श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 444 जिन सरधा राम नामि लगी तिन्ह दूजै चितु न लाइआ राम ॥ जे धरती सभ कंचनु करि दीजै बिनु नावै अवरु न भाइआ राम ॥ राम नामु मनि भाइआ परम सुखु पाइआ अंति चलदिआ नालि सखाई ॥ राम नाम धनु पूंजी संची ना डूबै ना जाई ॥ राम नामु इसु जुग महि तुलहा जमकालु नेड़ि न आवै ॥ नानक गुरमुखि रामु पछाता करि किरपा आपि मिलावै ॥७॥ {पन्ना 444} पद्अर्थ: नामि = नाम में। सरधा = श्रद्धा, निश्चय। दूजै = किसी और पदार्थ में। सभ = सारी। परम = सबसे ऊँचा। अंति = आखिर में। सखाई = साथी। पूँजी = सरमाया। संची = एकत्र की। जाई = बेकार हो गई। इसु जुग महि = मानस जनम में, जगत में। तुलहा = नदी से पार लांघने के लिए शतीरियों आदि से बनाया हुआ सहारा। जम कालु = मौत, आत्मिक मौत। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। पछाता = सांझ डाल ली।7। अर्थ: ( हे भाई!) जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम सिमरने में अपना निष्चय पक्का कर लिया, वह (हरि-नाम का प्यार छोड़ के) किसी और पदार्थ में अपना ध्यान नहीं जोड़ते। अगर सारी धरती सोना बना के भी उनके आगे रख दें, तो भी परमात्मा के नाम के बगैर और कोई पदार्थ उन्हें प्यारा नहीं लगता। उनके मन को परमात्मा का नाम ही भाता है (नाम की बरकति से) वे सबसे श्रेष्ठ आत्मिक आनंद भोगते हैं, आखिरी समय में दुनिया से रवानगी के वक्त भी यही हरि-नाम उनका साथी बनता है। वे सदा परमात्मा का नाम-धन नाम-पूँजी एकत्र करते रहते हैं, ये धन ये सरमाया ना पानी में डूबता है ना ही गायब होता है। हे भाई! (संसार-नदी से पार लांघने के लिए) परमात्मा का नाम इस जगत में (मानो) तुलहा है। (जो मनुष्य नाम सिमरता रहता है) आत्मिक मौत उसके नजदीक नहीं फटकती। हे नानक! जिस मनुष्य ने गुरू की शरण में आकर परमात्मा के साथ गहरी नजदीकी बना ली, परमात्मा मेहर करके स्वयं उसे अपने चरणों में जोड़ लेता है।7। रामो राम नामु सते सति गुरमुखि जाणिआ राम ॥ सेवको गुर सेवा लागा जिनि मनु तनु अरपि चड़ाइआ राम ॥ मनु तनु अरपिआ बहुतु मनि सरधिआ गुर सेवक भाइ मिलाए ॥ दीना नाथु जीआ का दाता पूरे गुर ते पाए ॥ गुरू सिखु सिखु गुरू है एको गुर उपदेसु चलाए ॥ राम नाम मंतु हिरदै देवै नानक मिलणु सुभाए ॥८॥२॥९॥ {पन्ना 444} पद्अर्थ: सते सति = सति सति, सदा कायम रहने वाला, सदा कायम रहने वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने वाला मनुष्य। जिनि = जिस (सेवक) ने। अरपि = भेटा करके। चढ़ाइआ = चढ़ावा चढ़ा दिया। मनि = मन में। सरधाइआ = श्रद्धा पैदा हुई। भाइ = प्रेम के कारण। भाउ = प्रेम। दीना नाथु = गरीबों का रक्षक। जीआ का = सब जीवों का। ते = से। चलाऐ = चलाए जाता है। मंतु = उपदेश। मिलणु = मिलाप। सुभाऐ = श्रेष्ठ प्रेम के कारण।8। अर्थ: (हे भाई!) परमात्मा का नाम सदा कायम रहने वाला है परमात्मा का नाम सदा स्थिर रहने वाला है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह उस परमात्मा के साथ गहरा अपनत्व बना लेता है। (पर) वही (मनुष्य) सेवक (बन के) गुरू की बताई हुई सेवा में लगता है जिसने अपना मन अपना तन भेटा करके चढ़ावे के तौर पे (गुरू के आगे) रख दिया है। जिस मनुष्य ने अपना मन अपना तन गुरू के हवाले कर दिया, उसके मन में गुरू के वासते अपार श्रद्धा पैदा हो जाती है (गुरू उसको) उस प्रेम की बरकति से (प्रभू चरणों में) मिला देता है (जो प्रेम) गुरू के सेवक के हृदय में होना चाहिए। (हे भाई!) परमात्मा गरीबों का पति है (मालिक है रखवाला है) सब जीवों को दातें देने वाला है, वह परमात्मा पूरे गुरू से मिलता है। (प्रेम की बरकति से) गुरू सिख (के साथ एक-रूप हो जाता) है और सिख गुरू (में लीन हो जाता) है, सिख भी गुरू वाले उपदेश (की लड़ी) को आगे चलाता रहता है। हे नानक! जिस मनुष्य को गुरू परमात्मा के नाम का मंत्र हृदय में (बसाने के लिए) देता है, प्रेम के सदका उसका मिलाप (परमात्मा के साथ) हो जाता है।8।2।9। नोट: छंत महला ४---------------2 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा छंत महला ४ घरु २ ॥ हरि हरि करता दूख बिनासनु पतित पावनु हरि नामु जीउ ॥ हरि सेवा भाई परम गति पाई हरि ऊतमु हरि हरि कामु जीउ ॥ हरि ऊतमु कामु जपीऐ हरि नामु हरि जपीऐ असथिरु होवै ॥ जनम मरण दोवै दुख मेटे सहजे ही सुखि सोवै ॥ हरि हरि किरपा धारहु ठाकुर हरि जपीऐ आतम रामु जीउ ॥ हरि हरि करता दूख बिनासनु पतित पावनु हरि नामु जीउ ॥१॥ {पन्ना 444} पद्अर्थ: करता = करतार, जगत रचना करने वाला। पतित = विकारों में गिरे हुए। पावनु = पवित्र। भाई = अच्छी लगी। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। कामु = काम। ऊतमु = श्रेष्ठ, उत्तम। जपीअै = जपना चाहिए। असथिरु = (विकारों के हमलों की तरफ से) अडोल चित्त। सहजे = आत्मिक अडोलता में। सुखि = आत्मिक आनंद में। सोवै = लीन रहता है। ठाकुर = हे ठाकुर! आतम रामु = सर्व व्यापक परमात्मा।1। अर्थ: (हे भाई!) जगत का रचयता परमात्मा (जीवों के) दुखों का नाश करने वाला है, उस परमात्मा का नाम विकारों में गिरे हुए जीवों को पवित्र करने वाला है। जिस मनुष्य को परमात्मा की सेवा-भक्ति प्यारी लगती है वह सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर लेता है। (हे भाई!) हरि नाम सिमरना सबसे श्रेष्ठ काम है। परमात्मा का नाम सिमरना सबसे उत्तम काम है, हरि-नाम सिमरना चाहिए, हरी-नाम सिमरना चाहिए (जो मनुष्य हरि-नाम सिमरता है वह विकारों के हमलों की ओर से) अडोल-चित्त हो जाता है। वह मनुष्य जनमों के चक्रों का दुख आत्मिक मौत का दुख- ये दोनों ही दुख मिटा लेता है, वह सदा आत्मिक अडोलता में आत्मिक आनंद में लीन रहता है।1। हे हरी! हे मालिक! कृपा कर। (हे भाई! अगर परमात्मा कृपा करे तो) उस सर्व-व्यापक परमात्मा (का नाम) जपा जा सकता है। (हे भाई!) जगत को रचने वाला परमात्मा (जीवों के) दुख नाश करने वाला है, उस परमात्मा का नाम विकारों में गिरे हुए जीवों को पवित्र करने के योग्य है।1। हरि नामु पदारथु कलिजुगि ऊतमु हरि जपीऐ सतिगुर भाइ जीउ ॥ गुरमुखि हरि पड़ीऐ गुरमुखि हरि सुणीऐ हरि जपत सुणत दुखु जाइ जीउ ॥ हरि हरि नामु जपिआ दुखु बिनसिआ हरि नामु परम सुखु पाइआ ॥ सतिगुर गिआनु बलिआ घटि चानणु अगिआनु अंधेरु गवाइआ ॥ हरि हरि नामु तिनी आराधिआ जिन मसतकि धुरि लिखि पाइ जीउ ॥ हरि नामु पदारथु कलिजुगि ऊतमु हरि जपीऐ सतिगुर भाइ जीउ ॥२॥ {पन्ना 444} पद्अर्थ: कलिजुगि = कलि युग में, माया ग्रसित संसार में। सतिगुर भाइ = गुरू के प्यार में (टिक के)। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। पढ़ीअै = पढ़ा जा सकता है। सुणीअै = सुना जा सकता है। जाइ = दूर हो जाता है। परम = सबसे ऊँचा। गिआनु = आत्मिक जीवन की ऊँची सूझ। बलिआ = प्रबल हुआ, चमका। घटि = हृदय में। अंधेरु = अंधेरा। जिन मसतकि = जिनके माथे पे। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिख के। पाइ = रख दिया है।2। अर्थ: (हे भाई!) इस माया-ग्रसित जगत में (अन्य सभी पदार्थों के मुकाबले) परमात्मा का नाम श्रेष्ठ पदार्थ है। पर, ये हरि-नाम, गुरू के प्रेम में टिक के ही जपा जा सकता है। गुरू की शरण पड़ कर ही परमात्मा की सिफत सालाह वाली बाणी पढ़ी जा सकती है। गुरू की शरण में आ के ही सिफत सालाह की बाणी सुनी जा सकती है। परमात्मा का नाम जपते-सुनते हुए हरेक दुख दूर हो जाते हैं। जिस मनुष्य ने परमात्मा का नाम जपा उसके दुख नाश हो गए, जिस ने हरि-नाम (धन प्राप्त कर लिया) उसने सबसे ऊँचा आनंद पा लिया। गुरू की दी हुई आत्मिक जीवन की समझ जिस मनुष्य के अंदर जाग पड़ी (चमक गई) उसके हृदय में (सही जीवन का) प्रकाश हो गया, उसने अपने अंदर से अज्ञानता का अंधेरा दूर कर लिया। हे भाई! उन मनुष्यों ने ही परमात्मा का नाम सिमरा है जिनके माथे पर परमात्मा ने धुर से सिमरन का लेख लिख के रख दिया है। (हे भाई!) इस माया-ग्रसित संसार में (अन्य सभी पदार्थों से) उत्तम परमात्मा का नाम है, पर ये हरि-नाम गुरू के प्यार में जुड़ के ही जपा जा सकता है।2। हरि हरि मनि भाइआ परम सुख पाइआ हरि लाहा पदु निरबाणु जीउ ॥ हरि प्रीति लगाई हरि नामु सखाई भ्रमु चूका आवणु जाणु जीउ ॥ आवण जाणा भ्रमु भउ भागा हरि हरि हरि गुण गाइआ ॥ जनम जनम के किलविख दुख उतरे हरि हरि नामि समाइआ ॥ जिन हरि धिआइआ धुरि भाग लिखि पाइआ तिन सफलु जनमु परवाणु जीउ ॥ हरि हरि मनि भाइआ परम सुख पाइआ हरि लाहा पदु निरबाणु जीउ ॥३॥ {पन्ना 444-445} पद्अर्थ: मन भाइआ = मन में अच्छा लगा। लाहा = लाभ, कमाई। निरबाणु पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती। निरबाणु = वासना रहित। सखाई‘ = साथी। भ्रमु = भटकना। चूका = समाप्त हो गया। किलविख = पाप। नामि = नाम में। धुरि = धुर दरगाह से। लिखि = लिख के।3। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य को परमात्मा (का नाम) मन में प्यारा लगने लगा उसने सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, उसने वह आत्मिक अवस्था कमा ली जहाँ कोई वासना अपना असर नहीं डाल सकती। जिस मनुष्य ने प्रभू चरणों में प्रीति जोड़ी, हरि-नाम उसका सदा के लिए साथी बन गया, उसकी (माया वाली) भटकना समाप्त हो गई, उसके जनम-मरण का चक्र खत्म हो गया। (हे भाई!) जिन मनुष्यों ने परमात्मा की सिफत सालाह की, उनका जनम-मरण, उनकी भटकना, उनका (हरेक किस्म का) डर दूर हो गया, जनम-जनमांतरों के किए हुए उनके पाप और दुख नाश हो गए, वे सदा के लिए परमात्मा में लीन हो गए। जिन्होंने धुर-दरगाह के लिखे भाग्यों के अनुसार नाम की दाति प्राप्त कर ली और हरि-नाम सिमरा उनका मानस जनम कामयाब हो गया वे प्रभू की दरगाह में कबूल हो गए। (हे भाई!) जिन मनुष्यों को परमात्मा (का नाम) मन में अच्छा लगने लगा उन्होंने सबसे उच्च आत्मिक आनंद प्राप्त कर लिया, उनहोंने वह आत्मिक अवस्था कमा ली जहाँ कोई वासना अपना प्रभाव नहीं डाल सकती।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |