श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 462 मीना जलहीन मीना जलहीन हे ओहु बिछुरत मन तन खीन हे कत जीवनु प्रिअ बिनु होत ॥ सनमुख सहि बान सनमुख सहि बान हे म्रिग अरपे मन तन प्रान हे ओहु बेधिओ सहज सरोत ॥ प्रिअ प्रीति लागी मिलु बैरागी खिनु रहनु ध्रिगु तनु तिसु बिना ॥ पलका न लागै प्रिअ प्रेम पागै चितवंति अनदिनु प्रभ मना ॥ स्रीरंग राते नाम माते भै भरम दुतीआ सगल खोत ॥ करि मइआ दइआ दइआल पूरन हरि प्रेम नानक मगन होत ॥२॥ {पन्ना 462} पद्अर्थ: मीना = मछली। जल हीन = पानी के बिना। खीन = कमजोर, क्षीण। कत = कैसे? प्रिअ बिनु = प्यारे के बिना। सनमुख = सामने, मुंह पर। सहि = सहता है। बान = तीर। म्रिग = हिरन। अरपै = भेटा कर देता है। प्रान = प्राण, जिंद। बेधिओ = बेधा जाता है। सहज सरोत = आत्मिक अडोलता वाले नाद को सुन के। प्रिअ = हे प्यारे! बैरागी = उदास चिक्त। ध्रिग = धिक्कारयोग्य। तनु = शरीर। पलका न लागै = आँखों की पलकें नहीं इकट्ठी होती। पागै = पग, चरण। अनदिनु = हर वक्त। स्री रंग = श्रीरंग, लक्ष्मी का पति, परमात्मा। स्री = श्री, लक्ष्मी। माते = मस्त। भै = सारे डर (‘भउ’ का बहुवचन)। दुतीआ = दूसरा, माया का। भरम दुतीआ = माया के पीछे भटकना। मइआ = तरस, दया। दइआल = हे दयालु! पूरन = हे सर्व-व्यापक! नानक = हे नानक! ।2। अर्थ: हे भाई! जब मछली पानी से विछुड़ जाती है, जब मछली पानी से विछुड़ जाती है, पानी से विछुड़ने से उसका मन उसका शरीर निढाल हो जाता है। प्यारे (पानी) के बिना वह कैसे जी सकती है? हे भाई! हिरन आत्मिक जीवन देने वाली (घंडे हेड़े की आवाज) सुन के अपना मन अपना शरीर अपने प्राण (सब कुछ उस मीठी सुर से) सदके कर देता है, (और) सीधा मुंह पर वह (शिकारी का) तीर सहता है, सामने मुंह रख के तीर सहता है। हे प्यारे! मेरी प्रीति (तेरे चरणों में) लग गई है। (हे प्रभू! मुझे) मिल, मेरा चिक्त (दुनिया की ओर से) उदास है। हे भाई! उस प्यारे के मिलाप के बिना यदि ये शरीर एक छिन भी टिका रह सके तो ये शरीर धिक्कारयोग्य है। हे प्यारे प्रभू! मुझे नींद नहीं आती, तेरे चरणों में मेरी प्रीति लगी हुई है, मेरा मन हर वक्त तुझे ही याद कर रहा है। हे भाई! जो भाग्यशाली परमात्मा के प्रेम-रंग में रंगे जाते हैं जो उसके नाम में मस्त हो जाते हैं, वे दुनिया के सारे डर, माया की भटकना- ये सब कुछ दूरकर लेते हैं। हे नानक! (कह–) हे सर्व-व्यापक दयालु हरी! मेरे पे मेहर कर, तरस कर, मैं सदा तेरे प्यार में मस्त रहूँ।2। अलीअल गुंजात अलीअल गुंजात हे मकरंद रस बासन मात हे प्रीति कमल बंधावत आप ॥ चात्रिक चित पिआस चात्रिक चित पिआस हे घन बूंद बचित्रि मनि आस हे अल पीवत बिनसत ताप ॥ तापा बिनासन दूख नासन मिलु प्रेमु मनि तनि अति घना ॥ सुंदरु चतुरु सुजान सुआमी कवन रसना गुण भना ॥ गहि भुजा लेवहु नामु देवहु द्रिसटि धारत मिटत पाप ॥ नानकु ज्मपै पतित पावन हरि दरसु पेखत नह संताप ॥३॥ {पन्ना 462} पद्अर्थ: अलि = भौरा। अलीअल = अलिकुल, भौरे। गुंजात = गुंजन करते हैं। मकरंद = फूल के बीच की धूड़ी। बासन = सुगंधि। मात = मस्त। आप = आपु, अपने आप को। चात्रिक = पपीहा। घन = बूँद। अल = अलि, मस्त कर देने वाला रस। ताप = दुख कलेश। तनि = तन में, हृदय में। घना = बहुत। सुजान = सयाना। रसना = जीभ (से)। भना = मैं उचारूँ। गहि = पकड़ के। द्रिसटि = दृष्टि, नजर, निगा। जंपै = विनती करता है। पतित पावन = हे पतितों को पवित्र करने वाले!।3। अर्थ: (हे भाई! कमल के फूलों पे मंडराने वाले) भौरे गुंजन करते हैं, भौरे नित्य गुंजन करते हैं, कमल फूलों के मकरंद के रस की सुगंधि में मस्त होते हैं, प्रीति में खिंचे हुए वह अपने आपे को कमल-पुष्प में बंद करवा लेते हैं। (हे भाई! चाहे सरोवर और तालाब पानी से भरे पड़े हैं, (पर) ) पपीहे के चिक्त को (बादलों के बूँद की) प्यास है, पपीहे की चाहत (सिर्फ बादलों की बूँद से) तृप्त होती है, उसके मन में बादलों के बूँद की ही तमन्ना है। जब पपीहा उस मस्त करा देने वाली बूँद को पीता है,तो उसकी तपश मिटती है। हे जीवों के दुख-कलेश नाश करने वाले! ताप नाश करने वाले! (मेरी तेरे दर पर विनती है, मुझे) मिल, मेरे मन में मेरे हृदय में (तेरे चरणों के प्रति) बहुत गहरा प्रेम है। तू मेरा सुंदर चतुर सियाना मालिक है। मैं (अपनी) जीभ से तेरे कौन-कौन से गुण बयान करूँ? हे विकारों में गिरे हुओं को पवित्र करने वाले हरी! मुझे बाँह से पकड़ के अपने चरणों से लगा लो। मुझे अपना नाम बख्शो। तेरी निगाह मेरे ऊपर पड़ते ही मेरे सारे पाप मिट जाते हैं। नानक विनती करता है– हे हरी! तेरे दर्शन करने से कोई दुख-कलेश छू नहीं सकता।3। चितवउ चित नाथ चितवउ चित नाथ हे रखि लेवहु सरणि अनाथ हे मिलु चाउ चाईले प्रान ॥ सुंदर तन धिआन सुंदर तन धिआन हे मनु लुबध गोपाल गिआन हे जाचिक जन राखत मान ॥ प्रभ मान पूरन दुख बिदीरन सगल इछ पुजंतीआ ॥ हरि कंठि लागे दिन सभागे मिलि नाह सेज सोहंतीआ ॥ प्रभ द्रिसटि धारी मिले मुरारी सगल कलमल भए हान ॥ बिनवंति नानक मेरी आस पूरन मिले स्रीधर गुण निधान ॥४॥१॥१४॥ {पन्ना 462} पद्अर्थ: चितवउ = मैं चितवता हूँ। नाथ = हे नाथ! अनाथ = मुझ अनाथ को। चाईले = चाव भरे। लुबध = लालची। जाचिक = मंगते। मान = आदर। बिदीरन = नाश करने वाला। कंठि = गले से। सभागे = भाग्यशाली। नाह = नाथ। प्रभ = हे प्रभू! मुरारी = हे मुरारी! क्लमल = पाप। स्रीधर = श्रीधर, लक्ष्मी पति। निधान = खजाना।4। अर्थ: हे मेरे पति-प्रभू! मैं चिक्त (में तुझे ही) चितवता हूँ, हे नाथ! मैं चिक्त में तुझे ही याद करता हूँ। मुझ अनाथ को अपनी शरण में रख ले। (हे नाथ! मुझे) मिल (तुझे मिलने के लिए मेरे अंदर) चाव है, मेरी जीवात्मा तेरे दर्शनों के लिए उत्साह में आए हुई है। हे प्रभू! तेरे सुंदर स्वरूप में मेरी सुरति जुड़ी हुई है, तेरे सुंदर शरीर की ओर मेरा ध्यान लगा हुआ है। हे गोपाल! मेरा मन तेरे साथ गहरी सांझ पाने के लिए ललचा रहा है। तू उन (भाग्यशालियों) का आदर रखता है जो तेरे दर पे मंगते बनते हैं। हे प्रभू! (तू) अपने दर के मंगतों का आदर-मान करता है, तू उनके दुखों का नाश करता है, (तेरी मेहर से उनकी) सारी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। हे भाई! जो (भाग्यशाली मनुष्य) प्रभू-पति के गले लगते हैं, उनकी (जिंदगी) के दिन भाग्यशाली हो जाते हैं, पति प्रभू को मिल के उनके हृदय की सेज सोहणी बन जाती है। जिन पे प्रभू मेहर की निगाह करता है, जिनको परमात्मा मिल जाता है, उनके (पिछले किए) सारे पाप नाश हो जाते हैं। नानक विनती करता है– (हे भाई!) लक्ष्मी पति प्रभू सारे गुणों का खजाना-प्रभू मुझे मिल गया है, मेरी मन की मुराद पूरी हो गई है।4।1।14।35। महला ५---------------14 (ੴ ) इक ओअंकार सतिगुर प्रसादि॥ आसा की वार का भाव गुरू अरजन साहिब जी से पहले ‘आसा दी वार’ की किस रूप में थी- इसका निर्णय ‘सलोक भी महले पहले के लिखे’ के शीर्षक की व्याख्या में किया गया है। ‘वार’ पहले सिर्फ पउड़ियों (पौड़ियों) की ही थी। सो आसा दी वार का भाव लिखने अथवा समझने के वक्त हरेक पौड़ी के श्लोकों को ध्यान में रखने की जरूरत नहीं है। गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी के शबद या श्लोक आदि आम तौर पे किसी खास एतिहासिक साखी (घटना) से संबंधित हैं, पर उनका मुख्य भाव हरेक मनुष्य के जीवन पर घट सकता है। ऐसा जरूरी नहीं है कि अगर वैसी ही घटना की पुनर्रावृति हो, तभी कोई शबद या शलोक फिट बैठ सकेगा। इसी तरह ‘आसा दी वार’ के शलोकों का साखी वाला संबंध पौड़ियों के साथ नहीं है, केवल मुख्य भाव का संबंध पौड़ियों से है। इस बात को और अच्छी तरह समझने के लिए गुरू नानक साहिब के जीवन में से एक साखी ले लें। सिंगलाद्वीप से आते हुए, रास्ते में जैनियों के एक मठ पर गुरू नानक साहिब एक सरेवड़े को मिले, जिसका नाम था ‘अनभी’। इनके साथ धर्म-विचार चर्चा के संबंध में गुरू साहिब ने निम्नलिखित शलोक उचारा; “सिरु खोहाइ पीअहि मलवाणी जूठा मंगि मंगि खाही॥ फोलि फदीहति मुहि लैनि भड़ासा पाणी देखि सगाही॥ भेडा वागी सिर खोहाइनि भरी अनि हथ सुआही॥ ....” इस वक्त ये श्लोक ‘माझ की वार’ की 26वीं पौड़ी के साथ दर्ज है। उपरोक्त साखी में कहीं भी ये जिक्र नहीं आता कि सरेवड़े को उपदेश देते वक्त गुरू नानक साहिब ने ‘माझ की वार’ भी उचारी थी, जिस में अब उपरोक्त शलोक दर्ज है। शलोकों समेत ये वार उस सरेवड़े संबंधी हो ही नहीं सकती क्योंकि इस में मुसलमानों के बारे में भी शलोक दर्ज हैं। सो, ‘माझ की वार’ के मुख्य-उपदेश का जिक्र करने वाले इन श्लोकों की साखियों का हवाला देना, या यूँ कहना के ‘माझ की वार’ में गुरू नानक साहिब ने सरेवड़ों और मुसलमानों को अमुक उपदेश दिया, गलत है। ‘माझ की वार’ केवल पौड़ियां हैं, इस वास्ते वार’ का मुख्य भाव केवल पौड़ियों का ही मुख्य-भाव हो सकता है। इसी तरह ‘आसा दी वार’ के मुख्य-उपदेश का वर्णन करते वक्त ये कहना अशुद्ध है कि गुरू नानक साहिब ने ‘आसा की वार’ के द्वारा राशियों संबंधी, मुसलमानों के मुर्दे दफनाने संबंधी, जनेऊ संबंधी, गऊ के गोबर का पोचा फेरने संबंधी, अहंम् संबंधी, स्त्री जाति संबंधी, या और शलोकों के किसी विषय संबंधी उपदेश किया है। श्लोकों के अलग-अलग विषय ही बता रहे हैं कि ये सब अलग-अलग समय की जरूरत के समय उचारे गए हैं। जनेऊ की कथा आम प्रचलित है। इतिहास में वह खास श्लोक भी दिए गए हैं, जो जनेऊ संस्कार के समय गुरू साहिब ने पण्डित को सुनाए थे। पर कोई समझदार मनुष्य ये नहीं कह सकता ये सारी ‘वार’ सारे शलोकों समेत गुरू नानक साहिब जी ने उस जनेऊ की रस्म के समय पण्डित को उपदेश देने के वास्ते उचारी थी। जनेऊ के शलोकों की साखी का ‘आसा दी वार’ की 15वीं पौड़ी के विषय से कोई संबंध नहीं है। यही हाल सारे श्लोकों का है। इन श्लोकों की केवल वही शिक्षा, जो ‘सांझी सगल जहानै’ है और इन पौड़ियों के भाव के साथ मेल खाती है, ‘आसा दी वार’ के मुख उपदेश में ली जानी है। दूसरे अक्षरों में यूँ कह लो कि ‘आसा दी वार’ का मुख्य भाव केवल पौड़ियों का ही मुख्य भाव है। इस तरह, जो सज्जन अब तक शिकायत किया करते थे कि ‘आसा दी वार’ के सारे विषय-वस्तु की एक कड़ी नहीं बनती, उनसे सविनम्र प्रार्थना है कि शलोकों के बिना जरा ध्यान से मूल ‘आसा दी वार’, अर्थात केवल पौड़ियों का पाठ करें, और देख लें कि सारी पौड़ियां कैसे एक ही खूबसूरत तरतीब में परोई हुई हैं। बाकी रहे शलोक; उनकी भी साखियां छोड़ के सज्जन-जन ‘सांझे उपदेश’, ‘मुख्य-भाव’ को थोड़ा विचार करेंगे, तो स्पष्ट हो जाएगा कि हरेक शलोक जिस पौड़ी के साथ दर्ज है उसका मुख्य भाव पौड़ी के साथ मिलता है। कई इतिहासकार लिख गए हैं कि ‘आसा दी वार’ की पहली 9 पौड़ियां (शलोकों समेत) पाक-पट्टन में शेख ब्रहम के पास उचारी थीं और बाकी किसी और जगह। ये ख्याल बिल्कुल ही गलत है। सारी ‘वार’ का एक ही विषय-वस्तु (मज़मून) है, जहाँ भी उचारी है एक साथ ही उचारी है। पौड़ी-वार भाव: कुदरति बना के इसमें खुद ही बैठा प्रभू जगत-तमाशा देख रहा है। जगत में प्रभू ने जीव को भेजा है कि ये ‘सत्य’ को ग्रहण करे; ‘नाम सिमरन’ मनुष्य के जीवन का उद्देश्य है। हरेक जीव को अपने-अपने किए कर्मों का लेखा भुगतना पड़ता है। जो जीव सिर्फ भोगों में ही जीवन बिता जाते हैं, उनका जीवन व्यर्थ जाता है। जिस मनुष्य पर प्रभू मेहर करे उसे ‘गुरू’ मिलाता है, उसे जनम-मरण के चक्र में से निकाल लेता है क्योंकि वह जीव अहंकार त्याग के ‘नाम’ जपता है। प्रभू का ‘नाम’ ही दुखों व नर्कों से बचाता है। अगर जीव अपना भला चाहता है तो इसे यही भली कमाई करनी चाहिए। जगत में सदा नहीं बैठे रहना। पर, ये निष्चित तौर पर जान लें कि ‘नाम’ की दाति ‘गुरू’ के बिना किसी और जगह से नहीं मिलती। गुरू में ही निरंकार ने स्वयं को प्रगट किया है। ‘नाम’ वही मनुष्य सिमर सकता है जो संतोषी है और गलत राह पे पैर नहीं रखता, जो दुनिया के बंधनों में नहीं फसता और चस्कों से बचा रहता है। जिस मनुष्य पर प्रभू की मेहर होती है उसके हृदय में ‘नाम’ बसता है। पर अपने ही मन के पीछे चलने वाले मूर्ख लोग जीवन व्यर्थ गवाते हैं। जो मनुष्य गरीब-स्वभाव रह के प्रभू के दर पर सिफत-सालाह करते हैं, वे हैं प्रभू के भगत; और वे भक्त उसे प्यारे लगते हैं। इसलिए, अगर गुरमुखों के चरणों की धूड़ मिले वह अपने माथे पर लगाएं, भाव, गुरमुखों के दर पे विनम्र-भाव से आएं। इस तरह माया के मोह का त्याग किया जा सकता है। फिर भी, निरी अपने किसी प्रयत्न की टेक रखना भूल है। धर से ही जिन पे मेहर है वही ‘नाम’ सिमरते हैं। हर समय बख्शिश की आस रखो। प्रभू की हजूरी में पढ़े-अनपढ़े का विचार नहीं; हरेक का अपनी-अपनी कमाई पे निस्तारा होता है। जो भी मनुष्य मुंह-जोर है, अंत में वही दुखी होता है। इस जगत को एक संसार-समुंद्र जानो, जिसमें विकारों की लहरें उठ रही हैं; इस में से पार लांघने के लिए गुरू जैसे, जहाज है। पर ये समझ किसी विरले को आती है। जिस पे उसकी मेहर हो। रूप (भाव, दिखावा) साथ नहीं निभता, अच्छी-बुरी कमाई ही साथ जाती है। जिन्होंने यहाँ हुकम किए, उनके अत्याचार उनके सामने जम-रूप बन के दिखाई देती हैं। जिस जीव पे प्रभू मेहर करता है उसको अपने हुकम में चलाता है, जिसके कारण वह जीव उसकी हजूरी में कबूल होता है। हरेक की संभाल खुद ही करता है, आदर-मान देने वाला भी खुद ही है, पर इन बड़प्पनों का मान भी कूड़ा है, वह कभी बादशाह को भी भिखारी बना के दर-ब-दर भटका देता है। सुंदर घोड़े, महल माढ़ीआं, हकूमतें- इनमें मस्त हो के मौत को भुला देना भूल है, उम्र व्यर्थ चली जाती है। असल आदर-मान हैं ऊँचे आत्मिक गुण। जो गुरू से ही मिल सकते हैं। जिसपे प्रभू मेहर करता है उसे गुरू मिलवाता है; गुरू मिलने से अवगुण दूर होते हैं और गुण प्रगट होते हैं। हरेक जीव ‘अपनत्व’ में फंसा हुआ है; पर इस जगत की खातिर मान करना भूल है, क्योंकि ये साथ नहीं निभना। इस जीव को गिने-चुने दिन मिले हैं; जीव को चाहिए कि प्रभू का सिमरन करके अपना जीवन सँवारे, वह प्रभू हरेक को जीवन-सत्ता दे रहा है। अपना बीजा ही काटना पड़ता है। बुराई से बचें, वह बाजी खेलें जिससे मालिक से बन जाए। जो मनुष्य ‘चाकर’ बनता है और ‘रजा’ में चलता है, वह आदर पाता है। मालिक से बराबरी करने में शर्मिंदगी मिलती है। पैदा करने वाला और मारने वाला प्रभू स्वयं ही है, किसी को सुख और किसी को दुख खुद ही देने वाला है, वही हरेक की संभाल करने वाला है। सृजनहार खुद ही रिजक देने के समर्थ है। उसके बिना जीव का कोई और आसरा नहीं है। समूचा भाव: (पौड़ी 1,2,3) परमात्मा ने अपने आप से जगत रचा है, इसमें हर जगह बैठ के जगत-तमाशा देख रहा है। जगत में मनुष्य को पैदा किया है कि ‘सच’ को ग्रहण करे, ‘सच्चे’ प्रभू की बंदगी करे, पर दुनियां में लग के खचित हो के बंदा बाजी हार रहा है। (पौड़ी 4,5,6) प्रभू की मेहर से जिस को गुरू मिलता है वह ‘स्वै भाव’ गवा के गुरू का उपदेश सुनता है और ‘नाम’ सिमरता है जिससे उसके दुख-कलेश निर्वित होते हैं। गुरू के बिना ये दाति नहीं मिलती, गुरू की आँख ही प्रभू का हर जगह दीदार करने के समर्थ है। ‘नाम’ की कमाई क्या है? (पौड़ी 7 से 10) संतोषी जीवन, अपने अंदर हर समय प्रभू को दृढ़ करना, गुरमुखों की संगति, सिर्फ अपनी छोटी सी मति पर टेक रखने की बजाए (पौड़ी 11 से 15) परमात्मा की बख्शिश पे आस रख के उद्यम करना, किसी विद्या के घमण्ड में मुंह जोर ना हो जाना, बल्कि ‘स्वै’ को गुरू पे वार देना, नेक कमाई, नेक कर्म और परमात्मा की रजा में राजी रहना। दुनिया के बड़प्पनों का गुमान कूड़ा-कड़कट है; (पौड़ी16) प्रभू स्वयं ही बड़प्प्न देता है पर अगर छीनने पर आ जाए तो राजे से कंगाल बना देता है। (17) राज-मिलख-तख़्त-महल देख के मन-मानी मौजों में जीवन गवा लेना भारी भूल है। (18) आत्मिक ईश्वरीय गुण सबसे ऊँचा धन है, ये गुण गुरू से मिलता है। (19) ममता में फस के किसी अहंकार में आ के गलत राह पर ना चलें, किसी का दिलना दुखाएं। (20) जीवन सँवारें और प्रभू को याद रखें, यहाँ सदा नहीं रहना। (21) अपने किए अनुसार सुख-दुख मिलता है, तो फिर गलत रास्ते पर क्यों चलें? (22) दुनियों के झूठे सम्मान में आकर मालिक से शरीका करने से शर्मिंदगी मिलती है। (23) किसी को सुख और किसी को दुख प्रभू खुद ही दे रहा है। (24) परमात्मा स्वयं ही राज़क है, उसके बिना जीव का और कोई आसरा नहीं है। मुख्य-भाव: करतार ने जीव को ‘सच’ ग्रहण करने के लिए ‘नाम’ सिमरन के लिए पैदा किया है, पर ये मायावी भोगों में लिप्त हो के जीवन व्यर्थ गवा लेता है। जिस पर प्रभू मेहर करे उसे गुरू मिलाता है, गुरू से ही ‘नाम’ प्राप्त होता है, जिसकी बरकति से उसका जीवन ऊँचा हो जाता है। उसे समझ आ जाती है कि दुनिया का बड़प्पन (आदर-मान निरा) कूड़ा है, वह एक प्रभू को ही अपना आसरा जानता है। संरचना: इस ‘वार’ की 24 पौड़ियां है, और इनके साथ 59 शलोक हैं। वेरवा इस प्रकार है; सलोक महला–१: 44 सलोक महला–२: 15 पौड़ी नंबर 1,2,11,12,15, 18 और 22 को छोड़ के बाकी की 17 पौड़ियों के साथ दो–दो शलोक हैं; जोड़: 34 पौड़ी नंबर 1,2, 11 और 18 के साथ तीन–तीन शलोक हैं; जोड़: 12 पौड़ी नंबर 12 और 15 के साथ चार–चार शलोक है; जोड़: 8 पौड़ी नंबर 22 के साथ 5 शलोक इस तरह कुल जोड़– 34+12+8+5 – 59 शलोक पौड़ी नंबर 21,22 व 23 के साथ गुरू नानक साहिब का कोई भी शलोक नहीं हैं। पौड़ी नं: 7 और 24 के साथ एक–एक शलोक; पौड़ी नं: 11 व 18 के साथ गुरू नानक देव जी के तीन–तीन शलोक और पौड़ी नंबर 15 के साथ गुरू नानक देव जी के चार शलोक हैं। कविता के दृष्टिकोण से पौड़ियों की संरचना बनावट देखें। पौड़ी नंबर 218,22 और 23 को छोड़ के बाकी सब की बनावट एक जैसी है, तुकों की गिनती भी एक–समान ही है। अगर गुरू नानक देव जी ने ‘वार’ के उच्चारण के समय शलोक भी साथ–साथ ही उचारे होते तो खुद ही इन पौड़ियों के साथ दर्ज किए होने थे, तो ये नहीं हो सकता था कि कुछ पौड़ियां बिना शलोकों के ही रहने देते। फिर, शलोकों के विषय–वस्तु की ओर देखें, स्पष्ट दिखाई देता है कि अलग–अलग समय के हैं, जनेऊ, सूतक, मुर्दे दबाने, चौके की स्वच्छता, रासें आदि। सो, ये विचारें स्पष्ट करती हैं कि ‘वार’ सिर्फ ‘पौड़ियां’ ही थीं। गुरू नानक देव जी के समय से ले के गुरू राम दास जी के समय तक ये इसी रूप में थीं। शलोक गुरू अरजन देव जी ने दर्ज कर के इसे आज का स्वरूप दिया है। ੴ सतिनामु करता पुरखु निरभउ निरवैरु अकाल मूरति अजूनी सैभं गुर प्रसादि ॥ {पन्ना 462} पद्अर्थ: ੴ = इक ओअंकार। ‘ओअंकार’ संस्कृत के ‘ओअं’ शबद से लिया गया है। ये शबद ‘ओअं’ सबसे पहले उपनिषदों में इस्तेमाल हुआ। ‘मण्डूक्य’ उपनिषद में लिखा है कि जो कुछ हो चुका है, जो इस वक्त मौजूद है और जो होगा, ये ‘ओअं’ ही है। उपनिष्दों के उपरांत ये शब्द ‘ओअं’ विष्णू, शिव और ब्रहमा के समुदाय के लिए बरता गया। ‘ओअंकार’ शब्द ‘अकाल पुरख’ के अर्थ में श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी में आता है, जैसे; ओअंकार ब्रहमा उतपति॥ ओअंकार कीआ जिनि चिति॥ ओअंकारि सैल जुग भऐ॥ ओअंकार बेद निरमऐ॥ (रामकली महला १ दखणी, ओअंकारु) शबद ‘ऐकंकार’ भी ( जो ‘ुੴ’ एक ओअंकार का अच्चारण है) श्री गुरू ग्रंथ साहिब में बरता गया है, जैसे: ऐकम ऐकंकारु निराला॥ अमरु अजोनी जाति न जाला॥ (बिलावल महला १ थिती घरु १० जति) सतिनामु = जिसका नाम ‘सति’ है। शबद ‘सति’ संस्कृत की धातु ‘अस’ से है, जिसका अर्थ है ‘होना’। ‘सति’ का संस्कृत रूप ‘सत्य’ है। इसका अर्थ है ‘अस्तित्व वाला’। ‘सतिनामु’ का अर्थ है, ‘वह एक ओअंकार जिसका नाम है अस्तित्व वाला’। पुरखु: संस्कृत में व्युत्पत्ति के अनुसार इसके अर्थ ऐसे किए गए है: ‘पुरि शेते इति पुरष:’। भाव, जो शरीर में लेटा हुआ है। संस्कृत में शबद ‘पुरखु’ का प्रचलित अर्थ है ‘मनुष्य’। भगवत गीता में ‘पुरुष’ ‘आत्मा’ अर्थ में बरता गया है। ‘रघुवंश’ पुस्तक में ये शब्द ‘ब्रह्माण्ड की आत्मा’ के अर्थों में आया है। इसी तरह पुस्तक ‘शिशुपाल वध’ में भी। श्री गुरू ग्रंथ साहिब में ‘पुरखु’ के अर्थ हैं वह ओअंकार जो सारे जगत में व्यापक है, वह आत्मा जो सारी सृष्टि में रम रहा है। ‘मनुष्य’ और ‘आत्मा’ अर्थ में भी कई जगह ये शब्द आया है। अकाल मूरति: शब्द ‘मूरति’ (‘मूर्ति’) स्त्री लिंग है। अकाल इसका विशेषण है। इसलिए ये स्त्रीलिंग रूप में लिखा गया है। अगर शब्द ‘अकाल’ अकेला ही ‘पुरखु’ ‘निरभउ’ ‘निरवैरु’ की तरह ‘ੴ’ एक ओअंकार का गुणवाचक होता, तो पुलिंग रूप में होता, भाव, तो इसके अंत में ‘ु’ की मात्रा होती (‘मूरति’ की जगह ‘मूरतु’)। अर्थ: अकाल-पुरख एक है; जिसका नाम ‘अस्तित्व वाला’ है, जो सृष्टि का रचनहार है।, जो सब में व्यापक है, भय से रहित है, वैर रहित है, जिसका स्वरूप काल से परे है, (भाव, जिसका शरीर नाश-रहित है) जो जूनियों में नहीं आता, जिसका प्रकाश अपने आप से हुआ है और जो सतिगुरू की कृपासे मिलता है। आसा महला १ ॥ वार सलोका नालि सलोक भी महले पहिले के लिखे {पन्ना 462} सारी बाणी की तरतीब दे के श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी के रूप में एकत्र कराने वाले श्री गुरू अरजन देव जी थे। अलग-अलग शबदों और बाणियों के आरम्भ में शीर्षक भी गुरू अरजन साहिब जी ने ही भाई गुरदास जी से लिखवाए। आसा दी वार के आरम्भ से भी ये पंक्ति ‘सलोक भी महले पहिले के लिखे’ उनकी ही लिखवाई हुई है। वे खुद ही लिख रहे हैं कि इस वार के ‘नालि’ (साथ) शलोक भी हमने महले पहले के लिख दिए हैं। इससे ये बात स्पष्ट है कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बीड़ तैयार होने से पहले ‘आसा दी वार’ मात्र 24 पौड़ियां ही थी। सारे गुरू महलों की और भक्तों आदि की बाणी को तरतीब देने वाले गुरू अरजन साहिब जी ने सबसे पहले हरेक राग के ‘शबद’, फिर ‘अष्टपदियां’, ‘छंत’, और ‘वार’ आदि लिखाए और राग के आखिर में भक्तों के शबद लिखवाए। इसी तरह सारे गुरू महलों के शलोकों को आप ने वारों की पौड़ियों के साथ दो-दो तीन-तीन कर के जोड़ दिया। जो शलोक बढ़ गए, उन्हें बीड़ के आखिर में दर्ज किया और शीर्षक दे दिया ‘सलोक वारां ते वधीक’। टुंडे अस राजै की धुनी ॥ {पन्ना 462} पद्अर्थ: धुनी = सुर। अर्थ: (यह वार) टुंडे (राजा) असराज की (वार की) सुर में (गानी है।)। साखी– असराज एक राजे का पुत्र था, जिसका नाम था सारंग। पहली स्त्री के मर जाने के कारण राजा सारंग ने वृद्धावस्था में एक और विवाह कर लिया। नई रानी अपने सौतेले पुत्र असराज पे फिदा हो गई, पर असराज अपने धर्म पर कायम रहा। जब रानी को और कोई चाल पुत्र को धर्म से गिराने की कामयाब ना हुई, तो उसने राजे के पास असराज पर उल्टा झूठा दूषण लगा दिए। राजे ने क्रोध में आ के पुत्र के लिए फांसी का हुक्म दे दिया। राजे का मंत्री समझदार था। उसने असराज को जान से तो नहीं मारा पर उसका एक हाथ काट के उसको शहर से बाहर किसी उजाड़ में एक कूँए पर छोड़ दिया। वहाँ से बंजारों का एक काफिला गुजरा। उनमें से एक बंजारे ने असराज को अपने साथ ले लिया। बंजारे किसी और राजे के शहर में से गुजरे। वहाँ असराज को एक धोबी के पास बेच दिया गया। असराज वहीं धोबी के घर रह के सेवा में अपने दिन बिताने लग पड़ा। समय पा के उस शहर का राजा संतान–हीन ही मर गया। वजीरों ने आपस में फैसला किया कि सुबह जो मनुष्य सबसे पहले शहर का दरवाजा खड़काए, उसे राज दे दिया जाय। असराज के भाग्य जागे धोबी का बल्द खुल गया बल्द की तलाश में असराज सवेरे ही उठ चला और जा के दरवाजा खड़काया। इस तरह उस देश का राज उसे मिल गया। राजे का पुत्र होने के कारण असराज के अंदर राज–प्रबंध वाले संस्कार मौजूद थे। सो इसने देश के प्रबंध को अच्छी तरह संभाल लिया। कुछ समय बाद पड़ोसी देशों में काल पड़ गया, पर असराज का देश सुव्यवस्थित रहा। दूसरे देशों के लोग इस के राज में से अनाज–दाने मूल्य लेने के लिए आने लगे। इसके पिता का मंत्री भी आया। असराज ने मंत्री को पहचान लिया। आपस में दोनों बड़े प्रेम से मिले। असराज ने मंत्री की बड़ी सेवा की, और कुछ दिन पास रख के अपने पिता के देश–वासियों के लिए बहुत सारा अन्न बगैर कोई मूल्य लिए भेट किया। मंत्री ने वापस आ के ये सारा वृतांत राजे को बताया और प्रेरित किया कि अपने पुत्र को ही अपना राज भी सौंपे। राजे को पुत्र के नेक आचरण का पता लग चुका था। उसने अपने मंत्री की ये भली सलाह मान ली और अपने पुत्र को आमंत्रित करके अपना राज भी उसके हवाले कर दिया। ढाढियों ने ये सारा वृतांत ‘वार’ में जोड़ के राजा के दरबार में गाया और इनाम हासिल किए। तब से ही ढाढी ये वार गाते चले आ रहे हैं। सतिगुरू जी ने ‘आसा दी वार’ भी इसी ‘वार’ की सुर में गाने की आज्ञा की है। सलोकु मः १ ॥ बलिहारी गुर आपणे दिउहाड़ी सद वार ॥ जिनि माणस ते देवते कीए करत न लागी वार ॥१॥ {पन्ना 462} पद्अर्थ: दिउहाड़ी = दिहाड़ी में। सद वार = सौ बार। जिनि = जिस (गुरू) ने। माणस ते = मनुष्य से। करत = बनाते हुए। वार = देर, समय। अर्थ: मैं अपने गुरू से (एक) दिन में सौ बार सदके जाता हूँ, जिस (गुरू) ने मनुष्यों से देवते बना दिए और बनाते हुए (थोड़ा सा) भी समय ना लगा।1। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |