श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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ममै मति हिरि लई तेरी मूड़े हउमै वडा रोगु पइआ ॥ अंतर आतमै ब्रहमु न चीन्हिआ माइआ का मुहताजु भइआ ॥७॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: हिरि लई = छीन ली, मार दी। चीनि्आ = पहचाना। अंतर आतमै = अपनी अंरात्मा में। ब्रहमु = परमात्मा। मुहताजु = जरूरतमंद, पराधीन।

अर्थ: हे मूर्ख! (एक तरफ माया के लालच ने) तेरी लालच मारी हुई है (तुझे ‘कुथाय दान’-गलत जगह से दान लेने में भी संकोच नहीं है। दूसरी तरफ) तुझे ये बड़ा आत्मिक रोग चिपका हुआ है कि मैं (विद्वान) हूँ, मैं (विद्वान) हूँ। तू अपने अंदर (बसते) परमात्मा को पहचान नहीं सका, (इस वास्ते तेरा स्वै) माया (के लालच) के अधीन है।7।

ककै कामि क्रोधि भरमिओहु मूड़े ममता लागे तुधु हरि विसरिआ ॥ पड़हि गुणहि तूं बहुतु पुकारहि विणु बूझे तूं डूबि मुआ ॥८॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: कामि = काम वासना में। क्रोधि = क्रोध में। भरमिओहु = तू भटक रहा है, तू गलत राह पर पड़ा हुआ है। ममता = (ये चीज) मेरी (बन जाए) (की प्रबल वासना), लालच। पढ़हि = तू पढ़ता है। गुणहि = तू विचारता है। पुकारहि = तू ऊँचा ऊँचा (औरों को) सुनाता है। डूबि मुआ = लालच की बाढ़ में डूब के आत्मिक मौत सहेड़ चुका है।

अर्थ: हेमूर्ख! (औरों को समझाता) तू स्वयं काम वासना में, क्रोध में (फस के) गलत राह पर पड़ा हुआ है। तू (धर्म-पुस्तकें) पढ़ता है, अर्थ विचारता है, और औरों को सुनाता भी है, पर (सही जीवन राह) समझे बिना तू (लालच की बाढ़ में) डूब के आत्मिक मौत मर चुका है।8।

ततै तामसि जलिओहु मूड़े थथै थान भरिसटु होआ ॥ घघै घरि घरि फिरहि तूं मूड़े ददै दानु न तुधु लइआ ॥९॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: तामसि = क्रोध से। जलिओहु = तू जला हुआ है। थानु = हृदय स्थान। भरिसटु = गंदा। घरि घरि = हरेक (जजमान के) घर में।

अर्थ: हेमूर्ख (पण्डित!) तू (अंदर से) क्रोध से जला हुआ है, तेरा हृदय-स्थल (लालच से) गंदा हुआ पड़ा है। हे मूर्ख! तू हरेक (जजमान के) घर में (मायावी दक्षिणा के लिए तो) चलता फिरता है, पर प्रभू के नाम की दक्षिणा तूने अभी तक किसी से नहीं ली।9।

पपै पारि न पवही मूड़े परपंचि तूं पलचि रहिआ ॥ सचै आपि खुआइओहु मूड़े इहु सिरि तेरै लेखु पइआ ॥१०॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: परपंचि = परपंच में, माया के पसारे में। पलचि रहिआ = तू फस रहा है, उलझ रहा है। सचै = सच्चे प्रभू ने। खुआइओहु = तुझे गलत रास्ते पर डाल दिया है। सिरि तेरै = तेरे सिर पर, तेरे माथे पे।

अर्थ: हे मूर्ख! तू संसार (के मोह जाल) में (इतना) उलझ रहा है कि इस में से परले पासे नहीं पहुँच सकता। हे मूर्ख! (तेरे अपने किए कर्मों के अनुसार) करतार ने तुझे (उसे) गलत राह पर डाल दिया है (जिधर तेरी रुची बनी हुई है, और) उनके किए कर्मों के संस्कारों के संचय का लेख तेरे माथे पे (इतना) करा पड़ा है (कि तुझे सही रास्ते की समझ नहीं रहती, पर तू औरों को सलाहें देता फिरता है)।10।

भभै भवजलि डुबोहु मूड़े माइआ विचि गलतानु भइआ ॥ गुर परसादी एको जाणै एक घड़ी महि पारि पइआ ॥११॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: भवजलि = संसार समुंद्र में। गलतानु = इतना मस्त कि और कुछ सूझता ही नहीं। परसादी = कृपा से। ऐको = एक परमात्मा को ही। जाणै = जो मनुष्य जानता है।

अर्थ: हे मूर्ख! तू माया (के मोह) में इतना मस्त है कि तुझे और कुछ सूझता ही नहीं, तू संसार समुंद्र (की मोह की लहरों) में गोते खा रहा है (अपने बचाव के लिए तू कोई उद्यम नहीं करता)।

(गुरू की शरण पड़ कर) गुरू की कृपा से जो मनुष्य परमात्मा से सांझ डालता है, वह इस संसार समुंद्र से एक पल में पार लांघ जाता है।11।

ववै वारी आईआ मूड़े वासुदेउ तुधु वीसरिआ ॥ एह वेला न लहसहि मूड़े फिरि तूं जम कै वसि पइआ ॥१२॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: वारी = मानस जनम की बारी जिसमें परमात्मा का नाम सिमरा जा सकता था। वासदेउ = परमात्मा। न लहसहि = तू ढूँढ नहीं सकेगा। वसि = काबू में।

अर्थ: हेमूर्ख! (सौभाग्य से) मानस जन्म (मिलने) की बारी आई थी, पर (इस अमोलक जनम में भी) तुझे परमात्मा भूला ही रहा। हे मूर्ख! (अगर भटकता ही रहा तो) ये समय दुबारा नहीं मिलेगा (और माया के मोह में फसा रह के) तू जम के वश में पड़ जाएगा (जनम-मरण के चक्कर में पड़ जाएगा)।12।

झझै कदे न झूरहि मूड़े सतिगुर का उपदेसु सुणि तूं विखा ॥ सतिगुर बाझहु गुरु नही कोई निगुरे का है नाउ बुरा ॥१३॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: न झूरहि = नही झूरेगा, अंदर से चिंता में, सिसकियों में नहीं डूबेगा। विखा = देख ले। निगुरा = जिसने गुरू का आसरा नहीं लिया।

अर्थ: हे मूर्ख! तू पूरे गुरू का उपदेश धारण करके देख ले, (माया आदि की खातिर) तुझे कभी झुरना नहीं पड़ेगा (क्योंकि माया-मोह का जाल टूट जाएगा) पर अगर पूरे गुरू की शरण नहीं पड़ेगा तो कोई (रस्मी) गुरू (इन चिंताओं से सिसकियों से बचा) नहीं (सकता)।

जो मनुष्य पूरे गुरू के बताए रास्ते पर नहीं चलता, (गलत रास्ते पर पड़ने के कारण) वह बदनामी ही कमाता है।13।

धधै धावत वरजि रखु मूड़े अंतरि तेरै निधानु पइआ ॥ गुरमुखि होवहि ता हरि रसु पीवहि जुगा जुगंतरि खाहि पइआ ॥१४॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: वरजि रखु = रोक के रख। धावत = भटकते को। तेरै अंतरि = तेरे अंदर। निधानु = खजाना (सुखों का)। गुरमुखि होवहि = अगर तू गुरू के सन्मुख रहे। जुगा जुगंतरि = जुगों जुग अंतर, अनेकों युगों तक, सदा के लिए। खाहि पइआ = पड़ा खाएगा, खाता रहेगा।

अर्थ: हेमूर्ख! आत्मिक सुख का खजाना परमात्मा तेरे अंदर बस रहा है (पर, तू सुख की तलाश में बाहर भटकता फिरता है) बाहर भटकते मन को रोक के रख। अगर तू गुरू के बताए रास्ते पर चले तो (अंदर बसते) परमात्मा के नाम का रस पीएगा, सदा के लिए ये नाम रस बरसता रहेगा (कभी खत्म नहीं होगा)।14।

गगै गोबिदु चिति करि मूड़े गली किनै न पाइआ ॥ गुर के चरन हिरदै वसाइ मूड़े पिछले गुनह सभ बखसि लइआ ॥१५॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: गुनह = पाप।

अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा (के नाम) को अपने चित्त में बसा ले (तभी उससे मिलाप होगा), सिर्फ बातों से किसी ने प्रभू को नहीं पाया।

हे मूर्ख! गुरू के चरण हृदय में टिकाए रख, पिछले किए हुए सारे पाप बख्शे जाएंगे।15।

हाहै हरि कथा बूझु तूं मूड़े ता सदा सुखु होई ॥ मनमुखि पड़हि तेता दुखु लागै विणु सतिगुर मुकति न होई ॥१६॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: बूझु = समझ, जाच सीख। कथा = सिफत सालाह। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाले। तेता = उतना ही। मुकति = खलासी।

अर्थ: हे मूर्ख! अगर तू परमात्मा की सिफत सालाह करनी सीख ले तो तुझे सदा आत्मिक आनंद मिला रहे। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे जितना ही (प्रभू की सिफत सालाह से टूट के माया संबंधी और ही लेखे) पढ़ते रहते हैं, उतनी ही ज्यादा अशांति कमाते हैं, और गुरू की शरण के बिना (इस अशांति से) खलासी नहीं मिलती।16।

रारै रामु चिति करि मूड़े हिरदै जिन्ह कै रवि रहिआ ॥ गुर परसादी जिन्ही रामु पछाता निरगुण रामु तिन्ही बूझि लहिआ ॥१७॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: चिति करि = चित्त में बसा ले। हिरदै = हृदय में। रवि रहिआ = सदा याद है, सदा मौजूद है। पछाता = पहचान लिया, गहरी सांझ डाल ली। बूझि = समझ के। निरगुण = माया के प्रभाव से निर्लिप। लहिआ = ढूँढ लिया। परसादी = कृपा से।

अर्थ: हे मूर्ख! परमात्मा को अपने हृदय में बसाए रख। जिन लोगों के दिल में परमात्मा सदा बसता रहता है (जिन्हें प्रभू सदा याद है, उनकी संगति में रह के) गुरू की कृपा से जिन (और) लोगों ने परमात्मा के साथ सांझ डाली, उन्होंने माया से निर्लिप प्रभू (की अस्लियत) समझ के उस से मिलाप प्राप्त कर लिया।17।

तेरा अंतु न जाई लखिआ अकथु न जाई हरि कथिआ ॥ नानक जिन्ह कउ सतिगुरु मिलिआ तिन्ह का लेखा निबड़िआ ॥१८॥१॥२॥ {पन्ना 435}

पद्अर्थ: अकथु = जो बयान से बाहर है। लेखा = किए बुरे कर्मों का हिसाब। निबड़िआ = खत्म हो जाता है।

(नोट: किसी शाहूकार से कर्जा उठा लें, ज्यों = ज्यों समय गुजरता है, उस कर्जे पर ब्याज पड़-पड़ के शाहूकार की रकम बढ़ती जाती है। किसी किए विकार के कारण मन में टिके हुए बुरे संस्कार विकारों की ओर, और ज्यादा प्रेरित करते हैं। उस प्रेरणा से और विकार किए जाते हैं इस तरह विकारों का ये सिलसिला जारी रहता है, और विकारों का लेखा बढ़ता चला जाता है)।

अर्थ: हे प्रभू! तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। परमात्मा का स्वरूप बयान से परे है, बयान नहीं किया जा सकता।

हे नानक! जिन्हें सतिगुरू मिल जाए (वह निरी माया के लेखे लिखने-पढ़ने की जगह परमात्मा की सिफत सालाह करने लग पड़ते हैं, इस तरह) उनके अंदर से माया के मोह के संस्कारों का हिसाब समाप्त हो जाता है।18।1।2।

नोट: अंक 1 का भाव है ये 18 बंदों वाली सारी एक ही बाणी है जिसका शीर्षक है ‘पट्टी’। अंक 2 का भाव ये है कि ‘पट्टी’ नाम की ये ‘दो’ बाणियां हैं। पहली ‘पट्टी’ महले पहले की, और दूसरी ‘पट्टी’ महले तीसरे की।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh