श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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जैसी मछुली नीर इकु खिनु भी ना धीरे मन ऐसा नेहु करेहु ॥ जैसी चात्रिक पिआस खिनु खिनु बूंद चवै बरसु सुहावे मेहु ॥ हरि प्रीति करीजै इहु मनु दीजै अति लाईऐ चितु मुरारी ॥ मानु न कीजै सरणि परीजै दरसन कउ बलिहारी ॥ गुर सुप्रसंने मिलु नाह विछुंने धन देदी साचु सनेहा ॥ कहु नानक छंत अनंत ठाकुर के हरि सिउ कीजै नेहा मन ऐसा नेहु करेहु ॥२॥ {पन्ना 455}

पद्अर्थ: नीर = पानी। धीरे = धीरज करती। मन = हे मन! नेहु = प्रेम। करेहु = कर। चात्रिक = पपीहा। बूँद = बरखा की बूँद। चवै = बोलता है। चवै मेहु = बादलों को कहता है। सुहावै = हे सोहाने (मेघ)! बरसु = बरखा कर। दीजै = भेट कर देने चाहिए। मुरारी = परमात्मा (से)। मानु = अहंकार। सुप्रसंने = दयावान। नाह = हे नाथ! हे प्रभू पति! विछुंने = हे विछुड़े हुए! धन = जीव स्त्री। साचु = सदा स्थिर रहने वाले प्रभू को। नानक = हे नानक! छंत = सिफत सालाह के गीत। नेहा = नेहु, प्रेम।2।

अर्थ: हे (मेरे) मन! तू (परमात्मा के साथ) ऐसा प्रेम बना जैसा मछली का पानी के साथ है (मछली पानी के बिना) एक छिण भी नहीं जी सकती; जैसा (पपीहे का प्रेम-बरखा बूँद से है), पपीहा प्यासा है (पर और पानी नहीं पीता, वह) बार-बार बरखा की बूँद मांगता है, और बादलों को कहता है– हे सोहाने (मेघा)! बरखा कर।

हे भाई! परमात्मा से प्यार डालना चाहिए (प्यार के बदले अपना) ये मन उसके हवाले करना चाहिए (और इस तरह) मन को परमात्मा के चरणों में जोड़ना चाहिए; अहंकार नहीं करना चाहिए, परमात्मा की शरण पड़ना चाहिए, उसके दर्शनों की खातिर अपना-आप सदके करना चाहिए।

हे भाई! जिस जीव-स्त्री पे गुरू दयावान होता है वह सदा-स्थिर प्रभू का सिमरन करती है और उसके दर से अरजोई करती है– हे विछुड़े हुए प्रभू-पति! मुझे (आ के) मिल। हे नानक! तू भी बेअंत मालिक प्रभू की सिफत सालाह के गीत गा। हे (मेरे) मन! परमात्मा से प्यार बना, ऐसा प्यार (जैसा मछली का पानी के साथ है जैसा पपीहे का बरखा की बूँद के साथ है)।2।

चकवी सूर सनेहु चितवै आस घणी कदि दिनीअरु देखीऐ ॥ कोकिल अ्मब परीति चवै सुहावीआ मन हरि रंगु कीजीऐ ॥ हरि प्रीति करीजै मानु न कीजै इक राती के हभि पाहुणिआ ॥ अब किआ रंगु लाइओ मोहु रचाइओ नागे आवण जावणिआ ॥ थिरु साधू सरणी पड़ीऐ चरणी अब टूटसि मोहु जु कितीऐ ॥ कहु नानक छंत दइआल पुरख के मन हरि लाइ परीति कब दिनीअरु देखीऐ ॥३॥ {पन्ना 455}

पद्अर्थ: सूर = सूर्य। सनेहु = प्यार। चितवै = याद करती है। घणी = बहुत। कदि = कब? दिनीअरु = दिनकर, दिन बनाने वाला, सूरज। कोकिल = कोयल। चवै सुहाविआ = मीठा बोलती है। रंगु = प्यार। हभि = सारे। पाहुणिआ = प्राहुणे। थिरु = अडोल चित्त। जु = जो मोह। कितिअै = तूने बनाया हुआ है। मनि = मन में।3।

अर्थ: हे (मेरे) मन! (तुझे) परमात्मा के साथ प्यार करना चाहिए (ऐसा प्यार जैसा चकवी सूरज से करती है और कोयल आम से करती है)। चकवी का सूर्य से प्यार है, वह (सारी रात सूर्य को ही) याद करती रहती है, बड़ी तमन्ना करती है कि कब सूरज के दीदार होंगे। कोयल का आम से प्यार है (वह आम के वृक्ष पर बैठ के) मधुर बोलती है।

हे भाई! परमात्मा से प्यार डालना चाहिए (अपने किसी धन-पदार्थ आदि का) अहंकार नहीं करना चाहिए (यहाँ हम) सभी एक रात के मेहमान ही तो हैं। फिर भी तूने क्यों (जगत से) प्यार डाला हुआ है, माया से मोह बनाया हुआ है, (यहाँ सब) नंगे (ख़ाली हाथ) आते हैं और (यहाँ से) नंगे (ख़ाली हाथ) ही चले जाते हैं।

हे भाई! गुरू का आसरा लेना चाहिए, गुरू के चरणों में पड़ना चाहिए (गुरू की शरण पड़ने से ही मन) अडोल हो सकता है, और तब ही ये मोह टूटेगा जो तूने (माया के साथ) बनाया हुआ है। हे नानक! दया के घर सर्व-व्यापक प्रभू की सिफत सालाह के गीत गाया कर, अपने मन में परमात्मा का प्यार बना (ठीक उसी तरह जैसे चकवी सारी रात चाहत करती है कि) कब सूर्य के दर्शन होंगे।3।

निसि कुरंक जैसे नाद सुणि स्रवणी हीउ डिवै मन ऐसी प्रीति कीजै ॥ जैसी तरुणि भतार उरझी पिरहि सिवै इहु मनु लाल दीजै ॥ मनु लालहि दीजै भोग करीजै हभि खुसीआ रंग माणे ॥ पिरु अपना पाइआ रंगु लालु बणाइआ अति मिलिओ मित्र चिराणे ॥ गुरु थीआ साखी ता डिठमु आखी पिर जेहा अवरु न दीसै ॥ कहु नानक छंत दइआल मोहन के मन हरि चरण गहीजै ऐसी मन प्रीति कीजै ॥४॥१॥४॥ {पन्ना 455}

पद्अर्थ: निसि = रात के समय। कुरंक = हिरन। नाद = (घंडे हेड़े की) आवाज। स्रवणी = श्रवणी, कानों से। हीउ = हृदय। डिवै = देता है। मन = हे मन! तरुणि = जवान स्त्री। उरझी = फसी हुई। सिवै = सेवा करती है। लाल = सुंदर (हरी) को। लालहि = लाल को। हभि = सभी। अति चिराणे = बहुत पुराने, मूल समय के। साखी = गवाह, विचोला। डिठमु = मैंने देख लिया है। आखी = आँखों से। मोहन = मन को मोह लेने वाला हरी (ध्यान देना जी, शब्द ‘मोहन’ परमात्मा के लिए है। ‘मोहन तेरै ऊचे मंदरि’, वहाँ भी ‘मोहन’ परमात्मा ही है)। गहीजै = पकड़ लेना चाहिए।4।

अर्थ: हे (मेरे) मन! परमात्मा के साथ ऐसा प्यार डालना चाहिए जैसा प्यार हिरन डालता है, रात के समय घंडे हेड़े की आवाज सुन के अपना हृदय (उस आवाज के) हवाले कर देता है। जैसे जवान स्त्री अपने पति के प्यार में बंधी हुई पति की सेवा करती है, (उसी तरह हे भाई!) अपना ये मन सोहाने प्रभू को देना चाहिए, और उसके मिलाप का आनंद पाना चाहिए। (जो जीव-स्त्री अपना मन प्रभू-पति के हवाले करती हैवह उस) के मिलाप की सभी खुशियां मिलाप के सारे आनंद पाती है। वह अपने प्रभू-पति को (अपने अंदर ही) ढूँढ लेती है, वह अपनी आत्मा को गाढ़ा प्रेम रंग चढ़ा लेती है (जैसे सुहागन लाल कपड़ा पहनती है) वह बहु चिराणे (आदि समय) के मित्र प्रभू-पति को मिल पड़ती है।

(हे सखी! जब से) गुरू मेरा विचोला बना है, मैंने प्रभू-पति को अपनी आँखों से देख लिया है, मुझे प्रभू-पति जैसा और कोई नजर नहीं आता। हे नानक! (कह–) हे मेरे मन! दया के घर, और मन को मोह लेने वाले परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाता रह। हे मन! परमात्मा से ऐसा प्रेम करना चाहिए (जैसा हिरन नाद से करता है, जैसा युवती अपने पति से करती है)।4।1।4।

आसा महला ५ ॥ सलोकु ॥ बनु बनु फिरती खोजती हारी बहु अवगाहि ॥ नानक भेटे साध जब हरि पाइआ मन माहि ॥१॥ छंत ॥ जा कउ खोजहि असंख मुनी अनेक तपे ॥ ब्रहमे कोटि अराधहि गिआनी जाप जपे ॥ जप ताप संजम किरिआ पूजा अनिक सोधन बंदना ॥ करि गवनु बसुधा तीरथह मजनु मिलन कउ निरंजना ॥ मानुख बनु तिनु पसू पंखी सगल तुझहि अराधते ॥ दइआल लाल गोबिंद नानक मिलु साधसंगति होइ गते ॥१॥ {पन्ना 455}

पद्अर्थ: बनु बनु = बन बन, हरेक जंगल। हारी = थक गई। अवगाहि = गाह के, तलाश कर करके। साध = गुरू। माहि = में।1।

छंत: जा कउ = जिसे। असंख = अनगिनत। मुनी = समाधियां लगाने वाले। तपे = धूणियां तपाने वाले। कोटि = करोड़ों। आराधहि = आराधना करते हैं। गिआनी = ज्ञानवान, धर्म पुस्तकों के विद्वान। जपे = जप के। संजम = इन्द्रियों को रोकने के यत्न। किरिआ = (निहित) धार्मिक रस्में। सोधन = शरीर को पवित्र करने के यत्न। बंदना = नमस्कार। गवनु = भटकना। बसुधा = वसुधा, धरती। मजनु = स्नान। निरंजन = निर्लिप हरी। तिनु = तृण, घास, बनस्पति। नानक मिलु = नानक को मिल। गते = गति, ऊँची आत्मिक अवस्था।1।

अर्थ: (सारी दुनिया परमात्मा की प्राप्ति के वास्ते) जंगल-जंगल खोजती फिरी, (जंगलों में) तलाश कर करके थक गई (पर परमात्मा ना मिला)। हे नानक! (जिस भाग्यशाली को) जब गुरू मिल गया, उसने अपने मन में (परमात्मा को) पा लिया।1।

छंत। (हे भाई!) जिस परमात्मा को बेअंत समाधि लीन ऋषि और अनेकों धुनी तपाने वाले तपस्वी साधू ढूँढते फिरते हैं, करोड़ों ही ब्रहमा और धर्म-पुस्तकों के विद्वान जिसका जाप जप के आराधना करते हैं। (हे भाई!) जिस निर्लिप प्रभू को मिलने के लिए लोग कई किसम के जप-तप करते हैं, इन्द्रियों को वश में करने का यत्न करते हैं, अनेकों (निहित) धार्मिक रस्में और पूजा करते हैं, अपने शरीर को पवित्र करने के साधन (शोधन) और (डंडवत्) वंदना करते हैं, (त्यागी बन के) सारी धरती का चक्र लगाते हैं (सारे) तीर्थों के स्नान करते हैं (वह परमात्मा गुरू की कृपा से साध-संगति में मिल जाता है)।

हे दया के श्रोत गोबिंद! हे मेरे प्यारे प्रभू! मनुष्य, जंगल, बनस्पति, पशु, पक्षी- ये सारे ही तेरी आराधना करते हैं। (मुझ नानक पर दया कर, मुझे) नानक को गुरू की संगति में मिला, ता कि मुझे ऊँची आत्मि्क अवस्था प्राप्त हो जाए।1।

कोटि बिसन अवतार संकर जटाधार ॥ चाहहि तुझहि दइआर मनि तनि रुच अपार ॥ अपार अगम गोबिंद ठाकुर सगल पूरक प्रभ धनी ॥ सुर सिध गण गंधरब धिआवहि जख किंनर गुण भनी ॥ कोटि इंद्र अनेक देवा जपत सुआमी जै जै कार ॥ अनाथ नाथ दइआल नानक साधसंगति मिलि उधार ॥२॥ {पन्ना 455}

पद्अर्थ: संकर = शंकर, शिव। जटाधार = जटाधारी। दइआर = हे दयालु! मनि = मन में। तनि = हृदय में। रुच = रुचि, चाहत। अपार = बेअंत। अगम = हे अपहुँच! पूरक = (कामना) पूरी करने वाले! धनी = हे मालिक! सुर = देवते। सिध = समाधियों में पहुँचे हुए जोगी। गण = शिव के सेवक। गंधरब = देवतों के रागी। जख = देवतों की एक श्रेणी। किन्नर = देवतों के एक हल्के मेल की जमात जिनका ऊपर का आधा धड़ मनुष्य का और नीचे का घोड़े का माना किया गया है। भनी = उच्चारते हैं। जै जैकार = सदा जीत हो सदा जीत हो का एक रस उच्चारण। अनाथ नाथ = जिनका कोई मालिक नहीं उनका मालिक। मिलि = मिल के। उधार = उद्धार, विकारों से बचाव।2।

अर्थ: हे दयालु हरी! विष्णु के करोड़ों अवतार और करोड़ों जटाधारी शिव तुझे (मिलना) चाहते हैं, उनके मन में उनके हृदय में (तेरे मिलने की) चाहत रहती है।

हे बेअंत प्रभू! हे अपहुँच प्रभू! हे गोबिंद! हे ठाकुर! हे सबकी कामना पूरी करने वाले प्रभू! हे सबके मालिक! देवते, जोग-साधाना में सिद्ध जोगी, शिव के गण, देवताओं के रागी, जॅख, किन्नर (आदि सारे) तेरा सिमरन करते हैं, और गुण उच्चारते हैं।

हे भाई! करोड़ों इन्द्र, अनेकों देवते, मालिक प्रभू की जै-जैकार जपते रहते हैं।

हे नानक! उस जिनका कोई मालिक नहीं, के मालिक प्रभू को, दया के श्रोत प्रभू को साध-संगति के द्वारा (ही) मिल के (संसार समुंद्र से) बेड़ा पार होता है।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh