श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 445 जिन्ह हरि मीठ लगाना ते जन परधाना ते ऊतम हरि हरि लोग जीउ ॥ हरि नामु वडाई हरि नामु सखाई गुर सबदी हरि रस भोग जीउ ॥ हरि रस भोग महा निरजोग वडभागी हरि रसु पाइआ ॥ से धंनु वडे सत पुरखा पूरे जिन गुरमति नामु धिआइआ ॥ जनु नानकु रेणु मंगै पग साधू मनि चूका सोगु विजोगु जीउ ॥ जिन्ह हरि मीठ लगाना ते जन परधाना ते ऊतम हरि हरि लोग जीउ ॥४॥३॥१०॥ {पन्ना 445} पद्अर्थ: मीठा = मीठा, प्यारा। ते जन = वे लोग। परधाना = जाने माने, मुखिए। हरि लोग = रॅब के प्यारे मनुष्य। वडाई = आदर मान। सखाई = साथी, मित्र। सबदी = शबद से। भोग = आनंद। निरजोग = निर्लिप। से = वह लोग। धंनु = भाग्यशाली। सत पुरखा = ऊँचे जीवन वाले मनुष्य। रेणु = चरण धूड़। पग = पैर। साधू = गुरू। मनि = मन में (टिका हुआ)। सोगु = ग़म। विजोग = विछोड़ा।4। अर्थ: हे भाई! जिन लोगों को परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है वे मनुष्य (जगत में) आदरणीय हो जाते हैं, वे ईश्वर के प्यारे लोग (और दुनिया से) श्रेष्ठ जीवन वाले बन जाते हैं। परमात्मा का नाम (उनके वास्ते) आदर-सत्कार है, परमात्मा का नाम उनका (सदा के लिए) साथी है, गुरू के शबद में जुड़ के वे परमात्मा के नाम-रस का आनंद लेते हैं। वे मनुष्य सदा हरि-नाम-रस भोगते हैं, जिसकी बरकति से वे बड़े निर्लिप रहते हैं, बड़ी किस्मत से उन्हे परमात्मा के नाम का आनंद मिला होता है। हे भाई! जिन मनुष्यों ने गुरू की मति ले के प्रभू का नाम सिमरा, वह बहुत ही भाग्यशाली बन गए, वे ऊँचे और पूर्ण आत्मिक जीवन वाले बन गए। दास नानक (भी) गुरू के चरणों की धूड़ मांगता है (जिन्हें ये चरण-धूड़ प्राप्त हो जाती है, उनके) मन में बसा हुआ चिंता-फिक्र दूर हो जाता है उनके मन में बसता प्रभू-चरणों से विछोड़ा भी दूर हो जाता है। हे भाई! जिन मनुष्यों को परमात्मा प्यारा लगने लग जाता है वे मनुष्य (जगत में) इज्जत वाले हो जाते हैं, वे ईश्वर के प्यारे लोग (और ख़लकत से) श्रेष्ठ जीवन वाले बन जाते हैं।4।3।10। आसा महला ४ ॥ सतजुगि सभु संतोख सरीरा पग चारे धरमु धिआनु जीउ ॥ मनि तनि हरि गावहि परम सुखु पावहि हरि हिरदै हरि गुण गिआनु जीउ ॥ गुण गिआनु पदारथु हरि हरि किरतारथु सोभा गुरमुखि होई ॥ अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको दूजा अवरु न कोई ॥ हरि हरि लिव लाई हरि नामु सखाई हरि दरगह पावै मानु जीउ ॥ सतजुगि सभु संतोख सरीरा पग चारे धरमु धिआनु जीउ ॥१॥ {पन्ना 445} पद्अर्थ: सतजुगि = सतजुग में, उस आत्मिक अवस्था में जो सतियुग वाली कही जाती है। सभु = हर जगह। पग चारे धरमु = चारों पैरों वाला धर्म (-रूप धौल, बैल) (पहले अंजान लोगों का ख्याल था कि धरती को एक बैल ने अपने सींगों पर उठाया हुआ है)। मनि = मन में। तनि = तन में, हिरदै में। हरि गावहि = परमात्मा की सिफत सालाह करते हैं। परम = सबसे ऊँचा। पावहि = प्राप्त करते हैं। हरि गुण गिआनु = परमात्मा के गुणों की गहरी समझ। किरतारथु = कृतार्थ, सफल। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। लिव लाई = सुरति जोड़ी। सखाई = मित्र, साथी। पावै = हासिल करता है। मानु = आदर।1। अर्थ: सतियुगी आत्मिक अवस्था में टिके हुए मनुष्य को हर जगह संतोष (आत्मिक सहारा) दिए रखता है, हर समय मुकम्मल धर्म उसके जीवन का निशाना होता है। (सत्युगी) आत्मिक अवस्था में टिके हुए (मनुष्य) अपने मन में हृदय में परमात्मा की सिफत सालाह करते रहते हैं, और सबसे ऊँचा आत्मिक आनंद लेते रहते हैं, उनके हृदय में परमात्मा के गुणों से गहरा अपनत्व बना रहता है। सतियुगी आत्मिक अवस्था में टिका हुआ मनुष्य परमात्मा के गुणों से गहरी समझ को कीमती वस्तु जानता है, हरि-नाम सिमरन में अपने जीवन को सफल समझता है, गुरू की शरण पड़ के उसे (हर जगह) शोभा मिलती है। उसे अपने अंदर और सारे जगत में एक परमात्मा ही बसता दिखता है, उसके बिना कोई और उसे नहीं दिखता। (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के चरणों में सुरति जोड़ता है, परमात्मा उसका (सदा के लिए) साथी बन जाता है, वह मनुष्य परमात्मा के दरबार में आदर पाता है। (हे भाई!) ऐसी सतियुगी आत्मिक अवस्था में टिके हुए मनुष्य को हर जगह संतोष (आत्मिक सहारा दिए रखता है) हर पक्ष से संपूर्ण धर्म उसके जीवन का निशाना बना रहता है।1। तेता जुगु आइआ अंतरि जोरु पाइआ जतु संजम करम कमाइ जीउ ॥ पगु चउथा खिसिआ त्रै पग टिकिआ मनि हिरदै क्रोधु जलाइ जीउ ॥ मनि हिरदै क्रोधु महा बिसलोधु निरप धावहि लड़ि दुखु पाइआ ॥ अंतरि ममता रोगु लगाना हउमै अहंकारु वधाइआ ॥ हरि हरि क्रिपा धारी मेरै ठाकुरि बिखु गुरमति हरि नामि लहि जाइ जीउ ॥ तेता जुगु आइआ अंतरि जोरु पाइआ जतु संजम करम कमाइ जीउ ॥२॥ {पन्ना 445} पद्अर्थ: अंतरि = जिस मनुष्य के अंदर। जोरु = धक्का, प्रभाव। संजमु = संयम, इन्द्रियों को काबू करने के ‘जत’ आदि यत्न। पगु = पैर। मनि = मन में। जलाइ = जलाता है। बिसलोधु = (बिस = विष। लोधु = लाल अथवा सफेद फूलों वाला एक किस्म का पेड़ है) विषौला वृक्ष। निरप = नृप, राजे। धावहि = दौड़ते हैं, एक दूसरे के ऊपर हमले करते हैं। ममता = अपनत्व। मेरै ठाकुरि = मेरे ठाकुर ने। बिखु = जहर। नामि = नाम से।2। अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के अंदर (दूसरों पे) धक्का जोर जबर (करने का स्वभाव) आ बसता है, उसके लिए तो त्रेता युग आया समझो (उसके अंदर जैसे त्रेता युग चल रहा है। वह मनुष्य परमात्मा का सिमरन भुला के) वीर्य को रोकना (ही धर्म समझ लेता है) वह मनुष्य इन्द्रियों को वश करने वाले कर्म ही करता है। उस मनुष्य के अंदर से (धर्म रूपी बैल का) चौथा पैर खिसक जाता है (उसके अंदर धर्म बैल) तीन पैरों पर ही खड़ा है, उसके मन में उसके हृदय में क्रोध पैदा होता है जो उस (के आत्मिक जीवन) को जलाता है। (हे भाई!) उस मनुष्य के मन में हृदय में क्रोध पैदा हुआ रहता है, जो, जैसे एक बहुत बड़े विषौले वृक्ष के समान है। (जोर-जबरदस्ती के स्वभाव से पैदा हुए इस क्रोध के कारण ही) राजे एक-दूसरे पर हमले करते हैं, आपस में लड़-लड़ के दुख पाते हैं। जिस मनुष्य के अंदर ममता का रोग लग जाता है उसके अंदर अहंकार बढ़ता है, अहंम् बढ़ता ह। पर, जिस मनुष्य पर मेरे मालिक प्रभू ने मेहर की, गुरू की मति की बरकति से हरि-नाम की बरकति से उसके अंदर से ये जहर उतर जाती है। (हे भाई!) जिस मनुष्य के अंदर (दूसरों पर) धक्का (करने का स्वभाव) आ बसता है उसके अंदर, जैसे, त्रेता युग चल रहा है।2। जुगु दुआपुरु आइआ भरमि भरमाइआ हरि गोपी कान्हु उपाइ जीउ ॥ तपु तापन तापहि जग पुंन आर्मभहि अति किरिआ करम कमाइ जीउ ॥ किरिआ करम कमाइआ पग दुइ खिसकाइआ दुइ पग टिकै टिकाइ जीउ ॥ महा जुध जोध बहु कीन्हे विचि हउमै पचै पचाइ जीउ ॥ दीन दइआलि गुरु साधु मिलाइआ मिलि सतिगुर मलु लहि जाइ जीउ ॥ जुगु दुआपुरु आइआ भरमि भरमाइआ हरि गोपी कान्हु उपाइ जीउ ॥३॥ {पन्ना 445} पद्अर्थ: भरमि = (माया की) भटकना में। गोपी कान्हु = स्त्री मर्द (‘नाचंती गोपी जंना)। तापहि = तपते हैं, कलेश सहते हैं। पुंन = (निहित) नेक कर्म। जोध = योद्धे, सूरमे। पचै = जलते हैं। दइआल = दयालु ने। साधु = गुरू। मिलि = मिल के।3। अर्थ: जो जो स्त्री-मर्द परमात्मा ने पैदा किए हैं (ये सारे स्त्री-मर्द जो हरी ने पैदा किए हैं इनमें से जो जो माया की) भटकना में भटक रहा है (?उसके लिए मानो) द्वापर युग आया हुआ है। (ऐसे लोग भटकना में पड़ के) तप साधते हैं, धूणियां तपाने का कष्ट सहते हैं, यज्ञ आदि निहित पुंन्न कर्म करते हैं। (जो भी मनुष्य परमात्मा का सिमरन छोड़ के और ही धार्मिक मिथे हुए) क्रिया-कर्म करता है (उसके अंदर से धर्म-बैल अपने दोनों) पैर खिसका लेता है (उसके अंदर धर्म-बैल) दो-पैरों के आसरे टिका रहता है। (ये द्वापर युग का प्रभाव ही समझो कि माया की भटकना में फंस के) बड़े-बड़े सूरमे बड़े-बड़े युद्ध मचा देते हैं। (माया की भटकना के कारण ही मनुष्य स्वयं) अहंकार में जलता है व औरों को जलाता है। दीनों पर दया करने वाले परमात्मा ने जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिला दिया, गुरू को मिल के (उसके अंदर से माया की) मैल उतर जाती है। (हे भाई!) जो-जो स्त्री-मर्द परमात्मा ने पैदा किया है, जो-जो माया की भटकना में भटक रहा है (उसके वास्ते, जैसे) द्वापर युग आया हुआ है।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |