श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ४ ॥ झिमि झिमे झिमि झिमि वरसै अम्रित धारा राम ॥ गुरमुखे गुरमुखि नदरी रामु पिआरा राम ॥ राम नामु पिआरा जगत निसतारा राम नामि वडिआई ॥ कलिजुगि राम नामु बोहिथा गुरमुखि पारि लघाई ॥ हलति पलति राम नामि सुहेले गुरमुखि करणी सारी ॥ नानक दाति दइआ करि देवै राम नामि निसतारी ॥१॥ {पन्ना 443}

पद्अर्थ: झिमि झिमे = झिम झिम, मीठी मीठी आवाज से। वरसै = बरसता है। अंम्रित धारा = आत्मिक जीवन देने वाले जल का धारा। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाला मनुष्य। नदरी = नजर आ जाता है। निसतारा = संसार समुंद्र से पार लंघाने वाला। नामि = नाम में (जुड़ के)। वडिआई = आदर मान। कलिजुग = (‘इक घड़ी न मिलते त कलिजुगु होता’) वह आत्मिक अवस्था जब जीव परमात्मा से विछुड़ के विकारों में गर्क होता है। कलिजुगि = विकारों के कारण गिरी हुई आत्मिक हालत में। बोहिथा = जहाज। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। हलति = इस लोक में। पलति = परलोक में। सुहेले = सुखी। सारी = श्रेष्ठ। करणी = करणीय, करने योग्य काम। करि = कर के।1।

अर्थ: (हे भाई! जैसे वर्षा ऋतु में जब मीठी मीठी फुहार पड़ती है तो बड़ी सुहावनी ठंड महसूस होती है, वैसे ही अगर मनुष्य को गुरू मिल जाए तो उसके हृदय की धरती पर) आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल की धार आहिस्ता-आहिस्ता बरखा करती है (और उसको आत्मिक शांति बख्शती है। इस नाम-बरखा की बरकति से) गुरू के सन्मुख रहने वाले उस (भाग्यशाली) मनुष्य को प्यारा परमातमा दिखाई दे जाता है। सारे जीवों को संसार-समुंद्र से पार लंघाने वाला परमात्मा का नाम उस मनुष्य को प्यारा लगने लगता है, परमात्मा के नाम की बरकति से उसे (लोक-परलोक में) आदर-सत्कार मिल जाता है।

हे भाई! विकारों के कारण निघरी (गिरी) हुई आत्मिक हालत के समय परमात्मा का नाम जहाज (का काम देता) है, गुरू की शरण डाल के (परमात्मा जीव को संसार-समुंदर को) पार लंघा लेता है।

जो मनुष्य परमात्मा के नाम में जुड़ते हैं वे इस लोक और परलोक में सुखी रहते हैं। गुरू की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम सिमरना ही) सबसे श्रेष्ठ करने योग्य कार्य है। हे नानक! मेहर करके परमात्मा जिस मनुष्य को अपने नाम की दाति देता है उसको नाम में जोड़ के संसार-समुंद्र से पार लंघा लेता है।1।

रामो राम नामु जपिआ दुख किलविख नास गवाइआ राम ॥ गुर परचै गुर परचै धिआइआ मै हिरदै रामु रवाइआ राम ॥ रविआ रामु हिरदै परम गति पाई जा गुर सरणाई आए ॥ लोभ विकार नाव डुबदी निकली जा सतिगुरि नामु दिड़ाए ॥ जीअ दानु गुरि पूरै दीआ राम नामि चितु लाए ॥ आपि क्रिपालु क्रिपा करि देवै नानक गुर सरणाए ॥२॥ {पन्ना 443}

पद्अर्थ: किलविख = पाप। गुर परचै = गुरू के माध्यम से (नाम जपने के) काम में लग के। रवाइआ = बसा लिया। रविआ = सिमरा। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। नाव = (जिंदगी की) बेड़ी। सतिगुरि = सतिगुरू ने। दिढ़ाऐ = हृदय में पक्का कर दिया। जीअ दानु = आत्मिक जीवन की दाति। गुरि = गुरू ने। नामि = नाम में। करि = कर के।2।

अर्थ: (हे भाई! जिन मनुष्यों ने) हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरा, उन्होंने अपने सारे दुख व पाप नाश कर लिए।

(हे भाई!) गुरू के द्वारा हर समय जुट के मैंने हरि-नाम का सिमरन शुरू किया, मैंने अपने हृदय में परमात्मा को बसा लिया। जब से मैं गुरू की शरण आ पड़ा, और, परमातमा को अपने हृदय में बसाया, तब से मैंने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली।

हे भाई! जब से (किसी भाग्यशाली के हृदय में) गुरू ने परमात्मा का नाम पक्का कर के बसा दिया, तो लोभ आदि के विकारों की बाढ़ में डूब रही उसकी (जिंदगी की) बेड़ी बाहर निकल आई। जिस मनुष्य को पूरे गुरू ने आत्मिक जीवन की दाति बख्शी, उसने अपना ध्यान परमात्मा के नाम में जोड़ लिया।

हे नानक! गुरू की शरण में लाकर दयालु परमात्मा स्वयं ही कृपा करके (अपने नाम की दाति) देता है।2।

बाणी राम नाम सुणी सिधि कारज सभि सुहाए राम ॥ रोमे रोमि रोमि रोमे मै गुरमुखि रामु धिआए राम ॥ राम नामु धिआए पवितु होइ आए तिसु रूपु न रेखिआ काई ॥ रामो रामु रविआ घट अंतरि सभ त्रिसना भूख गवाई ॥ मनु तनु सीतलु सीगारु सभु होआ गुरमति रामु प्रगासा ॥ नानक आपि अनुग्रहु कीआ हम दासनि दासनि दासा ॥३॥ {पन्ना 443}

पद्अर्थ: सिधि = कामयाबी, सफलता। सभि = सारे। सुहाऐ = सोहणे। रोमे रोमि = रोमि रोमि, रोम रोम से। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। रेखिआ = रेखा, चिन्ह चक्र। रविआ = सिमरा। घट अंतरि = हृदय में। सीगारु = सजावट। अनुग्रहु = किरपा।3।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य ने गुरू की बाणी सुनी, परमात्मा की सिफत सालाह सुनी, उसे (मानस जनम के उद्देश्य में) सफलता हासिल हो गई, उसके सारे कार्य सफल हो गए। (हे भाई!) मैं भी गुरू की शरण पड़ कर रोम-रोम से परमात्मा का नाम सिमर रहा हूँ।

(हे भाई!) जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम सिमरा वह पवित्र जीवन वाला बन के उस प्रभू के दर पर जा पहुँचा जिस का कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता, जिसका कोई खास चक्र-चिन्ह बयान नहीं किया जा सकता। जिस मनुष्य ने हर समय अपने हृदय में परमात्मा का नाम सिमरा, उसने (अपने अंदर से) माया की भूख-प्यास दूर कर ली, उसका मन उसका हृदय ठंडा-ठार हो गया, उसके आत्मिक जीवन को हरेक किस्म कासहज हासिल हो गया, गुरू की शिक्षा की बरकति से उसके अंदर परमात्मा का नाम रौशन हो गया।

हे नानक! (कह–) जब से परमात्मा ने स्वयं मेरे पर मेहर की है मैं उसके दासों के दासों का दास बन गया हूँ।3।

जिनी रामो राम नामु विसारिआ से मनमुख मूड़ अभागी राम ॥ तिन अंतरे मोहु विआपै खिनु खिनु माइआ लागी राम ॥ माइआ मलु लागी मूड़ भए अभागी जिन राम नामु नह भाइआ ॥ अनेक करम करहि अभिमानी हरि रामो नामु चोराइआ ॥ महा बिखमु जम पंथु दुहेला कालूखत मोह अंधिआरा ॥ नानक गुरमुखि नामु धिआइआ ता पाए मोख दुआरा ॥४॥ {पन्ना 443}

पद्अर्थ: से मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले वे लोग। मूढ़ = मूर्ख। अभागी = बद्किस्मत। अंतरे = अंदर, हृदय में। विआपै = जोर डाले रखता है। लागी = चिपकी रहती है। मलु = मैल। भाइआ = अच्छा लगा। करम = (निहित धार्मिक) काम, धार्मिक रस्में। बिखमु = मुश्किल। पंथु = रास्ता। दुहेला = दुखों भरा। कालूखत = कालख। अंधिआरा = अंधेरा। मोख = (मोह आदि से) निजात, छुटकारा। दुआरा = दरवाजा।4।

अर्थ: अपने मन के पीछे चलने वाले जिन लोगों ने परमात्मा का नाम भुला दिया, वे मूर्ख बद्-किस्मत ही रहे। उनके अंदर मोह जोर डाले रखता है, उन्हे हर समय माया चिपकी रहती है। जिन मनुष्यों को परमात्मा का नाम प्यारा नहीं लगता, वे मूर्ख बद्-किस्मत ही रहते हैं, उनको सदा माया (के मोह) की मैल लगी रहती है। (नाम भुला के ज्यों-ज्यों वे और ही) धार्मिक रस्में करते हैं (और भी ज्यादा) अहंकारी होते जाते हैं (ये की हुई धार्मिक रस्मेंउनके अंदर से बल्कि) परमात्मा का नाम चुरा के ले जाती हैं। (जीवन-यात्रा में वे) यमों वाला रास्ता (पकड़ के रखते हैं जो) बड़ा मुश्किल है जो दुखों-भरा है और जहाँ माया के मोह की कालिख के कारण (आत्मिक जीवन की तरफ से) अंधकार ही अंधकार है।

हे नानक! जब मनुष्य गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा का नाम सिमरता है तब (माया के मोह आदि से) छुटकारे का रास्ता तलाश लेता है।4।

रामो राम नामु गुरू रामु गुरमुखे जाणै राम ॥ इहु मनूआ खिनु ऊभ पइआली भरमदा इकतु घरि आणै राम ॥ मनु इकतु घरि आणै सभ गति मिति जाणै हरि रामो नामु रसाए ॥ जन की पैज रखै राम नामा प्रहिलाद उधारि तराए ॥ रामो रामु रमो रमु ऊचा गुण कहतिआ अंतु न पाइआ ॥ नानक राम नामु सुणि भीने रामै नामि समाइआ ॥५॥ {पन्ना 443}

पद्अर्थ: गुरू गुरमुखे = गुरू के द्वारा, गुरू की शरण पड़ के। जाणै = गहरी सांझ डालता है। ऊभ = ऊँचा (अहंकार में)। पइआली = पाताल में, गिरावट की अवस्था में। इकतु घरि = एक घर में, प्रभू चरणों में। आणै = ले आता है। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। मिति = मर्यादा। रसाऐ = भोगता है। पैज = इज्जत। उधारि = बचा ले। रमो रमु = सुंदर ही सुंदर। भीने = भीग गऐ, तरो तर हो गए। नामि = नाम में।5।

अर्थ: ( हे भाई! जो मनुष्य) गुरू के द्वारा, गुरू की शरण पड़ कर परमात्मा के नाम के साथ गहरी सांझ डालता है वह अपने इस मन को प्रभू चरणों में ला टिकाता है जो हर समय कभी अहंकार में और कभी गिरावट में भटकता फिरता है। वह मनुष्य अपने मन को एक परमात्मा के चरणों में टिका लेता है, वह आत्मिक जीवन की हरेक मर्यादा को समझ लेता है। वह परमात्मा के नाम का आनंद भोगता रहता है। परमात्मा का नाम ऐसे मनुष्य की इज्जत रख लेता है जिस तरह परमात्मा ने प्रहलाद आदि भगतों को (मुश्किलों से) बचा के (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लिया।

(हे भाई!) परमात्मा सब से ऊँचा है, सुंदर ही सुंदर है, बयान करते-करते उसके गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे नानक! परमात्मा का नाम सुन के (जिन के हृदय) पसीज जाते हैं वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं।5।

जिन अंतरे राम नामु वसै तिन चिंता सभ गवाइआ राम ॥ सभि अरथा सभि धरम मिले मनि चिंदिआ सो फलु पाइआ राम ॥ मन चिंदिआ फलु पाइआ राम नामु धिआइआ राम नाम गुण गाए ॥ दुरमति कबुधि गई सुधि होई राम नामि मनु लाए ॥ सफलु जनमु सरीरु सभु होआ जितु राम नामु परगासिआ ॥ नानक हरि भजु सदा दिनु राती गुरमुखि निज घरि वासिआ ॥६॥ {पन्ना 443-444}

पद्अर्थ: तिन् = उन्होंने। सभ = सारी। सभि = सारे। अरथा सभि धरम = धर्म अर्थ काम मोक्ष आदि ये सारे पदार्थ। मनि = मन में। चिंदिआ = चितवा हुआ। दुरमति = खोटी मति। कबुधि = बुरी मति। सुधि = सूझ। नामि = नाम में। सभु = सारा। जितु = जिस (शरीर) में। परगासिआ = रौशन हो गया, चमक गया। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। निज घरि = अपने असल घर में, प्रभू चरणों में।6।

अर्थ: (हे भाई!) जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा का नाम आ बसता है वे अपनी हरेक किस्म की चिंता दूर कर लेते हैं, उन्हें धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष, ये सारे पदार्थ प्राप्त हो जाते हैं, वे मनुष्य जो कुछ अपने मन में चितवते हैं वही फल उन्हें मिल जाता है। वह मन इज्जत-फल हासिल कर लेते हैं, वे परमात्मा का नाम हमेशा सिमरते रहते हैं, वे सदा परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाते रहते हैं। उनके अंदर से खोटी मति कुबुद्धि दूर हो जाती है, उन्हें आत्मिक जीवन की समझ आ जाती है, वे परमात्मा के नाम में अपना मन जोड़े रखते हैं। उनका मानस जनम कामयाब हो जाता है उनका शरीर भी सफल हो जाता है क्योंकि उनके शरीर में परमात्मा का नाम प्रकाशमान हो जाता है।

हे नानक! तू भी सदा दिन-रात हर वक्त परमात्मा का नाम सिमरता रह। गुरू की शरण पड़ कर (परमात्मा का नाम सिमरने से) परमात्मा के चरणों में जगह मिली रहती है।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh