श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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निधि सिधि चरण गहे ता केहा काड़ा ॥ सभु किछु वसि जिसै सो प्रभू असाड़ा ॥ गहि भुजा लीने नाम दीने करु धारि मसतकि राखिआ ॥ संसार सागरु नह विआपै अमिउ हरि रसु चाखिआ ॥ साधसंगे नाम रंगे रणु जीति वडा अखाड़ा ॥ बिनवंति नानक सरणि सुआमी बहुड़ि जमि न उपाड़ा ॥४॥३॥१२॥ {पन्ना 461}

पद्अर्थ: निधि = खजाना। सिधि = करामाती ताकतें। गहे = पकड़ लिए। ता = तब। काढ़ा = चिंता फिक्र। वसि = वश में। असाड़ा = हमारा। गहि भुजा = बाँह पकड़ के। करु = हाथ (एकवचन)। मसतकि = माथे पर। राखिआ = बचा लिया। नह विआपै = जोर नहीं डाल सकता। अमिउ = अमृत, आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। संगे = संगति में। रंगे = रंग में, प्रेम में। रणु = जंग का मैदान। अखाड़ा = वह स्थल जहाँ पहलवान कुश्ती करते हैं। जमि = जम ने। उपाड़ा = उखाड़ा, (उत्पाटन, उप्पाडिअ), पैरों से निकाला, गिरा लिया। बहुड़ि = दुबारा, फिर।4।

अर्थ: हे भाई! जब किसी मनुष्य ने उस परमात्मा के चरण पकड़ लिए जो सारी निधियों का सारी सिद्धियों का मालिक है उसे तब कोई चिंता-फिक्र नहीं रह जाता (क्योंकि, हे भाई!) हमारे सिर पर वह परमात्मा रखवाला है जिसके वश में हरेक चीज है।

(हे भाई! जिस मनुष्य को) बाँह से पकड़ कर (परमात्मा अपने में) लीन कर लेता है, जिस को अपने नाम की दाति देता है, उसके माथे पर हाथ रख के उसको (विकारों से) बचा लेता है। (हे भाई! परमात्मा की कृपा से जिस मनुष्य ने) आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-रस का स्वाद चख लिया, उस पर संसार-समुंदर अपना जोर नहीं डाल सकता। उसने साध-संगति में टिक के, हरि-नाम के प्रेम में लीन हो के ये रण जीत लिया ये बड़ा अखाड़ा फतह कर लिया (जहाँ कामादिक पहलवानों से सदा युद्ध चलता रहता है)।

नानक विनती करता है– जो मनुष्य मालिक प्रभू की शरण पड़ा रहता है उसको (इस जीवन-युद्ध में) दुबारा कभी जम पैरों से उखाड़ नहीं सकता।4।3।12।

आसा महला ५ ॥ दिनु राति कमाइअड़ो सो आइओ माथै ॥ जिसु पासि लुकाइदड़ो सो वेखी साथै ॥ संगि देखै करणहारा काइ पापु कमाईऐ ॥ सुक्रितु कीजै नामु लीजै नरकि मूलि न जाईऐ ॥ आठ पहर हरि नामु सिमरहु चलै तेरै साथे ॥ भजु साधसंगति सदा नानक मिटहि दोख कमाते ॥१॥ {पन्ना 461}

पद्अर्थ: कमाइअड़ो = तूने कमाया है। सो = वह कमाया हुआ अच्छा-बुरा कर्म। माथै = माथे पर। आइओ माथै = माथे पे आ गया है, भाग्यों में लिखा गया है। पासि = पास से। साथै = (तेरे) साथ ही (बैठा)। करणहारा = सृजनहार। काइ = क्यूँ? सुक्रितु = भला कर्म। कीजै = करना चाहिए। मूलि = बिल्कुल। कमाते = कमाते हुए।1।

अर्थ: हे भाई! जो कुछ दिन-रात हर वक्त अच्छे-बुरे काम तूने किए हैं वे संस्कार-रूप बन के तेरे मन में उकरे गए हैं। हे भाई! जिससे तू (अपने किए कर्म) छुपाता रहा है वह तो तेरे साथ ही बैठा देखता जा रहा है।

हे भाई! सृजनहार (हरेक जीव के) साथ (बैठा हरेक किए काम) देखता रहता है। सो, कोई बुरा काम नहीं करना चाहिए, (बल्कि) भले कर्म करने चाहिए, परमात्मा का नाम सिमरना चाहिए (नाम की बरकति से) नर्क में कभी नहीं जाते।

हे भाई! आठों पहर परमात्मा का नाम सिमरता रह, परमात्मा का नाम तेरा साथ देगा। हे नानक! (कह– हे भाई!) साध-संगति में टिक के परमात्मा का भजन किया कर (भजन की बरकति से पिछले) किए हुए विकार मिट जाते हैं।1।

वलवंच करि उदरु भरहि मूरख गावारा ॥ सभु किछु दे रहिआ हरि देवणहारा ॥ दातारु सदा दइआलु सुआमी काइ मनहु विसारीऐ ॥ मिलु साधसंगे भजु निसंगे कुल समूहा तारीऐ ॥ सिध साधिक देव मुनि जन भगत नामु अधारा ॥ बिनवंति नानक सदा भजीऐ प्रभु एकु करणैहारा ॥२॥ {पन्ना 461}

पद्अर्थ: वंच = (वंच् = टेढ़ी चालें चलना, वंचय = ठॅग लेना)। वल = टेढ़ मेढ़। वच वंच = ठॅगी फरेब, वलछल। उदरु = पेट। भरहि = ते भरता है। काइ = क्यूँ? मनहु = मन से। संगे = संगीत मे। निसंगे = संग उतार के, शर्म उतार के। समूह = ढेर। कुल समूह = सारी कुलें। सिध = जोग साधना में पहुँचे हुए जोगी। साधिक = साधना करने वाले। अधारा = आसरा। करणैहारा = पैदा करने वाला।2।

अर्थ: हे मूर्ख! हे गवार! तू (औरों से) छल-कपट करके (अपना) पेट भरता है। (रोजी कमाता है। तुझे ये बात भूल चुकी हुई है कि) हरी दातार (सब जीवों को) हरेक चीज दे रहा है। हे भाई! सब दातें देने वालामालिक सदा दयावान रहता है, उसको कभी भी अपने मन से भुलाना नहीं चाहिए। हे भाई! साध-संगति में मिल (-बैठ), शर्म उतार के उसका भजन किया कर (भजन की बरकति से अपनी) सारी कुलों का उद्धार कर लेनी हैं। जोग-साधना में पहुँचे हुए जोगी, योग-साधना करने वाले, भगत-देवते, समाधियां लगाने वाले- सभी की जिंदगी का हरि-नाम ही सहारा बना चला आ रहा है।

नानक विनती करता है– हे भाई! सदा उस परमात्मा का भजन करना चाहिए जो खुद ही सारे संसार को पैदा करने वाला है।2।

खोटु न कीचई प्रभु परखणहारा ॥ कूड़ु कपटु कमावदड़े जनमहि संसारा ॥ संसारु सागरु तिन्ही तरिआ जिन्ही एकु धिआइआ ॥ तजि कामु क्रोधु अनिंद निंदा प्रभ सरणाई आइआ ॥ जलि थलि महीअलि रविआ सुआमी ऊच अगम अपारा ॥ बिनवंति नानक टेक जन की चरण कमल अधारा ॥३॥ {पन्ना 461}

पद्अर्थ: खोटु = धोखा। न कीचई = नहीं करना चाहिए। परखणहारा = (खोटे खरे की) परख पहचान करने वाला। कूड़ु = कूड़, झूठ। कपटु = फरेब। जनमहि = (बार बार) जनम लेते हैं। सागरु = समुंद्र। तिनी = उन मनुष्यों ने। तजि = त्याग के। अनिंद = ना निंदने योग्य, भले। अनिंद निंदा = भलों की निंदा। जलि = पानी में। थलि = धरती में। महीअलि = मही तलि, धरती के तल पे, अंतरिक्ष में, आकाश में। अगम = अपहुँच। टेक = आसरा।3।

अर्थ: (हे भाई! कभी किसी के साथ) धोखा नहीं करना चाहिए (परमात्मा खोटे-खरे की) पहचान करने के समर्थ है। जो मनुष्य (को ठगने के लिए) झूठ बोलते हैं, वह संसार में बारंबार जन्मते (मरते) रहते हैं।

हे भाई! जिन मनुष्यों ने एक परमात्मा का सिमरन किया है, जो काम-क्रोध त्याग के भले लोगों की निंदा छोड़ के प्रभू की शरण आ गए हैं, वे संसार समुंद्र से पार हो गए।

नानक विनती करता है (-हे भाई!) जो परमात्मा पानी में, धरती में, आकाश में हर जगह मौजूद है, जो सबसे ऊँचा है, जो अपहुँच है और बेअंत है, वह अपने सेवकों (की जिंदगी) का सहारा है, उसके सोहाने कोमल चरण उसके सेवकों के लिए आसरा हैं।3।

पेखु हरिचंदउरड़ी असथिरु किछु नाही ॥ माइआ रंग जेते से संगि न जाही ॥ हरि संगि साथी सदा तेरै दिनसु रैणि समालीऐ ॥ हरि एक बिनु कछु अवरु नाही भाउ दुतीआ जालीऐ ॥ मीतु जोबनु मालु सरबसु प्रभु एकु करि मन माही ॥ बिनवंति नानकु वडभागि पाईऐ सूखि सहजि समाही ॥४॥४॥१३॥ {पन्ना 461}

पद्अर्थ: पेखु = देख। हरिचंदउरी = हरीचंद की नगरी, गंधर्ब नगरी, आकाश में ख्याली नगरी, धूएं का पहाड़। असथिरु = सदा कायम रहने वाला। जेते = जितने भी। संगि = साथ। से = वह (बहुवचन)। न जाही = न जाहि, नहीं जाते। रैणि = रात। समालीअै = हृदय में संभाल के रखना चाहिए। अवरु = और। भाउ = प्यार। दुतीआ = दूसरा। जालीअै = जला देना चाहिए। मीतु = मित्र। सरबसु = (सर्व = स्व। स्व = धन। सर्व = सारा) अपना सब कुछ। करि = बना, निहित कर। माही = माहि, में। वडभागि = बड़ी किस्मत से। सूखि = सुख में। सहजि = आत्मिक अडोलता में। समाही = समाहि, लीन रहते हैं।4।

अर्थ: (हे भाई! ये सारा संसार जो दिख रहा है इसे) धूँए का पहाड़ (करके) देख (इस में) कोई भी चीज सदा कायम रहने वाली नहीं। माया के जितने भी मौज-मेले हैं वह सारे (किसी के) साथ नहीं जाते। हे भाई! परमात्मा ही तेरे साथ निभने वाला साथी है, दिन-रात हर समय उसको अपने हृदय में संभाल के रखना चाहिए। एक परमात्मा के बिना और कुछ भी (सदा टिके रहना वाला) नहीं (इस वास्ते परमात्मा के बिना) कोई और प्यार (मन में से) जला देना चाहिए।

हे भाई! मित्र, जवानी, धन, अपना और सब कुछ- ये सब कुछ (के होते हुए भी) एक परमात्मा को ही अपने मन में समझ। नानक विनती करता है (-हे भाई!) परमात्मा बड़ी किस्मत से मिलता है (जिन्हें मिलता है वे सदा) आनंद में आत्मिक अडोलता में लीन रहते हैं।4।4।13।

आसा महला ५ छंत घरु ८    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

कमला भ्रम भीति कमला भ्रम भीति हे तीखण मद बिपरीति हे अवध अकारथ जात ॥ गहबर बन घोर गहबर बन घोर हे ग्रिह मूसत मन चोर हे दिनकरो अनदिनु खात ॥ दिन खात जात बिहात प्रभ बिनु मिलहु प्रभ करुणा पते ॥ जनम मरण अनेक बीते प्रिअ संग बिनु कछु नह गते ॥ कुल रूप धूप गिआनहीनी तुझ बिना मोहि कवन मात ॥ कर जोड़ि नानकु सरणि आइओ प्रिअ नाथ नरहर करहु गात ॥१॥ {पन्ना 461-462}

पद्अर्थ: कमला = लक्ष्मी, माया। भ्रम भीति = भरम की दीवार। भ्रम = भटकना। हे = है। तीखण = तेज, नुकीला। मद = नशा। बिपरीत = बिपरीत, उल्टी तरफ ले जाने वाली। अवध = उम्र। अकारथ = अकार्थ, व्यर्थ। गहबर = सघन। बन = जंगल। घोर = भयानक। मूसत = चुरा रहा है, लूट रहा है। दिनकरो = सूरज। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। खात = (उम्र को) खा रहा है। प्रभ = हे प्रभू! करुणापते = हे करुणामयी पति प्रभू! करुणा = तरस। पते = हे पति! गते = आत्मिक हालत। धूप = सुगंधि। मात = माँ, राखा। कर = हाथ। कर = हाथ (बहुवचन)। प्रिअ = हे प्यारे! नरहर = हे प्रभू! गात = गति, ऊँची आत्मिक अवस्था।1।

अर्थ: (हे भाई!) माया भटकना में डालने वाली दीवार है (जिसने परमात्मा से जीवों की दूरी बना रखी है), माया भटकना में डालने वाली (और प्रभू से पर्दा बनाए रखने वाली) दीवार है। इस माया का नशा तेज है, पर (जीवन राह से) उलटी तरफ ले जाने वाला है। (माया में बसने से) मनुष्य की उम्र व्यर्थ चली जाती है। (हे भाई! ये संसार एक) भयानक संघना जंगल है, (यहाँ मनुष्य के हृदय-) घर को (मनुष्य का अपना ही) चोर मन लूटे जा रहा है, और, सूरज (भाव, समय) हर वक्त (इसकी उम्र को) खत्म किए जा रहा है। (हे भाई! गुजरते जा रहे) दिन (मनुष्य की उम्र को) खाए जाते हैं, परमात्मा के भजन बिना (मनुष्य की उम्र व्यर्थ) बीतती जा रही है।

हे प्रभू! हे तरस स्वरूप पति! (मेरे पर तरस कर, और मुझे) मिल। (हे भाई!) जनम-मरण के अनेकों चक्कर गुजर चुके हैं, पर प्यारे प्रभू की संगति के बिना मेरा कोई बढ़िया हाल नहीं है।

(हे प्यारे प्रभू!) मेरी कोई बढ़िया कुल नहीं, मेरा सुंदर रूप नहीं, अंदर (गुणों की) सुगंधि नहीं, मुझे आत्मिक जीवन की कोई सूझ-बूझ नहीं। (हे प्यारे!) तेरे बिना मेरा कोई रखवाला नहीं। (तेरा सेवक) नानक (दोनों) हाथ जोड़ के तेरी शरण पड़ा है, हे प्यारे! हे नाथ! हे प्रभू! मेरी आत्मिक अवस्था ऊँची बना।1।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh