श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 466 मः १ ॥ मिटी मुसलमान की पेड़ै पई कुम्हिआर ॥ घड़ि भांडे इटा कीआ जलदी करे पुकार ॥ जलि जलि रोवै बपुड़ी झड़ि झड़ि पवहि अंगिआर ॥ नानक जिनि करतै कारणु कीआ सो जाणै करतारु ॥२॥ {पन्ना 466} पद्अर्थ: कीआ = बनाई। करे पुकार = (वह मिट्टी, मानो) पुकार करती है। जलि जलि = जल जल के। पवहि = (जमीन पे) गिरते हैं। जिनि करतै = जिस करतार ने। कारणु = जगत की माया।2। अर्थ: (मुसलमानों का ये विचार है कि मरने के बाद जिनका शरीर जलाया जाता है वे दोज़क की आग में जलते हैं, पर) उस जगह की मिट्टी भी जहाँ मुसलमान मुर्दे दबाते हैं (कई बार) कुम्हार के हाथ आ जाती है (भाव, वह मिट्टी चिकनी होने के कारण कुम्हार उस मिट्टी को बर्तन बनाने के लिए ले आते हैं); (कुम्हार उस मिट्टी को) घड़ के (उसके) बर्तन और ईटें बनाता है। (और भट्ठी में पड़ के, वह मिट्टी, मानो) जलती हुई पुकार करती है, जल के बिचारी रोती है और उस में से अंगिआरे झड़-झड़ के गिरते हैं, (पर निजात अथवा दोजक का, मुर्दा शरीर जलाने या दबाने से कोई संबंध नहीं है), हे नानक! जिस करतार ने जगत की माया रची है,वह (असल भेद को) जानता है।2। भाव: जब जीवात्मा अपना शरीर चोला छोड़ जाए, तो उस शरीर के दबाने अथवा जलाने आदि किसी क्रिया से जीवात्मा पर कोई असर नहीं पड़ने वाला। जब तक जीवात्मा शरीर में थी, तब तक किए कर्मों के अनुसार ही उसकी किस्मत के अनुसार ही उसकी किस्मत का फैसला होता है। वह फैसला क्या है?हरेक जीव के संबंध में इस प्रश्न के उत्तर को तो एक ईश्वर ही जानता है, जिसने ये जगत-मर्यादा रची है (भाव, रॅब ही जानता है कि जीव अपनी कमाई के अनुसार उसके हुकम में कहाँ जा पहुँचा है)। सो, ये झगड़ा व्यर्थ है। एक विचार जो हरेक जीव के लिए लाभदायक है, वह ये है; ‘उतमु ऐहु बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ॥ जग जीवनु दाता पाइआ॥’ तीसरे गुरू पातशाह जी भी इसी ख्याल को यूँ बयान करते हैं; ‘इक दझहि इक दबीअहि इकना कुते खाहि॥ इकि पाणी विचि उसटीअहि इकि भी फिरि हसणि पाहि॥ नानक ऐव न जापई किथै जाइ समाहि॥२॥१६॥’ सोरठि की वार म: ३ पउड़ी ॥ बिनु सतिगुर किनै न पाइओ बिनु सतिगुर किनै न पाइआ ॥ सतिगुर विचि आपु रखिओनु करि परगटु आखि सुणाइआ ॥ सतिगुर मिलिऐ सदा मुकतु है जिनि विचहु मोहु चुकाइआ ॥ उतमु एहु बीचारु है जिनि सचे सिउ चितु लाइआ ॥ जगजीवनु दाता पाइआ ॥६॥ {पन्ना 466} नोट: ‘पाइओ’ और ‘पाइआ’ के अर्थ ये करने कि बीते समय में ‘पाया’ और ‘अब पाया’ व्याकरण अनुसार अशुद्ध हैं। ‘पाइओ’ और ‘पाइआ’ दोनों ही भूतकाल के रूप हैं, दोनों के एक ही अर्थ है। (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। दानों बार वही कह के इस बात पे जोर दिया गया है कि गुरू के बिना किसी को ईश्वर नहीं मिला। पद्अर्थ: किनै = किसी ने ही। पाइओ = पाया। रखिओनु = उसने रख दिया है (इस क्रिया-रूप को समझने के लिए देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। सतिगुर मिलिअै = अगर (ऐसा) गुरू मिल जाए। जिनि = जिस (मनुष्य) ने। जग जीवनु = जगत का जीवन, जगत की जान (प्रभू)। अर्थ: किसी मनुष्य को (‘जग जीवनु दाता’) सतिगुरू के बिना (भाव, सतिगुरू की शरण पड़े बिना) नहीं मिला, (ये सच जानो कि) किसी मनुष्य को सतिगुरू की शरण पड़े बिना (‘जग जीवनु दाता’) नहीं मिला। (क्योंकि प्रभू ने) े अपने आप को रखा ही सतिगुरू के अंदर है, ( भाव, प्रभू गुरू के अंदर साक्षात विद्यमान है) (हमने अब ये बात सबको) खुल्लम-खुल्ला कह के सुना दी है। अगर (ऐसा) गुरू, जिसने अपने अंदर से (माया का) मोह दूर कर दिया है, मनुष्य को मिल जाए तो मनुष्य मुक्त (भाव, मायावी बंधनों से आजाद) हो जाता है। (और सारी समझदारियों से) ये विचार सुंदर है कि जिस मनुष्य ने अपने गुरू के साथ चित्त जोड़ा है उसको जग जीवन दाता मिल गया है।6। सलोक मः १ ॥ हउ विचि आइआ हउ विचि गइआ ॥ हउ विचि जमिआ हउ विचि मुआ ॥ हउ विचि दिता हउ विचि लइआ ॥ हउ विचि खटिआ हउ विचि गइआ ॥ हउ विचि सचिआरु कूड़िआरु ॥ हउ विचि पाप पुंन वीचारु ॥ हउ विचि नरकि सुरगि अवतारु ॥ हउ विचि हसै हउ विचि रोवै ॥ हउ विचि भरीऐ हउ विचि धोवै ॥ हउ विचि जाती जिनसी खोवै ॥ हउ विचि मूरखु हउ विचि सिआणा ॥ मोख मुकति की सार न जाणा ॥ हउ विचि माइआ हउ विचि छाइआ ॥ हउमै करि करि जंत उपाइआ ॥ हउमै बूझै ता दरु सूझै ॥ गिआन विहूणा कथि कथि लूझै ॥ नानक हुकमी लिखीऐ लेखु ॥ जेहा वेखहि तेहा वेखु ॥१॥ {पन्ना 466} पद्अर्थ: हउ = मैं, जीव की अपनी ‘मैं’ का ख्याल, अपनी अलग हस्ती का विचार, ईश्वर से अलग अस्तित्व का विचार। गइआ = गवाया, नुकसान हुआ। नरकि सुरगि अवतारु = नर्क या स्वर्ग में पड़ना। भरीअै = (पापों की मैल से) मलीन हो जाता है। जाती जिनसी = जात पात। सार = समझ। छाइआ = (माया का) साया। सूझै = सूझ पड़ता है, दिख जाता है। कथि कथि = कह कह के। लूझै = लूझता है, खिझता है। हुकमि = (रॅब के) हुकम मुताबिक। लेखु = (ये अहंकार वाला) लेख, जीव के अंदर के ये संस्कार कि मैं अलग हस्ती हूँ। वेखहि = (जीव) देखते हैं (औरों की तरफ) देखते हैं, जीवों की नीयति होती है। वेखु = दृश्य, शकल, स्वरूप, अलग वजूद, मैं। अर्थ: (जब तक जीव) अहम् में (है, भाव, ईश्वर से और ईश्वर की कुदरत से अपनी अलग हस्ती बनाए बैठा है, तब तक कभी) जगत में आता है (कभी) जगत से चला जाता है, कभी पैदा होता है, कभी मरता है। जीव इस अलग अस्तित्व की सीमा में रह के कभी (किसी जरूरतमंद को) देता है, कभी (अपनी जरूरत पूरी करने के लिए किसी से) लेता है। इसी ‘मैं-मैं’ के ख्याल में (कि ये काम ‘मैं’ करता हूँ, ‘मैं’ करता हूँ) कभी कमाता कभी गवाता है। जब तक जीव मेर-तेर वाली हदबंदी में है, (लोगों की नजरों में) कभी सच्चा है कभी झूठा है जब तक अपने कादर से अलग अस्तित्व के भरम में है, तब तक अपने किए पापों और पुंन्यों की गिनती रहता है (भाव, ये सोचता है कि ‘मैंने’ ये भले काम किए हैं, ‘मैंने’ ये बुरे काम किए हैं) और इसी दुविधा में रहने के कारण (भाव, ईश्वर में अपना आप एक-रूप ना करने के कारण) कभी नर्क में जाता है कभी स्वर्ग में। जब तक अपने करतार से अलग अस्तित्व में जीव बंधा पड़ा है, तब तक कभी हसता है कभी रोता है (भाव, अपने आप को कभी सुखी समझता है कभी दुखी)। रॅब से अपनी हस्ती अलग रखने के कारण कभी उसका मन पापों की मैल में लिबड़ जाता है, कभी वह (अपने ही उद्यम के आसरे) उस मैल को धोता है। इस अलग अस्तित्व में (अहंम् में) ग्रसा हुआ जीव कभी जाति-पाति के ख्याल में पड़ के (भाव, ये ख्याल करके कि मैं उच्च जाति का हूँ) अपना आप गवा लेता है। जब तक जीव अपने अलग अस्तित्व की चार दिवारी के अंदर है, ये (लोगों की नजर में) कभी मूर्ख (गिना जाता) है कभी सयाना (पर, चाहे ये मूर्ख समझा जाए चाहे समझदार, जब तक इस सीमा में बंधा हुआ है, इस हदबंदी से बाहर होने की, भाव) मोक्ष-मुक्ति की समझ इसे नहीं आ सकती। जब तक ईश्वर से विछोड़े की हालत में है, तब तक जीव ‘माया माया’ (चिल्लाता फिरता है), तब तक इस पर माया का प्रभाव पड़ा हुआ है; ईश्वर से विछुड़ा रहके जीव बारंबार पैदा होता है। जब ईश्वर से (अपनी) विछुड़ी हुई हालत को समझ लेता है, भाव, जब इसे समझ आ जाती है में अलगाव वाली हदबंदी में कैद हूँ (रॅब से टूटा हुआ हूँ) तब इसे रॅब का दरवाजा मिल जाता है, (नहीं तो) जब तक इस ज्ञान से वंचित है, तब तक (ज़बानी) ज्ञान की बातें कह–कह के (अपने आपको ज्ञानवान समझ के अपना अंदर) नहीं बदलता। हे नानक! जीव जैसे जैसे देखते हैं, वैसा ही उनका स्वरूप बन जाता है (भाव, जिस जिस नीयत से दूसरे मनुष्यों के साथ बरतते हैं, उसी तरह के अंदर संस्कार इकट्ठे हो के वैसा ही उनका अपना मानसिक-स्वरूप बन जाता है, वैसी ही उनकी अपनी अलग हस्ती बन जाती है, वैसा ही उनका ‘अहम्’ बन जाता है, पर) ये लेख (भी) ईश्वर के हुकम में लिखा जाता है (भाव, हरेक जीव की ये अलग-अलग हस्ती, अलग-अलग ‘अहम्’ ईश्वर के हुकम के अनुसार ही बनती है, ईश्वर का एक ऐसा नियम बना हुआ है कि हरेक मनुष्य के अपने किए कर्मों के संस्कार अनुसार, उसके आस-पास अपने ही इन संस्कारों का जाल तनता जाता है, और इस तरह ईश्वरीय नियम के अनुसार उस मनुष्य की अपनी ही एक स्वार्थी हस्ती बन जाती है)।1। महला २ ॥ हउमै एहा जाति है हउमै करम कमाहि ॥ हउमै एई बंधना फिरि फिरि जोनी पाहि ॥ हउमै किथहु ऊपजै कितु संजमि इह जाइ ॥ हउमै एहो हुकमु है पइऐ किरति फिराहि ॥ हउमै दीरघ रोगु है दारू भी इसु माहि ॥ किरपा करे जे आपणी ता गुर का सबदु कमाहि ॥ नानकु कहै सुणहु जनहु इतु संजमि दुख जाहि ॥२॥ {पन्ना 466} पद्अर्थ: जाति = कुदरती स्वभाव, लक्षण। हउमै करम = अहंकार के काम, वह काम जिनसे ‘अहंकार’ बना रहे। ऐई = यही। कितु संजमि = किस जुगति से, किस तरीके से। पइअै किरति फिराहि = किरत के पाने के कारण जीव फिरते हैं, किए कर्मों के संस्कारों के अनुसार जीव पुनः उन्हीं कामों को करने के वास्ते दौड़ते हैं। दीरघु = लंबा, ज्यादा समय रहने वाला। (नोट: किसी कुसंगत में पड़ के जब एक-दो बार शराब पी के किसी मनुष्य को शराब पीने का चस्का पड़ जाता है, तो वह चस्का ही दुबारा अपने आप उसे शराब-खाने की ओर लिए फिरता है; इस तरह उसका चस्का और बढ़ता जाता है और ये एक दीर्घ रोग बन जाता है। इसी तरह जो भी आदत एक बार बनती है वह अपने आप इस नियम के मुताबिक लंबी होती जाती है।) दारू भी = इलाज भी है (भाव, ये अहंकार बे-इलाज नहीं है)। इसु माहि = इस अहम् में, इस अहंकार का। दारू भी इसु माहि– (नोट: शब्द ‘भी’ जिस शबद के साथ बरता जाता है, उच्चारण में और अर्थ में उस पर जोर देते हैं। इस उपरोक्त तुक में शबद ‘दारू’ को बाकी शब्दों से ज्यादा जोर दे के पढ़ना है। इस तरह पाठ करने से इसके अर्थ भी स्पष्ट हो जाते हैं। कई सज्जन पढ़ते वक्त ‘इसु’ पे जोर देते हैं, नतीजतन, अर्थ करने में भटक जाते हैं क्योंकि ध्यान ‘इसु’ पर चला जाता है। यही कारण है अर्थ करने के वक्त ये पूछते सुने जाते हैं कि ‘इस अहंकार में ही दारू कैसे है’)। नानक कहै = कहता है। इतु संजमि = इस जुगती से। अर्थ: ‘अहंम्’ का स्वभाव यही है (भाव, अगर ईश्वर से अलगाव बना रहे तो नतीजा ये निकलता है कि जीव) वही काम करते हैं, जिससे ये अलग अस्तित्व टिका रहे। इस अलग अस्तित्व के बंधन भी यही हैं (भाव, अलग अस्तित्व के आसरे किए हुए कामों की संस्कार-रूपी जंजीर भी यही है, जिनमें घिरे हुए जीव) बार-बार जूनियों में पड़ते हैं। (सहज ही मन में प्रश्न उठता है कि जीव का) इस अलग हस्ती वाला भरम कहाँ से पैदा होता है और किस तरीके से ये दूर हो सकता है। (इसका उक्तर ये है कि) ये अलग व्यक्तित्व बनाने वाले ईश्वर का रॅब का हुकम है और जीव पिछले किए हुए कर्मों को करने की ओर दौड़ते हैं (भाव, पहले ही व्यक्तित्व को कायम रखने वाले काम करना चाहते हैं)। ये अहंकार एक लंबा रोग है, पर ये ला-इलाज नहीं है, अगर प्रभू अपनी मेहर करे, तो जीव गुरू का शबद कमाते हैं। नानक कहता है, हे लोगो! इस तरीके से (अहंकार-रूपी दीर्घ रोग से पैदा हुए) दुख दूर हो जाते हैं।2। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |