श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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दिनु रैणि सुहावड़ी आई सिमरत नामु हरे ॥ चरण कमल संगि प्रीति कलमल पाप टरे ॥ दूख भूख दारिद्र नाठे प्रगटु मगु दिखाइआ ॥ मिलि साधसंगे नाम रंगे मनि लोड़ीदा पाइआ ॥ हरि देखि दरसनु इछ पुंनी कुल स्मबूहा सभि तरे ॥ दिनसु रैणि अनंद अनदिनु सिमरंत नानक हरि हरे ॥४॥६॥९॥ {पन्ना 459}

पद्अर्थ: रैणि = रात। सुहावड़ी = सोहानी, सुंदर, स्वादिष्ट। कलमल = पाप। टरे = टल गए, दूर हो गए। दारिद्र = गरीबी। नाठे = भाग गए। प्रगटु = खुला। मगु = रास्ता। मिलि = मिल के। संगे = संगति में। रंगे = प्रेम में। मनि = मन में। लोड़ीदा = चितवा हुआ, माँगा हुआ। देखि = देख के। पुंनी = पूरी हो गई। सभि = सारे। अनदिनु = हर रोज।4।

अर्थ: हे भाई! मनुष्य के लिए वह दिन सोहाना आता है वह रात सुहावनी आती है जब वह परमात्मा का नाम सिमरता है। परमात्मा के सोहणे चरण कमलों से जिस मनुष्य की प्रीति बन जाती है उसके सारे पाप विकार दूर हो जाते हैं। जिस मनुष्य को (गुरू ने जीवन का) सीधा राह दिखा दिया, उसके दुख, उसकी भूख उसकी गरीबी सब दूर हो गए। जो मनुष्य गुरू की संगति में मिल के परमात्मा के नाम के प्रेम में मगन होता है वह अपने मन में सोचा हुआ फल पा लेता है।

परमात्मा के दर्शन करके मनुष्य की हरेक इच्छा पूरी हो जाती है, उसकी सारी कुलों का भी उद्धार हो जाता है। हे नानक! जो मनुष्य सदा हरी-नाम सिमरते रहते हैं, उनकी हरेक रात उनका हरेक दिन हर समय आनंद में गुजरता है।4।6।9।

आसा महला ५ छंत घरु ७    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ सलोकु ॥ सुभ चिंतन गोबिंद रमण निरमल साधू संग ॥ नानक नामु न विसरउ इक घड़ी करि किरपा भगवंत ॥१॥ छंत ॥ भिंनी रैनड़ीऐ चामकनि तारे ॥ जागहि संत जना मेरे राम पिआरे ॥ राम पिआरे सदा जागहि नामु सिमरहि अनदिनो ॥ चरण कमल धिआनु हिरदै प्रभ बिसरु नाही इकु खिनो ॥ तजि मानु मोहु बिकारु मन का कलमला दुख जारे ॥ बिनवंति नानक सदा जागहि हरि दास संत पिआरे ॥१॥ {पन्ना 459}

पद्अर्थ: सुभ = भली। चिंतन = सोचें। रमण = सिमरन। निरमल = पवित्र। साधू = गुरू। न विसरउ = मैं ना भूलूँ। भगवंत = हे भगवान!।1।

छंत: भिंनी = ओस से भीगी। रैनड़ीअै = सोहानी रात में। चामकनि = चमकते हैं। जागहि = जागते हैं, सुचेत रहते हैं। अनदिनो = अनदिन, हर रोज। प्रभ = हे प्रभू! खिनो = छिन, पल भर भी। तजि = त्याग के। कलमला = पाप। जारे = जला लिए।1।

अर्थ: हे नानक! (कह–) हे भगवान! (मेरे पर) मेहर कर, मैं एक घड़ी के वास्ते भी तेरा नाम ना भूलूँ, मैं सदा अच्छी सोचें ही सोचता रहूँ, मैं गोबिंद का नाम जपता रहूँ, मैं गुरू की पवित्र संगति करता रहूँ।1।

(हे भाई!) ओस से भीगी रात में (आकाश में) तारे चम-चमाते हुए दिखते हैं (वैसे ही, परमात्मा के प्रेम में भीगे हुए हृदय वाले मनुष्यों के चित्त-आकाश में सुंदर आत्मिक गुण झिलमिलाते हैं)। मेरे राम के प्यारे संत-जन (सिमरन की बरकति से माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं। परमात्मा के प्यारे संत-जन सदा ही सुचेत रहते हैं, हर समय परमात्मा का नाम सिमरते रहते हैं। संत-जन अपने दिल में परमातमा के सोहाने चरण-कमलों का ध्यान धरते हैं (और, उसके दर पे अरदास करते हैं–) हे प्रभू! पल भर के लिए भी हमारे दिल से दूर ना होना। संत-जन अपने मन का मान छोड़ के, मोह और विकार दूर करके अपने सारे दुख और पाप जला लेते हैं। नानक बिनती करता है– (हे भाई!) परमात्मा के प्यारे संत परमात्मा के दास सदा (माया के हमलों से) सुचेत रहते हैं।1।

मेरी सेजड़ीऐ आड्मबरु बणिआ ॥ मनि अनदु भइआ प्रभु आवत सुणिआ ॥ प्रभ मिले सुआमी सुखह गामी चाव मंगल रस भरे ॥ अंग संगि लागे दूख भागे प्राण मन तन सभि हरे ॥ मन इछ पाई प्रभ धिआई संजोगु साहा सुभ गणिआ ॥ बिनवंति नानक मिले स्रीधर सगल आनंद रसु बणिआ ॥२॥ {पन्ना 459}

पद्अर्थ: सेजड़ीअै = (हृदय की) सोहणी सेज पर। आडंबरु = सजावट। मनि = मन मे। आवत = आता। सुखहगामी = सुख पहुँचाने वाले। चाव = (शब्द ‘चाउ’ का बहुवचन)। मंगल = खुशियां। संगि = साथ। सभि = सारे। हरे = हरियाली भरे, आत्मिक जीवन वाले। संजोगु = मिलाप। साहा = विवाह का महूरत। सुभ = शुभ, भला। गणिआ = गिना। स्रीध = श्रीधर (श्री = लक्ष्मी, लक्ष्मी का सहारा) परमात्मा।2।

अर्थ: हे सखी! जब मैंने प्रभू को (अपनी तरफ) आता सुना, तो मेरे मन में आनंद पैदा हो गया, मेरे हृदय की सोहानी सेज पर सजावट बन गई।

हे सखी! जिन भाग्शालियों को सुख देने वाले मालिक प्रभू जी मिल जाते हैं, उनके हृदय चावों से, खुशियों से आनंद से भर जाते हैं। वे प्रभू के अंक से, चरणों से जुड़े रहते हैं, उनके दुख दूर हो जाते हैं, उनकी जीवात्मा उनका मन उनका शरीर- सारे ही (आत्मिक जीवन से) हरे हो जाते हैं। (गुरू की शरण पड़ के) जो मनुष्य प्रभू का ध्यान धरते हैं, उनके मन की इच्छा पूरी हो जाती है (गुरू परमात्मा के साथ उनका मिलाप करवाने के लिए) शुभ संजोग बना देता है, शुभ महूरत निकाल देता है।

नानक विनती करता है– जिन सौभाग्य-शालियों को प्रभू जी मिल जाते हैं, उनके हृदय में सारे आनंद बन जाते हैं, उल्लास बना रहता है।2।

मिलि सखीआ पुछहि कहु कंत नीसाणी ॥ रसि प्रेम भरी कछु बोलि न जाणी ॥ गुण गूड़ गुपत अपार करते निगम अंतु न पावहे ॥ भगति भाइ धिआइ सुआमी सदा हरि गुण गावहे ॥ सगल गुण सुगिआन पूरन आपणे प्रभ भाणी ॥ बिनवंति नानक रंगि राती प्रेम सहजि समाणी ॥३॥ {पन्ना 459}

पद्अर्थ: मिलि = मिल के। सखीआ = सहेलियां, सत्संगी। रसि = आनंद में (मगन)। बोलि न जाणी = मैं बताना नहीं जानती। गूढ़ = गहरे। गुपत = गुप्त। करते = करतार ने। निगम = वेद। पावहे = पाते, पा सकते। भाइ = प्रेम में। धिआइ = ध्यान करके। गावहे = गाते हैं। सुगिआन = श्रेष्ठ ज्ञान का मालिक। पूरन = सर्व व्यापक। प्रभ भाणी = प्रभू को प्यारी लगी। रंगि = रंग में। सहजि = आत्मिक अडोलता में।3।

अर्थ: सहेलियां मिल के (मुझे) पूछती हैं कि पति-प्रभू की कोई निशानी बता। मैं उसके मिलाप के आनंद में मगन तो हूँ, उसके प्रेम से मेरा हृदय भरा हुआ भी है, पर मैं उसकी कोई निशानी बताना नहीं जानती। (मेरे उस) करतार के गुण गहरे हैं गुप्त हैं बेअंत हैं, वेद भी उसके गुणों का अंत नहीं पा सकते, (उसके सेवक) उसकी भक्ति के रंग में उसके प्रेम में जुड़ के उसका ध्यान धर के सदा उस मालिक के गुण गाते रहते हैं।

नानक विनती करता है– जो जीव-स्त्री उस पति-प्रभू के प्रेम-रंग में रंगी जाती है वह आत्मिक अडोलता में लीन रहती है, वह अपने उस प्रभू को प्यारी लगने लगती है जो सारे गुणों का मालिक है जो श्रेष्ठ ज्ञान वाला है जो सब में व्यापक है।3।

सुख सोहिलड़े हरि गावण लागे ॥ साजन सरसिअड़े दुख दुसमन भागे ॥ सुख सहज सरसे हरि नामि रहसे प्रभि आपि किरपा धारीआ ॥ हरि चरण लागे सदा जागे मिले प्रभ बनवारीआ ॥ सुभ दिवस आए सहजि पाए सगल निधि प्रभ पागे ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी सदा हरि जन तागे ॥४॥१॥१०॥ {पन्ना 459}

पद्अर्थ: सोहिलड़े = सिफत सालाह के सोहाने गीत। साजन = मित्र (शुभ गुण)। सरसिअड़े = प्रफुल्लित हुए, बढ़ने-फूलने लगे। दुसमन = (कामादिक) वैरी। सुख सहज = आत्मिक अडोलता के सुख। सरसे = मौल पड़े। नामि = नाम में। रहसे = प्रसन्न हुए। प्रभि = प्रभू ने। जागे = सुचेत रहे। बनवारी = जगत का मालिक। सहजि = आत्मिक अडोलता में। निधि = खजाना। पागे = पग, चरण। तागे = तॅगे, तोड़ निभाए, प्रीति सिरे तक निभाई।4।

अर्थ: हे भाई! परमात्मा के भगत (हरी-जन) जब परमात्मा के सुखद सिफत सालाह के सोहाने गीत गाने लग जाते हैं तो (उनके अंदर शुभ गुण) मित्र बढ़ते-फूलते हैं, उनके दुख (और कामादिक) वैरी भाग जाते हैं। आत्मिक अडोलता के सुख उनके अंदर प्रफुल्लित होते हैं, परमात्मा के नाम की बरकति से वे प्रसन्न-चित्त रहते हैं, पर ये सारी मेहर प्रभू ने खुद ही की होती है। (अपने सेवकों पर प्रभू मेहर करता है) वह सेवक परमात्मा के चरणों में जुड़े रहते हैं (विकारों के हमलों से) सदा सुचेत रहते हैं, और जगत के मालिक प्रभू को मिल जाते हैं। हे भाई! संत जनों के वास्ते (जीवन के यह) भले दिन आए होते हैं, वे आत्मिक अडोलता में टिक के सारे गुणों के खजाने प्रभू के चरन परसते रहते हैं।

नानक विनती करता है - परमात्मा के सेवक मालिक प्रभू की शरण में आ के सदा के लिए उसके साथ प्रीति निबाहते हैं।4।1।10।

आसा महला ५ ॥ उठि वंञु वटाऊड़िआ तै किआ चिरु लाइआ ॥ मुहलति पुंनड़ीआ कितु कूड़ि लोभाइआ ॥ कूड़े लुभाइआ धोहु माइआ करहि पाप अमितिआ ॥ तनु भसम ढेरी जमहि हेरी कालि बपुड़ै जितिआ ॥ मालु जोबनु छोडि वैसी रहिओ पैनणु खाइआ ॥ नानक कमाणा संगि जुलिआ नह जाइ किरतु मिटाइआ ॥१॥ {पन्ना 459-460}

पद्अर्थ: उठि = उठ के। वंञ = वंज, चल पड़। वटाऊड़िआ = हे भाले बटाऊ! हे भोले राही! हे बटोहिआ! वाट = रास्ता। तै = तू (शब्द ‘तै’ और ‘तूं’ के फर्क समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। मुहलति = मिला हुआ जिंदगी का समय। कितु = किस में? कूड़ि = ठॅगी में। कितु कूड़ि = किस ठगी में। धोहु = धोखा। करहि = तू करता है। अमितिआ = अनगिनत। भसम = राख। जमहि = जम ने। हेरी = देखी, निगाह में रखी हुई। कालि = काल ने, आत्मिक मौत ने। बपुड़ै = बिचारे को। वेसी = चला जाएगा। रहिओ = खत्म हो गया। संगि = साथ। जुलिआ = चला। किरतु = कृत, किए कर्मों का संचय, किए कर्मों के संस्कारों का इकट्ठ।1।

अर्थ: हे भोले राही (जीव)! उठ, चल (तैयार हो)। तू क्यों देर कर रहा है? तुझे मिला उम्र का वक्त पूरा हो रहा है। तू किस ठॅगी में फसा हुआ है? (ध्यान कर, ये) माया (निरी) धोखा है (तू इस की) ठॅगी में फसा हुआ है, और बेअंत पाप किए जा रहा है। ये शरीर (आखिर) मिट्टी की ढेरी (हो जाएगा), जम ने इसे अपनी निगाह में रखा हुआ है।

(पर जीव बिचारा करे भी तो क्या? इस) बिचारे को आत्मिक मौतने अपने काबू में किया हुआ है (ये नहीं समझता कि ये) धन-जवानी सब कुछ छोड़ के चला जाएगा, तब ये खाना-पहनना खत्म हो जाएगा।

हे नानक! (जब जीव यहाँ से चलता है, तो) कमाये हुए अच्छे-बुरे कर्म इसके साथ चले जाते हैं, किए कर्मों के संस्कारों के संचय को मिटाया नहीं जा सकता।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh