श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Page 448 आसा महला ४ छंत ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥ ता की गति कही न जाई अमिति वडिआई मेरा गोविंदु अलख अपार जीउ ॥ गोविंदु अलख अपारु अपर्मपरु आपु आपणा जाणै ॥ किआ इह जंत विचारे कहीअहि जो तुधु आखि वखाणै ॥ जिस नो नदरि करहि तूं अपणी सो गुरमुखि करे वीचारु जीउ ॥ वडा मेरा गोविंदु अगम अगोचरु आदि निरंजनु निरंकारु जीउ ॥१॥ {पन्ना 448} पद्अर्थ: अगम = अपहुँच। अगोचरु = (गो = ज्ञानेन्द्रियां) ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे। आदि = सबसे आरम्भ। निरंजनु = (निर+अंजनु) जिसे माया की कालिख नहीं लग सकती। निरंकारु = (निर+आकार) जिसका कोई खास स्वरूप नहीं बताया जा सकता। गति = हालत। अमिति = ना गिनी जाने वाली। अलख = जिसका स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। अपरंपरु = परे से परे बेअंत। कहीअहि = कहे जाएं।1। जिस नो: ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा ‘नो’ संबधक के कारण हट गई है। देखें गुरबाणी व्याकरण। अर्थ: (हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती। (हे भाई!) ये नहीं बताया जा सकता कि परमात्मा कैसा है, उसका बड़प्पन भी पैमायश से परे है (हे भाई!) मेरा वह गोबिंद बयान से बाहर है बेअंत है। परे से परे है, अपने आप को वह ही जानता है। इन जीव विचारों की भी क्या बिसात (कि वे उसका रूप बता सकें) ? (हे प्रभू! कोई भी ऐसा जीव नहीं है) जो तेरी हस्ती को बयान करके समझा सके। हे प्रभू! जिस मनुष्य पर तू अपनी मेहर की निगाह करता है, वह गुरू की शरण पड़ कर (तेरे गुणों की) विचार करता है। (हे भाई!) मेरा गोबिंद (सबसे) बड़ा है (किसी भी समझदारी से उस तक मनुष्य की) पहुँच नहीं हो सकती, वह ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, (सारे जगत का) मूल है, उसे माया की कालिख नहीं लग सकती, उसकी कोई खास शक्ल नहीं बताई जा सकती।1। तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥ तूं घट घट अंतरि सरब निरंतरि सभ महि रहिआ समाइ जीउ ॥ घट अंतरि पारब्रहमु परमेसरु ता का अंतु न पाइआ ॥ तिसु रूपु न रेख अदिसटु अगोचरु गुरमुखि अलखु लखाइआ ॥ सदा अनंदि रहै दिनु राती सहजे नामि समाइ जीउ ॥ तूं आदि पुरखु अपर्मपरु करता तेरा पारु न पाइआ जाइ जीउ ॥२॥ {पन्ना 448} पद्अर्थ: पुरखु = सर्व व्यापक। करता = सृजनहार। पारु = परला छोर। घट = शरीर। निरंतरि = बिना दूरी के। (अंतर = दूरी, असमीपता)। अंतरि = अंदर में। रेख = चिन्ह चक्र (रेखा, लकीर)। अदिसटु = ना दिखने वाला। गुरमुखि = गुरू के द्वारा। अनंदि = आनंद में। सहजे = आत्मिक अडोलता में, सहजि ही।2। अर्थ: हे प्रभू! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता। तू हरेक शरीर में मौजूद है, तू एक-रस सब में समा रहा है। हे भाई! पारब्रहम परमेश्वर हरेक शरीर के अंदर मौजूद है उसके गुणों का अंत (कोई जीव) नहीं पा सकता। उस प्रभू का कोई खास रूप, कोई खास चक्र-चिन्ह नहीं बयान किया जा सकता। वह प्रभू (इन आँखों से) दिखता नहीं वह ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच से परे है, गुरू के द्वारा ही ये समझ पड़ती है कि उस परमात्मा का स्वरूप बयान नहीं किया जा सकता। (जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह) दिन-रात हर समय आत्मिक आनंद में मगन रहता है, परमात्मा के नाम में लीन रहता है। हे प्रभू! तू सारे जगत का मूल है और सर्व-व्यापक है, तू परे से परे है और सारी रचना का रचनहार है। तेरी हस्ती का दूसरा छोर (किसी को) नहीं मिल सकता।2। तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥ हरि हरि प्रभु एको अवरु न कोई तूं आपे पुरखु सुजानु जीउ ॥ पुरखु सुजानु तूं परधानु तुधु जेवडु अवरु न कोई ॥ तेरा सबदु सभु तूंहै वरतहि तूं आपे करहि सु होई ॥ हरि सभ महि रविआ एको सोई गुरमुखि लखिआ हरि नामु जीउ ॥ तूं सति परमेसरु सदा अबिनासी हरि हरि गुणी निधानु जीउ ॥३॥ {पन्ना 448} पद्अर्थ: सति = सदा कायम रहने वाला। परमेसरु = परम+ईश्वर, सबसे बड़ा हाकिम। अबिनासी = कभी ना नाश होने वाला। गुण निधानु = (सारे) गुणों का खजाना। पुरखु = सर्व व्यापक। सुजानु = सयाना। परधानु = जाना माना। सबदु = हुकम। सभु = हर जगह। तूं है = तू ही। वरतहि = मौजूद है। रविआ = व्यापक है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। लखिआ = समझा जाता है।3। अर्थ: हे प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है। हे हरी! तू ही ऐकमेव मालिक है, तेरे बराबर का और कोई नहीं है तू स्वयं ही सबके अंदर मौजूद है, तू स्वयं ही सबके दिल की जानने वाला है। हे हरी! तू सब में व्यापक है, तू घट-घट की जानने वाला है, तू सबसे शिरोमणी है, तेरे जितना और कोई नहीं है। हर जगह तेरा ही हुकम चल रहा है, हर जगह तू ही तू मौजूद है, जगत में वही होता है जो तू स्वयं ही करता है। हे भाई! सारी सृष्टि में एक वह परमात्मा ही रम रहा है, गुरू की शरण पड़ के उस परमात्मा के नाम की समझ पड़ती है। हे प्रभू! तू सदा कायम रहने वाला है तू सबसे बड़ा है, तू कभी भी नाश होने वाला नहीं है, तू सारे गुणों का खजाना है।3। सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥ तुधु आपे भावै तिवै चलावहि सभ तेरै सबदि समाइ जीउ ॥ सभ सबदि समावै जां तुधु भावै तेरै सबदि वडिआई ॥ गुरमुखि बुधि पाईऐ आपु गवाईऐ सबदे रहिआ समाई ॥ तेरा सबदु अगोचरु गुरमुखि पाईऐ नानक नामि समाइ जीउ ॥ सभु तूंहै करता सभ तेरी वडिआई जिउ भावै तिवै चलाइ जीउ ॥४॥७॥१४॥ {पन्ना 448} पद्अर्थ: सभु = हर जगह। करता = हे करतार! वडिआई = बुर्जुगी, बड़प्पन, तेज प्रताप। भावै = अच्छा लगे। चलाइ = चाल। सभ = सारी दुनिया। सबदि = हुकम में। समाइ = लीन रहती है, अनुसार हो के चलती है। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। आपु = स्वै भाव। सबदे = गुरू के शबद द्वारा। अगोचरु = जिस तक ज्ञानेन्द्रियों की पहुँच ना हो सके। नामि = नाम में।4। अर्थ: हे करतार! हर जगह तू ही तू है, सारी सृष्टि तेरे ही तेज प्रताप का प्रकाश है। हे करतार! जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे, (अपनी इस रचना को अपने हुकम में) चला। हे करतार! जैसे तूझे खुद को अच्छा लगता है वैसे तू सृष्टि को काम में लगाए हुए है, सारी दुनिया तेरे ही हुकम के अनुसार हो के चलती है। सारी दुनिया तेरे ही हुकम में ही टिकी रहती है, जब तुझे ठीक लगता है, तो तेरे हुकम मुताबिक ही (जीवों को) आदर-माण मिलता है। हे भाई! अगर गुरू की शरण पड़ के सद्-बुद्धि हासिल कर लें, अगर (अपने अंदर से) अहंम्-अहंकार दूर कर लें, तो गुरू शबद की बरकति से वह करतार हर जगह व्यापक दिखाई देता है। हे नानक! (कह– हे करतार!) तूरा हुकम जीवों की ज्ञानेंन्द्रियों की पहुँच से परे है (तेरे हुकम की समझ) गुरू की शरण पड़ने से प्राप्त होती है। (जिस मनुष्य को प्राप्त होती है वह तेरे) नाम में लीन हो जाता है। हे करतार! हर जगह तू ही तू है, सारी सृष्टि तेरे ही तेज प्रताप का प्रकाश है। हे करतार! जैसे तुझे ठीक लगे, वैसे, (अपनी इस सृष्टि को अपने हुकम में) चला।4।7।14। ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा महला ४ छंत घरु ४ ॥ हरि अम्रित भिंने लोइणा मनु प्रेमि रतंना राम राजे ॥ मनु रामि कसवटी लाइआ कंचनु सोविंना ॥ गुरमुखि रंगि चलूलिआ मेरा मनु तनो भिंना ॥ जनु नानकु मुसकि झकोलिआ सभु जनमु धनु धंना ॥१॥ हरि प्रेम बाणी मनु मारिआ अणीआले अणीआ राम राजे ॥ जिसु लागी पीर पिरम की सो जाणै जरीआ ॥ जीवन मुकति सो आखीऐ मरि जीवै मरीआ ॥ जन नानक सतिगुरु मेलि हरि जगु दुतरु तरीआ ॥२॥ हम मूरख मुगध सरणागती मिलु गोविंद रंगा राम राजे ॥ गुरि पूरै हरि पाइआ हरि भगति इक मंगा ॥ मेरा मनु तनु सबदि विगासिआ जपि अनत तरंगा ॥ मिलि संत जना हरि पाइआ नानक सतसंगा ॥३॥ दीन दइआल सुणि बेनती हरि प्रभ हरि राइआ राम राजे ॥ हउ मागउ सरणि हरि नाम की हरि हरि मुखि पाइआ ॥ भगति वछलु हरि बिरदु है हरि लाज रखाइआ ॥ जनु नानकु सरणागती हरि नामि तराइआ ॥४॥८॥१५॥ {पन्ना 448-449} पद्अर्थ: भिंने = भीगे हुए हैं, तर हो गए हैं, सरूर में आ गए हैं। लोइण = आँखे। प्रेमि = प्रेम रंग में। रतंना = रंगा गया है। रामि = राम ने। कंचनु = सोना। सोविंना = सुंदर रंग वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। चलूलिआ = गाढ़े लाल रंग से रंगा गया है। तनो = तन, शरीर, हृदय। मुसकि = कस्तूरी से। झकोलिआ = अच्छी तरह सुगंधित हो गया है। धनु धंना = भाग्यों वाला, सफल।1। अर्थ: हे भाई! मेरी आँखें आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम-जल से सरूर में आ गई हैं, मेरा मन प्रभू के प्रेम रंग में रंगा गया है। परमात्मा ने मेरे मन को (अपने नाम की) कसवटी पर घिसाया है, और ये शुद्ध सोना बन गया है। गुरू की शरण पड़ने से मेरा मन प्रभू के प्रेम रंग में गाढ़ा लाल हो गया है, मेरा मन तरो-तर हो गया है। (गुरू की कृपा से) दास नानक (प्रभू के नाम की) कस्तूरी से पूरी तरह सुगंधित हो गया है, (दास नानक का) सारा जीवन ही भाग्यशाली बन गया है।1। पद्अर्थ: अणीआले = अणी वाले, तीखी नोक वाले (तीर)। पीर = पीड़ा, दर्द। पिरंम = प्रेम। जरीआ = जरी जाती है। जीवन मुकति = दुनिया की किरत कार करता हुआ ही माया के बंधनो से आजाद। मरि = मर के, माया से अछोह हो के। दुतरु = जिससे पार लांघना मुश्किल है।2। अर्थ: प्रभू चरणों में प्रेम पैदा करने वाली गुरबाणी ने मेरा मन भेद दिया है जैसे तीखी नोक वाले तीर (किसी चीज को) भेद देते हैं। (हे भाई!) जिस मनुष्य के अंदर प्रभू प्रेम की पीड़ा उठती है वही जानता है कि उस को कैसे सहा जा सकता है। जो मनुष्य माया के मोह की ओर से अछोह हो के आत्मिक जीवन जीता है वह दुनिया की किरत-कार करता हुआ ही माया के बंधनों से आजाद रहता है। हे दास नानक! (कह–) हे हरी! मुझे गुरू मिला, ता कि मैं मुश्किल से तैरे जाने वाले इस संसार (समुंदर) से पार लांघ सकूँ।2। पद्अर्थ: मुगध = मूर्ख, बेसमझ। गोविंद = हे गोविंद! रंगा = कई रंग-तमाशे करने वाला। गुरि = गुरू के द्वारा। मंगा = मागें, मैं मांगता हूँ। सबदि = गुरू के शबद से। विगासिआ = खिल पड़ा है। जपि = जप के। अनत तरंगा = अनंत तरंगों वाला, जिस में बेअंत लहरें उठ रही हैं। मिलि = मिल के (शब्द ‘मिलु’ और ‘मिलि’ में फर्क स्मरणीय है)।3। अर्थ: हे बेअंत करिश्मों के मालिक गोविंद! (हमें) मिल, हममूर्ख बेसमझ तेरी शरण में आए हैं। (हे भाई!) मैं (गुरू से) परमात्मा की भक्ति (की दाति) मांगता हूँ (क्योंकि) पूरे गुरू के माध्यम से परमात्मा मिल सकता है। (हे भाई!) गुरू के शबद से बेअंत लहरों वाले (समुंद्र-प्रभू) को सिमर के मेरा मन खिल गया है, मेरा हृदय प्रफुल्लित हो गया है। हे नानक! (कह–) संत जनों को मिल के संतों की संगति में मैंने परमात्मा को पा लिया है।3। पद्अर्थ: दइआल = हे दया के घर! प्रभ = हे प्रभू! हरि राइआ = हे प्रभू पातशाह! हउ = मैं। मागउ = मांगूँ, माँगता हूँ। सरणि = आसरा, ओट। मुखि = मुख में। भगति वछलु = भगती से प्यार करने वाला। बिरदु = (ईश्वर का) मूल स्वभाव। लाज = इज्जत। नामि = नाम से।4। अर्थ: हे दीनों पर दया करने वाले! हे हरी! हे प्रभू! हे प्रभू पातशाह! मेरी विनती सुन। हे हरी! मैं तेरे नाम का आसरा मांगता हूँ। हे हरी! (तेरी मेहर हो तो मैं तेरा नाम) अपने मुंह में ले सकता हूँ (मुंह से जप सकता हूँ)। (हे भाई!) परमात्मा का ये मूल कदीमी स्वभाव है, बिरद है कि वह भक्ति से प्यार करता है (जो उसकी शरण पड़े, उसकी) इज्जत रख लेता है। (हे भाई!) दास नानक (भी) उस हरी की शरण आ पड़ा है (शरण आए मनुष्य को) हरी अपने नाम में जोड़ के (संसार-समुंदर से) पार लंघा लेता है।4।8।15। |
![]() |
![]() |
![]() |
![]() |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |