श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 451 आसा महला ४ ॥ जिन्हा भेटिआ मेरा पूरा सतिगुरू तिन हरि नामु द्रिड़ावै राम राजे ॥ तिस की त्रिसना भुख सभ उतरै जो हरि नामु धिआवै ॥ जो हरि हरि नामु धिआइदे तिन्ह जमु नेड़ि न आवै ॥ जन नानक कउ हरि क्रिपा करि नित जपै हरि नामु हरि नामि तरावै ॥१॥ जिनी गुरमुखि नामु धिआइआ तिना फिरि बिघनु न होई राम राजे ॥ जिनी सतिगुरु पुरखु मनाइआ तिन पूजे सभु कोई ॥ जिन्ही सतिगुरु पिआरा सेविआ तिन्हा सुखु सद होई ॥ जिन्हा नानकु सतिगुरु भेटिआ तिन्हा मिलिआ हरि सोई ॥२॥ जिन्हा अंतरि गुरमुखि प्रीति है तिन्ह हरि रखणहारा राम राजे ॥ तिन्ह की निंदा कोई किआ करे जिन्ह हरि नामु पिआरा ॥ जिन हरि सेती मनु मानिआ सभ दुसट झख मारा ॥ जन नानक नामु धिआइआ हरि रखणहारा ॥३॥ हरि जुगु जुगु भगत उपाइआ पैज रखदा आइआ राम राजे ॥ हरणाखसु दुसटु हरि मारिआ प्रहलादु तराइआ ॥ अहंकारीआ निंदका पिठि देइ नामदेउ मुखि लाइआ ॥ जन नानक ऐसा हरि सेविआ अंति लए छडाइआ ॥४॥१३॥२०॥ {पन्ना 451} पद्अर्थ: जिना भेटिआ = जिन्होंने शरण ली। द्रिढ़ावै = दृढ़ाए, हृदय में पक्का कर देता है। जिस की = उस (मनुष्य) की। त्रिसना = प्यास। जो = जो मनुष्य। जो धिआइदे = जो मनुष्य सिमरते हैं। तिन् नेड़ि = उनके नजदीक। करि = करे, करता है। नामि = नाम में (जोड़ के)। तरावै = पार लंघा देता है।1। अर्थ: (हे भाई!) जिन मनुष्यों ने प्यारे गुरू का पल्ला पकड़ लिया, गुरू उनके हृदय में परमात्मा का नाम पक्का कर देता है। जो मनुष्य परमात्मा का नाम सिमरता है उस मनुष्य की माया वाली भूख-प्याससारी दूर हो जाती है। जो मनुष्य सदा परमात्मा का नाम सिमरते रहते हैं, जम उनके नजदीक नहीं फटकता (आत्मिक मौत उनके ऊपर अपना प्रभाव नहीं डाल सकती)। हे दास नानक! (कह जिस मनुष्य पे) परमात्मा कृपा करता है, वह सदा उसका नाम जपता है, और, परमात्मा उसको अपने नाम में जोड़ के (संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है।1। पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के द्वारा। बिघनु = रुकावट। सद = सदा। पुरखु = महा पुरुष, स्मर्था वाला। पूजे = आदर करता है। सभु कोई = हरेक जीव। नानकु = नानक (कहता है)। भेटिआ = शरण लई, पल्ला पकड़ा। सोई = स्वयं ही।2। अर्थ: (हे भाई!) जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के परमात्मा का नाम सिमरते हैं, उनके जीवन सफर में दुबारा (विकारों आदि की) कोई रुकावट नहीं पड़ती। जो मनुष्य (अपना जीवन स्वच्छ बना के) समर्थ गुरू को प्रसन्न कर लेते हैं, हरेक जीव उनका आदर-सत्कार करता है। जो मनुष्य प्यारे गुरू की बताई सेवा करते हैं (गुरू का आसरा लेते हैं) उनको सदा ही आत्मिक आनन्द प्राप्त रहता है। नानक (कहता है) जो मनुष्य गुरू का पल्ला पकड़ते हैं उन्हे परमात्मा खुद आ के मिलता है।2। नोट: ध्याया, मनाया, (सेविआ) सेवा की, (भेटिआ) भेटा की, (मिलिआ) मिले– ये सारे शब्द ‘भूतकाल’ में हैं। पर इनके अर्थ ‘वर्तमान काल’ में किए गए हैं। पद्अर्थ: अंतरि = हृदय में। गुरमुखि = गुरू के बताए हुए राह पर चलने से। रखणहारा = बचाने की समर्था वाला। किआ करे = क्या कर सकता है? नहीं कर सकता (क्योंकि उनमें कोई विकार ही नहीं रह जाता जिसको भंडा जा सके)। सेती = साथ। मानिआ = पतीज गया। दुसट = दुरजन, बुरे मनुष्य। झख = व्यर्थ यत्न।3। अर्थ: (हे भाई!) गुरू के बताए रास्ते पर चल के जिन मनुष्यों के हृदय में परमात्मा की प्रीति पैदा हो जाती है, बचाने की समर्था वाला परमात्मा (उन्हें विकारों से बचा लेता है), जिन मनुष्यों को परमात्मा का नाम प्यारा लगने लग पड़ता है, कोई मनुष्य उनकी निंदा नहीं कर सकता क्योंकि कोई निंदनेयोग्य बुराई उनके जीवन में रह ही नहीं जाती। सो, जिन मनुष्यों का मन परमात्मा के साथ रम जाता है, बुरे मनुष्य (उन्हें बदनाम करने के लिए ऐसे ही) व्यर्थ की टक्करें मारते रहते हैं। हे दास नानक! (कह–) जो मनुष्य हरि-नाम सिमरते हैं, बचाने की समर्था वाला हरी (उनको विकारों से बचा लेता है)।3। पद्अर्थ: जुगु जुगु = हरेक युग में (देखें = गुरबाणी व्याकरण)। उपाइआ = पैदा करता आ रहा है। पैज = इज्जत। देइ = दे के। मुखि लाइआ = अपने मुंह लगाया, आदर सम्मान दिया। अैसा = ऐसी समर्था वाला। अंति = आखिर को।4। अर्थ: परमात्मा हरेक युग में ही भगत पैदा करता है, और, (बुरे समय में) उनकी इज्जत रखता आ रहा है (जैसे कि, प्रहलाद के जालिम पिता) चंदरे हरणाक्षस को परमात्मा ने (आखिर जान से) मार दिया (और अपने भगत) प्रहलाद को (पिता के दिए कष्टों से) सही सलामत बचा लिया (जैसे कि मंदिर में धक्के देने वाले) निंदकों और (जाति-) अभिमानियों को (परमात्मा ने) पीठ दे के (मात दे के) (अपने भक्त) नामदेव को दर्शन दिए। हे दास नानक! जो भी मनुष्य ऐसे समर्था वाले परमात्मा की सेवा भक्ति करता है परमात्मा उसे (दोखियों द्वारा दिए जा रहे सब कष्टों से) आखिर बचा लेता है।4।13।20। आसा महला ४ छंत घरु ५ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ मेरे मन परदेसी वे पिआरे आउ घरे ॥ हरि गुरू मिलावहु मेरे पिआरे घरि वसै हरे ॥ रंगि रलीआ माणहु मेरे पिआरे हरि किरपा करे ॥ गुरु नानकु तुठा मेरे पिआरे मेले हरे ॥१॥ {पन्ना 451} पद्अर्थ: वे मन! = हे मन! परदेसी = पराए देशों में रहने वाले, जगह जगह भटकने वाले। घरे = घर में, प्रभू चरणों में। मिलावहु = मिल। वसै = बसता है। हरे = हरी। रंगि = प्रेम में (टिक के)। रलीआं = मौजें। तुठा = दयावान, प्रसन्न।1। अर्थ: हे जगह-जगह भटकने वाले मन! हे प्यारे मन! कभी तो प्रभू चरणों में जुड़। हे मेरे प्यारे मन! हरि-रूप गुरू को मिल (तुझे समझ आ जाएगी कि सब सुखों का दाता) परमात्मा तेरे अंदर ही बस रहा है। हेमेरे प्यारे मन! प्रभू के प्रेम में टिक के आत्मिक आनंद ले (अरदास करता रह कि तेरे पर) प्रभू ये मेहर (की दाति) करे। नानक (कहता है–) हे मेरे प्यारे मन! जिस मनुष्य पे गुरू दयावान होता है उसे परमात्मा से मिला देता है।1। मै प्रेमु न चाखिआ मेरे पिआरे भाउ करे ॥ मनि त्रिसना न बुझी मेरे पिआरे नित आस करे ॥ नित जोबनु जावै मेरे पिआरे जमु सास हिरे ॥ भाग मणी सोहागणि मेरे पिआरे नानक हरि उरि धारे ॥२॥ {पन्ना 451} पद्अर्थ: भाउ करे = प्यार करके। मनि = मन में (बस रही)। आस = (माया की) आशाएं। जोबनु = जवानी। जावै = बीतता जा रहा है। हिरे = हेरे, ताक रहा है। भागमणी = भाग्य की मणी। उरि = हृदय में।2। अर्थ: हे मेरे प्यारे! मैंने (प्रभू चरणों में) प्रेम जोड़ के उसके प्यार का स्वाद (कभी भी) नहीं चखा, (क्योंकि) हे मेरे प्यारे! मेरे मन में (बस रही माया की) तृष्णा कभी खत्म ही नहीं हुई, (मेरा मन) सदा (माया की ही) आशाएं बनाता रहता है। हे मेरे प्यारे! सदा (इसी हालत में ही) मेरी जवानी गुजरती जा रही है, और मौत का देवता मेरी सांसों को (ध्यान से) ताक रहा है (कि सांसें पूरी हों और इसे आ पकड़ूँ)। हे नानक! (कह–) हे मेरे प्यारे! वही जीव स्त्री भाग्यशाली बनती है उसी के माथे पे भाग्यों की मणि चमकती है जो परमात्मा (की याद) अपने हृदय में टिकाए रखती है।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |