श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 472 पउड़ी ॥ चितै अंदरि सभु को वेखि नदरी हेठि चलाइदा ॥ आपे दे वडिआईआ आपे ही करम कराइदा ॥ वडहु वडा वड मेदनी सिरे सिरि धंधै लाइदा ॥ नदरि उपठी जे करे सुलताना घाहु कराइदा ॥ दरि मंगनि भिख न पाइदा ॥१६॥ {पन्ना 472} पद्अर्थ: चितै अंदरि = (प्रभू के) चित्त में, ध्यान में। सभु को = हरेक जीव। वेखि = देख के, भाव, ध्यान से। चलाइदा = चलाता है, काम में लगाए रखता है। वडहु वडा = बड़ों से बड़ा। मेदनी = सृष्टि, धरती। वड मेदनी = बड़ी है सृष्टि उसकी। सिरे सिरि = हरेक जीव के सिर पर। उपठी = उलटी। घाहु कराइदा = घास बना देता, तिनके से भी हल्का कर देता है, भाव उनकी ओर कोई देखता भी नहीं। दरि = (लोगों के) दर पे। मंगनि = (वे सुल्तान) मांगते हैं। भिख = भिक्षा, खैर।16। अर्थ: प्रभू हरेक जीव को अपने ध्यान में रखता है, और हरेक को अपनी नजर में रख के काम में लगाए रखता है। खुद ही (जीवों को) महानताएं बख्शता है और खुद ही उन्हें काम में लगाता है। प्रभू बड़ों से बड़ा है (भाव, सबसे बड़ा है), (उसकी रची हुई) सृष्टि भी बेअंत है। (इतनी बेअंत सृष्टि होते हुए भी) हरेक जीव को प्रभू धांधों में जोड़े रखता है। अगर कभी दुनिया के बादशाहों पर भी गुस्से की नजर कर दे, तो उन्हें भी खर-पतवार से हल्का कर देता है; (इतना हल्का कि) उन्हें मांगने पर भीख भी नहीं मिलती।16। सलोकु मः १ ॥ जे मोहाका घरु मुहै घरु मुहि पितरी देइ ॥ अगै वसतु सिञाणीऐ पितरी चोर करेइ ॥ वढीअहि हथ दलाल के मुसफी एह करेइ ॥ नानक अगै सो मिलै जि खटे घाले देइ ॥१॥ पद्अर्थ: मोहाका = ठॅग, चोर। जैसे संस्कृत का शब्द ‘कटक’ का आखिरी ‘क’ प्राकृत में ‘अ’ बन के पंजाबी में ‘कड़ा’ बन गया है, वैसे ही ‘मोषक’ से ‘ष’ का ‘ह’ हो के ‘मोहा’ बन गया है। शब्द ‘मोहाका’ का अर्थ है ‘बुरा सा चोर, चंदरा चोर’। घरु मुहै = (किसी का) घर ठॅगे। घर मुहि = (पराया) घर ठॅग के। पितर = पिता दादा आदि बड़े जो मर चुके हों। वसतु = चीज। पितरी चोर करेइ = (इस तरह वह मनुष्य अपने) पित्रों को चोर बनाता है। सिञाणीअै = सिंजाणीअै, पहचान ली जाती है। वढीअहि = काटे जाते हैं। हथ दलाल के = उस ब्राहमण के हाथ जो लोगों के पित्रों को पदार्थ पहुँचाने के लिए दलाल (विचोला) बनता है। मुसफी ऐह करेइ = (प्रभू) ये न्याय करता है। खटे घाले देइ = (मनुष्य) कमाता है और हाथों से देता है।1। अर्थ: अगर कोई ठॅग पराया घर ठॅगे, पराए घर को ठॅग के (वह पदार्थ) अपने पित्रों के नमित्त दे, तो (अगर सचमुच पिछलों का दिया पहुँचता है तो) परलोक में वह पदार्थ पहचान लिया जाता है। इस तरह मनुष्य अपने पित्रों को भी चोर बनाता है (क्योंकि उनके पास चोरी का माल निकल आता है)। (आगे) प्रभू ये न्याय करता है कि (ये चोरी का माल पहुँचाने वाले ब्राहमण) दलाल के हाथ काटे जाते हैं। हे नानक! (किसी का पहुँचाया आगे क्या मिलना है?) आगे तो मनुष्य को वही कुछ मिलता है जो कमाता है और (हाथों से) देता है।1। मः १ ॥ जिउ जोरू सिरनावणी आवै वारो वार ॥ जूठे जूठा मुखि वसै नित नित होइ खुआरु ॥ सूचे एहि न आखीअहि बहनि जि पिंडा धोइ ॥ सूचे सेई नानका जिन मनि वसिआ सोइ ॥२॥ {पन्ना 472} पद्अर्थ: जोरू = स्त्री। सिरनावणी = माहवारी खून। वारो वार = हर महीने, सदा। जूठे = झूठे मनुष्य के। जूठा = झूठा। ऐहि = ऐसे मनुष्य। सूचे = स्वच्छ, पवित्र। आखीअहि = कहे जाते हैं। जि = जो मनुष्य। सोई = वही मनुष्य। जिन मनि = जिन के मन में। सोइ = वह प्रभू।2। अर्थ: जैसे स्त्री को हर महीने माहवारी आती है (और ये अपवित्रता सदा उसके अंदर से ही पैदा हो जाती है), वैसे ही झूठे मनुष्य के मुंह में सदा झूठ ही रहता है और इस करके वह सदा दुखी ही रहता है। ऐसे मनुष्य स्वच्छ नहीं कहे जाते जो सिर्फ शरीर को ही धो के (अपनी ओर से पवित्र बन के) बैठ जाते हैं। हे नानक! केवल वही मनुष्य स्वच्छ हैं, सुच्चे हैं जिनके मन में प्रभू बसता है।2। पउड़ी ॥ तुरे पलाणे पउण वेग हर रंगी हरम सवारिआ ॥ कोठे मंडप माड़ीआ लाइ बैठे करि पासारिआ ॥ चीज करनि मनि भावदे हरि बुझनि नाही हारिआ ॥ करि फुरमाइसि खाइआ वेखि महलति मरणु विसारिआ ॥ जरु आई जोबनि हारिआ ॥१७॥ पद्अर्थ: तुरे = घोड़े। पलाणे = काठियों (समेत)। वेग = तेज चाल। हर रंगी = हरेक रंग के। हरम = महल। सवारिआ = सजाए हुए हों। मंडप = महल, शामियाने। लाइ...पासारिआ = लाइ करि पासारिआ बैठे, पसारे लगा के बैठे हों, सजावटें सजा के बैठे हों। चीज = तमाशे। मनि भावदे चीज = मन भाते तमाशे, मनमानी रंग रलियां। हारिआ = (वे मनुष्य अपना जन्म) हार जाते हैं। फुरमाइसि = हुकम। जरु = बुढ़ापा। जोबनि हारिआ = यौवन के ठॅगे हुओं को।1। अर्थ: जिनके पास काठियों समेत (भाव, सदा तैयार भर तैयार) घोड़े हवा जितनी तेज चाल वाले होते हैं, जो अपने हरमों को कई रंगों से सजाते हैं, जो मनुष्य कोठे-महल-माढ़ियां आदि पसारे पसार के (अहंकारी हुए) बैठे हैं, जो मनुष्य मन-मानियां रंग-रलियां करते हैं, पर प्रभू को नहीं पहचानते, वे अपना मानस जन्म हार बैठते हैं। जो मनुष्य (गरीबों पे) हुकम करके (पदार्थ) खाते हैं (भाव, मौजें करते हैं) और अपने महलों को देख के अपनी मौत को भुला देते हैं, उन जवानी से ठॅगे हुओं को (भाव, जवानी के नशे में मस्त हुए मनुष्यों को) (गफलत में ही, पता ही नहीं चलता कब) बुढ़ापा आ दबोचता है।17। सलोकु मः १ ॥ जे करि सूतकु मंनीऐ सभ तै सूतकु होइ ॥ गोहे अतै लकड़ी अंदरि कीड़ा होइ ॥ जेते दाणे अंन के जीआ बाझु न कोइ ॥ पहिला पाणी जीउ है जितु हरिआ सभु कोइ ॥ सूतकु किउ करि रखीऐ सूतकु पवै रसोइ ॥ नानक सूतकु एव न उतरै गिआनु उतारे धोइ ॥१॥ {पन्ना 472} पद्अर्थ: सूतकु = मनुष्य के जन्म और मरने पर उसके घर वालों द्वारा माने जाने वाली रसोई की अपवित्रता के भ्रम की रस्म। सभ तै = सब जगह। जीआ बाझु = जीवों के बिना। पहिला पाणी = सबसे पहले पानी, खुद पानी भी। जितु = जिस से। सभु कोइ = हरेक जीव। हरिआ = हरा, जिंद वाला। ऐव = इस तरह। उतारै धोइ = धो के उतार देता है।1। अर्थ: अगर सूतक को मान लें (भाव, अगर मान लें कि सूतक का भ्रम रखना चाहिए, तो यह भी याद रखें कि इस तरह के) सूतक तो भरे पड़े हैं; (चूल्हे में जलाए जाने वाले सूखे) गोबर और लकड़ी में भी कीड़े होते हैं (वे भी पैदा होते मरते रहते हैं); अनाज के जितने भी दाने हैं, इनमें से कोई भी दाना जीवन के बगैर नहीं है। खुद पानी भी जीव ही है, क्योंकि इसीसे हरेक जीव हरा-भरा (जीवन वाला) रहता है। सूतक कैसे रखा जा सकता है? (भाव, सूतक की रस्म पूरी तौर पर मानना बहुत कठिन है, क्योंकि इस तरह तो हर समय ही) रसोई में सूतक बना रहता है। हे नानक! इस तरह (भाव, भ्रम में पड़ने से) सूतक (मन से) नहीं उतरता, इसे (प्रभू का) ज्ञान ही धो के उतार सकता है।1। मः १ ॥ मन का सूतकु लोभु है जिहवा सूतकु कूड़ु ॥ अखी सूतकु वेखणा पर त्रिअ पर धन रूपु ॥ कंनी सूतकु कंनि पै लाइतबारी खाहि ॥ नानक हंसा आदमी बधे जम पुरि जाहि ॥२॥ पद्अर्थ: कूड़ु = झूठ (बोलना)। पर त्रिअ रूपु = पराई स्त्री का रूप। कंनि = कान से। लाइतबारी = चुगली। पै खाहि = पड़े खाते हैं, बेपरवाह हो के (चुगली) सुनते हैं। हंसा आदमी = (देखने को) हंस जैसे मनुष्य, बाहर से साफ सुथरे मनुष्य। जमपुरि = जमराज की पुरी में, नर्क में।2। अर्थ: मन का सूतक लोभ है (भाव, जिन मनुष्यों के मन में लोभ रूपी सूतक चिपका है); जीभ का सूतक झूठ बोलना है (भाव, जिन मनुष्यों की जीभ को झूठ-रूप सूतक है); (जिन मनुष्यों की) आँखों को पराया धन और पराई सि्त्रयों का रूप देखने का सूतक (चिपका हुआ है); (जिन मनुष्यों के) कान भी सूतक हैं कि कानों से बिफक्र हो के चुगली सुनते हैं; हे नानक! (ऐसे) मनुष्य (देखने में भले ही) हंसों जैसे (सुंदर) हों (तो भी वह) बंधे हुए नर्क में जाते हैं।2। मः १ ॥ सभो सूतकु भरमु है दूजै लगै जाइ ॥ जमणु मरणा हुकमु है भाणै आवै जाइ ॥ खाणा पीणा पवित्रु है दितोनु रिजकु स्मबाहि ॥ नानक जिन्ही गुरमुखि बुझिआ तिन्हा सूतकु नाहि ॥३॥ {पन्ना 472} पद्अर्थ: सभो = सभी, बिल्कुल ही। दूजै = माया में। दूजै जाइ = माया में फसने वाली जगह। दितोनु = (प्रभू ने जीवों को)। संबाहि = इकट्ठा करके।3। अर्थ: सूतक निरा भ्रम ही है, ये (सूतक रूपी भ्रम) माया में फसे (मनुष्यों को) आ लगता है। (वैसे तो) जीवों का पैदा होना-मरना प्रभू का हुकम है, प्रभू की रजा में ही जीव पैदा होता और मरता है। (पदार्थों का) खाना-पीना भी पवित्र है ( भाव, बुरा नहीं है, क्योंकि) प्रभू ने स्वयं इकट्ठा करके जीवों को रिजक दिया है। हे नानक! जिन गुरमुखों ने ये बात समझ ली है, उन्हें सूतक नहीं लगता।3। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |