श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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सलोकु मः १ ॥ दइआ कपाह संतोखु सूतु जतु गंढी सतु वटु ॥ एहु जनेऊ जीअ का हई त पाडे घतु ॥ ना एहु तुटै न मलु लगै ना एहु जलै न जाइ ॥ धंनु सु माणस नानका जो गलि चले पाइ ॥ चउकड़ि मुलि अणाइआ बहि चउकै पाइआ ॥ सिखा कंनि चड़ाईआ गुरु ब्राहमणु थिआ ॥ ओहु मुआ ओहु झड़ि पइआ वेतगा गइआ ॥१॥ {पन्ना 471}

पद्अर्थ: दइआ = प्यार, तरस। जतु = (अपनें आप को) वश में रखना। गंढी = गाँठें (गंढ, गाँठ एकवचन singular) से गंढी बहुवचन है, जैसे ‘लहिर’ एकवचन ‘लहिरी’ बहुवचन। सतु = स्वच्छ आचरण। जीअ का = आत्मा के वास्ते। हई = अगर तेरे पास है। त = तो। न जाइ = ना ही ये जनेऊ गायब होता है। चले पाइ = पहन चले हैं, जिन्होंने पहन लिया है। चउकड़ि = चार कौड़ियों से। अणाइआ = मंगवाया। सिखा = शिक्षा, उपदेश। चढ़ाईआ = दी, चढ़ाई। थिआ = हो गया।1।

अर्थ: हे पण्डित! अगर (तेरे पास) ये आत्मा के काम आने वाला जनेऊ है तो (मेरे गले में) डाल दे- ऐसा जनेऊ जिसकी कपास दया हो, जिसका सूत संतोष का हो, जिसमें जत की गाँठें हों, और जिसका बॅट (वॅट) ऊँचा आचरण हो। (हे पण्डित!) ऐसा जनेऊ ना टूटता है, ना ही इसे मैल लगती है, ना ये जलता है और ना ही ये गायब होता है। हे नानक! वे मनुष्य भाग्यशाली हैं, जिन्होंने ऐसा जनेऊ अपने गले में पहन लिया है।

(हे पण्डित! ये जनेऊ जो तू पहनाता फिरता है, ये तो तूने) चार कौड़ी मूल्य दे के मंगवा लिया, (अपने जजमान के) चौके में बैठ के (उसके गले में) डाल दिया, (फिर तूने उसके) कान में उपदेश दिया (कि आज से तेरा) गुरू ब्राहमण हो गया। (समय पूरा होने पर) वह (जजमान) मर गया (तो) वह (जनेऊ उसके शरीर से) गिर गया (भाव, अलग हो गया अथवा जल गया, पर आत्मा के साथ ना निभा, इस वास्ते वह जजमान बेचारा) जनेऊ के बगैर ही (संसार से) चला गया।1।

मः १ ॥ लख चोरीआ लख जारीआ लख कूड़ीआ लख गालि ॥ लख ठगीआ पहिनामीआ राति दिनसु जीअ नालि ॥ तगु कपाहहु कतीऐ बाम्हणु वटे आइ ॥ कुहि बकरा रिंन्हि खाइआ सभु को आखै पाइ ॥ होइ पुराणा सुटीऐ भी फिरि पाईऐ होरु ॥ नानक तगु न तुटई जे तगि होवै जोरु ॥२॥ {पन्ना 471}

पद्अर्थ: कूड़ीआ = झूठ। पहिनामीआ = अमानत में खयानत करनी। जीअ नालि = अपने मन से, छुप छुप के, लोगों से छुपा छुपा के, चोरी चोरी। तगु = धागा। वटे आइ = आ के वॅट देता है (जनेऊ बना देता है)। कुहि = काट के। रिंनि् = पका के।

{कुहि बकरा रिंन्-इन शब्दों को पद-छेद किसी और तरह नहीं हो सकता। जो सज्जन करते हैं, वे प्रत्यक्ष तौर पर गुरबाणी की व्याकरण से अपनी ना = वाकफियत प्रगट करते हैं। ‘कुहिब करारि न’ कहने वाले सज्जन ये भूल जाते हैं कि ‘रि’ की ( ं) बिंदी ‘न’ और ( ् ) साथ नहीं रहे। खोजी सज्जन ज्यों = ज्यों गुरबाणी की व्याकरण को ध्यान से समझेंगे उन्हें पता चलेगा कि कि बाणी की एक भी लॅग-मात्रा आगे-पीछे करने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है}।

इसी ना-वाकफियत के कारण सभी टीकाकार नीचे लिखी तुक के अशुद्ध अर्थ करते चले आए हैं; “इकु बिंनि दुगण जु तउ रहै जा सुमंत्रि मानवहि लहि॥ जालपा पदारथ इतड़े गुर अमरदासि डिठै मिलहि॥५॥१४॥ ” (सवईयै महले तीजे के)

‘इकु बिंनि’ का अर्थ अब तक ‘एक के बिना होता आया है। इस बात की ओर कभी ध्यान नहीं दिया गया कि ‘बिनु’ और ‘बिंनि’ दोनों अलग-अलग शब्द हैं। शब्द ‘बिनु’ का प्राकित रूप ‘विणु’ है जो संस्कृत के शब्द ‘विना’ का अपभ्रंश है (बिगड़ा हुआ रूप)। ऊपरी नजर मारने से ही दिख जाता है कि ‘बिनु’ और ‘बिंनि’ में बहुत फर्क है। इसी तरह ‘कुहि बकरा रिंन् खाइआ’ को ‘कुहिब करारि न खाइआ’ पढ़ने वाले सज्जन खुद ही देख लें किवे कितनी भारी भूल कर रहे हैं।

सभु को = हरेक जीव, (परिवार का) हरेक प्राणी। पाइ = (जनेऊ) पहन लिया। तगि = धागे में, जनेऊ में।

अर्थ: (मनुष्य) लाखों चोरियां और यारियां (यारियां, परस्त्री गमन) करता है; लाखों झूठ बोलता है और गालियां निकालता है। दिनरात लोगों से चोरी-चारी लाखों ठॅगी और पहनामियां करता है। (ये तो है मनुष्य की अंतरात्मा का हाल, पर बाहर से देखिए, लोकाचारी क्या कुछ हो रही है) कपास से (भाव, कपास ला के) धागा काता जाता है और ब्राहमण (जजमान के घर) आ के (उस धागे को) बॅट देता है। (घर आए हुए सारे सगे-संबंधियों को) बकरा मार के पका के खिलाया जाता है; (घर का) हरेक प्राणी कहता है ‘जनेऊ पहना गया है, जनेऊ पहना गया है’। जब ये जनेऊ पुराना हो जाता है तो फेंक दिया जाता है। और इसकी जगह और जनेऊ पहन लिया जाता है। हे नानक! अगर धागे में जोर हो (भाव, अगर आत्मा के काम आने वाला आत्मा को बल देने वाला जनेऊ हो) तो वह धागा नहीं टूटता।2।

मः १ ॥ नाइ मंनिऐ पति ऊपजै सालाही सचु सूतु ॥ दरगह अंदरि पाईऐ तगु न तूटसि पूत ॥३॥ {पन्ना 471}

पद्अर्थ: नाइ मंनिअै = अगर (प्रभू का) नाम मान लें, अगर नाम हृदय में दृढ़ कर लें। पति = इज्जत, आदर। सालाही = सलाह ही, प्रभू की वडिआई करनी ही। सचु = सदा कायम रहने वाला। पूत = पवित्र, स्वच्छ (तग, धागा)। न तूटसि = नहीं टूटेगा।3।

अर्थ: (कपास से काते हुए सूत का जनेऊ पहन के ईश्वर के दर पर सुर्खरू होने की आस रखनी व्यर्थ है, रॅब की दरगाह में तभी) आदर मिलता है अगर ईश्वर का नाम दिल में दृढ़ कर लें, (क्योंकि) ईश्वर की सिफत सालाह ही सच्चा जनेऊ है; (ये स्वच्छ जनेऊ धारण करने से) दरगाह में सम्मान मिलता है और ये (कभी) टूटता भी नहीं।3।

मः १ ॥ तगु न इंद्री तगु न नारी ॥ भलके थुक पवै नित दाड़ी ॥ तगु न पैरी तगु न हथी ॥ तगु न जिहवा तगु न अखी ॥ वेतगा आपे वतै ॥ वटि धागे अवरा घतै ॥ लै भाड़ि करे वीआहु ॥ कढि कागलु दसे राहु ॥ सुणि वेखहु लोका एहु विडाणु ॥ मनि अंधा नाउ सुजाणु ॥४॥ {पन्ना 471}

पद्अर्थ: इंद्री = शारीरिक इन्द्रियों को। नारी = नाड़ियां। भलके = नित्य, हर रोज। दाढ़ी थुक पवै = बेइज्जती होती है। वतै = भटकता फिरता है। भाड़ि = भाड़ा, मजदूरी, लाग, दक्षिणा। कागलु = कागज, पत्री। ऐहु विडाण = ये अचम्भा। सुजाणु = सुजान, सयाना, पण्डित।4।

अर्थ: (पण्डित ने अपने) इन्द्रियों और नाड़ियों को (ऐसा जनेऊ) नहीं पहनाया (कि वे इन्द्रियां विकारों की तरफ ना जाएं, इस वास्ते) हर रोज उसकी बेइज्जती होती है; पैरों को (ऐसा) जनेऊ नहीं पहनाया (कि वे बुरी तरफ ना ले जाएं), हाथों को जनेऊ नहीं डाला (कि वे बुरे काम ना करें); जीभ को (कोई) जनेऊ नहीं डाला (कि वह पराई निंदा करने से हटी रहे), आँखों को (ऐसा) जनेऊ नहीं डाला (कि वे पराई स्त्री की ओर ना देखें)। खुद तो ऐसे जनेऊ के बगैर भटकता फिरता है, पर (कपास के सूत के) धागे बॅट-बॅट के औरों को डालता है, अपने ही जजमानों की बेटियों के विवाह दक्षिणा ले-ले के करता है और पत्री देख-देख के उन्हें रास्ता दिखाता है। हे लोगो! सुनो, देखो, ये आश्चर्यजनक तमाशा! (पण्डित खुद तो) मन से अंधा है (भाव, अज्ञानी है), (पर अपना) नाम (रखवाया हुआ है) ‘सियाना’।4।

पउड़ी ॥ साहिबु होइ दइआलु किरपा करे ता साई कार कराइसी ॥ सो सेवकु सेवा करे जिस नो हुकमु मनाइसी ॥ हुकमि मंनिऐ होवै परवाणु ता खसमै का महलु पाइसी ॥ खसमै भावै सो करे मनहु चिंदिआ सो फलु पाइसी ॥ ता दरगह पैधा जाइसी ॥१५॥ {पन्ना 471}

पद्अर्थ: साई कार = वही काम (जो उसे अच्छा लगता है)। हुकमि मंनिअै = अगर मालिक की आज्ञा में चलें, अगर रजा में राजी रहें, रजा में राजी रहने से। परवाणु = (दरगाह में) कबूल, सुर्खरू। खसमै का महलु = पति का घर, वह ठिकाना जहाँ प्रभू पति साक्षात प्रगट होता है। मनहु चिंदिआ = मन भाता, मन इच्छित। पैधा = सिरोपाव ले के, इज्जत से।

अर्थ: (जिस सेवक पर प्रभू) मालिक दयालु हो जाए, मेहर करे, तो उससे वही काम करवाता है (जो उसे भाता है); जिस को अपनी रजा में चलाता है, वह सेवक (प्रभू पति की) सेवा करता है; प्रभू की रजा में राजी रहने के कारण सेवक (प्रभू के दर पर) कबूल हो जाता है और मालिक का घर ढूँढ लेता है। जब सेवक वही काम करता है जो मालिक को अच्छा लगता है तो उसे मन-भाता फल मिलता है, और वह प्रभू की दरगाह में इज्जत से जाता है।15।

सलोक मः १ ॥ गऊ बिराहमण कउ करु लावहु गोबरि तरणु न जाई ॥ धोती टिका तै जपमाली धानु मलेछां खाई ॥ अंतरि पूजा पड़हि कतेबा संजमु तुरका भाई ॥ छोडीले पाखंडा ॥ नामि लइऐ जाहि तरंदा ॥१॥ {पन्ना 471}

पद्अर्थ: करु = मसूल, टैक्स। लावहु = तुम लगाते हो। गोबरि = गोबर से, गोबर से पोचा फेरने से। तै = और। जपमाली = माली। धानु = पदार्थ, भोजन मलेछों का, मुसलमानों का। खाई = खाता है। अंतरि = अंदर, छुप के। संजमु = रहित, रहनी। तुरका = तुर्कों वाली, मुसलमानों वाली। भाई = हे भाई! छोडीले = छोड़ दे। नामि लइअै = अगर नाम लेगा। जाहि तरंदा = पार लांघ जाएगा।

अर्थ: हे भाई! (दरिया के पत्तन पे बैठ के) गऊ और ब्राहमण को तो तू महसूल लगाता है (भाव, गाय और ब्राहमण को पार लंघाने के लिए कर लगा लेता है), (फिर तू ये नहीं सोचता कि जो गाय और ब्राहमण खुद नदी नहीं तैर सकते, उस गाय के) गोबर से (पोचा फेरने से, संसार-समुंदर से) पार नहीं लांघा जा सकता। धोती (पहनता है), टीका (माथे पर लगाता है) और माला (फेरता है), पर पदार्थ मलेछों के खाता है, (भाव, पदार्थ उन लोगों के खाता है, जिन्हें तू मलेछ कहता है)। अंदर बैठ के (भाव, तुर्क हाकिमों से चोरी-चोरी) पूजा करता है, (बाहर मुसलमानों को दिखाने के लिए) कुरान आदि पढ़ता है, और मुसलमानों वाली ही रहत तूने रखी हुई है।

(इस) पाखण्ड को छोड़ दे। अगर प्रभू का नाम सिमरेगा, तो ही (संसार-समुंदर) पार लांघेगा।1।

मः १ ॥ माणस खाणे करहि निवाज ॥ छुरी वगाइनि तिन गलि ताग ॥ तिन घरि ब्रहमण पूरहि नाद ॥ उन्हा भि आवहि ओई साद ॥ कूड़ी रासि कूड़ा वापारु ॥ कूड़ु बोलि करहि आहारु ॥ सरम धरम का डेरा दूरि ॥ नानक कूड़ु रहिआ भरपूरि ॥ मथै टिका तेड़ि धोती कखाई ॥ हथि छुरी जगत कासाई ॥ नील वसत्र पहिरि होवहि परवाणु ॥ मलेछ धानु ले पूजहि पुराणु ॥ अभाखिआ का कुठा बकरा खाणा ॥ चउके उपरि किसै न जाणा ॥ दे कै चउका कढी कार ॥ उपरि आइ बैठे कूड़िआर ॥ मतु भिटै वे मतु भिटै ॥ इहु अंनु असाडा फिटै ॥ तनि फिटै फेड़ करेनि ॥ मनि जूठै चुली भरेनि ॥ कहु नानक सचु धिआईऐ ॥ सुचि होवै ता सचु पाईऐ ॥२॥ {पन्ना 471-472}

पद्अर्थ: माणस खाणे = मनुष्यों को खाने वाले, रिश्वतखोर। करहि निवाज = नमाजें पढ़ते हैं। छुरी वगाइनि = (जो लोग) छुरी चलाते हैं, भाव, जुल्म करते हैं। ताग = जनेऊ। तिन घरि = उन (खत्रियों) के घरों में। पूरहि नाद = संख बजाते हैं। उना भि = उन ब्राहमणों को भी। आवहि ओई साद = वही स्वाद आते हैं (भाव, जो कुछ खत्री मुंशी खाते हैं, उन पदार्थों का ही स्वाद उन ब्राहमणों को आता है)। करहि आहारु = आहार करते हैं, खाना खाते हैं, रोजी कमाते हैं। सरम = लज्जा, हया। कखाई = गोरे रंग वाली। जगत कसाई = जगत का कसाई, हरेक जीव पर वश चलने पर जुल्म करने वाला। होवहि परवाणु = कबूल होते हैं, भाव, मुलाज़मत के समय नीले कपड़े पहन लेते हैं (तभी हाकिमों के सामने जाने की आज्ञा मिलती है)। लै = ले के (भाव, रोजी उनसे लेते हैं जिनको मलेछ कहते हैं)। पूजहि पुराण = पुराणों को पूजते हैं, पढ़ते हैं। अभाखिआ = किसी दूसरी बोली का, किसी बेगानी बोली का भाव, कलमा पढ़ के। कुठा = हलाल किया हुआ। खाणा = खुराक। मतु भिटै = मत भिट जाए, अपवित्र ना हो जाए, कहीं भिट ना जाए। फिटै = खराब हो जाए। तनि फिटै = गंदे शरीर से। सुचि = पवित्रता। होवै ता = तब होती है।2।

अर्थ: (काजी और मुसलमान हाकम) है तो रिश्वतखोर, पर पढ़ते हैं नमाजें। (इन हाकिमों के आगे मुंशी वह खत्री हैं जो) छुरी चलाते हैं (भाव, गरीबों पे जुल्म करते हैं), पर उनके गले में जनेऊ है। इन (जालिम खत्रियों) के घर में ब्राहमण जा के संख बजाते हैं; तब तो उन ब्राहमणों को भी उन ही पदार्थों का स्वाद आता है (भाव, वे ब्राहमण भी जुल्म के कमाए हुए पदार्थ खाते हैं)। (इन लोगों की) यह झूठी पूँजी है और झूठ ही इनका (ये) व्यापार है। झूठ बोल-बोल के (ही) ये रोजी कमाते हैं। अब शर्म और धर्म की सभा उठ गई है (भाव, ये लोक ना अपनी शर्म-हया का ख्याल करते हैं और ना ही धर्म के काम करते हैं)। हे नानक! सब जगह झूठ ही प्रधान हो रहा है।

(ये खत्री) माथे पर तिलक लगाते हैं, कमर पे गेरूऐ रंग की धोती (बांधते हैं) पर हाथ में (जैसे) छुरी पकड़ी हुई है और (मौका मिलते ही) हरेक जीव पे जुल्म करते हैं। नीले रंग के कपड़े पहन के (तुर्क हाकिमों के पास जाते हैं, तभी) उनके पास जाने की आज्ञा मिलती है। (जिन्हें) मलेछ (कहते हैं, उनसे) ही रोजी लेते हैं, और (फिर भी) पुराण को पूजते हैं (भाव, फिर भी यही समझते हैं कि हम पुराण के मुताबिक चल रहे हैं)। (यहीं बस नहीं) खुराक भी इनकी वह बकरा है जो कलमा पढ़ के हलाल किया हुआ है (भाव, जो मुसलमानों के हाथों का तैयार किया हुआ है, पर कहते हैं कि) हमारे चौके पे कोई और मनुष्य ना आ चढ़े। चौका बना के (चारों तरफ) लकीर खींचते हैं, (पर इस) चौके में वह मनुष्य आ बैठते हैं जो खुद झूठे हैं। (औरों को कहते हैं– हमारे चौके के पास ना आना) कहीं चौका अपवित्र ना हो जाए और हमारा अन्न खराब ना हो जाए; (पर खुद ये लोग) अपवित्र शरीर से बुरे कर्म करते हैं और झूठे मन से ही (भाव, मन तो अंदर से मलीन है) चुल्लियां करते हैं।

हे नानक! कह, प्रभू का ध्यान करना चाहिए। तभी स्वच्छता-पवित्रता हो सकती है अगर सच्चा प्रभू मिल जाए।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh