श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कलिजुगु हरि कीआ पग त्रै खिसकीआ पगु चउथा टिकै टिकाइ जीउ ॥ गुर सबदु कमाइआ अउखधु हरि पाइआ हरि कीरति हरि सांति पाइ जीउ ॥ हरि कीरति रुति आई हरि नामु वडाई हरि हरि नामु खेतु जमाइआ ॥ कलिजुगि बीजु बीजे बिनु नावै सभु लाहा मूलु गवाइआ ॥ जन नानकि गुरु पूरा पाइआ मनि हिरदै नामु लखाइ जीउ ॥ कलजुगु हरि कीआ पग त्रै खिसकीआ पगु चउथा टिकै टिकाइ जीउ ॥४॥४॥११॥ {पन्ना 446}

पद्अर्थ: अउखधु = दवाई। कीरति = सिफत सालाह। रुति = ऋतु, समय, मानस जनम का समय। वडाई = आदर मान। खेतु = फसल। कलिजुगि = कलियुग (के प्रभाव) में। लाहा = लाभ। मूलु = सरमाया। नानकि = नानक ने। मनि = मन में। हिरदै = हृदय में। लखाइ = प्रगट कर दिया।4।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर से धर्म-बैल के) तीन पैर फिसल गए (जिस मनुष्य के अंदर धर्म-बैल सिर्फ) चौथा पैर ही रह जाता है (जिसके अंदर सिर्फ नाम-मात्र को ही धर्म रह जाता है, उसके वास्ते) परमात्मा ने (मानो) कलियुग बना दिया। जो मनुष्य गुरू के शबद को कमाता है (शबद के अनुसार अपना जीवन ढालता है) वह हरी-नाम की दवा हासिल कर लेता है, वह परमात्मा की सिफत सालाह करता है, परमात्मा (उसके अंदर) शांति पैदा कर देता है। (उस मनुष्य को समझ आ जाती है कि ये मानस जनम की) ऋतु परमात्मा की सिफत सालाह के वास्ते मिली है, परमात्मा का नाम ही (लोक-परलोक में) आदर-मान देता है (वह मनुष्य अपने अंदर) परमात्मा के नाम (की) फसल बीजता है। पर जो मनुष्य परमात्मा का नाम छोड़ के (कर्म-काण्ड आदि कोई और) बीज बीजता है वह (मानो) कलियुग (के प्रभाव) में है वह पूँजी भी गवा लेता है और लाभ भी कोई नहीं कमाता।

(हे भाई! परमात्मा की कृपा से) दास नानक ने पूरा गुरू ढूँढ लिया है, गुरू ने (नानक के) मन में हृदय में प्रभू का नाम प्रगट कर दिया है।

(हे भाई! जिस मनुष्य के अंदर से धर्म-बैल के) तीन पैर फिसल गए (जिस मनुष्य के अंदर धर्म-बैल सिर्फ) चौथा पैर टिकाए रखता है (जिसके अंदर सिर्फ नाम-मात्र धर्म रह जाता है, उसके वास्ते) परमात्मा ने (जैसे) कलियुग बना दिया है।4।4।11।

आसा महला ४ ॥ हरि कीरति मनि भाई परम गति पाई हरि मनि तनि मीठ लगान जीउ ॥ हरि हरि रसु पाइआ गुरमति हरि धिआइआ धुरि मसतकि भाग पुरान जीउ ॥ धुरि मसतकि भागु हरि नामि सुहागु हरि नामै हरि गुण गाइआ ॥ मसतकि मणी प्रीति बहु प्रगटी हरि नामै हरि सोहाइआ ॥ जोती जोति मिली प्रभु पाइआ मिलि सतिगुर मनूआ मान जीउ ॥ हरि कीरति मनि भाई परम गति पाई हरि मनि तनि मीठ लगान जीउ ॥१॥

पद्अर्थ: कीरति = सिफत सालाह। मनि = मन में। भाई = अच्छी लगी। परम गति = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था। रसु = स्वाद। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। पुरान = पुराना, पहला। नामि = नाम से। सुहागु = पति प्रभू। मणी = रतन। प्रगटी = चमक पड़ी। सोहाइआ = सोहणा बना दिया। मान = मान गया।1।

अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य के) मन को परमात्मा की सिफत सालाह प्यारी लग गई, उसने सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था हासिल कर ली, उसके मन में हृदय में प्रभू प्यारा लगने लगा। जिस मनुष्य ने गुरू की मति ले के परमात्मा का सिमरन किया, परमात्मा के नाम का स्वाद चखा, उसके माथे पे धुर दरगाह से लिखे हुए पूर्बले भाग्य जाग उठे। उसके माथे पे धुर दरगाह से लिखे लेख अंकुरित हो गए, हरि-नाम में जुड़ के उसने पति-प्रभू को पा लिया, वह सदा हरि-नाम में जुड़ा रहता है, वह सदा ही हरी के गुण गाता रहता है। उसके माथे पे प्रभू चरणों के प्रीति की मणि चमक उठती है। उसकी सुरति प्रभू की ज्योति में मिल जाती है, वह प्रभू को मिल पड़ता है, गुरू को मिल के उसका मन (परमात्मा की याद में) लीन हो जाता है। (हे भाई!) जिस मनुष्य के मन को परमात्मा की सिफत सालाह अच्छी लगने लग जाती है, उसने सबसे उच्च आत्मिक अवस्था हासिल कर ली, उसके मन में उसके हृदय में प्रभू प्यारा लगने लग जाता है।1।

हरि हरि जसु गाइआ परम पदु पाइआ ते ऊतम जन परधान जीउ ॥ तिन्ह हम चरण सरेवह खिनु खिनु पग धोवह जिन हरि मीठ लगान जीउ ॥ हरि मीठा लाइआ परम सुख पाइआ मुखि भागा रती चारे ॥ गुरमति हरि गाइआ हरि हारु उरि पाइआ हरि नामा कंठि धारे ॥ सभ एक द्रिसटि समतु करि देखै सभु आतम रामु पछान जीउ ॥ हरि हरि जसु गाइआ परम पदु पाइआ ते ऊतम जन परधान जीउ ॥२॥ {पन्ना 446}

पद्अर्थ: जसु = सिफत सालाह के गीत। परम पदु = ऊँचा आत्मिक दर्जा। ते जन = वह लोग। परधान = जाने माने। सरेवह = हम सेवा करते हैं। धोवह = हम धोते हैं। पग = पैर। मुखि = मुंह पर। रती = रतन, मणी। चारे = चार, सुंदर। उरि = हिरदै में। कंठि = गले में। सभ = सारी दुनिया। समतु = बराबर, ऐक जैसा। करि = कर के, समझ के। सभु = हर जगह। आतम रामु = सर्व व्यापक प्रभू।2।

अर्थ: (हे भाई!) जो लोग परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाते हैं, वे सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं, वे मनुष्य जगत में श्रेष्ठ गिने जाते हैं इज्जत वाले समझे जाते हैं। (हे भाई!) जिन मनुष्यों को परमात्मा प्यारा लगता है, हम उनके चरणों की सेवा करते हैं हम उनके हर वक्त पैर धोते हैं।

(हे भाई!) जिन्हें परमात्मा प्यारा लगा, उन्होंने सबसे उच्च आनंद पाया, उनके मुंह पे अच्छे भाग्यों की सुंदर मणि चमक उठी।

हे भाई! जो मनुष्य गुरू की मति ले के परमात्मा की सिफत सालाह करता है, परमात्मा के गुणों का परमात्मा के हार को अपने हृदय में संभालता है अपने गले में डालता है वह सारी दुनिया को एक (प्यार-) भरी निगाह से एक जैसा ही समझ के देखता है, वह हर जगह सर्व-व्यापक परमात्मा को ही बसता पहचानता है। (हे भाई!) जो मनुष्य परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाते हैं वे सबसे ऊँचा आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं, वे मनुष्य जगत में श्रेष्ठ गिने जाते हैं इज्जत वाले समझे जाते हैं।2।

सतसंगति मनि भाई हरि रसन रसाई विचि संगति हरि रसु होइ जीउ ॥ हरि हरि आराधिआ गुर सबदि विगासिआ बीजा अवरु न कोइ जीउ ॥ अवरु न कोइ हरि अम्रितु सोइ जिनि पीआ सो बिधि जाणै ॥ धनु धंनु गुरू पूरा प्रभु पाइआ लगि संगति नामु पछाणै ॥ नामो सेवि नामो आराधै बिनु नामै अवरु न कोइ जीउ ॥ सतसंगति मनि भाई हरि रसन रसाई विचि संगति हरि रसु होइ जीउ ॥३॥ {पन्ना 446}

पद्अर्थ: मनि = मन में। भाई = प्यारी लगी। हरि रसन रसाई = हरि नाम के रस से रसी (भीगी) हुई। हरि रसु = हरि नाम का स्वाद। गुर सबदि = गुरू के शबद के द्वारा। विगसिआ = खिल पड़ता है। बीजा = बीआ, दूसरा। अंम्रितु = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। जिनि = जिस ने। बिधि = दशा। लगि = (चरणों में) लग के। पछाणै = सांझ डालता है। सेवि = सेवा करके, सिमर के।3।

अर्थ: (हे भाई!) हरि नाम के रस से रसी हुई साध-संगति जिस मनुष्य को अपने मन में प्यारी लगती है उसे संगति में हरि नाम का स्वाद प्राप्त होता है। वह मनुष्य ज्यों-ज्यों परमात्मा का नाम आराधता है गुरू के शबद की बरकति से (उसका हृदय) खिल उठता है, उसे कहीं भी एक परमात्मा के सिवा और कोई नजर नहीं आता। उसे कहीं भी प्रभू के बिना और कोई नहीं दिखता, वह सदा आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम का जल पीता रहता है। जो मनुष्य ये नाम-अमृत पीता है वही अपनी आत्मिक दशा को जानता है (बयान नहीं की जा सकती)। वह मनुष्य हर समय पूरे गुरू का धन्यवाद करता है क्योंकि गुरू के द्वारा ही वह परमात्मा को मिल सका है। गुरू की संगति की शरण पड़ के वह परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल लेता है। वह मनुष्य सदा हरी-नाम ही सिमरता है हरि-नाम ही आराधता है। परमात्मा के नाम के बिना उसे कोई और चीज प्यारी नहीं लगती।

(हे भाई!) हरि-नाम के रस से रसी हुई साध-संगति जिस मनुष्य को अपने मन में प्यारी लगती है उसे संगति में हरि-नाम का स्वाद प्राप्त होता है।3।

हरि दइआ प्रभ धारहु पाखण हम तारहु कढि लेवहु सबदि सुभाइ जीउ ॥ मोह चीकड़ि फाथे निघरत हम जाते हरि बांह प्रभू पकराइ जीउ ॥ प्रभि बांह पकराई ऊतम मति पाई गुर चरणी जनु लागा ॥ हरि हरि नामु जपिआ आराधिआ मुखि मसतकि भागु सभागा ॥ जन नानक हरि किरपा धारी मनि हरि हरि मीठा लाइ जीउ ॥ हरि दइआ प्रभ धारहु पाखण हम तारहु कढि लेवहु सबदि सुभाइ जीउ ॥४॥५॥१२॥ {पन्ना 446-447}

पद्अर्थ: प्रभ = हे प्रभू! पाखण = पत्थर, कठोर दिल। सबदि = (गुरू के) शबद में (जोड़ के)। सुभाइ = (अपने) प्रेम में (जोड़ के)। हरि = हे हरी! प्रभि = प्रभू ने। जनु = (वह) मनुष्य। मुखि = मुंह पर। मसतकि = माथे पर। सभागा = सौभाग्य। मनि = मन में।4।

अर्थ: हे हरी! हे प्रभू! मेहर कर, हम पत्थर-दिलों को (संसार समुंदर से) पार लंघा ले, गुरू के शबद में जोड़ के अपने प्रेम में जोड़ के हमें (मोह के कीचड़ में से) निकाल ले। हे हरी! हम (माया के) मोह के कीचड़ में फसे हुए हैं, हमारा आत्मिक जीवन निघरता जा रहा है। हे प्रभू! हमें अपनी बाँह पकड़ा।

(हे भाई! जिस मनुष्य को) प्रभू ने अपने बाँह पकड़ा दी उसने श्रेष्ठ मति पा ली, वह मनुष्य गुरू की शरण जा पड़ा, वह मनुष्य हर समय गुरू का नाम जपने लगा, हरि-नाम सिमरने लग पड़ा, उसके मुंह पे उसके माथे पे सौभाग्य जाग गए। हे दास नानक! (कह–) जिस मनुष्य पे प्रभू ने मेहर की उसके मन को परमात्मा का नाम मधुर लगने लगता है।

हे हरी! हे प्रभू! मेहर कर, हम कठोर दिलों को (संसार-समुंदर से) पार लंघा ले, गुरू के शबद में जोड़ के, अपने प्रेम में जोड़ के हमें (मोह के कीचड़ में से) निकाल ले।4।5।12।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh