श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा महला ४ ॥ मनि नामु जपाना हरि हरि मनि भाना हरि भगत जना मनि चाउ जीउ ॥ जो जन मरि जीवे तिन्ह अम्रितु पीवे मनि लागा गुरमति भाउ जीउ ॥ मनि हरि हरि भाउ गुरु करे पसाउ जीवन मुकतु सुखु होई ॥ जीवणि मरणि हरि नामि सुहेले मनि हरि हरि हिरदै सोई ॥ मनि हरि हरि वसिआ गुरमति हरि रसिआ हरि हरि रस गटाक पीआउ जीउ ॥ मनि नामु जपाना हरि हरि मनि भाना हरि भगत जना मनि चाउ जीउ ॥१॥ {पन्ना 447}

पद्अर्थ: मनि = मन में। भाना = प्यारा लगता है। चाउ = उत्शाह। मरि = मर के, स्वैभाव मार के। जीवे = आत्मिक जीवन जीते हैं। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल। भाउ = प्रेम। पसाउ = प्रसादि, कृपा। मुकतु = माया के बंधनों से मुक्त। जीवणि = आत्मिक जीवन जीने के कारण। मरणि = स्वैभाव से मरने के कारण। नामि = नाम में। सुहेले = आसान, सुखी। रसिआ = रच जाता है। गटाक = गट गट के, बड़े बड़े घूट भर के।1।

अर्थ: हे भाई! भक्तजन अपने मन में सदा हरि-नाम जपते हैं, हरि-नाम उन्हें मन में प्यारा लगता है, नाम जपने का उनके मन में चाव बना रहता है। जो मनुष्य स्वैभाव मिटा के आत्मिक जीवन जीते हैं वे सदा आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल पीते रहते हैं, गुरू के उपदेश की बरकति से उनके मन में प्रभू के वास्ते प्यार बना रहता है।

हे भाई! जिस मनुष्य पे गुरू कृपा करता है उसके मन में प्रभू चरणों के लिए प्यार पैदा होजाता है वह मनुष्य दुनिया की किरत-कार करता हुआ ही माया के बंधनों से छूट जाता है, वह आत्मिक आनंद भोगता है।

हे भाई! आत्मिक जीवन जीने के कारण और स्वैभाव को मारने के कारण, परमात्मा के नाम में जुड़े रहने वाले मनुष्य सदैव सुखी रहते हैं, उनके मन में उनके हृदय में सदा वह परमात्मा ही बसा रहता है। गुरू की मति के सदका उनके मन में सदा परमात्मा का नाम बसा रहता है, हरि-नाम उनके अंदर रच जाता है, वह हरि-नाम-जल, मानो, गट-गट-गट करके पीते रहते हैं।

हे भाई! भक्त जन अपने मन में सदा हरि-नाम जपते हैं, हरि-नाम उन्हें मन में प्यारा लगता है, नाम जपने का उनके मन में उत्साह बना रहता है।1।

जगि मरणु न भाइआ नित आपु लुकाइआ मत जमु पकरै लै जाइ जीउ ॥ हरि अंतरि बाहरि हरि प्रभु एको इहु जीअड़ा रखिआ न जाइ जीउ ॥ किउ जीउ रखीजै हरि वसतु लोड़ीजै जिस की वसतु सो लै जाइ जीउ ॥ मनमुख करण पलाव करि भरमे सभि अउखध दारू लाइ जीउ ॥ जिस की वसतु प्रभु लए सुआमी जन उबरे सबदु कमाइ जीउ ॥ जगि मरणु न भाइआ नित आपु लुकाइआ मत जमु पकरै लै जाइ जीउ ॥२॥ {पन्ना 447}

पद्अर्थ: जगि = जगत में। मरणु = मौत। भाइआ = पसंद आइआ। आपु = अपने आप को, जीवात्मा को। मत लै जाइ = कहीं ले ना जाए। जीअड़ा = जिंद। जीउ = जीवात्मा। लोड़ीजै = ढूँढ लेता है। करण पलाव = करुणा प्रलाप, तरले, कीरने, मिन्नतें। उबरे = बच गए।2।

जिस की: शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

अर्थ: जगत में (किसी को भी) मौत पसंद नहीं आती, (हर कोई) सदा अपनी जिंद का छुपाता फिरता है कि कहीं जम इसे पकड़ केही ना ले जाए। पर, परमात्मा हरेक के अंदर और बाहर सारे जगत में भी बसता है, उससे छुपा के यह जीवात्मा (मौत से) बचाई नहीं जा सकती। ये जिंद किसी तरह भी (मौत से) बचा के नहीं रखी जा सकती, हरि-प्रभू इस (जिंद-) वस्तु को ढूँढ ही लेता है। परमात्मा की ये चीजवह इसे ले ही जाता है। अपने मन के पीछे चलने वाले बंदे तरले कर-करके हरेक किस्म के दवा दारू बरत के भटकते फिरते हैं, पर जिस परमात्मा की दी हुई ये चीज है वह मालिक प्रभू इसे ले ही लेता है। परमात्मा के सेवक गुरू का शबद कमा के (शबद के अनुसार अपना आत्मिक जीवन बना के, मौत के सहम से) बच जाते हैं। (हे भाई!) जगत में (किसी को भी) मौत अच्छी नहीं लगती (हरेक जीव) सदा अपनी जीवात्मा को छुपाता है कि कहीं जम इसे पकड़ के ना ले जाए।2।

धुरि मरणु लिखाइआ गुरमुखि सोहाइआ जन उबरे हरि हरि धिआनि जीउ ॥ हरि सोभा पाई हरि नामि वडिआई हरि दरगह पैधे जानि जीउ ॥ हरि दरगह पैधे हरि नामै सीधे हरि नामै ते सुखु पाइआ ॥ जनम मरण दोवै दुख मेटे हरि रामै नामि समाइआ ॥ हरि जन प्रभु रलि एको होए हरि जन प्रभु एक समानि जीउ ॥ धुरि मरणु लिखाइआ गुरमुखि सोहाइआ जन उबरे हरि हरि धिआनि जीउ ॥३॥ {पन्ना 447}

पद्अर्थ: धुरि = धुर दरगाह से। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। सोहाइआ = सोहाना लगता है। जन = भक्त जन। उबरे = मौत के सहम से बचे रहते हैं। धिआनि = ध्यान में (जुड़ के)। नामि = नाम से। पैधे = आदर मान प्राप्त करके। जानि = जाते हैं। सीधे = कामयाब होते हैं। रलि = मिल के। ऐक समानि = एक जैसे।3।

अर्थ: हे भाई! गुरू की शरण पड़े रहने वाले मनुष्यों को ये धुर दरगाह से लिखी हुई मौत भी सुंदर लगती है, वे गुरसिख जन परमात्मा के चरणों के ध्यान में जुड़ के (मौत के सहम से) बचे रहते हैं। परमात्मा के नाम में जुड़ केवे गुरसिख (लोक परलोक में) शोभा और महिमा कमाते हैं, जगत से इज्जत और मान ले के वे परमात्मा की दरगाह में जाते हैं। गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य परमात्मा की हजूरी में इज्जत हासिल करते हैं, हरि-नाम की बरकति से वे अपना जीवन कामयाब बना लेते हैं, परमात्मा के नाम से वे आत्मिक आनंद प्राप्त करते हैं। गुरू के दर पे टिके रहने वाले मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहते हैं, और इस तरह वे जूनियों के चक्कर और मौत- इन दोनों दुखों को मिटा लेते हैं।

(हे भाई!) परमात्मा के भगत और परमात्मा मिल के एक रूप हो जाते हैं, परमात्मा के भगत और परमात्मा एक जैसे ही हो जाते हैं। (हे भाई!) गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों को ये धुर-दरगाह से मिली हुई मौत भी सुंदर लगती है, वे गुरमुख लोग परमात्मा के ध्यान में लीन हो के (मौत के सहम से) बचे रहते हैं।3।

जगु उपजै बिनसै बिनसि बिनासै लगि गुरमुखि असथिरु होइ जीउ ॥ गुरु मंत्रु द्रिड़ाए हरि रसकि रसाए हरि अम्रितु हरि मुखि चोइ जीउ ॥ हरि अम्रित रसु पाइआ मुआ जीवाइआ फिरि बाहुड़ि मरणु न होई ॥ हरि हरि नामु अमर पदु पाइआ हरि नामि समावै सोई ॥ जन नानक नामु अधारु टेक है बिनु नावै अवरु न कोइ जीउ ॥ जगु उपजै बिनसै बिनसि बिनासै लगि गुरमुखि असथिरु होइ जीउ ॥४॥६॥१३॥ {पन्ना 447}

पद्अर्थ: उपजै = पैदा होता है। बिनसे = मरता है। बिनसि बिनासै = आत्मिक मौत सहेड़ता रहता है। लगि = लग के। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। असथिरु = अडोल चित्त। द्रिढ़ाऐ = हृदय में पक्का करता है। रसकि = स्वाद से। मुखि = मुंह में। चोइ = टपकाता है। मुआ = आत्मिक मौत मरा हुआ। बाहुड़ि = दुबारा। अमर पदु = वह आत्मिक अवस्था जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती। नामि = नाम में। अधारु = आसरा। टेक = सहारा।4।

अर्थ: (हे भाई! माया-ग्रसित) जगत (बार-बार) पैदा होता है मरता है, आत्मिक मौत मरता रहता है, गुरू के द्वारा (प्रभू चरणों में) लग के (माया के मोह की ओर से) अडोल-चित्त हो जाता है। गुरू जिस मनुष्य के हृदय में नाम-मंत्र पक्का करता है जिस मनुष्य के मुंह में आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल टपकाता है वह मनुष्य हरि-नाम-रस को स्वाद से (अपने अंदर) रचाता है। जबवह मनुष्य गुरू से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-रस हासिल करता है (पहले आत्मिक मौत) मरा हुआ वह मनुष्य आत्मिक जीवन प्राप्त कर लेता है, दुबारा उसे ये मौत नहीं व्यापती। जो मनुष्य गुरू के माध्यम से परमात्मा का नाम प्राप्त कर लेता है वह मनुष्य वह दर्जा हासिल कर लेता है जहाँ आत्मिक मौत छू नहीं सकती, वह मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन रहता है। हे दास नानक! परमात्मा का नाम (उस मनुष्य की जिंदगी का) आसरा सहारा बन जाता है, परमात्मा के नाम के बिना कोई और पदार्थ उसके आत्मिक जीवन का सहारा नहीं बन सकता।

(हे भाई! माया-ग्रसित) जगत (बार-बार) पैदा होता है मरता है आत्मिक मौत मरता रहता है, गुरू के द्वारा (प्रभू चरणों में) लग के (माया के मोह से) अडोल-चित्त हो जाता है।4।6।13।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh