श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 450 आसा महला ४ ॥ जिन मसतकि धुरि हरि लिखिआ तिना सतिगुरु मिलिआ राम राजे ॥ अगिआनु अंधेरा कटिआ गुर गिआनु घटि बलिआ ॥ हरि लधा रतनु पदारथो फिरि बहुड़ि न चलिआ ॥ जन नानक नामु आराधिआ आराधि हरि मिलिआ ॥१॥ जिनी ऐसा हरि नामु न चेतिओ से काहे जगि आए राम राजे ॥ इहु माणस जनमु दुल्मभु है नाम बिना बिरथा सभु जाए ॥ हुणि वतै हरि नामु न बीजिओ अगै भुखा किआ खाए ॥ मनमुखा नो फिरि जनमु है नानक हरि भाए ॥२॥ तूं हरि तेरा सभु को सभि तुधु उपाए राम राजे ॥ किछु हाथि किसै दै किछु नाही सभि चलहि चलाए ॥ जिन्ह तूं मेलहि पिआरे से तुधु मिलहि जो हरि मनि भाए ॥ जन नानक सतिगुरु भेटिआ हरि नामि तराए ॥३॥ कोई गावै रागी नादी बेदी बहु भाति करि नही हरि हरि भीजै राम राजे ॥ जिना अंतरि कपटु विकारु है तिना रोइ किआ कीजै ॥ हरि करता सभु किछु जाणदा सिरि रोग हथु दीजै ॥ जिना नानक गुरमुखि हिरदा सुधु है हरि भगति हरि लीजै ॥४॥११॥१८॥ {पन्ना 450} पद्अर्थ: मसतकि = माथे पर। धुरि = धुर दरगाह से। अगिआनु = आत्मिक जीवन से बेसमझी। अंधेरा = अंधकार। घटि = हृदय में। बलिआ = चमक पड़ा। लधा = मिल गया। पदारथो = कीमती चीज। बहुड़ि = दुबारा। चलिआ = गायब हो गया। आराधि = सिमर के।1। अर्थ: (हे भाई!) जिन मनुष्यों के माथे पर धुर दरगाह से परमात्मा (गुरू-मिलाप का लेख) लिख देता है उन्हें गुरू मिल जाता है (उनके मन में से, गुरू की मेहर से) आत्मिक जीवन से अज्ञानता का अंधकार दूर हो जाता है, और, उनके हृदय में गुरू के बख्शे हुए आत्मिक जीवन के ज्ञान का प्रकाश हो जाता है। उन्हें परमात्मा के नाम का कीमती रत्न मिल जाता है जो दुबारा (उनसे कभी) गायब नहीं होता। हे दास नानक! (कह– हे भाई!) गुरू की शरण पड़ कर जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरते हैं, नाम सिमर के वह परमात्मा में ही लीन हो जाते हैं।1। पद्अर्थ: अैसा = ऐसा कीमती। से = वे लोग। काहे = किस वास्ते? जगि = जगत में। दुलंभ = दुर्लभ, बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। बिरथा = व्यर्थ। सभु = सारा। हुणि = इस मानस जनम में। वतै = बीज बीजने के समय, बोवाई का समय। अगै = परलोक में, समय गुजर जाने के बाद। किआ खाए = क्या खाएगा? मनमुख = अपने मन के पीछे चलने वाले। हरि भाइ = हरी को (यही) ठीक लगता है।2। अर्थ: (हे भाई! आत्मिक जीवन की सूझ देने वाला) ऐसा कीमती नाम जिन मनुष्यों ने नहीं सिमरा, वे जगत में पैदा ही क्यूँ हुए? (उनका मानस जनम किसी काम ना आया)। ये मानस जन्म बड़ी मुश्किल से मिलता है, नाम सिमरन के बिना सारे का सारा व्यर्थ चला जाता है। (हे भाई! जो किसान ठीक वक्त पर बोवाई के समय खेत को नहीं बीजता वह समय बीत जाने पर भूखा मरता है, वैसे ही) जो मानस जनम में ठीक समय में (अपने हृदय की खेती में) परमात्मा का नाम नहीं बीजता, वह परलोक में तब कौन सी खुराक बरतेगा जब आत्मिक जीवन के फलने-फूलने के लिए नाम-भोजन की जरूरत पड़ेगी? हे नानक! (कह–) अपने मन के पीछे चलने वालों को बारंबार जन्मों का चक्कर मिलता है (उनके वास्ते) परमात्मा को यही ठीक लगता है।2। पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। सभि = सारे। हाथि = हाथ में। चलहि = चलते हैं। पिआरे = हे प्यारे! तुधु = तुझे। मनि = मन में। भाऐ = अच्छे लगते हैं। नामि = नाम से। तराऐ = पार लंघाता है।3। अर्थ: हे हरी! तू सब जीवों का मालिक है, हरेक जीव तेरा (पैदा किया हुआ है), सारे जीव तेरे ही पैदा किए हुए हैं। किसी जीव के अपने वश में कुछ भी नहीं, जैसे तू चलाता है वैसे ही सारे जीव चलते हैं। हे प्यारे! जिन जीवों को तू अपने साथ मिलाता है, जो तेरे अपने मन को भाते हैं वही तेरे चरणों में जुड़े रहते हैं। हे दास नानक! (कह– हे भाई!) जिन मनुष्यों को गुरू मिल जाता है, गुरू उनको परमात्मा के नाम में जोड़ के (संसार-समुंद्र से) पार लंघा लेता है।3। पद्अर्थ: गावै = गुण गाता है। रागी = रागों में गा के। नादी = नाद, शंख आदि बजा के। बेदी = वेदों, धर्म पुस्तकों से। बहु भांति करि = कई तरीकों से। भीजै = प्रसन्न होता है। अंतरि = अंदर। कपटु = फरेब। रोइ = रो के। सिरि रोग = रोगों के सिर पर। हथु दीजै = हाथ दिया जाए। सुधु = पवित्र। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के।4। अर्थ: (हे भाई!) कोई मनुष्य राग गा-गा के, कोई शंख आदि बजा के, कोई धर्म-पुस्तकें पढ़ के कई ढंगों-तरीकों से परमात्मा के गुण गाता है, पर, परमात्मा इस तरह प्रसन्न नहीं होता (क्योंकि) करतार (हरेक मनुष्य के दिल की) हरेक बात जानता है अंदरूनी रोगों पर बेशक हाथ दिया जाए (अर्थात, अंदरूनी विकारों को छिपाने का चाहे जितना भी यतन किया जाए, तो भी परमात्मा से छुपा नहीं रह सकता)। हे नानक! गुरू की शरण पड़ कर जिन मनुष्यों का हृदय पवित्र हो जाता है, वही परमात्मा की भक्ति करते हैं, वही हरी का नाम लेते हैं।4।11।18। आसा महला ४ ॥ जिन अंतरि हरि हरि प्रीति है ते जन सुघड़ सिआणे राम राजे ॥ जे बाहरहु भुलि चुकि बोलदे भी खरे हरि भाणे ॥ हरि संता नो होरु थाउ नाही हरि माणु निमाणे ॥ जन नानक नामु दीबाणु है हरि ताणु सताणे ॥१॥ जिथै जाइ बहै मेरा सतिगुरू सो थानु सुहावा राम राजे ॥ गुरसिखीं सो थानु भालिआ लै धूरि मुखि लावा ॥ गुरसिखा की घाल थाइ पई जिन हरि नामु धिआवा ॥ जिन्ह नानकु सतिगुरु पूजिआ तिन हरि पूज करावा ॥२॥ गुरसिखा मनि हरि प्रीति है हरि नाम हरि तेरी राम राजे ॥ करि सेवहि पूरा सतिगुरू भुख जाइ लहि मेरी ॥ गुरसिखा की भुख सभ गई तिन पिछै होर खाइ घनेरी ॥ जन नानक हरि पुंनु बीजिआ फिरि तोटि न आवै हरि पुंन केरी ॥३॥ गुरसिखा मनि वाधाईआ जिन मेरा सतिगुरू डिठा राम राजे ॥ कोई करि गल सुणावै हरि नाम की सो लगै गुरसिखा मनि मिठा ॥ हरि दरगह गुरसिख पैनाईअहि जिन्हा मेरा सतिगुरु तुठा ॥ जन नानकु हरि हरि होइआ हरि हरि मनि वुठा ॥४॥१२॥१९॥ {पन्ना 450-451} पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। ते जन = वे लोग। सुघड़ = अच्छी मानसिक स्थिति वाले। भुलि = भूल के। चुकि = गलती खा के। भी = फिर भी। खरे = अच्छे। भाणे = प्यारे लगते हैं। थाउ = जगह, आसरा। दीबाणु = सहारा, फरियाद की जगह। ताणु = ताकत, बाहुबल। सताणे = तगड़े, ताकत वाले।1। अर्थ: (हे भाई!) जिन लोगों के हृदय में परमात्मा का प्यार मौजूद है (परमात्मा की नजरों में) वह लोग सुघड़ हैं, सियाने हैं। अगर वे कभी गलती से भी बाहर लोगों में (कच्चे बोल) बोल बैठते हैं तो भी परमात्मा को वे प्यारे लगते हैं। (हे भाई!) परमात्मा के संतों को (परमात्मा के बिना) और कोई आसरा नहीं होता (वे जानते हैं कि) परमातमा ही निमाणों का माण है। हे नानक! (कह–) परमात्मा के सेवकों के वास्ते परमात्मा का नाम ही सहारा है, परमात्मा ही उनका बाहुबल है (जिसके आसरे वे विकारों के मुकाबले में) बलवान रहते हैं।1। पद्अर्थ: जिथे = जहाँ, जिस जगह पर। जाइ = जा के। सुहावा = सुहाना। गुरसिखीं = गुरू के सिखों ने। भालिआ = ढूँढ लिया। धूरि = धूल। मुखि = मुंह पर। घाल = मेहनत। थाइ पई = (प्रभू दर पर) कबूल हो गई। पूज करावा = पूजा करवाता है। करावा = करवाई। लावा = लगाई। धिआवा = ध्यान लगाया।2। अर्थ: (हे भाई!) जिस जगह पर प्यारा गुरू जा बैठता है (गुरू के सिखों के वास्ते) वह स्थान सोहाना बन जाता है। गुरसिख उस स्थान को पा लेते हैं, और उसकी धूड़ ले के अपने माथे पर लगा लेते हैं। जो गुरसिख परमात्मा का नाम सिमरते हैं उनकी (गुरू-स्थान तलाशने की) मेहनत परमात्मा के दर पर कबूल हो जाती है। नानक (कहता है–) जो मनुष्य (अपने हृदय में) गुरू का आदर-सत्कार बैठाते हैं, परमात्मा (जगत में उनका) आदर करवाता है।2। पद्अर्थ: मनि = मन में। हरि = हे हरी! करि पूरा = पूर्ण जान के, अभॅुल जान के। भुख = माया की भूख। मेरी = माया की ममता। जाइ लहि = उतर जाती है। सभ = सारी। खाइ = (आत्मिक खुराक) खाती है। घनेरी = बहुत सारी दुनिया। हरि पुंनु = नाम सिमरन का भला बीज। तोटि = कमी। केरी = की। पुंन केरी = भले काम की। अर्थ: हे हरी! गुरू के सिखों के मन में तेरी प्रीति बनी रहती है तेरे नाम का प्यार टिका रहता है, वे अपने गुरू को अभॅुल जान के उसकी बताई हुई सेवा करते रहते हैं (जिसकी बरकति से उनके मन में से) माया की भूख दूर हो जाती है, उनकी संगति करके और बहुत सारी दुनिया (नाम-सिमरन की आत्मिक खुराक) खाती है। हे दास नानक! जो मनुष्य (अपने हृदय-खेत में) हरि-नाम का भला बीज बीजते हैं, उनके अंदर इस भले कर्म की कभी भी कमी नहीं होती।3। पद्अर्थ: मनि = मन में। वाधाईआं = खुशियां, आत्मिक उत्साह, चढ़दीकला। जिन् = जिन्होंने। गल = बात, जिक्र। सो = वह मनुष्य। मिठा = प्यारा। पैनाईअहि = सरोपे दिए जाते हैं, सन्माने जाते हैं (वर्तमानकाल कर्मवाच, अंन पुरख, बहुवचन)। तुठा = मेहरबान हुआ। नानकु = नानक (कहता है)। वुठा = आ बसा।4। अर्थ: (हे भाई!) जिन गुरसिखों ने प्यारे गुरू के दर्शन कर लिए, उनके मन में सदा चढ़दीकला बनी रहती है। यदि कोई मनुष्य परमात्मा की सिफतसालाह की बात आ के सुनाए तो वह मनुष्य गुरसिखों को प्यारा लगने लग जाता है। (हे भाई!) जिन गुरसिखों पे प्यारा सतिगुरू मेहरबान होता है उन्हें परमात्मा की दरगाह में आदर-मान मिलता है। नानक कहता है कि गुरसिख परमात्मा का रूप हो जाते हैं परमात्मा उनके मन में सदा बसारहता है।4।12।19। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |