श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 460 फाथोहु मिरग जिवै पेखि रैणि चंद्राइणु ॥ सूखहु दूख भए नित पाप कमाइणु ॥ पापा कमाणे छडहि नाही लै चले घति गलाविआ ॥ हरिचंदउरी देखि मूठा कूड़ु सेजा राविआ ॥ लबि लोभि अहंकारि माता गरबि भइआ समाइणु ॥ नानक म्रिग अगिआनि बिनसे नह मिटै आवणु जाइणु ॥२॥ {पन्ना 460} पद्अर्थ: फाथोहु = तू फस रहा है। पेखि = देख के। रैणि = रात (के समय)। चंद्राइणु = चाँद जैसी चाँदनी (रात के अंधेरे में शिकारी हिरन को पकड़ने के लिए सफेद प्रकाश करता है)। सूखहु = सुखों से। छडहि = तू छोड़ता। घति = डाल के। हरिचंदउरी = हरिचंद की नगरी, गंधर्ब नगरी। लबि = लोभ में, जीभ के चस्के में। माता = मस्त। गरबि = अहंकार में। समाइणु = लीन। अगिआनि = आत्मिक जीवन की ओर से बेसमझी में।2। अर्थ: हे जीव! जैसे हिरन रात के समय (श्किारी का किया हुआ) चाँद जैसी रौशनी देख के (शिकारी के जाल में) फसता है (वैसे ही तू मायावी पदार्थों की चमक देख के माया के जाल में) फस रहा है, (जिन सुखों की खातिर तू फसता है उन) सुखों में दुख पैदा हो रहे हैं, (फिर भी) तू सदा पाप कमा रहा है। हे जीव! तू पाप करने छोड़ता नहीं है (तुझे ये भी याद नहीं रहा कि जमदूत तेरे गले में) फंदा डाल के (जल्द ही) ले जाने वाले हैं। तू तो आकाश की ख्याली नगरी (हरीचंदउरी) को देख के ठॅगा जा रहा है, तू इस ठॅगी-रूप सेज को (आनंद से) भोग रहा है। हे जीव! तू जीभ के चस्के में, माया के लोभ में, अहंकार में मस्त है, तू सदा अहम् में लीन टिका रहता है। हे नानक! (कह–) ये जीव-हिरन आत्मिक जीवन की अज्ञानता के कारण आत्मिक मौत मर रहे हैं इनका जनम-मरण का चक्र नहीं खत्म हो सकता।2। मिठै मखु मुआ किउ लए ओडारी ॥ हसती गरति पइआ किउ तरीऐ तारी ॥ तरणु दुहेला भइआ खिन महि खसमु चिति न आइओ ॥ दूखा सजाई गणत नाही कीआ अपणा पाइओ ॥ गुझा कमाणा प्रगटु होआ ईत उतहि खुआरी ॥ नानक सतिगुर बाझु मूठा मनमुखो अहंकारी ॥३॥ {पन्ना 460} पद्अर्थ: गरति = टोए में, गड्ढे में। हसती = हाथी। दुहेला = मुश्किल। चिति = चित्त में। सजाई गणत = सजाओं की गिनती। गुझा = छुपा के। ईत = इस लोक में। उतहि = परलोक में। मूठा = ठगा जाता है। मनमुखो = मनमुखु, अपने मन के पीछे चलने वाला।3। अर्थ: (जैसे, गुड़ आदि) मीठे पर (बैठ के) मक्खी (गुड़ से चिपक जाती है) उड़ नहीं सकती, (और वहीं ही) मर जाती है (वैसे ही, अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य मायावी पदार्थों के मोह में फस जाता है, आत्मिक मौत सहेड़ लेता है, और जीवन ऊँचा नहीं कर सकता)। (काम-वश हुआ) हाथी (उस) गड्ढे में गिर जाता है (जो हाथी को पकड़ने के लिए खोदा जाता है और उसमें कागज की हथिनी खड़ी की हुई होती है)। इसी तरह अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य विकारों के गड्ढे में गिर पड़ता है। (हे भाई! विकारों में गिरे रह के) संसार-समुंदर से पार नहीं हो सकते (विकारों के कारण) संसार-समुंदर से पार होना मुश्किल हो जाता है, कभी मालिक प्रभू चित्त में नहीं बस सकता। इतने दुख बरपा होते हैं, इतनी सजा मिलती है कि लेखा नहीं किया जा सकता, मनमुख अपना किया भुगतता है। जो-जो पाप-कर्म छुप के करता है वह आखिर सामने आ जाते हैं, मनमुख इस लोक में भी और परलोक में भी बेइज्जती करवाता है। हे नानक! (कह–) अपने मन के पीछे चलने वाला अहंकारा हुआ मनुष्य गुरू की शरण पड़े बिना (विकारों के हाथों आत्मिक जीवन) लुटा बैठता है।3। हरि के दास जीवे लगि प्रभ की चरणी ॥ कंठि लगाइ लीए तिसु ठाकुर सरणी ॥ बल बुधि गिआनु धिआनु अपणा आपि नामु जपाइआ ॥ साधसंगति आपि होआ आपि जगतु तराइआ ॥ राखि लीए रखणहारै सदा निरमल करणी ॥ नानक नरकि न जाहि कबहूं हरि संत हरि की सरणी ॥४॥२॥११॥ {पन्ना 460} पद्अर्थ: जीवे = आत्मिक जीवन के मालिक बन गए। लगि = लग के। कंठि = गले से। रखणहारै = सहायता करने की समर्था वाले हरी ने। निरमल = पवित्र। करणी = आचरण। नरकि = नर्क में। कबहूँ = कहीं भी।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा के दास परमात्मा के चरणों में पड़ के ऊँचे आत्मिक जीवन वाले बन जाते हैं, उस मालिक-प्रभू की शरण पड़ते हैं, और वह प्रभू उनको अपने गले से लगा लेता है। परमात्मा उन्हें अपना आत्मिक बल देता है, श्रेष्ठ बुद्धि देता है, अपने साथ गहरी सांझ बख्शता है, अपने में उनकी सुरति जोड़े रखता है, और, उनसे अपना नाम जपाता है, साध-संगत में स्वयं उनके हृदय के अंदर प्रगट होता है और उनको खुद ही संसार-समुंदर से पार लंघाता है। हे नानक! रखनेवाला परमात्मा अपने संतों को (विकारों से) खुद ही बचाता है, (तभी तो संत-जनो का) आचरण सदा पवित्र रहता है, परमात्मा की शरण पड़े रहने के कारण नर्क में नहीं पड़ते।4।2।11। आसा महला ५ ॥ वंञु मेरे आलसा हरि पासि बेनंती ॥ रावउ सहु आपनड़ा प्रभ संगि सोहंती ॥ संगे सोहंती कंत सुआमी दिनसु रैणी रावीऐ ॥ सासि सासि चितारि जीवा प्रभु पेखि हरि गुण गावीऐ ॥ बिरहा लजाइआ दरसु पाइआ अमिउ द्रिसटि सिंचंती ॥ बिनवंति नानकु मेरी इछ पुंनी मिले जिसु खोजंती ॥१॥ {पन्ना 460} पद्अर्थ: वंञ = वंज, चला जा। आलसा = हे आलस! रावउ = हृदय में सिमरती हूँ, सिमरन का आनंद लेती हूँ। संगि = साथ। सोहंती = शोभ रही हूँ, मेरा जीवन सोहाना बनता जाता है। दिनसु = दिन। रैणी = रात। रावीअै = सिमरना चाहिए। सासि सासि = हरेक सांस के साथ। चितारि = याद करके, सिमर के। गावीअै = गाने चाहिए। बिरहा = विछोड़ा। लजाइआ = शर्म खा गया, दूर हो गया। अमिउ = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। द्रिसटि = निगाह से। सिंचंती = सींचा।1। अर्थ: हे मेरे आलस! चला जा (मेरी जान छोड़, मैं प्रभू-पति का सिमरन करूँ)। (हे सखी!) मैं परमात्मा के पास विनती करती हूँ (कि मेरा आलस दूर हो जाए)। (हे सखी! ज्यों-ज्यों) मैं अपने प्यारे प्रभू-पति को अपने हृदय में बसाती हूँ (त्यों-त्यों) प्रभू के चरणों में जुड़ के मेरा जीवन सोहाना बनता जा रहा है। हे सखी! उस पति-प्रभू को दिन-रात हर वक्त हृदय में बसाना चाहिए। जो जीव-स्त्री स्वामी-कंत के चरणों में जुड़ती है उसका जीवन सोहाना बन जाता है। हे सखी! हरेक सांस के साथ प्रभू को सिमर के और प्रभू के दर्शन करके मेरे अंदर आत्मिक जीवन पैदा हो रहा है। हे सखी! उस हरी के गुण सदा गाते रहने चाहिए। (जिस जीव-स्त्री के हृदय में प्रभू ने अपनी) निगाह से आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल सींचा उसने प्रभू-पति के दर्शन कर लिए उसके अंदर से (प्रभू-चरणों से) विछोड़ा दूर हो गया। नानक विनती करता है (और कहता है– हे सखी!) मेरे मन की मुराद पूरी हो गई है, मुझे वह प्रभू मिल गया है जिसे मैं तलाश रही थी।1। नसि वंञहु किलविखहु करता घरि आइआ ॥ दूतह दहनु भइआ गोविंदु प्रगटाइआ ॥ प्रगटे गुपाल गोबिंद लालन साधसंगि वखाणिआ ॥ आचरजु डीठा अमिउ वूठा गुर प्रसादी जाणिआ ॥ मनि सांति आई वजी वधाई नह अंतु जाई पाइआ ॥ बिनवंति नानक सुख सहजि मेला प्रभू आपि बणाइआ ॥२॥ {पन्ना 460} पद्अर्थ: वंञहु = वंजहु, चले जाओ। किलविखहु = हे पापो! घरि = हृदय घर में। दूतह दहनु = दुश्मनों का जलना। साधसंगि = गुरू की संगति में। वखाणिआ = सिफत सालाह की। आचरजु = हैरान करने वाला करिश्मा। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। वूठा = आ बसा। प्रसादी = प्रसादि, कृपा से। जाणिआ = गहरी सांझ डाली। मनि = मन में। वजी वधाई = बढ़ने फूलने का प्रभाव बढ़ गया, चढ़दी कला प्रगट हो गई। सहजि = आत्मिक अडोलता में। मेला = मिलाप।2। अर्थ: हे पापो! (मेरे हृदय-) घर में (मेरा) करतार आ बसा है (अब तुम मेरे हिरदै में से) चले जाओ। हे भाई! जिस हृदय में गोविंद प्रगट हो जाए, उस में से विकार-वैरियों का नाश हो जाता है, और प्यारे गोपाल गोविंद जी (उस मनुष्य के हृदय में) प्रगट होते हैं जो मनुष्य साध-संगति में गोविंद की सिफत सालाह करता है। जो मनुष्य गुरू की किरपा द्वारा गोविंद से गहरी सांझ डाल लेता है वह (अपने अंदर एक) हैरान कर देने वाला तमाशा देखता है (कि उसके हृदय में) आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल आ बसता है, उसके मन में बेअंत ठंड पड़ जाती है उसके अंदर बेअंत चढ़दीकला बन जाती है। नानक विनती करता है (- हे भाई! जिस मनुष्य पर मेहर करता है उसको) प्रभू खुद ही आनंदमयी आत्मिक अडोलता में टिकाता है, प्रभू स्वयं ही उसका अपने साथ मिलाप बनाता है।2। नरक न डीठड़िआ सिमरत नाराइण ॥ जै जै धरमु करे दूत भए पलाइण ॥ धरम धीरज सहज सुखीए साधसंगति हरि भजे ॥ करि अनुग्रहु राखि लीने मोह ममता सभ तजे ॥ गहि कंठि लाए गुरि मिलाए गोविंद जपत अघाइण ॥ बिनवंति नानक सिमरि सुआमी सगल आस पुजाइण ॥३॥ {पन्ना 460} पद्अर्थ: डीठड़िआ = देखा। नाराइणु = परमात्मा। जै जै = सिफत सालाह, नमस्कार। धरमु = धर्मराज। दूत = जमदूत। भऐ पलाइण = भाग गए। सहज = आत्मिक अडोलता। अनुग्रहु = दया। तजे = त्याग दिए। गहि = पकड़ के। कंठि = गले से। गुरि = गुरू के द्वारा। अघाइण = तृप्ति, संतुष्टि।3। अर्थ: जो मनुष्य परमात्मा का सिमरन करते हैं उन्हें नर्क नहीं देखने पड़ते। धर्म राज (भी) उनको नमस्कार करता है, जमदूत उनसे परे दौड़ जाते हैं। साध-संगति में परमात्मा का भजन करके वे मनुष्य सुखी हो जाते हैं उन्हें धर्म प्राप्त हो जाता है, धैर्य प्राप्त हो जाता है, आत्मिक अडोलता मिल जाती है। परमात्मा मेहर करके उनको (मोह ममता आदि विकारों से) बचा लेता है, वे मनुष्य मोह-ममता आदि सब त्याग देते हैं। जिनको परमात्मा गुरू के द्वारा अपने साथ मिलाता है उनको (बाँहों) से पकड़ कर अपने गले के साथ लगा लेता है। परमात्मा का नाम जपके वह (माया की तृष्णा की ओर से) तृप्त हो जाते हैं। नानक बेनती करता है– वह मनुष्य मालिक-प्रभू का सिमरन करके अपनी सारी मुरादें पूरी कर लेते हैं।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |