श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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अपराधी मतिहीनु निरगुनु अनाथु नीचु ॥ सठ कठोरु कुलहीनु बिआपत मोह कीचु ॥ मल भरम करम अहं ममता मरणु चीति न आवए ॥ बनिता बिनोद अनंद माइआ अगिआनता लपटावए ॥ खिसै जोबनु बधै जरूआ दिन निहारे संगि मीचु ॥ बिनवंति नानक आस तेरी सरणि साधू राखु नीचु ॥२॥ {पन्ना 458}

पद्अर्थ: मति हीनु = अकल से खाली। अनाथु = निआसरा। सठ = विकारी। कठोरु = काठ+उर, कठोर दिल वाला। कीचु = कीचड़। मल = मैल। अहं = अहंकार। ममता = मोह, अपनत्व। चीति = याद में। आवऐ = आए, आती। बनिता = स्त्री। बिनोद = रंग तमाशे। लपटावए = लिपटाए, लिपट रही है, चिपकी हुई है। खिसै = खिसक रहा है। जोबनु = यौवन, जवानी। बधै = बढ़ रहा है। जरूआ = बुढ़ापा। निहारे = देख रहा है, इंतजार कर रही है। संगि = (मेरे) साथ। मीचु = मौत। साधू = गुरू।2।

अर्थ: हे प्रभू! मैं गुनहगार हूँ, बुद्धिहीन हूँ, गुणहीन हूँ, निआसरा हूँ, बुरे स्वभाव वाला हूँ। हे प्रभू! मैं विकारी हूँ, कठोर हूँ, नीच कुल वाला हूँ, मोह का कीचड़ मेरे पर हावी है।

हे प्रभू! भटकना में पड़ने वाले कर्मों की मैल मुझे लगी हुई है, मेरे अंदर अहंकार है, ममता है (इस वास्ते) मौत मुझे याद नहीं आती। मैं स्त्री के रंग-तमाशों में माया के मौज-मेलों में (ग़र्क हूँ), मुझे अज्ञानता चिपकी हुई है।

हे प्रभू! मेरी जवानी ढल रही है, बुढ़ापा बढ़ रहा है, मौत (मेरे) साथ (मेरी जिंदगी के) दिन देख रही है। तेरा दास नानक (तेरे दर पर) विनती करता है, मुझे तेरी ही आस है, मुझ नीच को गुरू की शरण रख।2।

भरमे जनम अनेक संकट महा जोन ॥ लपटि रहिओ तिह संगि मीठे भोग सोन ॥ भ्रमत भार अगनत आइओ बहु प्रदेसह धाइओ ॥ अब ओट धारी प्रभ मुरारी सरब सुख हरि नाइओ ॥ राखनहारे प्रभ पिआरे मुझ ते कछू न होआ होन ॥ सूख सहज आनंद नानक क्रिपा तेरी तरै भउन ॥३॥ {पन्ना 458}

पद्अर्थ: भरमे = भटकते रहे। संकट महा = बड़े दुख। जोन = जूनियों के (जोनि)। लपटि रहिओ = चिपके। तिह संगि = उनसे। सोन = सोना, धन पदार्थ। भार अगनत = अनगिनत (पापों का) भार। प्रदेसह = प्रदेसों में, कई जन्मों में। धाइओ = दौड़ता रहा। ओट = आसरा। मुरारी = हे मुरारी! (मुर+अरि) हे परमात्मा! नाइओ = नाम में। ते = से। न होआ = नहीं हो सकेगा। भउन = भवन, भवसागर, संसार समंद्र।3।

अर्थ: हे प्रभू! हे मुरारी! मैं अनेकों जन्मों में भटका हूँ, मैंने कई जूनियों के बड़े दुख सहे हैं। धन और पदार्थों के भोग मुझे मीठे लग रहे हैं, मैं इनके साथ ही चिपका रहता हूँ। अनेकों पापों का भार उठा के मैं भटकता आ रहा हूँ, अनेको परदेसों में (जूनियों में) दौड़ चुका हूँ (दुख ही दुख देखे हैं)। अब मैंने तेरा पल्लू पकड़ा है, और, हे हरी! तेरे नाम में मुझे सारे सुख मिल गए हैं।

हे रक्षा करने के समर्थ प्यारे प्रभू! (संसार समुंद्र से पार लांघने के लिए) मुझसे अब तक कुछ नहीं हो सका, आगे भी कुछ नहीं हो सकेगा। हे नानक! (कह– हे प्रभू!) जिस मनुष्य पर तेरी कृपा हो जाती है, उसे आत्मिक अडोलता और सुख आनंद प्राप्त हो जाते हैं, वह संसार समुंद्र से पार लांघ जाता है।3।

नाम धारीक उधारे भगतह संसा कउन ॥ जेन केन परकारे हरि हरि जसु सुनहु स्रवन ॥ सुनि स्रवन बानी पुरख गिआनी मनि निधाना पावहे ॥ हरि रंगि राते प्रभ बिधाते राम के गुण गावहे ॥ बसुध कागद बनराज कलमा लिखण कउ जे होइ पवन ॥ बेअंत अंतु न जाइ पाइआ गही नानक चरण सरन ॥४॥५॥८॥ {पन्ना 458}

पद्अर्थ: नाम धरीक = (सिर्फ भक्त-) नाम धरने वाले। संसा = संशय, सहम। कउन = कौन सा। जेन केन परकारे = येन केन प्रकारेण, जिस किसी तरीके से (भी हो सके)। जसु = सिफत सालाह। स्रवन = कानो से। सुनि = सुन। बानी = सिफत सालाह की बाणी। पुरख गिआनी = हे ज्ञानवान बंदे! मनि = मन में। निधाना = खजाना। पावहे = पा लेगा। रंगि = प्रेम रंग में। राते = रंगे हुए, मस्त। बिधाते = सृजनहार। गावहे = गाते हैं। बसुध = बसुधा, धरती। बनराज = बनस्पती। कउ = वास्ते। पवन = हवा। बेअंत अंतु = बेअंत (प्रभू) का अंत। गही = (मैंने) पकड़ी है।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा ने तो वह लोग भी (विकारों से) बचा लिए जिन्होंने सिर्फ अपना नाम ही भगत रखाया हुआ था। (सच्चे) भक्तों को (तो संसार-समुंद्र का) कोई सहम रह ही नहीं सकता। (सो, हे भाई!) जिस तरह भी हो सके अपने कानों से परमात्मा की सिफत सालाह सुनते रहा करो।

हे ज्ञानवान बंदे! अपने कानों से तू प्रभू की सिफत सालाह की बाणी सुन (इस तरह तू) मन में नाम-खजाना ढूँढलेगा। (हे भाई! भाग्यशाली हैं वह मनुष्य जो) सृजनहार हरी प्रभू के प्रेम रंग में मस्त हो के उस के गुण गाते हैं।

(हे भाई!) अगर सारी धरती कागज बन जाए, और सारी बनस्पति कलम बन जाए, और हवा लिखने के लिए (लिखारी) बन जाए, तो भी बेअंत परमात्मा के गुणों का अंत नहीं पाया जा सकता। हे नानक! (कह– मैंने उस परमात्मा के) चरणों का आसरा लिया है।4।5।8।

आसा महला ५ ॥ पुरख पते भगवान ता की सरणि गही ॥ निरभउ भए परान चिंता सगल लही ॥ मात पिता सुत मीत सुरिजन इसट बंधप जाणिआ ॥ गहि कंठि लाइआ गुरि मिलाइआ जसु बिमल संत वखाणिआ ॥ बेअंत गुण अनेक महिमा कीमति कछू न जाइ कही ॥ प्रभ एक अनिक अलख ठाकुर ओट नानक तिसु गही ॥१॥ {पन्ना 458}

पद्अर्थ: पुरख पते = सब जीवों का पति। ता की = उस (भगवान) की। गही = पकड़ी। परान = जिंद। लही = उतर गई। सुत = पुत्र। सुरिजन = गुरमुख। इसट = प्यारे। बंधप = रिश्तेदार। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। गुरि = गुरू ने। बिमल = पवित्र (करने वाला)। संत = संतों ने। महिमा = उपमा, वडिआई। कछू = कुछ भी। ऐक अनेक = एक से अनेक रूप धारण करने वाला। अलख = जिसका स्वरूप बयान ना किया जा सके। तिसु ओट = उस (परमात्मा का) आसरा।1।

अर्थ: (हे भाई!) जो भगवान सब जीवों का पति है मालिक है जिन संत जनों ने उसका आसरा लिया हुआ है (उस आसरे की बरकति से) उनकी जीवात्मा (दुनिया के) डरों से रहित हो गई है, उनकी हरेक किस्म की चिंता दूर हो गई है। उन्होंने भगवान को अपना माता-पिता-पुत्र-मित्र-सज्जन-रिश्तेदार समझ रखा है। गुरू ने उन्हें भगवान के चरणों में जोड़ दिया है, (भगवान ने उनकी बाँह) पकड़ के उनको अपने गले से लगा लिया है। वह संत-जन परमात्मा की सिफत उचारते रहते हैं।

हे भाई! उस परमात्मा के बेअंत गुण हैं, अनेकों वडिआईआं हैं, उस (की बुर्जुगियत) का रत्ती भर भी मूल्य नहीं आँका जा सकता। वह प्रभू अपने एक स्वरूप से अनेक रूप बना हुआ है, उसके सही स्वरूप का बयान नहीं किया जा सकता, वह सबका मालिक है। हे नानक! (कह– संत-जनों ने) उस परमातमा का आसरा लिया हुआ है।1।

अम्रित बनु संसारु सहाई आपि भए ॥ राम नामु उर हारु बिखु के दिवस गए ॥ गतु भरम मोह बिकार बिनसे जोनि आवण सभ रहे ॥ अगनि सागर भए सीतल साध अंचल गहि रहे ॥ गोविंद गुपाल दइआल सम्रिथ बोलि साधू हरि जै जए ॥ नानक नामु धिआइ पूरन साधसंगि पाई परम गते ॥२॥ {पन्ना 458}

पद्अर्थ: बनु = जल (वनं जले कानने)। सहाई = मददगार। उर हारु = हृदय का हार। बिखु = जहर। दिवस = दिन। गतु = चला गया। रहे = खत्म हो गए। साध अंचल = गुरू का पल्ला। गहि रहे = पकड़ रखा। संम्रिथ = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।2।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा स्वयं जिस मनुष्य का मददगार बनता है, उसके वास्ते संसार-समुंद्र आत्मिक जीवन देने वाला जल बन जाता है। जो मनुष्य परमात्मा के नाम को अपने हृदय का हार बना लेता है, उसके वास्ते (आत्मिक मौत लाने वाली माया के मोह के) जहर खाने वाले दिन बीत जाते हैं। उसकी भटकना समाप्त हो जाती है, उसके अंदर मोह और विकार नाश हो जाते हैं, उसके जन्मों के चक्कर समाप्त हो जाते हैं।

जो मनुष्य गुरू का पल्ला पकड़े रखता है, विकारों की आग से भरा हुआ संसार-समुंद्र उसके वास्ते ठंडा-ठार हो जाता है।

हे नानक! गुरू की शरण पड़ कर गोविंद गोपाल दयालु समर्थ परमात्मा की जै-जैकार करता रहा कर। गुरू की संगति में रहके पूर्ण परमात्मा का नाम सिमर के सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था प्राप्त कर ली जाती है।2।

जह देखउ तह संगि एको रवि रहिआ ॥ घट घट वासी आपि विरलै किनै लहिआ ॥ जलि थलि महीअलि पूरि पूरन कीट हसति समानिआ ॥ आदि अंते मधि सोई गुर प्रसादी जानिआ ॥ ब्रहमु पसरिआ ब्रहम लीला गोविंद गुण निधि जनि कहिआ ॥ सिमरि सुआमी अंतरजामी हरि एकु नानक रवि रहिआ ॥३॥ {पन्ना 458}

पद्अर्थ: जह = जहां। देखउ = देखूँ, मैं देखता हूँ। तह = वहाँ। संगि = साथ। रवि रहिआ = बस रहा है। घट = शरीर। विरलै किनै = किसी विरले मनुष्य ने। लहिआ = ढूँढा, पाया, समझा। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पर, अंतरिक्ष में। कीट = कीड़ा। हसति = हाथी। समानिआ = एक जैसा। आदि = जगत रचना के आरम्भ में। अंते = आखिर में। मधि = बीच में, अब। प्रसादी = प्रसादि, कृपा से। लीला = खेल। निधि = खजाना। जनि = जन ने, किसी विरले सेवक ने। कहिआ = सिमरा। अंतजामी = दिल की जानने वाला।3।

अर्थ: हे भाई! मैं जिधर देखता हूँ, उधर ही मेरे साथ मुझे एक परमात्मा ही मौजूद दिखता है, वह स्वयं ही एक शरीर में निवास रखता है, पर किसी विरले ने ये बात समझी है। वह व्यापक प्रभू पानी में धरती में अंतरिक्ष में हर जगह बस रहा है, कीड़ी में हाथी में एक सा ही। जगत-रचना के आरम्भ में वह स्वयं ही था, रचना के अंत में भी वह स्वयं ही होगा, अब भी वह स्वयं ही स्वयं है। गुरू की किरपा से ही इस बात की समझ आती है।

हे भाई! हर तरफ परमात्मा का ही पसारा है, परमात्मा की ही रची हुई खेल चल रही है, वह परमात्मा सारे गुणों का खजाना है। किसी विरले सेवक ने उसको जपा है। हे नानक! हरेक के दिल की जानने वाले उस मालिक को सिमरता रह, वह हरी खुद ही हर जगह मौजूद है।3।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh