श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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कोटि देवी जा कउ सेवहि लखिमी अनिक भाति ॥ गुपत प्रगट जा कउ अराधहि पउण पाणी दिनसु राति ॥ नखिअत्र ससीअर सूर धिआवहि बसुध गगना गावए ॥ सगल खाणी सगल बाणी सदा सदा धिआवए ॥ सिम्रिति पुराण चतुर बेदह खटु सासत्र जा कउ जपाति ॥ पतित पावन भगति वछल नानक मिलीऐ संगि साति ॥३॥ {पन्ना 456}

पद्अर्थ: लखमी = धन की देवी। अनिक भाति = अनेकों तरीकों से। गुपत = गुप्त। नखिअत्र = नक्षत्र, तारे। ससीअर = शशधर, चन्द्रमा। सूर = सूर्य। बसुध = धरती। गगन = आकाश। गावऐ = गाए, गाता है। खाणी = (अण्डज, जेरज, सेतज, उत्भुज, इन चार) खाणियों (का हरेक जीव)। धिआवऐ = ध्याता है। चतुर = चार। खटु = छे। जपाति = जपत। पतित पावन = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। भगति वछल = भक्ति को प्यार करने वाला। संगि साति = सदा स्थिर सत्संग में। साति = सति, सदा स्थिर।3।

अर्थ: (हे भाई!) करोड़ो देवियां जिस परमात्मा की सेवा भक्ति करती हैं, धन की देवी लक्ष्मी अनेकों ढंगों से जिसकी सेवा करती है, दृश्य-अदृश्य सारे जीव-जंतु जिस परमात्मा की आराधना करते हैं, हवा पानी दिन-रात जिसे ध्याते हैं; (बेअंत) तारे चंद्रमा और सूरज जिस परमात्मा का ध्यान धरते हैं, धरती जिसकी सिफत सालाह करती है, सारी खाणियों और सारी बोलियों (का हरेक जीव) जिस परमात्मा का सदा ही ध्यान धर रहा है, सत्ताइस स्मृतियां, अठारह पुराण, चार वेद, छे शास्त्र जिस परमात्मा को जपते रहते हैं, उस पतित-पावन प्रभू को उस भगत-वछल हरी को, हे नानक! सदा कायम रहने वाली साध-संगति के द्वारा ही मिल सकते हैं।3।

जेती प्रभू जनाई रसना तेत भनी ॥ अनजानत जो सेवै तेती नह जाइ गनी ॥ अविगत अगनत अथाह ठाकुर सगल मंझे बाहरा ॥ सरब जाचिक एकु दाता नह दूरि संगी जाहरा ॥ वसि भगत थीआ मिले जीआ ता की उपमा कित गनी ॥ इहु दानु मानु नानकु पाए सीसु साधह धरि चरनी ॥४॥२॥५॥ {पन्ना 456}

पद्अर्थ: जेती = जितनी सृष्टि। जनाई = बताई, समझ दी। रसना = जीभ। तेत = उतनी। भनी = कह दी है। अन जानत = (जितनी और सृष्टि का) मुझे पता नहीं। तेती = वह सारी। अविगत = अदृश्य। मंझे = में, अंदर। जाचिक = मंगते। वसि = वश में। जीअ = (जो) जीव। ता की = उनकी। उपमा = महिमा। कित = कितनी? गनी = मैं बताऊँ। मानु = आदर। सीसु = सिर। साधह चरनी = गुरमुखों के पैरो पे। धरि = धरी रखे।4।

अर्थ: हे भाई! जितनी सृष्टि की सूझ प्रभू ने मुझे दी है उनती मेरी जीभ ने बयान कर दी है (कि इतनी सुष्टि परमात्मा की सेवा-भक्ति कर रही है)। पर और जितनी दुनिया का मुझे पता नहीं जो वह दुनिया प्रभू की सेवा-भक्ति करती है वह मुझसे गिनी नहीं जा सकती। वह परमात्मा अदृश्य है, उसके गुण गिने नहीं जा सकते, वह (जैसे) बेअंत गहरा समुंद्र है, वह सबका मालिक है, सब जीवों के अंदर भी है और सबसे अलग भी है, सारे जीव-जंतु उस (के दर) के मंगते हैं, वह एक सबको दातें देने वाला है, वह किसी भी जीव से दूर नहीं है वह सबके साथ बसता है और प्रत्यक्ष है।

हे भाई! वह परमात्मा अपने भक्तों के वश में है, जो जीव उसे मिल जाते हैं उनकी मैं कितनी महिमा बयान करूँ? (बयान नहीं की जा सकती)। (अगर उसकी मेहर हो तो) नानक (उसके भक्त-जनों के) चरणों पर अपना सिर रखी रखे।4।2।5।

आसा महला ५ ॥ सलोक ॥ उदमु करहु वडभागीहो सिमरहु हरि हरि राइ ॥ नानक जिसु सिमरत सभ सुख होवहि दूखु दरदु भ्रमु जाइ ॥१॥ छंतु ॥ नामु जपत गोबिंद नह अलसाईऐ ॥ भेटत साधू संग जम पुरि नह जाईऐ ॥ दूख दरद न भउ बिआपै नामु सिमरत सद सुखी ॥ सासि सासि अराधि हरि हरि धिआइ सो प्रभु मनि मुखी ॥ क्रिपाल दइआल रसाल गुण निधि करि दइआ सेवा लाईऐ ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै नामु जपत गोबिंद नह अलसाईऐ ॥१॥ {पन्ना 456}

पद्अर्थ: हरि राइ = प्रभू पातशाह। होवहि = होते हैं, मिलते हैं। जाइ = दूर हो जाता है। भ्रमु = भटकना।1।

छंत: नह अलसाईअै = आलस नहीं करना चाहिए। भेटत = मिलने से। साधू = गुरू। संगि = साथ। जमपुरि = जम की पुरी में। न बिआपै = जोर नहीं डाल सकता। सद = सदा। सासि सासि = हरेक सांस से। मनि = मन में। मुखी = मुंह से। रसाल = हे सारे रसों के घर! गुण निधि = हे गुणों के खजाने! लाईअै = लगा ले। पइअंपै = (पइ = पाय, पादि। अंपै = अरपै) पैरों में भेटा धरता है, बेनती पेश करता है। जंपै = जपता है।1।

अर्थ: हे नानक! (कह–) हे बड़े भाग्यों वालो! जिस परमात्मा का सिमरन करने से सारे सुख मिल जाते हैं, और हरेक किस्म के दुख-दर्द व भटकना दूर हो जाती है, उस प्रभू-पातशाह का सिमरन करते रहो। (उसके सिमरन का सदा) उद्यम करते रहो।1।

छंत: हे भाग्यशालियो! गोबिंद का नाम जपते हुए (कभी) आलस नहीं करना चाहिए, गुरू की संगति में मिलने से (और हरी-नाम जपने से) जम पुरी में नहीं जाना पड़ता। परमात्मा का नाम सिमरते हुए कोई दुख कोई दर्द कोई डर अपना जोर नहीं डाल सकता, सदा सुखी रहते हैं। हे भाई! हरेक सांस के साथ परमात्मा की आराधना करता रह, उस प्रभू को अपने मन में सिमर, अपने मुंह से (उसका नाम) उचार।

हे कृपा के श्रोत! हे दया के घर! हे गुणों के खजाने प्रभू! (मेरे पर) दया कर (मुझे नानक को अपनी) सेवा-भक्ति में जोड़। नानक (तेरे दर पर) बिनती करता है, तेरे चरणों में ध्यान धरता है। हे भाई! गोबिंद का नाम जपते हुए कभी आलस नहीं करनी चाहिए।1।

पावन पतित पुनीत नाम निरंजना ॥ भरम अंधेर बिनास गिआन गुर अंजना ॥ गुर गिआन अंजन प्रभ निरंजन जलि थलि महीअलि पूरिआ ॥ इक निमख जा कै रिदै वसिआ मिटे तिसहि विसूरिआ ॥ अगाधि बोध समरथ सुआमी सरब का भउ भंजना ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै पावन पतित पुनीत नाम निरंजना ॥२॥ {पन्ना 456}

पद्अर्थ: पावन = पवित्र। पतित पुनीत = विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाला। निरंजन = जिस पर माया की कालख असर नहीं कर सकती, निर+अंजन। भरम = भटकना। अंधेर = अंधेरा। अंजना = सुर्मा। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती की सतह पर, आकाश में, पाताल में। निमख = आँख झपकने जितना समय। रिदै = हृदय में। तिसहि = तिस ही, उसके ही। विसूरिआ = विसूरे, चिंता फिक्र। अगाधि बोध = अथाह ज्ञान का मालिक। भउ = डर।2।

अर्थ: हे भाई! निर्लिप परमात्मा का नाम पवित्र है, विकारों में गिरे हुए जीवों को पवित्र करने वाला है। हे भाई! गुरू की बख्शी हुई आत्मिक जीवन की सूझ (एक ऐसा) सुर्मा है (जो मन की) भटकना के अंधकार का नाश कर देता है। गुरू के दिए ज्ञान का अंजन (सुर्मा) (ये समझ पैदा कर देता है कि) परमात्मा निर्लिप (होते हुए भी) पानी में धरती में आकाश में हर जगह व्यापक है, जिसके हृदय में वह प्रभू आँख के फरकने जितने समय के लिए भी बसता है उसके सारे चिंता-फिक्र मिट जाते हैं।

हे भाई! परमात्मा अथाह ज्ञान का मालिक है, सब कुछ करने योग्य है, सबका मालिक है, सबका डर नाश करने वाला है। नानक विनती करता है उसके चरणों में ध्यान धरता है (और कहता है कि) निर्लिप परमात्मा का नाम पवित्र है, विकारों में डूबे हुए जीवों को पवित्र करने वाला है।2।

ओट गही गोपाल दइआल क्रिपा निधे ॥ मोहि आसर तुअ चरन तुमारी सरनि सिधे ॥ हरि चरन कारन करन सुआमी पतित उधरन हरि हरे ॥ सागर संसार भव उतार नामु सिमरत बहु तरे ॥ आदि अंति बेअंत खोजहि सुनी उधरन संतसंग बिधे ॥ नानकु पइअ्मपै चरन ज्मपै ओट गही गोपाल दइआल क्रिपा निधे ॥३॥ {पन्ना 456}

पद्अर्थ: गही = पकड़ी। गोपाल = हे गोपाल! क्रिपा निधे = हे कृपा के खजाने! मोहि = मुझे। तुअ = तेरे। सिधे = सिद्धि, जीवन सफलता। कारन करन = सुष्टि का मूल। करन = सृष्टि। भव = जनम। खोजहि = खोजते हैं। सुनी = मैंने सुनी है। उधरन बिधे = समुंदर से पार लांघने की विधि।3।

अर्थ: हे सृष्टि के पालणहार! हे दया के श्रोत! हे कृपा के खजाने! मैंने तेरी ओट ली है। मुझे तेरे ही चरणों का सहारा है। तेरी शरण में रहना ही मेरे जीवन की कामयाबी है। हे हरी! हे स्वामी! हे जगत के मूल! तेरे चरनों का आसरा विकारों में गिरे हुए लोगों को बचाने-योग्य है, संसार-समंद्र के जनम-मरण के चक्कर में से पार लंघाने योग्य है। तेरा नाम सिमर के अनेकों लोग (संसार समुंद्र में) पार लांघ रहे हैं।

हे प्रभू! जगत-रचना के आरम्भ में भी तू ही है, अंत में भी तू ही (स्थिर) है। बेअंत जीव तेरी तलाश कर रहे हैं। तेरे संत-जनों की संगति ही एक ऐसा तरीका है जिससे संसार-समंद्र के विकारों से बच सकते हैं। नानक तेरे दर पर विनती करता है, तेरे चरनों का ध्यान धरता है। हे गोपाल! हे दयाल! हे कृपा के खजाने! मैंने तेरा पल्ला पकड़ा है।3।

भगति वछलु हरि बिरदु आपि बनाइआ ॥ जह जह संत अराधहि तह तह प्रगटाइआ ॥ प्रभि आपि लीए समाइ सहजि सुभाइ भगत कारज सारिआ ॥ आनंद हरि जस महा मंगल सरब दूख विसारिआ ॥ चमतकार प्रगासु दह दिस एकु तह द्रिसटाइआ ॥ नानकु पइअ्मपै चरण ज्मपै भगति वछलु हरि बिरदु आपि बनाइआ ॥४॥३॥६॥ {पन्ना 456-457}

पद्अर्थ: भगत वछलु = भगती से प्यार करने वाला। बिरदु = आदि मूल स्वभाव। जह जह = जहां जहां। अराधहि = अराधना करते हैं। प्रगटाइआ = (अपने आप को) प्रकट कर देता है। प्रभि = प्रभू ने। लीऐ समाइ = (अपने चरणों में) लीन किए हुए हैं। सहजि = आत्मिक अडोलता में। भगत कारज = भक्तों के काम। सारिआ = सवारे हैं। हरि जस = परमात्मा की सिफत सालाह। चमतकार = झलक। प्रगासु = प्रकाश। दह = दस। दिस = दिशाएं। दह दिस = दसों दिशाएं (पूर्व पष्चिम आदि चार, चारों कोने, ऊपर नीचे)। तह = वहाँ, भगतों के दिल में।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा अपनी भक्ति (के कारण अपने भक्तों) से प्यार करने वाला है, अपना ये बिरद (मूल आदि स्वभाव) उसने खुद ही बनाया हुआ है, सो, जहां-जहां (उसके) संत (उसकी) आराधना करते हैं वहाँ-वहाँ वह जा के दर्शन देता है। हे भाई! परमात्मा ने खुद ही (अपने भक्त अपने चरणों मेंलीन किए हुए हैं, आत्मिक अडोलता में और प्रेम में टिकाए हुए हैं, अपने भक्तों के सारे काम प्रभू आप ही सँवारता है। भगत परमात्मा की सिफत सालाह करते हैं, हरि-मिलाप की खुशी के गीत गाते हैं, आत्मिक आनंद पाते हैं, और अपने सारे दुख भुला लेते हैं। हे भाई! जिस परमात्मा के नूर की झलक ज्योति का प्रकाश दसों दिशाओं में (सारे ही संसार में) हो रहा है वही परमात्मा भक्त-जनों के हृदय में प्रकट हो जाता है। नानक विनती करता है, प्रभू-चरनों का ध्यान धरता है, (और कहता है कि) परमात्मा अपनी भगती (के कारण अपने भक्तों) से प्यार करने वाला है, अपना ये आदि मूल स्वभाव (बिरद) उसने स्वयं ही बनाया हुआ है।4।3।6।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh