श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 434

भभै भालहि से फलु पावहि गुर परसादी जिन्ह कउ भउ पइआ ॥ मनमुख फिरहि न चेतहि मूड़े लख चउरासीह फेरु पइआ ॥२७॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: भालहि = तलाश करते हैं, परमात्मा को मिलने का यत्न करते हैं। से = वह लोग। फलु = दीदार रूपी फल। भउ = डर, अदब, निर्मल डर। जिन कउ = जिन को। मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले लोग, जिन का रुख अपने मन की ओर है। फेरु = चक्कर।

अर्थ: गुरू की कृपा से जिन मनुष्यों के मन में परमात्मा का डर टिक जाता है (भाव, जिन्हें ये समझ आ जाती है कि परमात्मा हमारे अंग-संग बसता है और हमारे हरेक काम को देखता है) वह मनुष्य उसका दर्शन करने का यत्न करते हैं। और (अपने यत्नों का) फल हासिल कर लेते हैं।

पर (पढ़ी हुई विद्या के आसरे अपने आप को समझदार समझने वाले) जो मूर्ख लोग अपने मन के पीछे चलते हैं, वे और ही तरफ भटकते हैं, परमात्मा को याद नहीं करते, उन्हें चौरासी लाख जूनियों का चक्कर नसीब होता है।27।

ममै मोहु मरणु मधुसूदनु मरणु भइआ तब चेतविआ ॥ काइआ भीतरि अवरो पड़िआ ममा अखरु वीसरिआ ॥२८॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: मरणु = आत्मिक मौत का (मूल)। मधुसूदनु = परमात्मा। मरणु भइआ = जग मौत सिर पर आ गई। तब मधूसूदनु चेतविआ = तब परमात्मा को याद करने का ख्याल आया। भीतरि = जब तक शरीर में रहा, जब तक जीवित रहा। मंमा अखरु = मरन और मधुसूदनु।

अर्थ: माया का मोह मनुष्य की आत्मिक मौत (का मूल होता) है (मनुष्य सारी उम्र इस मोह में फंसा रहता है) जब मौत सिर पर आती है, तब परमात्मा को याद करने का ख्याल आता है ।

जब तक जीवित रहा (पढ़ी हुई विद्या के आसरे) और ही बातें पढ़ता रहा, ना मौत याद आई ना मधुसूदन (परमात्मा) याद आया।28।

ययै जनमु न होवी कद ही जे करि सचु पछाणै ॥ गुरमुखि आखै गुरमुखि बूझै गुरमुखि एको जाणै ॥२९॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: सचु = सदा सिथर रहने वाला परमात्मा। गुरमुखि = गुरू की ओर मुंह करके, गुरू की शरण पड़ के, गुरू के बताए रास्ते पर चल के। आखै = सिफत सालाह करे, नाम उचारे। पछाणै = हर जगह देखे।

अर्थ: (हे मन! अपनी विद्या का आसरा लेने की जगह) अगर मनुष्य गुरू के बताए रास्ते पर चल के सदा स्थिर रहने वाले परमात्मा को हर जगह देखे, परमात्मा की सिफत सालाह करता रहे, परमात्मा को सर्व-व्यापक समझे, और परमात्मा के साथ गहरी जान-पहचान बनाए, तो उसे दुबारा कभी जनम-मरण का चक्कर नहीं मिलता।29।

रारै रवि रहिआ सभ अंतरि जेते कीए जंता ॥ जंत उपाइ धंधै सभ लाए करमु होआ तिन नामु लइआ ॥३०॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: जेते = जितने ही। उपाइ = पैदा करके। रवि रहिआ = व्यापक है, मौजूद है। धंधै = धंधे में, माया की किरत कार में। करमु = फ़जल, मेहर बख्शिश। तिन = उन लोगों ने।

अर्थ: जितने भी जीव (सृष्टि में परमात्मा ने) पैदा किए हुए हैं, उन सबके अंदर प्रभू स्वयं मौजूद है। जीव पैदा करके सबको परमात्मा ने माया की किरत-कार में लगाया हुआ है। जिन पे उसकी मेहर होती है, वही उसका नाम सिमरते हैं (हे मन! विद्या भी दाति है, पर प्रभू का नाम सबसे ऊँची दाति है। पढ़ा होने का गुमान ना किए जा)।30।

ललै लाइ धंधै जिनि छोडी मीठा माइआ मोहु कीआ ॥ खाणा पीणा सम करि सहणा भाणै ता कै हुकमु पइआ ॥३१॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: लाइ छडि = लगा दी है, लगाई हुई है। धंधै = धंधे में, माया की किरत कार में। जिनि = जिस परमात्मा ने। सम करि = एक सा ही जान के। सहणा = सहना। ता कै भाणै = उस परमात्मा की रजा में।

अर्थ: जिस परमात्मा ने (अपनी रची सृष्टि) माया की किरत-कार में लगाई हुई है, जिस ने (जीवों के वास्ते) माया का मोह मीठा बना दिया है, उसी की ही रजा में उसका हुकम चलता है, और जीवों को खाने-पीने के पदार्थ (भाव, सुख) और उसी तरह दुख भी सहने को मिलते हैं (मालिक की रजा को समझना सबसे ऊँची विद्या है)।31।

ववै वासुदेउ परमेसरु वेखण कउ जिनि वेसु कीआ ॥ वेखै चाखै सभु किछु जाणै अंतरि बाहरि रवि रहिआ ॥३२॥ {पन्ना 434}

देखें शलोक नंबर: 24।

पद्अर्थ: वासदेउ = परमात्मा। जिनि = जिस परमात्मा ने। वेसु = आकार, जगत। वेखे चाखै = संभाल करता है।

अर्थ: परमात्मा परमेश्वर खुद ही है जिसने तमाशा देखने के लिए ये जगत रचा है, हरेक जीव की अच्छी संभाल करता है (हरेक के दिल की) सब बातें जानता है, और अंदर-बाहर हर जगह व्यापक है (हे मन! अगर तू पढ़ा हुआ है, तो भेद समझ)।32।

ड़ाड़ै राड़ि करहि किआ प्राणी तिसहि धिआवहु जि अमरु होआ ॥ तिसहि धिआवहु सचि समावहु ओसु विटहु कुरबाणु कीआ ॥३३॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: राड़ि = झगड़ा, बहस। प्राणी = हे प्राणी! जि = जो। अमरु = अम+र, मौत रहित, अटॅल। सचि = सदा स्थिर रहने वाले हरी में। ओसु विटहु = उस परमात्मा से।

अर्थ: हे प्राणी! (अगर तू पढ़-लिख गया है तो इस विद्या के आसरे) झगड़े आदि करने से कोई (आत्मिक) लाभ नहीं होगा। उस परमात्मा को सिमरो जो सदा कायम रहने वाला है, उसे सिमरो, उस सदा स्थिर प्रभू में लीन हुए रहो। (वही मनुष्य असली पढ़ा पण्डित है जिसने) उस परमात्मा (की याद) से (अपने अहंकार को) वार दिया है।33।

हाहै होरु न कोई दाता जीअ उपाइ जिनि रिजकु दीआ ॥ हरि नामु धिआवहु हरि नामि समावहु अनदिनु लाहा हरि नामु लीआ ॥३४॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: जीअ = (‘जीउ’ का बहुवचन) अनेकों जीव। जिनि = जिस प्रभू ने। अनदिनु = हर रोज। लाहा = लाभ।

अर्थ: जिस परमात्मा ने (सृष्टि के) जीव पैदा करके सबको रिजक पहुँचाया हुआ है, (उसके बिना) कोई और दातें देने वाला नहीं है। (हे मन!) उसी हरी का नाम सिमरते रहो, उस हरी के नाम में सदा टिके रहो। (वही है पढ़ा पण्डित जिस ने) हर समय हरी-नाम सिमरन का लाभ कमाया है।34।

आइड़ै आपि करे जिनि छोडी जो किछु करणा सु करि रहिआ ॥ करे कराए सभ किछु जाणै नानक साइर इव कहिआ ॥३५॥१॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: जिनि = जिस (परमात्मा) ने। करे छोडी = कर छोड़ी, बना दी, पैदा कर दी। करणा = करण्य, करने योग्य, जो करना चाहिए। सु = वह कुछ। कराऐ = जीवों से करवाता है। जाणै = (हरेक के दिल की) जानता है। साइर = हे कवि!

अर्थ: जिस परमात्मा ने (ये सारी सृष्टि) खुद पैदा की हुई है, वह जो कुछ करना ठीक समझता है वही कुछ किए जा रहा है। परमात्मा खुद सब कुछ करता है, खुद ही सब कुछ जीवों से करवाता है, (हरेक के दिल की भावना) खुद ही जानता है।

हे कवि नानक! (कह– जो मनुष्य सच-मुच पढ़ा हुआ है जो सच-मुच पण्डित है, उसने परमात्मा के बारे में यूँ ही समझा है और) यूँ ही कहा है (वह अपनी विद्या का अहंकार करने की जगह इसको परमात्मा द्वारा मिली दाति समझता है)।35।1।

नोट: अंक1 का भाव है कि ये 35 बंदों वाली एक ही बाणी है जिसका शीर्षक है ‘पटी’।

रागु आसा महला ३ पटी ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ {पन्ना 434}

महला-शरीर। महला ३- (गुरू नानक देव जी का) तीसरा शरीर, जामा, भाव तीसरे गुरू, गुरू अमर दास जी

अयो अंङै सभु जगु आइआ काखै घंङै कालु भइआ ॥ रीरी लली पाप कमाणे पड़ि अवगण गुण वीसरिआ ॥१॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: अयो = अ, इ, उ (यु=इ+उ)। अंङै = अं, अ:। काखै घंङै = क, ख, ग, घ, ङ।

नोट: अयो अंङै काखै घंङै सिर्फ अ, इ, उ, क, ख, ग, घ, ङ अक्षर ही है। री री ल ली भी हिन्दी के ऋ, ऋ, लृ, लॄ अक्षर हैं।

पढ़ि = पढ़ के। अवगण = अवगुण पैदा करने वाली बातें।

अर्थ: (ये) सारा जगत (जो) अस्तित्व में आया हुआ है, (इसके सिर पर) मौत (भी) मौजूद है (पर जीव मौत को भुला के) अवगुण पैदा करने वाली बातें पढ़ के गुण विसार देते हैं, और पाप कमाते रहते हैं।1।

मन ऐसा लेखा तूं की पड़िआ ॥ लेखा देणा तेरै सिरि रहिआ ॥१॥ रहाउ ॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: मन = हे मन! की पढ़िआ = पढ़ने का क्या लाभ? पढ़ने का कोई लाभ नहीं। सिरि = सिर पर।

नोट: ‘रहाउ’ की इन तुकों के साथ गुरू नानक देव जी की ‘पट्टी’ की रहाउ की तुक मिला के पढ़ें;

मन काहे भूले मूढ़ मना॥
जब लेखा देवहि बीरा तउ पढ़िआ॥ रहाउ॥

शब्दों की और ख्यालों की सांझ साफ़ दिखाई दे रही है कि गुरू अमरदास जी के पास गुरू नानक देव जी की बाणी मौजूद थी।

अर्थ: हे मन! (सिर्फ) ऐसा लेखा पढ़ने का तुझे कोई लाभ नहीं हो सकता (जिसमें उलझ के तू जीवन का सही रास्ता ना सीख सका, गलत रास्ते पर ही पड़ा रहा) और अपने किए कर्मों का हिसाब तेरे सिर पे टिका ही रहा। रहाउ।

सिधंङाइऐ सिमरहि नाही नंनै ना तुधु नामु लइआ ॥ छछै छीजहि अहिनिसि मूड़े किउ छूटहि जमि पाकड़िआ ॥२॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ:

नोट: 'सिधंङाइअै' पांधा अर्थात अध्यापक पहले पट्टी (तख्ती) पर ये आशीर्वाद भरे शब्द लिखता है, और फिर वह अक्षर लिखता है जो बालक ने लिखने सीखने होते हैं। इसके अर्थ हैं– “तुझे इस में सिद्धि प्राप्त हो”।

छीजहि = तू छिज रहा है, लगातार छीण हो रहा है। अहिनिसि = दिन रात। अहि = दिन। निसि = रात। जमि = जम ने।

अर्थ: (हे मन! सिर्फ दुनियावी लेखे सीखने की कोशिशें करने से) तू (परमात्मा को) याद नहीं करता, तू परमात्मा का नाम याद नहीं करता। हे मूर्ख! (प्रभू को भुला के) दिन रात तेरा (आत्मिक जीवन) कमजोर हो रहा है, जब जम ने (इस खुनामी के कारण) पकड़ लिया, तो उससे खलासी कैसे होगी?।2।

बबै बूझहि नाही मूड़े भरमि भुले तेरा जनमु गइआ ॥ अणहोदा नाउ धराइओ पाधा अवरा का भारु तुधु लइआ ॥३॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: भरमि = (सिर्फ दुनियावी लेखे सिखाने के) भुलेखे में। भुले = गलत रास्ते पर पड़ के। अणहोदा = (पण्डित, शिक्षक वाले गुण) ना होते हुए भी। अवरा का भारु = औरों (भाव, चेलों, विद्यार्थियों की जिंमेवारी) का भार।

अर्थ: हे मूर्ख! (सिर्फ दुनियावी लेखे पढ़ने-पढ़ाने में उलझ के) तू (जीवन का सही रास्ता) नहीं समझता, इसी भुलेखे में गलत रास्ते पर पड़ के तू अपना मानस जीवन व्यर्थ गवा रहा है। (आत्मिक जीवन का रास्ता बताने वाले शिक्षक के) गुण तेरे में नहीं हैं, (फिर भी) तूने अपना नाम शिक्षक, पण्डित रखाया हुआ है। तूने अपने चेलों को जीवन-राह सिखाने की जिंमेवारी का भार अपने ऊपर उठाया हुआ है।3।

जजै जोति हिरि लई तेरी मूड़े अंति गइआ पछुतावहिगा ॥ एकु सबदु तूं चीनहि नाही फिरि फिरि जूनी आवहिगा ॥४॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: जोति = ऊँची सुरति, मति (देखें बंद नं:7)। अंति = आखिरी समय। ऐकु सबदु = परमात्मा की सिफत सालाह की बाणी। चीन्हि नाही = पहचानता नहीं।

अर्थ: हेमूर्ख! (निरे मायावी लेखे वाले पत्रों ने आत्मिक जीवन सिखाने वाली) तेरी बुद्धि छीन ली है, आखिरी समय जब तू यहाँ से जाने लगेगा तब तू पछताएगा। (अब इस समय) तू प्रभू की सिफत सालाह की बाणी के साथ सांझ नहीं डालता, (नतीजा ये निकलेगा कि) बार-बार जूनियों में पड़ा रहेगा।4।

तुधु सिरि लिखिआ सो पड़ु पंडित अवरा नो न सिखालि बिखिआ ॥ पहिला फाहा पइआ पाधे पिछो दे गलि चाटड़िआ ॥५॥ {पन्ना 434}

पद्अर्थ: तुधु सिरि = तेरे सिर पर। सो = वह लेख। पंडित = हे पण्डित! बिखिआ = माया। गलि = गले में।

अर्थ: हे पण्डित! तेरे अपने माथे पे जो (माया का) लेख लिखा हुआ है, पहले तू उस लेख को पढ़ (भाव, पिछले किए कर्मों के अनुसार जो संसकार तेरे अंदर इकट्ठे हुए पड़े हैं, उनके तहत तू सिर्फ माया की खातिर उम्र गुजार रहा है, पर अपने आप को पण्डित समझता और पण्डित कहलवाता है। निरी माया की खातिर दौड़-भाग छोड़, और) औरों (चेलों) को भी सिर्फ माया का लेखा-पत्रा ना सिखा।

(सिर्फ माया का लेखा पढ़ने वाले) पण्डित ने पहले अपने गले में (माया की) फांसी डाली हुई है, फिर वही फांसी अपने विद्यार्थियों के गले में डाल देता है।5।

ससै संजमु गइओ मूड़े एकु दानु तुधु कुथाइ लइआ ॥ साई पुत्री जजमान की सा तेरी एतु धानि खाधै तेरा जनमु गइआ ॥६॥

पद्अर्थ: संजमु = इन्द्रियों को गलत तरफ जाने से रोकना, बंधन, जीवन जुगति। कुथाइ = गलत जगह पे। जजमान = परोहित से यॅज्ञ करवाने वाला। पुत्री = बेटी। ऐतु = इसके द्वारा। धानु = अंन्न। धानि = धान के द्वारा। ऐतु धानि = इस अन्न से। ऐतु धानि खाधै = इस खाए अन्न के द्वारा।

अर्थ: (अपने आप को पण्डित समझने वाले) हे मूख! (निरी माया की खातिर पड़ने-पढ़ाने के कारण लालच-वश हो के) तू जीवन-जुगति भी गवा बैठा है। परोहित होने के कारण तू अपने जजमान से हर दिन-दिहाड़े के दान लेता है, (पर) एक दान तू अपने जजमान से गलत जगह पर लेता है। जजमान की बेटी तेरी ही बेटी है (बेटी के विवाह पर जजमान से दान लेना बेटी का पैसा खाना है)। ये अन्न खाने से (ये पैसा खाने से) तू अपना आत्मिक जीवन गवा लेता है।6।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh