श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 453 सरसिअड़े सरसिअड़े मेरे भाई सभ मीता राम ॥ बिखमो बिखमु अखाड़ा मै गुर मिलि जीता राम ॥ गुर मिलि जीता हरि हरि कीता तूटी भीता भरम गड़ा ॥ पाइआ खजाना बहुतु निधाना साणथ मेरी आपि खड़ा ॥ सोई सुगिआना सो परधाना जो प्रभि अपना कीता ॥ कहु नानक जां वलि सुआमी ता सरसे भाई मीता ॥४॥१॥ {पन्ना 453} पद्अर्थ: सरसिअड़े = स+रस हो गए हैं, आनंद पूर्ण हो गए हैं। मेरे भाई मीता = मेरे मित्र मेरे भाई, मेरी सारी ज्ञानेंद्रियां। बिखमो बिखमु = विषम ही विषम, बहुत मुश्किल। अखाड़ा = संसार अखाड़ा जहाँ कामादिक विकारों के साथ सदा कशमकश हो रही है। गुरू मिलि = गुरू को मिल के। भीता = दीवार, भीति। भरम गढ़ा = भरम के किले की। साणथ = सहायता ली। सुगिआना = ज्ञान वाला। परधाना = जाना माना। जो = जिसे। प्रभि = प्रभू ने। जां = जब। वलि = पक्ष से।4। अर्थ: हे भाई! गुरू को मिल के मैंने ये बड़ा मुश्किल संसार-अखाड़ा जीत लिया है, अब मेरे सारे मित्र-भाई (सारी ही ज्ञानेन्द्रियां) आनंद-पूरित हो रहे हैं। हे भाई! गुरू की शरण पड़ कर मैंने संसार-अखाड़ा जीता है (गुरू की कृपा से) मैं सदा परमात्मा का सिमरन करता हूँ (मैं पहले माया की भटकन के किले में कैद था, अब वह) भटकना के किले की दीवार गिर गई है। मैंने हरि-नाम का खजाना पा लिया है, एक बड़ा खजाना मिल गया है। मेरी सहायता के लिए प्रभू खुद (मेरे सिर पर) आ खड़ा हुआ है। हे भाई! वही मनुष्य ठीक समझ वाला है वही मनुष्य हर जगह जाना-माना हुआ है जिसे प्रभू ने अपना (सेवक) बना लिया है। हे नानक! जब पति-प्रभू ही अपनी तरफ़ हो तो सारे मित्र भाई भी खुश हो जाते हैं।4।1। आसा महला ५ ॥ अकथा हरि अकथ कथा किछु जाइ न जाणी राम ॥ सुरि नर सुरि नर मुनि जन सहजि वखाणी राम ॥ सहजे वखाणी अमिउ बाणी चरण कमल रंगु लाइआ ॥ जपि एकु अलखु प्रभु निरंजनु मन चिंदिआ फलु पाइआ ॥ तजि मानु मोहु विकारु दूजा जोती जोति समाणी ॥ बिनवंति नानक गुर प्रसादी सदा हरि रंगु माणी ॥१॥ {पन्ना 453} पद्अर्थ: अकथा = जो बयान ना की जा सके। कथा = सिफत सालाह। सुरिनर = देवी गुण वाले लोग। मुनिजन = शांत चित्त रहने वाले मनुष्य। सहजि = आत्मिक अडोलता में। अमिउ बाणी = अमृत बाणी, आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी के द्वारा। रंगु = प्यार। जपि = जप के। अलखु = अदृष्य। निरंजन = निर्लिप। चिंदिआ = चितवा, याद किया। तजि = तज के। दूजा = माया का प्यार। गुर प्रसादी = गुरू की कृपा से। रंगु = आनंद।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा की सिफत सालाह (अपने अहंकार-चतुराई के आधार पर) नहीं की जा सकती, (समझदारी-चतुराई के आसरे) परमात्मा की सिफत सालाह से जान-पहिचान नहीं डाली जा सकती। देवी स्वभाव वाले शांत-चित्त रहने वाले मनुष्य आत्मिक अडोलता में टिक के ही सिफत सालाह करते हैं। हे भाई! जिन लोगों ने आत्मिक जीवन देने वाली गुरबाणी की बरकति से आत्मिक अडोलता में टिक के परमात्मा की सिफत सालाह की उन्होंने परमात्मा के सुंदर कोमल चरणों से प्यार बना लिया, उस एक अदृष्य और निर्लिप प्रभू को सिमर के उन्होंने मनचाहा फल प्राप्त कर लिया। नानक विनती करता है– (हे भाई! जिन लोगों ने अपने अंदर से) अहंकार मोह विकार माया का प्यार दूर करके अपनी सुरति रॅबी नूर में जोड़ ली, वह गुरू की कृपा से सदा प्रभू मिलाप का आनंद लेते हैं।1। हरि संता हरि संत सजन मेरे मीत सहाई राम ॥ वडभागी वडभागी सतसंगति पाई राम ॥ वडभागी पाए नामु धिआए लाथे दूख संतापै ॥ गुर चरणी लागे भ्रम भउ भागे आपु मिटाइआ आपै ॥ करि किरपा मेले प्रभि अपुनै विछुड़ि कतहि न जाई ॥ बिनवंति नानक दासु तेरा सदा हरि सरणाई ॥२॥ {पन्ना 453} पद्अर्थ: सहाई = साथी, सहायता करने वाले। संताप = दुख कलेश, मानसिक दुख। भ्रम = भटकना। भउ = डर, सहम। आपु = स्वै भाव। प्रभि = प्रभू ने। कतहि = कहीं भी।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के संत जन मेरे मित्र हैं मेरे सज्जन हैं मेरे साथी हैं। उनकी संगति मैंने बड़ भाग्यों से बड़ी ऊँची किस्मत से पाई है। जो मनुष्य संत-जनों की संगति खुश-किस्मती से हासिल कर लेता है वह (सदा) परमात्मा का नाम सिमरता है, उसके सारे दुख उसके सारे कलेश समाप्त हो जाते हैं। हे भाई! जो आदमी गुरू के चरणों में लगता है उसकी भटकना दूर हो जाती है उसका हरेक डर-सहम खत्म हो जाता है, वह अपने अंदर से स्वै भाव (अहंकार) दूर कर लेता है। जिस मनुष्य को प्यारे प्रभू ने मेहर करके अपने चरणों में जोड़ लिया, वह प्रभू से विछुड़ के कहीं भी और नहीं जाता। नानक बेनती करता है– हे हरी! मैं तेरा दास हूँ, मुझे भी अपनी शरण में रख।2। हरि दरे हरि दरि सोहनि तेरे भगत पिआरे राम ॥ वारी तिन वारी जावा सद बलिहारे राम ॥ सद बलिहारे करि नमसकारे जिन भेटत प्रभु जाता ॥ घटि घटि रवि रहिआ सभ थाई पूरन पुरखु बिधाता ॥ गुरु पूरा पाइआ नामु धिआइआ जूऐ जनमु न हारे ॥ बिनवंति नानक सरणि तेरी राखु किरपा धारे ॥३॥ {पन्ना 453} पद्अर्थ: दरे = दर पे। वारी = कुर्बान। जावा = मैं जाता हूँ। सद = सदा। करि = कर के। भेटत = मिलने से। जाता = जान लिया, गहरी सांझ डाल ली। घटि घटि = हरेक शरीर में। बिधाता = सृजनहार। जूअै = जूए में।3। अर्थ: हे हरी! तेरे दर पे, तेरे दरवाजे पे (खड़े) तेरे प्यारे भक्त सुंदर लग रहे हैं। मैं (तेरे) उन (भक्तों) से वार जाता हूँ, सदके जाता हूँ, कुर्बान जाता हूँ। (हे भाई!) मैं उन भक्तों के आगे सिर झुका के सदा उनसे कुर्बान जाता हूँ जिन्हें मिल के परमात्मा से गहरी नजदीकी बन जाती है (और ये समझ आ जाती है कि) सर्व-व्यापक सृजनहार हरेक शरीर में हर जगह मौजूद है। हे भाई! जिस मनुष्य को पूरा गुरू मिल जाता है वह परमात्मा का नाम सिमरता है वह (जुआरिए की तरह) जूए में (मानस) जन्म (की बाजी) नहीं गवाता। बेअंता बेअंत गुण तेरे केतक गावा राम ॥ तेरे चरणा तेरे चरण धूड़ि वडभागी पावा राम ॥ हरि धूड़ी न्हाईऐ मैलु गवाईऐ जनम मरण दुख लाथे ॥ अंतरि बाहरि सदा हदूरे परमेसरु प्रभु साथे ॥ मिटे दूख कलिआण कीरतन बहुड़ि जोनि न पावा ॥ बिनवंति नानक गुर सरणि तरीऐ आपणे प्रभ भावा ॥४॥२॥ {पन्ना 453} पद्अर्थ: केतक = कितने? गावा = गाऊँ, मैं गा सकता हूँ। पावा = हासिल करूँ, पाऊँ। नाईअै = स्नान करना चाहिए। गवाईअै = दूर कर ली जाती है। हदूरे = अंग संग। साथे = साथ। कलिआण = सुख आनंद। बहुड़ि = दुबारा, फिर। तरीअै = तैर जाते हैं। प्रभ भावा = प्रभू को ठीक लगूँ।4। अर्थ: हे प्रभू! तेरे बेअंत गुण हैं, तेरे गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। मैं तेरे कितने गुण गा सकता हूँ? हे प्रभू! यदि मेरे बड़े भाग्य हों तो ही तेरे चरणों की तेरे (सोहणे) चरणों की धूड़ मुझे मिल सकती है। हे भाई! प्रभू के चरणों की धूड़ में स्नान करना चाहिए (इस तरह मन में से विकारों) की मैल दूर हो जाती है, और, जनम मरण के (सारी उम्र के) दुख उतर जाते हैं (ये निश्चय भी आ जाता है कि) परमेश्वर प्रभू हमारे अंदर और बाहर सारे संसार में सदा हमारे सदा अंग-संग बसता है हमारे साथ बसता है। (हे भाई! जो मनुष्य) परमात्मा की सिफत सालाह करता है उसके अंदर सुख साधन बन जाते हैं उसके दुख मिट जाते हैं, वह दुबारा जूनियों में नहीं पड़ता। नानक बिनती करता है– गुरू की शरण पड़ने से (संसार-समुंदर से) पार लांघ जाते हैं। (अगर मुझे भी गुरू मिल जाए तो मैं भी) अपने प्रभू को प्यारा लगने लग जाऊँ।4।2। आसा छंत महला ५ घरु ४ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ हरि चरन कमल मनु बेधिआ किछु आन न मीठा राम राजे ॥ मिलि संतसंगति आराधिआ हरि घटि घटे डीठा राम राजे ॥ हरि घटि घटे डीठा अम्रितुो वूठा जनम मरन दुख नाठे ॥ गुण निधि गाइआ सभ दूख मिटाइआ हउमै बिनसी गाठे ॥ प्रिउ सहज सुभाई छोडि न जाई मनि लागा रंगु मजीठा ॥ हरि नानक बेधे चरन कमल किछु आन न मीठा ॥१॥ {पन्ना 453-454} पद्अर्थ: बेधिआ = बेध गया। किछु आन = और कोई भी चीज। मिलि = मिल के। घटि घटो = हरेक घट (शरीर) में। अंम्रितुो = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल (शब्द ‘अमृत’ है, यहां ‘अमृतो’ पढ़ना है)। वूठा = आ बसा। नाठो = भाग गए। निधि = खजाना। गाठे = गांठ। सहज सुभाई = आत्मिक अडोलता को प्यार करने वाला। मनि = मन में। बेधे = बेधे जाने से।1। अर्थ: (हे भाई! जिस मनुष्य का) मन परमात्मा के सोहाने कोमल चरणों में परोया जाता है, उसे (परमात्मा की याद के बिना) कोई और चीज मीठी नहीं लगती। साध-संगति में मिल के वह मनुष्य प्रभू का नाम सिमरता है, उसे परमात्मा हरेक शरीर में बसता दिखाई देता है (उस मनुष्य के हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है (जिसकी बरकति से उसके) जनम-मरण के दुख (जिंदगी के सारे दुख) दूर हो जाते हैं। वह मनुष्य गुणों के खजाने प्रभू की सिफत सालाह करता है, अपने सारे दुख मिटा लेता है, (उसके अंदर से) अहंकार की (बंधी हुई) गाँठ खुल जाती है। आत्मिक अडोलता को प्यार करने वाला प्रभू उसे छोड़ नहीं जाता, उसके मन में (प्रभू प्रेम का पक्का) रंग चढ़ जाता है (जैसे) मजीठ (का पक्का रंग)। हे नानक! जिस मनुष्य का मन प्रभू के सोहाने कोमल चरणों में बेधा गया, उसको (प्रभू की याद के बिना) और कोई चीज अच्छी नहीं लगती।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |