श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 467 पउड़ी ॥ सेव कीती संतोखीईं जिन्ही सचो सचु धिआइआ ॥ ओन्ही मंदै पैरु न रखिओ करि सुक्रितु धरमु कमाइआ ॥ ओन्ही दुनीआ तोड़े बंधना अंनु पाणी थोड़ा खाइआ ॥ तूं बखसीसी अगला नित देवहि चड़हि सवाइआ ॥ वडिआई वडा पाइआ ॥७॥ {पन्ना 467} पद्अर्थ: संतोखीई = संतोषी मनुष्यों ने। सचो सचु = निरोल सच्चा (रॅब)। मंदै = गलत जगह पर। सुक्रितु = सुकृत, भला काम। धरमु कमाइआ = धर्म के अनुसार अपना जीवन बनाया है। बखसीसी = बख्शिश करने वाला। अगला = बड़ा, बहुत। देवहि = (हे हरी!) तू जीवों को दातें देता है। चड़हि = तू चढ़ता है, तू बढ़ता है। सवाइआ = बहुत, ज्यादा। वडिआई = (इस तरह) वडिआई करके।7। अर्थ: जो संतोषी मनुष्य सदा एक अविनाशी प्रभू को सिमरते हैं, (प्रभू की) सेवा वही करते हैं। वह कभी बुरे काम के नजदीक नहीं जाते, भला काम करते हैं और धर्म अनुसार अपना जीवन निभाते हैं। दुनिया के धंधों में खचित करने वाली माया के मोह रूपी जंजीर उन्होंने तोड़ दी है, थोड़ा खाते हैं, थोड़ा ही पीते हैं (भाव, खाना-पीना चस्के की खातिर नहीं, शारीरिक निर्वाह के वास्ते है)। “हे प्रभू! तू बड़ी बख्शिशें करने वाला है, सदा जीवों को दातें बख्शता है”- इस तरह की प्रभू की सिफत सालाह करके वह संतोषी मनुष्य प्रभू को प्राप्त कर लेते हैं।7। सलोक मः १ ॥ पुरखां बिरखां तीरथां तटां मेघां खेतांह ॥ दीपां लोआं मंडलां खंडां वरभंडांह ॥ अंडज जेरज उतभुजां खाणी सेतजांह ॥ सो मिति जाणै नानका सरां मेरां जंताह ॥ नानक जंत उपाइ कै समाले सभनाह ॥ जिनि करतै करणा कीआ चिंता भि करणी ताह ॥ सो करता चिंता करे जिनि उपाइआ जगु ॥ तिसु जोहारी सुअसति तिसु तिसु दीबाणु अभगु ॥ नानक सचे नाम बिनु किआ टिका किआ तगु ॥१॥ {पन्ना 467} (नोट: अर्थ करने के समय चौथी तुक का शब्द ‘मिति’, शब्द ‘पुरखां’ से ले के ‘जंताह’ तक हरेक ‘नाम’ के साथ बरता जाएगा)। पद्अर्थ: मिति = अंदाजा, मर्यादा। तट = नदी के किनारों का। मेघ = बादल। दीपु = वह धरती जिसके दो तरफ पानी हो। लोअ = लोक, सारे जगत का एक हिस्सा। साधारण तौर पर तीन लोक गिने गए हैं– स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल। पर, इससे आगे गिनती 14 की भी की गई है, सात लोक धरती से ऊपर और सात लोक धरती के नीचे। मंडल = चक्र; चंद्रमा, सूर्य, धरती आदि कुछ ग्रहों का एक इकट्ठ या चक्र। खंड = टुकड़ा, हिस्सा, धरती का हिस्सा, जैसे ‘भरतखण्ड’। वरभंड = ब्रहिमण्ड, ब्रहम का अण्डा, सृष्टि। अंडज = अण्डे से पैदा होने वाले जीव, पंछी आदि। जेरज = ज्योर से पैदा होने वाले जीव, पशु मनुष्य आदि। उतभुज = धरती में से उगने वाले, बनस्पति। खाणी = उत्पक्ति की जगह। (सृष्टि की उत्पक्ति के चार तरीके माने गए हैं– अण्डज, जेरज, उतभुज और सेतज)। सेतज = पसीने से पैदा हुए जीव, जूँआ आदि। सो = वह प्रभू। सरां = सरोवरों की। मेरां = मेरु (जैसे) पर्वतों की। जंताह = सारे जीवों की। संमा्ले = संभाल करता है। जिनि करतै = जिस करतार ने। करणा = सृष्टि। ताह = उस करतार ने। जोहारी = मैं प्रणाम करता हूँ, मैं सदके हूँ। सुअसति = जै हो, सदा अटॅल रहे। सुअसति तिसु = उस प्रभू की जै हो। तिसु दीबाणु = उस प्रभू का आसरा। अभगु = ना नाश होने वाला। किआ टिका किआ तगु = क्या है तिलक और क्या है जनेऊ? तिलक और जनेऊ जैसे बाहरी दिखावे के चिन्ह व्यर्थ हैं। अर्थ: मनुष्य, वृक्ष, तीरथ, तट (भाव, नदियां), बादल, खेत, द्वीप, लोक, मण्डल, खंड-ब्रहमण्ड, सरोवर, मेरु आदि पर्वत, चारे खाणियां (अण्डज, जेरज, उतभुज व सेतज) के जीव-जंतु - इन सबकी गिनती का अंदाजा वही प्रभू जानता है (जिसने ये सब पैदा किए हैं)। हे नानक! सारे जीव-जंतु पैदा करके, प्रभू उन सब की पालना भी करता है। जिस करतार ने ये सृष्टि रची है, इसकी पालना का फिक्र भी उसे ही है। जिस करतार ने जगत पैदा किया है, वही इनका ख्याल रखता है। मैं उसी से सदके हूँ, उसी की ही जै-जैकार करता हूँ (भाव, उसी की सिफत सालाह करता हूँ) उस प्रूभ का आसरा (जीव के वास्ते) सदा अटल है। हे नानक! उस हरी का सच्चा नाम सिमरन के बिना तिलक जनेऊ आदि धार्मिक भेष कोई मायने नहीं रखते।1। मः १ ॥ लख नेकीआ चंगिआईआ लख पुंना परवाणु ॥ लख तप उपरि तीरथां सहज जोग बेबाण ॥ लख सूरतण संगराम रण महि छुटहि पराण ॥ लख सुरती लख गिआन धिआन पड़ीअहि पाठ पुराण ॥ जिनि करतै करणा कीआ लिखिआ आवण जाणु ॥ नानक मती मिथिआ करमु सचा नीसाणु ॥२॥ {पन्ना 467} पद्अर्थ: पुंना = धर्म के कर्म। परवाणु = (जो लोगों की नजरों में) कबूल (हों)। सहज = स्वभाविक, शांति पूर्वक, अपने धुर असल से एक-मेक हो के। जोग = योग मत अनुसार चिक्त और विचारों को रोकने नाम ‘योग’ है। बेबाण = बियाबान, जंगलों में। छुटहि पराण = प्राण निकलें, अंत समय आए। सुरती = ध्यान जोड़ना। पड़ीअहि = पढ़े जाएं। पाठ पुराण = पुराणों के पाठ। लिखिआ = लिख दिया है। आवण जाणु = जीवों का पैदा होना मरना। मती = अन्य मत। मिथिआ = मिथ्या, व्यर्थ। करमु = मिहर। नीसाणु = परवाना, राहदारी, निशान। सॅचा निसाणु = सच्चा परवाना, सदा कायम रहने वाली राहदारी।2। अर्थ: लाखों नेकी के अच्छे काम किए जाएं, लाखों धर्म के काम किए जाएं, जो लोगों की नजरों में ठीक हों, तीर्थों पे जा के लाखों तप साधे जाएं, जंगलों में जा के सुन्न समाधि में टिक के योग-साधनाएं की जाएं; रण-भूमियों में जा के सूरमों के वाले बेअंत बहादरी वाले कारनामें दिखाए जाएं, युद्ध में (ही वैरी के सन्मुख हो के) जान दे दी जाए, लाखों (तरीकों से) सुरति पकाई जाए, ज्ञान-चर्चा की जाए और मन को एकाग्र करने के यत्न किए जाएं, बेअंत बार ही पुराण आदि धर्म-पुस्तकों के पाठ पढ़े जाएं; (पर) हे नानक! ये सारी समझदारियां व्यर्थ हैं। (दरगाह में कबूल होने के लिए) उस प्रभू की बख्शिश ही सच्चा परवाना है, जिसने ये सारी सृष्टि रची है और जिसने जीवों का जीना-मरना नियत किया है (इसलिए उसकी बख्शिश का पात्र बनने के लिए उसका नाम सिमरना ही उक्तम मत है)।2। पउड़ी ॥ सचा साहिबु एकु तूं जिनि सचो सचु वरताइआ ॥ जिसु तूं देहि तिसु मिलै सचु ता तिन्ही सचु कमाइआ ॥ सतिगुरि मिलिऐ सचु पाइआ जिन्ह कै हिरदै सचु वसाइआ ॥ मूरख सचु न जाणन्ही मनमुखी जनमु गवाइआ ॥ विचि दुनीआ काहे आइआ ॥८॥ {पन्ना 467} पद्अर्थ: ऐक तूं = केवल तू। सचो सचु = पूर्ण अडोलता, पूर्ण खिलाव। वरताइआ = बाँट दिया, उत्पन्न कर दिया। तूं देहि = तू देता है। ता = तो, उस दातार की बरकति से। तिनी = उन (भाग्यशालियों) ने। सचु कमाइआ = सत्य को कमाया है, पूर्ण खिड़ाव के अनुसार अपना जीवन बनाया है। जिन कै = जिन मनुष्यों के। वसाइआ = गुरू ने टिका दिया। मनमुखी = उन मनुष्यों ने। काहे आइआ = क्यों आए, आने का कोई लाभ ना हुआ।8। अर्थ: हे प्रभू! केवल तू ही पूरन तौर पर अडोल रहने वाला मालिक (पूरन तौर पे खिड़ाव में) है, और तूने खुद ही अपनी अडोलता का गुण (जगत में) वरता दिया है। (पर) ये खिड़ाव वाला गुण (केवल) उस-उस जीव को ही मिलता है जिस जिस को स्वयं देता है, तेरी किरपा की बरकति से, वह मनुष्य उस खिड़ाव अनुसार अपना जीवन बनाते हैं। जिन्हें सतिगुरू मिल जाता है, उन्हें इस पूरन खिड़ाव वाली दाति मिलती है, सतिगुरू उनके हृदय में ये खिड़ाव टिका देता है। मूर्खों को खिड़ाव की सार नहीं आती, वे मनमुख (उससे वंचित रह के) अपना जनम व्यर्थ गवाते हैं, जगत में उनके जन्म का कोई लाभ नहीं होता।8। सलोकु मः १ ॥ पड़ि पड़ि गडी लदीअहि पड़ि पड़ि भरीअहि साथ ॥ पड़ि पड़ि बेड़ी पाईऐ पड़ि पड़ि गडीअहि खात ॥ पड़ीअहि जेते बरस बरस पड़ीअहि जेते मास ॥ पड़ीऐ जेती आरजा पड़ीअहि जेते सास ॥ नानक लेखै इक गल होरु हउमै झखणा झाख ॥१॥ {पन्ना 467} पद्अर्थ: लदीअहि = लादी जाएं (पढ़ी हुई पुस्तकों से गड्डियां) भरी जायं। भरीअहि = भर लिए जायं। साथ = ढेर। भरीअहि साथ = ढेरों के ढेर लाए जा सकें। गडीअहि = गाड़े जा सकें, भर दिए जा सकें। खात = गड्ढे। जेते बरस बरस = जितने साल हैं, कई साल। पड़ीअहि जेते बरस बरस = कई सालों के साल पढ़ के गुजारे जा सकें। मास = महीने। जेते मास = जितने भी महीने हैं। पढ़ीअै = पढ़ के बिताई जाए। जेती आरजा = जितनी उम्र है। नोट: ‘पढ़ीअै’ व्याकरण के अनुसार वर्तमानकाल, कर्म वाचक (Passive Voice) अंनपुरख, एकवचन है। ‘पढ़ीअहि’ इसी का बहुवचन है। ‘पढ़हि’ वर्तमान काल, कत्री वाच (Active Voice) है। ज्यादा समझने के लिए देखें–‘गुरबाणी व्याकरण’। सास = सांस। लेखै = लेखे में, परवानगी में। इक गल = एक ईश्वर की बात, एक की सिफत सालाह। होरु = और यतन। झखणा झाख = झखें मारनी।1। अर्थ: अगर इतनी पोथियां पढ़ लें, जिनसे कई गड्डियां लादी जा सकें, जिनके ढेरों के ढेर लगाए जा सकें; अगर इतनी पुस्तकें पढ़ जायं, जिनसे एक बेड़ी भरी जा सके, कई गड्ढे भरे जा सकें; अगर पढ़-पढ़ के सालों के साल गुजारे जाएं अगर पढ़-पढ़ के (साल के) सारे महीने बिता दिए जाएं; अगर पुस्तकें पढ़-पढ़ के सारी उम्र गुजार दी जाए, और पढ़-पढ़ के सारे स्वास गुजार दिए जाएं (तो भी ईश्वर के दरबार में इस में से कुछ भी परवान नहीं होता)। हे नानक! प्रभू की दरगाह में केवल प्रभू की सिफत सालाह कबूल होती है, (प्रभू की वडिआई के बिना) कोई उद्यम करना, अपने अहंकार में ही भटकते फिरना है।1। मः १ ॥ लिखि लिखि पड़िआ ॥ तेता कड़िआ ॥ बहु तीरथ भविआ ॥ तेतो लविआ ॥ बहु भेख कीआ देही दुखु दीआ ॥ सहु वे जीआ अपणा कीआ ॥ अंनु न खाइआ सादु गवाइआ ॥ बहु दुखु पाइआ दूजा भाइआ ॥ बसत्र न पहिरै ॥ अहिनिसि कहरै ॥ मोनि विगूता ॥ किउ जागै गुर बिनु सूता ॥ पग उपेताणा ॥ अपणा कीआ कमाणा ॥ अलु मलु खाई सिरि छाई पाई ॥ मूरखि अंधै पति गवाई ॥ विणु नावै किछु थाइ न पाई ॥ रहै बेबाणी मड़ी मसाणी ॥ अंधु न जाणै फिरि पछुताणी ॥ सतिगुरु भेटे सो सुखु पाए ॥ हरि का नामु मंनि वसाए ॥ नानक नदरि करे सो पाए ॥ आस अंदेसे ते निहकेवलु हउमै सबदि जलाए ॥२॥ {पन्ना 467} पद्अर्थ: लिखि लिखि पढ़िआ = (जितना ही मनुष्य विद्या) पढ़ता लिखता है। तेता = उतना ही। कढ़िआ = अहंकारी हो जाता है। तेतो = उतना ही ज्यादा। लविआ = (कौए की तरह) बक बक करता है, भाव, जगह जगह कहता फिरता है कि मैं तीर्थों की यात्रा कर आया हूँ। देही = शरीर। सहु = सह। वे जीआ = हे जीव! सादु = स्वाद। साद गवाइआ = स्वाद गवा लेता है, कोई मजा नहीं रह जाता। दूजा = (नाम के बिना) कोई आडंबर। भाइआ = अच्छा लगा। अहि = दिन। निसि = रात। कहरै = दुख सहता है। मोनि = मौनधारी जो चुप बैठा रहे। विगूता = गलत रास्ते पर पड़ा हुआ। पग = पैर, चरण। उपेताणा = जूती के बिना। अलु मलु = गंदी चीजें। सिरि = सिर पर। छाई = राख। मूरखि = मूर्ख ने। पति = इज्जत। थाइ न पाई = जगह पर नहीं पड़ती, कबूल नहीं होती। बेबाणी = जंगलों में। अंधु = अंधा, मूर्ख मनुष्य। सतिगुरु भेटे = (जिस मनुष्य को) गुरू मिल जाए। मंनि = मन में। अंदेसे = चिंता। ते = से। निहकेवल = अछोह, निर्लिप। सबदि = शबद द्वारा। अर्थ: जितना कोई मनुष्य (किसी विद्या) को लिखना-पढ़ना जानता है, उतना ही उसे अपनी विद्या पे घमण्ड है (सो, यह जरूरी नहीं कि ईश्वर के दर पे परवान होने के लिए विद्या की जरूरत है); जितना ही कोई बहुत तीर्थों की यात्रा करता है, उतना ही जगह-जगह पे बताता फिरता है (कि मैं फलाने तीर्थ पर स्नान कर आया हूँ। सो, तीर्थ यात्रा भी अहंकार का कारण बनती है)। किसी ने (लोगों को रिझाने के लिए, धर्म के) कई चिन्ह धारण किए हुए हैं, और कोई अपने शरीर को कष्ट दे रहा है (उसके लिए भी यही कहना ठीक है कि) हे भाई! अपने किए का दुख सह (भाव, ये भेष धारन करने, शरीर को दुख देने भी ईश्वर के दर पर कबूल नहीं हैं)। (और देखो, जिसने) अन्न छोड़ा हुआ है (प्रभू का सिमरन नहीं करता, सिमरन त्याग के) उसे यही अच्छा काम लगता है। उसने भी अपनी जिंदगी तल्ख बनाई हुई है और दुख सह रहा है। कपड़े नहीं पहनता, दिन-रात दुखी हो रहा है। (एकांत में) चुप रह के (असली राह से) टूटा हुआ, भला, बताओ (माया की नींद में) सोया हुआ मनुष्य गुरू के बिना कैसे जाग सकता है? (एक) पैरों से नंगा फिरता है और अपनी इस की हुई भूल का दुख सह रहा है। (साफ-बढ़िया भोजन छोड़ के) झूठ-मीठ खाता है, और सिर पर राख डाल रखी है, अज्ञानी मूर्ख ने (इस तरह) अपनी इज्जत गवा ली है। प्रभू के नाम के बिना और कोई उद्यम परवान नहीं है। अंधा (मूर्ख) उजाड़ों में, मढ़ियों में, मसाणों में जा रहता है, (ईश्वर वाला रास्ता) नहीं समझता और समय बीत जाने पर पछताता है। जिस मनुष्य को गुरू मिल गया है (असल) सुख वही पाता है, वह (भाग्यशाली) ईश्वर का नाम अपने हृदय में (टिकाता) है। (पर) हे नानक! गुरू भी उसी को ही मिलता है जिस पे आप दातार मेहर की नजर करता है। उस संसार की आशाओं और फिक्रों से निर्लिप हो के गुरू के शबद द्वारा अपने अहम् को जला देता है।2। पउड़ी ॥ भगत तेरै मनि भावदे दरि सोहनि कीरति गावदे ॥ नानक करमा बाहरे दरि ढोअ न लहन्ही धावदे ॥ इकि मूलु न बुझन्हि आपणा अणहोदा आपु गणाइदे ॥ हउ ढाढी का नीच जाति होरि उतम जाति सदाइदे ॥ तिन्ह मंगा जि तुझै धिआइदे ॥९॥ पद्अर्थ: तेरै मनि = तेरे मन में। दरि = दरवाजे पर। कीरति = शोभा, वडिआई। करमा बाहरे = भाग्यहीन। ढोअ = आसरा। धावदे = भटकते फिरते हैं। इकि = कई जीव। मूलु = आदि, प्रभू। अणहोदा = (घर में) पदार्थ के बिना ही। आपु = आपने आप को। गणाइदे = बड़ा जतलाते हैं। हउ = मैं। ढाढी = उस्तति करने वाला, वार गाने वाला, भट्ट। ढाढी का = अदना सा ढाढी (जैसे ‘घट’ का ‘घटुका’ = छोटा सा घड़ा)। नीच जाति = नीच जाति वाला। होरि = और लोग। उतम जाति = ऊँची जाति वाले। अर्थ: (हे प्रभू!) तुझे अपने मन में भगत प्यारे लगते हैं, जो तेरी सिफत सालाह कर रहे हैं और तेरे दर पर शोभा पा रहे हैं। हे नानक! भाग्यहीन मनुष्य भटकते फिरते हैं, उन्हें प्रभू के दर पर जगह नहीं मिलती, (क्योंकि) ये (विचारे) अपने असल को नहीं समझते, (ईश्वरीय गुणों की पूँजी अपने अंदर) हुए बिना ही अपने आप को बड़ा जतलाते हैं। (हे प्रभू!) मैं नीच जाति वाला (तेरे दर का) एक अदना सा ढाढी हूँ, और लोग (अपने आप को) ऊँची जाति वाला कहलवाते हैं। जो तेरा भजन करते हैं, मैं उनसे (तेरा ‘नाम’) मांगता हूँ।9। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |