श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः १ ॥ नानक मेरु सरीर का इकु रथु इकु रथवाहु ॥ जुगु जुगु फेरि वटाईअहि गिआनी बुझहि ताहि ॥ सतजुगि रथु संतोख का धरमु अगै रथवाहु ॥ त्रेतै रथु जतै का जोरु अगै रथवाहु ॥ दुआपुरि रथु तपै का सतु अगै रथवाहु ॥ कलजुगि रथु अगनि का कूड़ु अगै रथवाहु ॥१॥ {पन्ना 470}

पद्अर्थ: मेरु = जैसे ‘मेरु’ पर्वत के इर्द-गिर्द सारे ग्रह (तारे) घूमते हैं, सारे ‘दीपों’ का ये केन्द्र है और इसमें सोना और हीरे मिलते हैं; जैसे माला के 108 मणकों में सिरताज मणका ‘मेरू’ है; जैसे मोतियों के हार का शिरोमणी (श्रेष्ठ) मोती ‘मेरू’ कहलाता है, वैसे ही प्रभू की रचना की बेअंत जूनियों में शिरोमणी जोनि मनुष्य-जोनि ‘मेरू’ कहलवाती है और मानस शरीर बाकी सब जूनियों में ‘मेरू’ है। मेरु सरीर का = (शरीरों में से) मेरु शरीर का (सारी जोनियों के शरीरों में से) मेरू शरीर का, शिरोमणी शरीर का, भाव, मानस शरीर के लिए। रथु = काठ उपनिषद में मनुष्य के शरीर को रथ से उपमा दी गई है; भाव, शरीर को रथ समझो और आत्मा को इस रथ का रथवाह (सारथी) जानो। रथवाह = रथ को चलाने वाला। जुगु जुगु = हरेक युग में। जुगु = इस सृष्टि की एक उम्र को ‘युग’ कहा गया है। युग गिनती में चार हैं– सतियुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग। हरेक जुग की उम्र क्रमानुसार 1728000, 1596000, 864000 और 472000 साल (मनुष्यों के साल) है; ये सारा समय मिला के एक ‘महायुग’ बनता है। हरेक युग की उम्र तरतीब बार घटती गई है। इसके पीछे ख्याल ये है कि इन युगों में से जीवों का शारीरिक बल व आचरण कमजोर होता जा रहा है, इस करके युगों की उम्र भी साथ-साथ घटती जा रही है। वटाईअहि = बदलते रहते हैं। गिआनी = ज्ञान वाले मनुष्य। ताहि = इस बात को। सतजुगि = सतजुग में। त्रेते = त्रेते युग में। सतु = उच्च आचरण।1।

अर्थ: हे नानक! चौरासी लाख जूनियों में से शिरोमणी मानस शरीर का एक रथ है और एक रथवाह है (भाव, ये जिंदगी का एक लंबा सफर है, मनुष्य मुसाफिर है; इस लंबे सफर को आसान करने के लिए जीव समय के प्रभाव में अपनी मति के अनुसार किसी ना किसी की अगुवाई में चल रहे हैं, किसी ना किसी का आसरा देख रहे हैं। पर, ज्यों-ज्यों समय गुजरता जा रहा है, जीवों के स्वभाव बदल रहे हैं, इस वास्ते जीवों की अपनी जिंदगी का निशाना, जिंदगी के उद्देश्य भी बदल रहे हैं; इसलिए) हरेक युग में ये रथ और रथवाह बार-बार बदलते रहते हैं, इस भेद को समझदार मनुष्य समझते हैं।

सतियुग में मनुष्य के शरीर का रथ ‘संतोख’ होता है और सार्थी ‘धर्म’ है (भाव, जब मनुष्यों का आम तौर पर जिंदगी का निशाना ‘धर्म’ हो, धर्म जीवन उद्देश्य होने के कारण सहज ही ‘संतोख’ उनकी सवारी होता है, ‘संतोख’ वाला स्वभाव जीवों के अंदर प्रबल होता है। ये जीव, मानो, सतिजुगी हैं, सतियुग में बस रहे हैं)।

त्रेते युग में मनुष्य-शरीर का रथ ‘जत’ है और इस ‘जत’ रूपी रथ के आगे सारथी ‘जोर’ है (भाव, जब मनुष्य की जिंदगी का निशाना ‘शूरवीरता’ (Chivalary) हो, तब सहज ही ‘जत’ उनकी सवारी होता है। ‘शूरबीरता’ के प्यारे मनुष्यों के अंदर ‘जती’ रहने का जोश सबसे प्रबल होता है।

द्वापर युग में मानस-शरीर का रथ ‘तप’ है और इस ‘तप’ रूपी रथ के आगे रथवाही ‘सत’ होता है (भाव, जब मनुष्यों की जिंदगी का निशाना ऊँचा आचरण हो, तब सहज ही ‘तप’ उनकी सवारी होता है। ‘उच्च आचरण’ के आशिक अपनी शारीरिक इन्द्रियों को विकारों से बचाने के लिए कई तरह के तप, कष्ट झेलते हैं)।

कलियुग में मनुष्य के शरीर का रथ तृष्णा-आग है और इस ‘आग’ रूपी रथ के आगे रथवाह ‘झूठ’ है (भाव, जब जिंदगी का उद्देश्य ‘झूठ’ ठॅगी आदि हो तब सहज ही ‘तृष्णा रूपी आग उनकी सवारी होती है। झूठ-ठॅगी में लिप्त लोगों के अंदर तृष्णा की आग भड़कती रहती है)।

नोट: इस शलोक में गुरू नानक साहिब जी हिन्दू मत अनुसार युगों की हुई बाँट पे विचार करते हुए फरमाते हैं कि सतियुग, त्रेता, द्वापर कलियुग के पहरे की पहचान करने के लिए जीवों की आम प्रवृति स्वभाव की ओर देखो। जहाँ ‘धर्म’ प्रबल है, वहाँ मानो, सतियुग का राज है, और जहाँ ‘झूठ’ प्रधान है वहाँ समझें कलियुग का पहरा है। युगों का प्रभाव जगत पर नहीं है, (बल्कि) जगत के जीवों के स्वभाव व आचरण के बदलने से मानो युग बदल गया है।1।

मः १ ॥ साम कहै सेत्मबरु सुआमी सच महि आछै साचि रहे ॥ सभु को सचि समावै ॥ रिगु कहै रहिआ भरपूरि ॥ राम नामु देवा महि सूरु ॥ नाइ लइऐ पराछत जाहि ॥ नानक तउ मोखंतरु पाहि ॥ जुज महि जोरि छली चंद्रावलि कान्ह क्रिसनु जादमु भइआ ॥ पारजातु गोपी लै आइआ बिंद्राबन महि रंगु कीआ ॥ कलि महि बेदु अथरबणु हूआ नाउ खुदाई अलहु भइआ ॥ नील बसत्र ले कपड़े पहिरे तुरक पठाणी अमलु कीआ ॥ चारे वेद होए सचिआर ॥ पड़हि गुणहि तिन्ह चार वीचार ॥ भाउ भगति करि नीचु सदाए ॥ तउ नानक मोखंतरु पाए ॥२॥ {पन्ना 470}

पद्अर्थ: पारजात = इन्द्र के बाग़ ‘नंदन’ में पाँच श्रेष्ठ वृक्षों में से एक का नाम ‘पारजात’ है। जब देवताओं ने मिल के समुंद्र ‘मंथन’ किया था, तब उसमें से चौदह रत्न निकले, जिनमें से एक ‘पारजात’ वृक्ष था। कृष्ण जी ने ये वृक्ष उस बाग में से उखाड़ के ले आए और अपनी प्यारी ‘सत्यभामा’ के बाग में लगा दिया। ये ‘सत्यभामा’ राजा शत्राजित की बेटी व श्री कृष्ण की प्यारी स्त्री थी।

इन्द्र के बाग ‘नंदन’ में पाँच बढ़िया जाति के वृक्ष बताए गए हैं। वे पाँचों वृक्ष इस प्रकार है: मंदार, पारजात, संतान, कल्पवृक्ष और हरी चंदन।

चंद्रावलि = एक गोपी का नाम था। ये राधा की चचेरी बहिन थी। राधा के पिता वृक्षभान के जेठे भाई चंद्रभान की ये लड़की थी। चंद्रावली गौवर्धन के साथ ये ब्याही गई थी, जो करला नाम के गाँव का रहने वाला था। साम = तीसरा वेद; पहले दो ‘ऋग’ और ‘यजुर’ हैं। नाइ लइअै = अगर नाम जपें। पराछत = पाप। जोरि = जोर से, धक्के से। जादमु = ‘यदु’ कुल में पैदा हुए श्री कृष्ण। गोपी = ‘सत्यभामा’ गोपी के वास्ते। कलि महि = कलियुग में। अलहु = अल्लाह, ईश्वर। अमलु = हुकमु, राज। तुरक पठाणी = तुर्क पठानों ने। पढ़हि = जो पढ़ते हैं। गुणहि = जो विचारते हैं। तिन् वीचार = उनके विचार। चार = सुंदर।

अर्थ संबंधित नोट-‘कलि महि बेदु अथरबणु हूआ’ - जैसे इस तुक में ‘कलयुग’ के साथ ‘बेदु अथरबणु’ बरता गया है वैसे ही पहली तुकों में शब्द ‘साम’ साथ ‘द्वापर’ बरतना है। ‘नाउ खुदाई अलहु भइआ’- कलियुग में ‘सुआमी’ का नाम ‘खुदाय’ और ‘अल्लहु’ प्रधान हो गया। ‘कलि....कीआ’-कलिजुग में ‘अथर्बण’ वेद प्रधान हो गया है, जीवों की अगुवाई मानो अथरबण वेद कर रहा है, भाव कलियुग में जादू-टोने, वैर-विरोध और जुल्म प्रधान हैं; भाव, ‘कलिजुगि रथु अगनि का, कूड़ु अगै रथवाहु।’ तुर्कों व पठानों का राज हो गया है, जिन्होंने नीले वस्त्र ले के उनके कपड़े (बनवा के) पहने हुए हैं; उनके ही तेज प्रताप के कारण अब ‘सुआमी’ का नाम ‘खुदाय’ और ‘अलह’ पुकारा जा रहा है। ‘जुज महि....कान् क्रिशन जादमु भइआ’ - द्वापर में ‘स्वामी’ का नाम ‘यादव कान्हा कृष्ण’ था। कौन सा कृष्ण? जो ‘कान्हा’ साँवले रंग था, जिसने (अपनी) गोपी (सत्यभामा) के लिए ‘पारजात’ वृक्ष इन्रद के बाग़ में से ले आया था और जिसने वृन्दाबन में चमत्कार किए थे लीला की थी। ऋगवेद कहता है कि (त्रेते युग में श्री राम जी का नाम ही सारे देवताओं में सूर्य की तरह चमकता था, भाव ‘त्रेते’ में ‘स्वामी’ का नाम ‘राम’ प्रधान था। उसी राम जी को ही ‘भरपूर रहिआ’ समझा गया, भाव, उसी की ही पूजा ‘स्वामी’ की पूजा के समान होने लग पड़ी।2।

नोट: सतिगुरू जी किसी वेद का किसी खास युगसे संबंध नहीं बता रहे। जैसे पहले शलोक में हरेक समय के जीवों के स्वभावआदि की तबदीली का जिक्र है, वैसे ही यहाँ भी है। ‘साम’, ‘ऋगु’, ‘जुज’ और ‘अथरवण’ को तरतीबवार केवल शब्द ‘सेतंबर’ ‘राम’ ‘जादमु’ और ‘अलहु’ के साथ बरता गया है। हरेक वेद के नाम का पहला अक्षर रॅब के उस समय के प्रधान नाम के पहले अक्षर से मिलता है।

अर्थ: सामवेद कहता है कि (भाव, सतियुग में) जगत के मालिक (स्वामी) का नाम ‘सेतंबर’ प्रसिद्ध है (भाव, जब ईश्वर को ‘सेतंबर’ मान के पूजा हो रही थी), जा सदा ‘सच’ में टिका रहता है; तब हरेक जीव सच में लीन होता है (‘सतजुगि रथु संतोख का धरमु अगै रथवाहु); (जब आम तौर पर हरेक जीव ‘सच’ में, ‘धर्म’ में दृढ़ था, तब सतियुग ही था)।

ऋगवेद (रिगवेद) कहता है कि (भाव, त्रेते युग में) (श्री) राम (जी) का नाम ही सारे देवताओं में सूर्य के समान चमकता है; वही हर जगह व्यापक है। हे नानक! (ऋगवेद कहता है कि) (श्री) राम (जी) का नाम लेने से (ही) पाप दूर हो जाते हैं और (जीव) तब मुक्ति प्राप्त कर लेते हैं।

यजुर्वेद (में भाव, द्वापर में) जगत के मालिक का नाम साँवल ‘जादमु’ कृष्ण प्रसिद्ध हो गया, जो जबरन चंद्रावलि को छल के ले आया, जो अपनी गोपी (सत्यभामा) के लिए पारजात वृक्ष (इन्द्र के बाग में से) ले आया और जिसने वृंदावन में लीला की।

कलियुग में अथर्वेद प्रधान हो गया है, जगत के मालिक का नाम ‘खुदाय’ और ‘अलहु’ कहा जाने लगा है, तुर्कों और पठानों का राज हो गया है जिन्होंने नीले रंग के वस्त्र ले के उनके कपड़े पहने हुए हैं।

चारों वेद सच्चे हो गए हैं (भाव, चारों युगों में जगत के मालिक का नाम अलग-अलग पुकारा जाता रहा है, हरेक समय यही ख्याल बना रहा है कि जो जो मनुष्य ‘सेतंबर’, ‘राम’, ‘कृष्ण’ और ‘अल्लाह’ कह–कह के जपेगा, वही मुक्ति पाएगा); और जो जो मनुष्य इन वेदों को पढ़ते-विचारते हैं, (भाव, अपने-अपने समय में जो जो मनुष्य इस उपरोक्त विश्वास से अपनी धर्म-पुस्तक पढ़ते व विचारते रहे हैं) वह हुए भी अच्छी युक्तियों (चार-सुंदर; वीचार-दलील, युक्ति) वाले हैं। (पर) हे नानक! जब मनुष्य प्रेमा भक्ति करके अपने आप को नीच कहलवाता है (विनम्र रहता है) (भाव, आडंबर अहंकार से बचा रहता है) तभी वह मुक्ति प्राप्त करता है।2।

पउड़ी ॥ सतिगुर विटहु वारिआ जितु मिलिऐ खसमु समालिआ ॥ जिनि करि उपदेसु गिआन अंजनु दीआ इन्ही नेत्री जगतु निहालिआ ॥ खसमु छोडि दूजै लगे डुबे से वणजारिआ ॥ सतिगुरू है बोहिथा विरलै किनै वीचारिआ ॥ करि किरपा पारि उतारिआ ॥१३॥ {पन्ना 470}

पद्अर्थ: विटहु = से। जित मिलिअै = जिस गुरू को मिलने के कारण। जिनि = जिस गुरू ने। जगतु निहालिआ = जगत को, भाव जगत की अस्लियत को देख लिया है। दूजै = दूसरे में, किसी और में। वणजारिआ = वणजारे, व्यापार करने वाले, जगत में वणज करने आए हुए जीव।13।

अर्थ: मैं अपने सतिगुरू से सदके हूँ, जिसको मिलने के कारण मैं मालिक को याद करता हूँ, और जिसने अपनी शिक्षा दे के (मानो) ज्ञान का अंजन दे दिया है (जिसकी बरकति से) मैंने इन आँखों से जगत (की अस्लियत) को देख लिया है कि जो मनुष्य मालिक को बिसार के किसी और में चित्त जोड़ रहे हैं, वह इस संसार (सागर) में डूब गए हैं। (मेरे सतिगुरू ने) मेहर करके मुझे (इस संसार समुंद्र से) पार कर दिया है।13।

सलोकु मः १ ॥ सिमल रुखु सराइरा अति दीरघ अति मुचु ॥ ओइ जि आवहि आस करि जाहि निरासे कितु ॥ फल फिके फुल बकबके कमि न आवहि पत ॥ मिठतु नीवी नानका गुण चंगिआईआ ततु ॥ सभु को निवै आप कउ पर कउ निवै न कोइ ॥ धरि ताराजू तोलीऐ निवै सु गउरा होइ ॥ अपराधी दूणा निवै जो हंता मिरगाहि ॥ सीसि निवाइऐ किआ थीऐ जा रिदै कुसुधे जाहि ॥१॥ {पन्ना 470}

पद्अर्थ: सराइरा = सीधा। दीरघ = लंबा। मुचु = बड़ा, मोटा। कितु = क्यों? पत = पत्र। मिठतु = मिठास। नीवी = नीचे रहने में। ततु = सार। आप कउ = अपने मतलब के लिए, अपने लिए। गउरा = भारी। हंता = मारने वाला। सीस निवाइअै = अगर सिर्फ सिर ही झुकाया जाए। कुसुधे = खोटे।1।

अर्थ: सिमंल का वृक्ष कितना सीधा, लंबा और मोटा होता है। (पर) वह पंछी जो (फल खाने की) उम्मीद रख के (इस पर) आ के बैठते हैं, वे निराश हो के क्यों जाते हैं? इसके पीछे कारण ये है कि पेड़ चाहे इतना लंबा, ऊँचा और मोटा है, पर (इसके) फल फीके होते हैं, और फूल बेस्वादे हैं, पत्ते भी किसी काम नहीं आते। हे नानक! नीचे रहने (विनम्रता) में मिठास है, गुण हैं, विनम्रता सारे गुणों का सार है, भाव, सब से अच्छा गुण है। (चाहे आम तौर पर जगत में) हरेक जीव अपने स्वार्थ के लिए झुकता है, किसी दूसरे की खातिर नहीं, (ये भी देख लो कि) अगर तराजू पर धर के तौला जाए (भाव, अगर अच्छी तरह परख की जाय फिर भी) नीचे वाला पलड़ा ही भारा होता है, (भाव, जो झुकता है वही बड़ा गिना जाता है)। (पर झुकने का भाव, मन से झुकना है, सिर्फ शरीर का झुकाना नहीं है; यदि शरीर के झुकने से कोई विनम्र व नीचा बन जाता होता तो) शिकारी जो मृग मारता है, झुक के दुहरा हो जाता है। पर अगर सिर ही निवा दिया जाए, और अंदर से जीव खोटे ही रहें, तो इस झुकने का कोई लाभ नहीं हो सकता।1।

मः १ ॥ पड़ि पुसतक संधिआ बादं ॥ सिल पूजसि बगुल समाधं ॥ मुखि झूठ बिभूखण सारं ॥ त्रैपाल तिहाल बिचारं ॥ गलि माला तिलकु लिलाटं ॥ दुइ धोती बसत्र कपाटं ॥ जे जाणसि ब्रहमं करमं ॥ सभि फोकट निसचउ करमं ॥ कहु नानक निहचउ धिआवै ॥ विणु सतिगुर वाट न पावै ॥२॥ {पन्ना 470}

पद्अर्थ: पुसतक = (वेद शास्त्र आदि धर्म) पुस्तकें। बादं = चर्चा। सिल = पत्थर की मूर्ति। बगुल = बगुलों की तरह। बिभूखण = आभूषण, गहने। सारं = श्रेष्ठ, सोहाने। त्रैपाल = तीन पालों वाली, तीन पदों वाली त्रिपदा, गायत्री मंत्र। गायत्री = यह एक बड़े पवित्र छंद का नाम है, जिसे हरेक ब्राहमण संध्या करने के समय व कई और समयों में भी बड़ी श्रद्धा से पढ़ता है। उनका विश्वास है किइस मंत्र का प्रेम से पाठ करने से सब पाप निर्वित हो जाते हैं। ये मंत्र ऋगवेद के तीसरे मण्डल में इस प्रकार लिखा है: तत्स वितुर्व रेण्यम् भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात् ॥ ऋग्॥3॥63॥10॥

तिहाल = त्रिहकाल, तीन बार। लिलाटं = माथे पे। कपाटं = सिर पे। ब्रहमं करमं = ब्रहम के काम, ईश्वर की (बंदगी) के काम। फोकट = फोके, व्यर्थ। निसचउ = निश्चय करके, यकीनन, जरूर। निहचउ = श्रद्धा धार के। वाट = रास्ता।2।

अर्थ: (पंडित, वेद आदि धार्मिक) पुस्तकें पढ़ के संध्या करता है और (औरों के साथ) चर्चा छेड़ता है, मूर्ति पूजता है और बगुले की तरह समाधि लगाता है; मुंह से झूठ बोलता है; (पर उस झूठ को) बड़े सुंदर गहनों की तरह चमका-चमका के दिखाता है; (हर रोज) तीनों वक्त गायत्री मंत्र को विचारता है, गले में माला रखता है, और माथे पर तिलक लगाता है; (सदा) दो धोतियां पास रखता है और (संध्या करने के वक्त) सिर पर एक वस्त्र रख लेता है।

पर, अगर ये पंडित ईश्वर (की सिफत सालाह) का काम जानता हो, तो निश्चित तौर पर जान लो कि ये सब काम फोके हैं। कह, हे नानक! (मनुष्य) श्रद्धा धार के रॅब को सिमरे- केवल यही रास्ता गुणकारी है, (पर) ये रास्ता सतिगुरू के बिना नहीं मिलता।2।

पउड़ी ॥ कपड़ु रूपु सुहावणा छडि दुनीआ अंदरि जावणा ॥ मंदा चंगा आपणा आपे ही कीता पावणा ॥ हुकम कीए मनि भावदे राहि भीड़ै अगै जावणा ॥ नंगा दोजकि चालिआ ता दिसै खरा डरावणा ॥ करि अउगण पछोतावणा ॥१४॥ {पन्ना 470-471}

पद्अर्थ: कपड़ु = जीवात्मा का कपड़ा, शरीर। राहि भीड़ै = संकरे रास्ते में से। अगै = भाव, मरने के बाद, ये दिखता जगत छोड़ के। नंगा = नंगा करके, पाज उघेड़ के, नश्र करके। दोजकि = नरक में। चालिआ = चलाया जाता है, धकेला जाता है। ता = तब, उस वक्त। खरा = बहुत।14।

अर्थ: ये सुंदर शरीर और सुंदर रूप (इसी जगत में) (जीवों को) छोड़ के चले जाना है। (हरेक जीव ने) अपने-अपने किए हुए अच्छे और बुरे कर्मों का फल खुद भोगना है। जिस मनुष्य ने मन-मानी हकूमतें की हैं, उसको आगे मुश्किल घाटियों में से गुजरना पड़ेगा (भाव, अपने किए हुए अत्याचारों के बदले में कष्ट सहने पड़ेंगे)। (ऐसा जीव) नंगा (किया जाता है, भाव, उसके किए हुए पाप कर्मों का नक्शा उसके सामने रखा जाता है) नर्क में धकेला जाता है, और उस समय (उसे अपने आपको) बड़ा डरावना रूप दिखता है। बुरे काम करके अंत में पछताना ही पड़ता है।14।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh