श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 457 आसा महला ५ ॥ थिरु संतन सोहागु मरै न जावए ॥ जा कै ग्रिहि हरि नाहु सु सद ही रावए ॥ अविनासी अविगतु सो प्रभु सदा नवतनु निरमला ॥ नह दूरि सदा हदूरि ठाकुरु दह दिस पूरनु सद सदा ॥ प्रानपति गति मति जा ते प्रिअ प्रीति प्रीतमु भावए ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै थिरु संतन सोहागु मरै न जावए ॥१॥ {पन्ना 457} पद्अर्थ: थिरु = सदा कायम रहने वाला। सोहागु = अच्छे भाग्य, पति। जावऐ = जाए, जाता है। ग्रिहि = हृदय घर में। नाहु = पति। सद = सदा। रावऐ = मिलाप का आनंद लेती है। अविगतु = अदृश्य। नवतनु = नया, नए प्यार वाला। हदूरि = अंग संग। दह दिस = दसों दिशाओं में, हर जगह। पूरनु = व्यापक। पति = खसम। गति = ऊँची आत्मिक अवस्था। जा ते = जिस तरफ से। प्रिअ प्रीति = प्यारे की प्रीति (जैसे जैसे बढ़ती है)। भावऐ = अच्छा लगता है, प्यारा लगता है। (नोट: ‘प्रीतम भावऐ’ = प्रीतम को अच्छा लगता है)। वखाणै = कहता है। बचनि = वचन से।1। अर्थ: हे भाई! (परमात्मा के) संत-जनों के सौभाग्य सदा कायम रहते हैं (क्योंकि उनके) सिर का साई ना (कभी) मरता है ना (कभी उनको छोड़ के कहीं) जाता है। (हे भाई!) जिस जीव-स्त्री के हृदय-घर में प्रभू-पति आ बसे, वह सदा उसके मिलाप के आनंद को पाती है। वह परमात्मा नाश-रहित है, अदृश्य है, सदा नए प्यार वाला है, पवित्र स्वरूप है। वह मालिक किसी से भी दूर नहीं है, सदा हरेक के अंग-संग बसता है, दसों ही दिशाओं में वह सदा ही सदा ही व्यापक रहता है। सब जीवों की जीवात्मा का मालिक वह परमात्मा ऐसा है जिससे जीवों को उच्च आत्मिक अवस्था मिलती है, अच्छी बुद्धि प्राप्त होती है। ज्यों-ज्यों उस प्यारे के साथ प्रीति बढ़ाएं, त्यों-त्यों वह प्रीतम प्रभू प्यारा लगता है। नानक कहता है–गुरू के शबद की बरकति से (उस प्रभू-प्रीतम के साथ) गहरी सांझ पड़ती है। (परमात्मा के) संत-जनों के अच्छे भाग्य सदा कायम रहते हैं (क्योंकि) उनका पति-प्रभू ना (कभी) मरता है ना (कभी उनको छोड़ के कहीं) जाता है।1। जा कउ राम भतारु ता कै अनदु घणा ॥ सुखवंती सा नारि सोभा पूरि बणा ॥ माणु महतु कलिआणु हरि जसु संगि सुरजनु सो प्रभू ॥ सरब सिधि नव निधि तितु ग्रिहि नही ऊना सभु कछू ॥ मधुर बानी पिरहि मानी थिरु सोहागु ता का बणा ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै जा को रामु भतारु ता कै अनदु घणा ॥२॥ {पन्ना 457} पद्अर्थ: जा कउ = जिस (जीव स्त्री) को। भतारु = पति। ता कै = उस (जीव स्त्री के हृदय घर) में। सुखवंती = सुखी। पूरि = पूरी। माणु = आदर। महतु = महिमा। कलिनआणु = सुख। जसु = सिफत सालाह। संगि = साथ। सुरजनु = दैवी गुणों के मालिक प्रभू! सिधि = करामाती ताकतें। निधि = खजाना। तितु = उस में। ग्रिहि = घर में। तितु ग्रिहि = उस हृदय घर में (‘तिसु ग्रिहि’ = उसके हृदय घर में)। ऊना = कम। मधुर = मीठी। पिरहि = पति ने। मानी = आदर दिया। ता का = उस (स्त्री) का। जा को = जिस (जीव-स्त्री) का।2। अर्थ: हे भाई! जिस (जीव-स्त्री) को प्रभू-पति (मिल जाता है) उसके हृदय-घर में बहुत आनंद बना रहता है, वह सुखी जीवन बिताती है, हर जगह उसकी शोभा-उपमा बनी रहती है। उस जीव-स्त्री को हर जगह आदर मिलता है वडिआई मिलती है सुख मिलता है (क्योंकि उसको) परमात्मा की सिफत-सालाह प्राप्त हुई रहती है। दैवी गुणों का मालिक-प्रभू उस के अंग-संग बसता है। उस (जीव-स्त्री के) हृदय घर में सारी करामाती ताकतें सारे ही नौ खजाने आ बसते हैं, उसे कोई कमी नहीं रहती, उसे सब कुछ प्राप्त रहता है। उस जीव-स्त्री के बोल मीठे हो जाते हैं, प्रभू-पति ने उसे आदर-मान दे के रखा होता है। उसके सौभाग्य सदा के लिए बने रहते हैं।2। आउ सखी संत पासि सेवा लागीऐ ॥ पीसउ चरण पखारि आपु तिआगीऐ ॥ तजि आपु मिटै संतापु आपु नह जाणाईऐ ॥ सरणि गहीजै मानि लीजै करे सो सुखु पाईऐ ॥ करि दास दासी तजि उदासी कर जोड़ि दिनु रैणि जागीऐ ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै आउ सखी संत पासि सेवा लागीऐ ॥३॥ {पन्ना 457} पद्अर्थ: सखी = हे सखी! संत = गुरू। पीसउ = मैं पीसूँ। पखारि = मैं धोऊँ। आपु = स्वै भाव, अहंकार। तजि = त्याग के। संतापु = दुख कलेश। आपु = अपने आप को। गहीजै = पकड़नी चाहिए। मानि लीजै = (गुरू का हुकम) मान लेना चाहिए। करि = (अपने आप को) बना के। कर = (दोनों) हाथ (बहुवचन)। रैणि = रात।3। अर्थ: हे सहेली! आ, गुरू के पास चलें। (गुरू की बताई हुई) सेवा में लगना चाहिए। हे सखी! (मेरा जी करता है) मैं (गुरू के लंगरों के लिए चक्की) पीसूँ, मैं (गुरू के) चरण धोऊँ। हे सखी! गुरू के दर पे जाकर अहंकार त्याग देना चाहिए। हे सखी! कभी भी अपना आप जताना नहीं चाहिए। गुरू का पल्ला पकड़ लेना चाहिए (जो गुरू हुकम करे वह) मान लेना चाहिए। जो कुछ गुरू करे उसे सुख (जान के) ले लेना चाहिए। हे सखी! अपने आप को उस गुरू के दासों की दासी बना के, (मन में से) उपरामता त्याग के दोनों हाथ जोड़ के दिन-रात (सेवा में) सुचेत रहना चाहिए। नानक कहता है– (हे सखी! जीव) गुरू के शबद द्वारा ही (परमात्मा से) गहरी सांझ बना सकता है। (सो,) हे सखी! आ, गुरू के पास चलें। (गुरू की बताई) सेवा में लगना चाहिए।3। जा कै मसतकि भाग सि सेवा लाइआ ॥ ता की पूरन आस जिन्ह साधसंगु पाइआ ॥ साधसंगि हरि कै रंगि गोबिंद सिमरण लागिआ ॥ भरमु मोहु विकारु दूजा सगल तिनहि तिआगिआ ॥ मनि सांति सहजु सुभाउ वूठा अनद मंगल गुण गाइआ ॥ नानकु वखाणै गुर बचनि जाणै जा कै मसतकि भाग सि सेवा लाइआ ॥४॥४॥७॥ {पन्ना 457} पद्अर्थ: जा कै मसतकि = जिनके माथे पे। सि = वह लोग। ता की = उनकी। हरि कै रंगि = हरी के प्रेम में। तिनहि = उन्होंने। मनि = मन में। सहजु = आत्मिक अडोलता। सुभाउ = ऊँचा प्रेम। वूठा = आ बसा।4। अर्थ: हे भाई! जिनके माथे पर भाग्य जागते हैं उन्हें (गुरू, परमात्मा की) सेवा-भक्ति में जोड़ता है। जिनको गुरू की संगति प्राप्त होती है उनकी हरेक आस पूरी हो जाती है। साध-संगति की बरकति से परमात्मा के प्रेम में जुड़ के वे परमात्मा का सिमरन करने लग पड़ते हैं। माया की खातिर भटकना, दुनिया का मोह, विकार, मेर-तेर ये सारे अवगुण वे त्याग देते हैं। उनके मन में शांति पैदा हो जाती है, आत्मिक अडोलता आ जाती है, प्रेम पैदा हो जाता है, वे परमात्मा की सिफत सालाह के गीत गाते हैं, और, आत्मिक आनंद पाते हैं। नानक कहता है– मनुष्य, गुरू के शबद की बरकति से ही परमात्मा के साथ गहरी सांझ डाल सकता है। जिन लोगों के माथे पर भाग्य जाग जाते हैं, गुरू उन्हें परमात्मा की सेवा-भक्ति में जोड़ता है।4।4।7। आसा महला ५ ॥ सलोकु ॥ हरि हरि नामु जपंतिआ कछु न कहै जमकालु ॥ नानक मनु तनु सुखी होइ अंते मिलै गोपालु ॥१॥ छंत ॥ मिलउ संतन कै संगि मोहि उधारि लेहु ॥ बिनउ करउ कर जोड़ि हरि हरि नामु देहु ॥ हरि नामु मागउ चरण लागउ मानु तिआगउ तुम्ह दइआ ॥ कतहूं न धावउ सरणि पावउ करुणा मै प्रभ करि मइआ ॥ समरथ अगथ अपार निरमल सुणहु सुआमी बिनउ एहु ॥ कर जोड़ि नानक दानु मागै जनम मरण निवारि लेहु ॥१॥ {पन्ना 457} पद्अर्थ: कछु न कहे = कुछ नहीं कहता, पास नहीं फटकता। जमकालु = मौत, आत्मिक मौत। अंते = आखिर को।1। छंत: मिलउ = मैं मिलूँ। संगि = संगति में। मोहि = मुझे। बिनउ = विनती। करउ = करूँ, मैं करता हूँ। कर = हाथ (बहुवचन)। मागउ = मांगूँ, मैं मांगता हूँ। लागउ = लगूँ, मैं लगा रहूँ। तुम् दइआ = अगर तू दया करे। धावउ = मैं दौड़ूँ। करुणा मै = करुणामय! दयालु! मइआ = दया। अगथ = हे अकॅथ! निवारि लेहु = दूर कर।1। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का नाम सिमरते हुए मौत का डर छू नहीं सकता (आत्मिक मौत नजदीक नहीं आ सकती)। हे नानक! (सिमरन की बरकति से) मन सुखी रहता है हृदय सुखी हो जाता है, और, आखिर परमात्मा भी मिल जाता है।1। छंत: हे हरी! मैं दोनों हाथ जोड़ के (तेरे दर पे) अरदास करता हूँ, मुझे अपने नाम की दाति बख्श। मुझे (विकारों से) बचाए रख (मेहर कर) मैं तेरे संत-जनों की संगति में टिका रहूँ। हे हरी! मैं तुझसे तेरा नाम मांगता हूँ। अगर तू मेहर करे तो मैं तेरे चरणों में लगा रहूँ, (और अपने अंदर से) अहंकार त्याग दूँ। हे करुणामय प्रभू! (मेरे पर) मेहर कर, मैं तेरी शरण पड़ा रहूँ, और (तेरा आसरा छोड़ के) किसी और तरफ ना भागूँ। हे सब ताकतों के मालिक! हे अकॅथ! हे बेअंत! हे पवित्र-स्वरूप स्वामी! मेरी ये अरदास सुन। तेरा दास नानक तुझसे ये दान मांगता है कि मेरा जनम-मरण का चक्कर खत्म कर दे।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |