श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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पिर रतिअड़े मैडे लोइण मेरे पिआरे चात्रिक बूंद जिवै ॥ मनु सीतलु होआ मेरे पिआरे हरि बूंद पीवै ॥ तनि बिरहु जगावै मेरे पिआरे नीद न पवै किवै ॥ हरि सजणु लधा मेरे पिआरे नानक गुरू लिवै ॥३॥ {पन्ना 452}

पद्अर्थ: रतिअड़े = प्रेम रंग से रंगे हुए। मैडे = मेरे। लोइण = नेत्र, आँखें। चात्रिक = पपीहा। सीतलु = ठंडा। पीवै = पीता है। तनि = शरीर में (उपजा हुआ)। बिरहु = विछोड़े का दर्द। किवै = किसी तरह भी। लिव = सुरति।3।

अर्थ: हे मेरे प्यारे! मेरी आँखें प्रभू पति के दर्शनों में मस्त हैं जैसे पपीहा (स्वाति की बरखा की) बूँद (की चाहत रखता है)। हे मेरे प्यारे! जब मेरा मन परमात्मा के नाम जल की बूँद पीता है तो ठंडा-ठार हो जाता है। हे मेरे प्यारे! मेरे शरीर में उपजा हुआ विछोड़े का दर्द मुझे जगाए रखता है, किसी तरह भी मुझे नींद नहीं आती। हे नानक! (कह–) हे मेरे प्यारे! गुरू की बख्शी लगन की बरकति से मैंने सज्जन प्रभू को (अपने अंदर ही) पा लिया है।3।

चड़ि चेतु बसंतु मेरे पिआरे भलीअ रुते ॥ पिर बाझड़िअहु मेरे पिआरे आंगणि धूड़ि लुते ॥ मनि आस उडीणी मेरे पिआरे दुइ नैन जुते ॥ गुरु नानकु देखि विगसी मेरे पिआरे जिउ मात सुते ॥४॥ {पन्ना 452}

पद्अर्थ: चढ़ि = चढ़ता है। भलीअ = सोहनी। रुते = ऋतु। बाझड़िहु = बिना। आंगणि = (हृदय में) आंगन में। धूड़ि = धूल। लुते = उड़ रही है। मनि = मन में। उडीणी = उदास। नैन = आँखे। जुड़ = जुड़े हुए, टिक टिकी लगा रहे। देखि = देख के। विगसी = खिल पड़ी। सुते = सुत, पुत्र को।4।

अर्थ: हे मेरे प्यारे! चेत (का महीना) चढ़ता है, बसंत (का मौसम) आता है, (सारा संसार कहता है कि ये) सोहानी ऋतु (आ गई है पर) हे मेरे प्यारे! मेरे मन में (प्रभू मिलाप की) आस उठ रही है, (मैं दुनिया वाली सोहानी बसंत ऋतु से) उदास हूँ, मेरी दोनों आँखें (बसंत की बहार को देखने की जगह प्रभू-पति के दर्शनों के इन्तजार में) जुड़ी पड़ी हैं।

नानक (कहता है– अब) हे मेरे प्यारे! गुरू नानक को देख के (मेरी जीवात्मा ऐसे) खिल पड़ी है जैसे मां अपने पुत्र को देख के खिल पड़ती है।4।

हरि कीआ कथा कहाणीआ मेरे पिआरे सतिगुरू सुणाईआ ॥ गुर विटड़िअहु हउ घोली मेरे पिआरे जिनि हरि मेलाईआ ॥ सभि आसा हरि पूरीआ मेरे पिआरे मनि चिंदिअड़ा फलु पाइआ ॥ हरि तुठड़ा मेरे पिआरे जनु नानकु नामि समाइआ ॥५॥ {पन्ना 452}

पद्अर्थ: विटड़िअहु = से। हउ = मैं। घोली = सदके। जिनि = जिस (गुरू) ने। सभि = सारी। मनि चिंदिअड़ा = मन में चितवा हुआ। तुठड़ा = प्रसन्न। नामि = नाम में। नानकु = नानक (कहता है)।5।

अर्थ: हे मेरे प्यारे! मुझे गुरू ने परमात्मा की सिफत-सालाह की बातें सुनाई हैं, मैं उस गुरू से सदके जाती हूँ जिसने मुझे प्रभू-पति के चरणों में जोड़ दिया है। हे मेरे प्यारे! प्रभू ने मेरी सारी आशाएं पूरी कर दी हैं, प्रभू से मैंने मन-चितवा फल पा लिया है।

नानक (कहता है–) हे मेरे प्यारे! जिस (भाग्यशाली मनुष्य पे) परमात्मा दयावान होता है वह परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है।5।

पिआरे हरि बिनु प्रेमु न खेलसा ॥ किउ पाई गुरु जितु लगि पिआरा देखसा ॥ हरि दातड़े मेलि गुरू मुखि गुरमुखि मेलसा ॥ गुरु नानकु पाइआ मेरे पिआरे धुरि मसतकि लेखु सा ॥६॥१४॥२१॥ {पन्ना 452}

पद्अर्थ: पिआरे = हे प्यारे! खेलसा = मैं खेलूँगी। किउ = कैसे? पाई = मैं पाऊँ। जितु = जिस के द्वारा। लगि = (जिसके चरणों में) लग के। देखसा = मैं देखूँ। दातड़े = हे प्यारे दातार! गुरमुखि = गुरू के द्वारा। मुखि मेलसा = मैं मुंह से मिलाऊँगी, मैं दर्शन करूँगी। धुरि = दरगाह से। मसतकि = माथे पे। सा = थी।6।

अर्थ: हे प्यारे! परमात्मा के बिना (किसी और से) मैं प्रेम (की खेल) नहीं खेलूँगी। (हे प्यारे! बता) मै गुरू को कैसे ढूँढू जिससे मैं तेरे दर्शन कर सकूँ।

हे प्यारे दातार हरी! मुझे गुरू मिला, गुरू के द्वारा ही मैं तेरे दर्शन कर सकूँगी।

नानक (कहता है–) हे मेरे प्यारे! (जिस भाग्यशाली के) माथे पे धुर दरगाह से (प्रभू-मिलाप का) लेख लिखा होता है उसे गुरू मिल जाता है।6।14।21।

ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु आसा महला ५ छंत घरु १ ॥ अनदो अनदु घणा मै सो प्रभु डीठा राम ॥ चाखिअड़ा चाखिअड़ा मै हरि रसु मीठा राम ॥ हरि रसु मीठा मन महि वूठा सतिगुरु तूठा सहजु भइआ ॥ ग्रिहु वसि आइआ मंगलु गाइआ पंच दुसट ओइ भागि गइआ ॥ सीतल आघाणे अम्रित बाणे साजन संत बसीठा ॥ कहु नानक हरि सिउ मनु मानिआ सो प्रभु नैणी डीठा ॥१॥ {पन्ना 452}

पद्अर्थ: अनदो अनदु = आनंद ही आनंद। घणा = बहुत। वूठा = आ बसा। तूठा = प्रसन्न हुआ। सहजु = आत्मिक अडोलता। ग्रिह = घर, हृदय घर। वसि आइआ = वश आ गया है। मंगलु = खुशी के गीत। ओइ = (‘ओह’ का बहुवचन)। भाग गइआ = भाग गए। आघाणे = तृप्त हो गए। अंम्रित बाणे = आत्मिक जीव देने वाली बाणी से। बसीठा = वकील, बिचौला। सिउ = से। नैणी = आँखो से।1।

अर्थ: (हे भाई! मेरे हृदय-घर में) आनंद ही आनंद बन गया है (क्योंकि) मैंने उस प्रभू के दर्शन कर लिए हैं (जो आनंद का श्रोत है), और मैंने परमात्मा के नाम का मीठा रस चख लिया है। (हे भाई!) परमात्मा के नाम का मीठा रस मेरे मन में आ बसा है (क्योंकि) सतिगुरू (मेरे पर) दयावान हो गया है (गुरू की मेहर से मेरे अंदर) आत्मिक अडोलता पैदा हो गई है। अब मेरा (हृदय) घर बस गया है (मेरी ज्ञानेन्द्रियां) खुशी के गीत गा रही हैं (मेरे हृदय-घर में से) वह (कामादिक) पाँचों वैरी भाग गए हैं। (हे भाई! जब का) मित्र गुरू (परमात्मा से मिलाने के लिए) वकील बना है विचौला बना है, उसकी आत्मिक जीवन देने वाली बाणी की बरकति से मेरी ज्ञानेन्द्रियां ठंडी-ठार हो गई हैं (मायावी पदार्थों की ओर से) तृप्त हो गई हैं।

हे नानक! कह– मेरा मन अब परमात्मा के साथ रच-मिच गया है, मैंने उस परमात्मा को (अपनी) आँखों से देख लिया है।1।

सोहिअड़े सोहिअड़े मेरे बंक दुआरे राम ॥ पाहुनड़े पाहुनड़े मेरे संत पिआरे राम ॥ संत पिआरे कारज सारे नमसकार करि लगे सेवा ॥ आपे जाञी आपे माञी आपि सुआमी आपि देवा ॥ अपणा कारजु आपि सवारे आपे धारन धारे ॥ कहु नानक सहु घर महि बैठा सोहे बंक दुआरे ॥२॥ {पन्ना 452}

पद्अर्थ: सोहिअड़े = शोभनीय हो गए हैं। बंक = बाँके, सुंदर। मेरे दुआरे = मेरी ज्ञानेन्द्रियां। पाहुनड़े = मेरी जीवात्मा का पति। कारज सारे = मेरे (सारे) काम सँवारते हैं। करि = कर के। आपे = स्वयं ही। माञी = मांजी (विवाह वाले घर में आया हुआ) मेल, बाराती। सुआमी = पति, खसम। देवा = ईष्ट देव (जिसके सन्मुख विवाह समपन्न होता है)। कारजु = विवाह का काम। धारन धारे = आसरा देता है। सहु = पति प्रभू। घर = हृदय घर।2।

अर्थ: (हे सखी! मेरे हृदय घर के सारे दरवाजे) मेरे ज्ञानेन्द्रियां सुंदर हो गई हैं शोभनीय हो गई हैं (क्योंकि मेरे हृदय-घर में) मेरी जिंद के साई मेरे संत-प्रभू जी आ बिराजे हैं। मेरे प्यारे संत-प्रभू जी मेरे सारे काम सँवार रहे हैं (मेरी सारी ज्ञानेन्द्रियां उस संत-प्रभू को) नमस्कार कर के उसकी सेवा-भक्ति में लग गई हैं। वह स्वयं ही जांजी वह स्वयं ही मेल है वह स्वयं ही मालिक है स्वयं ही ईष्ट देव है। (मेरी जीवात्मा का मालिक प्रभू मेरी जीवात्मा को अपने चरनों में जोड़ने का ये) अपना काम खुद समपन्न करता है।

हे नानक! कह– मेरा पति-प्रभू मेरे हृदय-घर में आ बैठता है, मेरी सारी ज्ञानेन्द्रियां सुंदर बन गई हैं।2।

नव निधे नउ निधे मेरे घर महि आई राम ॥ सभु किछु मै सभु किछु पाइआ नामु धिआई राम ॥ नामु धिआई सदा सखाई सहज सुभाई गोविंदा ॥ गणत मिटाई चूकी धाई कदे न विआपै मन चिंदा ॥ गोविंद गाजे अनहद वाजे अचरज सोभ बणाई ॥ कहु नानक पिरु मेरै संगे ता मै नव निधि पाई ॥३॥ {पन्ना 452}

पद्अर्थ: नव = नौ। निधि = खजाने। नव निधे = सृष्टि के सारे नौ ही खजाने। धिआई = मैं सिमरता हूँ। सखाई = साथी। सहज = आत्मिक अडोलता। सुभाई = श्रेष्ठ प्रेम का दाता। गणत = चिंता। चूकी = समाप्त हो गई। धाई = भटकना। न विआपै = जोर नहीं डाल सकती। चिंदा = चिंता। गाजे = गरज रहा है, प्रकट हो रहा है। अनहद = एक रस। अनहद वाजे = एक रस बाजे बज रहे हैं। सोभ = शोभा। मेरै संगे = मेरे साथ।3।

अर्थ: हे भाई! अब मैं परमात्मा का नाम सिमरता हूँ, मुझे हरेक पदार्थ मिल गया है, मैंने सब कुछ पा लिया है, सृष्टि के सारे ही नौ खजाने मेरे हृदय-घर में आ टिके हैं।

मैं उस गोविंद का नाम सदा सिमरता हूँ जो मेरा सदा के लिए साथी बन गया है, जिसके सदका मेरे अंदर आत्मिक अडोलता और प्रेम पैदा हो गए हैं। मैंने अपने अंदर से चिंता-फिक्र मिटा ली है, मेरी भटकन खत्म हो गई है, कोई चिंता मेरे मन पर कभी जोर नहीं डाल सकती। मेरे अंदर गोविंद गरज रहा है (प्रभू के सिमरन का आनंद पूरे यौवन में है। इस तरह आनंद बना हुआ है, मानो, सारे संगीतक साज) एक-रस (मेरे अंदर) बज रहे हैं। (परमात्मा ने मेरे अंदर) हैरान कर देने वाली आत्मिक सुंदरता पैदा कर दी। हे नानक! कह– प्रभू पति मेरे अंग-संग बस रहा है, तभी तो मुझे प्रतीत हो रहा है कि मैंने सृष्टि के नौ ही खजाने पा लिए हैं।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh