिर भी निर्लिप है, वह स्वयं ही (विद्या की उत्पत्ति का मूल है, और) पढ़ा हुआ (ज्ञाता) है, खुद ही पण्डित है (हे मन! सब जीवों को पैदा करने वाला प्रभू स्वयं ही है, विद्या का गुण पैदा करने वाला भी वह स्वयं ही है, फिर अगर तू पढ़ गया है, तो इसमें भी गुमान कैसा? ये विद्या उसी की दाति है, विनम्र भाव में रहके उसी को याद रख)।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh