श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा ॥ जब लगु तेलु दीवे मुखि बाती तब सूझै सभु कोई ॥ तेल जले बाती ठहरानी सूंना मंदरु होई ॥१॥ रे बउरे तुहि घरी न राखै कोई ॥ तूं राम नामु जपि सोई ॥१॥ रहाउ ॥ का की मात पिता कहु का को कवन पुरख की जोई ॥ घट फूटे कोऊ बात न पूछै काढहु काढहु होई ॥२॥ देहुरी बैठी माता रोवै खटीआ ले गए भाई ॥ लट छिटकाए तिरीआ रोवै हंसु इकेला जाई ॥३॥ कहत कबीर सुनहु रे संतहु भै सागर कै ताई ॥ इसु बंदे सिरि जुलमु होत है जमु नही हटै गुसाई ॥४॥९॥ {पन्ना 478}

पद्अर्थ: मुखि = मुंह में। बाती = बत्ती। सूझै = नजर आता है। सभु कोई = हरेक चीज। ठहरानी = खड़ी हो गई, सूख गई, बुझ गई। सूंना = सूना, खाली। मंदरु = घर।1।

रे बउरे = हे कमले जीव! तुहि = तुझे। सोई = सार लेने वाला, सच्चा साथी।1। रहाउ।

का की = किस की? जोई = जोरू, स्त्री, पत्नी। घट = शरीर। फूटे = टूट जाने पर।2।

देहुरी = दहलीज़। खटीआ = चारपाई। लट छिटकाए = केस खोल के, सिर के बाल बिखरा के। तिरीआ = पत्नी। हंसु = जीवात्मा।3।

भै सागरु = तौख़लों का समुंद्र, भय से भरा संसार समुंद्र। कै ताई = की बाबत, के बारे। गुसाई = हे संत जी!

अर्थ: (जैसे) जब तक दीपक में तेल है, और दीए के मुंह में बाती है, तब तक (घर में) हरेक चीज नजर आती है। तेल जल जाए, बाती बुझ जाए, तो घर सूना हो जाता है (वैसे ही, शरीर में जब तक श्वास हैं तो जिंदगी कायम है, तब तक हरेक चीज ‘अपनी’ प्रतीत होती है, पर श्वास खत्म हो जाएं और जिंदगी की ज्योति बुझ जाए तो ये शरीर अकेला रह जाता है)।1।

(उस वक्त) हे कमले! तुझे किसी ने एक घड़ी भी घर में रहने नहीं देना। सो, रॅब का नाम जप, वही साथ निभाने वाला है।1। रहाउ।

यहाँ बताओ, किस की माँ? किस का पिता? और किस की पत्नी? जब शरीर-रूप बर्तन टूटता है, कोई (इसकी) बात नहीं पूछता, (तब) यही पड़ा होता है (भाव, हर तरफ से यही आवाज आती है) इसको जल्दी बाहर निकालो।2।

घर की दहलीज़ पर बैठी माँ रोती है, चारपाई उठा के भाई (शमशान को) ले जाते हैं। लटें बिखरा के पत्नी पड़ी रोती है, (पर) जीवात्मा अकेले (ही) जाती है।3।

कबीर कहता है– हे संत जनो! इस डरावने समुंद्र के बारे में सुनो (भाव, आखिर नतीजा ये निकलता है) (कि जिनको ‘अपना’ समझता रहा था, उनसे साथ टूट जाने पर, अकेले) इस जीव पर (इसके किए विकर्मों के अनुसार) मुसीबत आती है, जम (का डर) सिर से टलता नहीं है।4।9।

नोट: दो दो तुकों के ‘बंद’ वाले ये 9 शबद हैं।

दुतुके    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा स्री कबीर जीउ के चउपदे इकतुके ॥ सनक सनंद अंतु नही पाइआ ॥ बेद पड़े पड़ि ब्रहमे जनमु गवाइआ ॥१॥ हरि का बिलोवना बिलोवहु मेरे भाई ॥ सहजि बिलोवहु जैसे ततु न जाई ॥१॥ रहाउ ॥ तनु करि मटुकी मन माहि बिलोई ॥ इसु मटुकी महि सबदु संजोई ॥२॥ हरि का बिलोवना मन का बीचारा ॥ गुर प्रसादि पावै अम्रित धारा ॥३॥ कहु कबीर नदरि करे जे मींरा ॥ राम नाम लगि उतरे तीरा ॥४॥१॥१०॥ {पन्ना 478}

पद्अर्थ: सनक सनंद = ब्रहमा के पुत्रों के नाम हैं। ब्रहमे बेद = ब्रहमा के रचे हुए वेद। पढ़े पढ़ि = पढ़ पढ़ के।1।

बिलोवना = मथना। हरि का बिलोवना = जैसे दूध को बार बार खासी देर मथते हैं, उसी तरह परमात्मा की बार बार याद। सहजि = सहज अवस्था में (टिक के); जैसे दूध को सहजे सहज मथते हैं, जल्दबाजी करने से मक्खन बीच में ही घुल जाता है, वैसे ही मन को सहज अवस्था में रख के प्रभू का सिमरन करना है । ततु = (दूध का तत्व) मक्खन। सिमरन का तत्व = प्रभू का मिलाप)।1। रहाउ।

(नोट: यहाँ शब्द ‘सहज’ को ‘दूध मथने’ और ‘सिमरन’ के साथ दो तरीकों में बरतना है; सहजे सहज मथना; सहज अवस्था में टिक के सिमरन करना)।

मटुकी = मटकी, चाटी। मन माहि = मन के अंदर ही (भाव, मन को अंदर ही रखना, मन को भटकना से बचाए रखना, ये मथानी हो)। संजोई = जाग, जो दूध को दही बनाने के लिए लगाते हैं।2।

अंम्रित धारा = अमृत का श्रोत।3।

मींरा = बादशाह। लगि = लग के, जुड़ के। तीरा = किनारा। कहु = कह (भाव, असल बात ये है)।4।

अर्थ: सनक सनंद (आदि ब्रहमा जी के पुत्रों) ने भी (परमात्मा के गुणों का) अंत नहीं पाया। उन्होंने ब्रहमा के रचे वेद पढ़-पढ़ के ही उम्र (व्यर्थ) गवा ली।1।

हे मेरे वीर! बार-बार परमात्मा का सिमरन करो, सहज अवस्था में टिक के सिमरन करो ता कि (इस उद्यम का) तत्व हाथों से जाता ना रहे (भाव, प्रभू से मिलाप बन सके)।1। रहाउ।

हे भाई! अपने शरीर को मटकी (चाटी) बनाओ (भाव, शरीर के अंदर ही ज्योति तलाशनी है); मन को भटकने से बचाए रखो- ये मथानी बनाओ; इस (शरीर रूप) चाटी में (सतिगुरू का) शबद-रूप जाग लगाओ (जो सिमरन रूप दूध में से प्रभू-मिलाप का तत्व निकालने में सहायता करे)।2।

जो मनुष्य अपने मन में प्रभू की याद रूपी मथने का काम करता है, उसे सतिगुरू की कृपा से (हरी-नाम रूप) अमृत का श्रोत प्राप्त हो जाता है।3।

हे कबीर! दरअसल बात ये है कि जिस मनुष्य पर पातशाह (ईश्वर) मेहर करता है वह परमात्मा का नाम सिमर के (संसार समुंद्र से) पार जा लगता है।4।1।10।

आसा ॥ बाती सूकी तेलु निखूटा ॥ मंदलु न बाजै नटु पै सूता ॥१॥ बुझि गई अगनि न निकसिओ धूंआ ॥ रवि रहिआ एकु अवरु नही दूआ ॥१॥ रहाउ ॥ टूटी तंतु न बजै रबाबु ॥ भूलि बिगारिओ अपना काजु ॥२॥ कथनी बदनी कहनु कहावनु ॥ समझि परी तउ बिसरिओ गावनु ॥३॥ कहत कबीर पंच जो चूरे ॥ तिन ते नाहि परम पदु दूरे ॥४॥२॥११॥ {पन्ना 478}

नोट: इस शबद की ‘रहाउ’ की तुक और आखिरी बंद को जरा ध्यान से पढ़ने से स्पष्ट हो जाता है कि इस सारे शबद में उस अवस्था का जिक्र है जब जीव को हर जगह प्रभू ही प्रभू व्यापक दिखता है। उस हालत में पहुँचे हुए जी पे कामादिक बलियों का जोर नहीं पड़ सकता, उस मनुष्य के अंदर से तृष्णा की अग्नि बुझ जाती है। तृष्णा की आग बुझने से पहले जीव–नट माया की रास डाल रहा था, माया का नचाया नाच रहा था। पर, जब माया के मोह की तारें टूट गई, रबाब बजनी बंद हो गई, शरीर की नित्य की वासनाओं का राग–रोना खत्म हो गया।

पद्अर्थ: अगनि = तृष्णा की आग। न...धूँआ = उस आग का धूंआ भी खत्म हो गया, उस तृष्णा में से उठने वाली वासनाएं खत्म हो गई। रवि रहिआ ऐकु = हर जगह एक प्रभू ही दिख रहा है।1। रहाउ।

नटु = नट जीव जो माया का नचाया नाच रहा था। पै = बेपरवाह हो के, माया की तरफ से बेफिक्र हो के। सूता = सो गया है, शांत चित्त हो गया है, डोलने से हट गया है। मंदलु = ढोल, माया का प्रभाव रूपी ढोल। तेलु = माया का मोह रूपी तेल। बाती = बत्ती जिसके आसरे तेल जलता है और दीया जगमगाता रहता है, मन की सुरति जो मोह में फसाई रखती है।1।

न बजै रबाबु = रबाब बजने से हट गया है, शरीर से प्यार खत्म हो गया है, देह अध्यास खत्म हो गया है। तंतु = तार जिससे रबाब बजता है, माया की लगन।

चूरे = नाश करे। परम पदु = सबसे ऊँची आत्मिक अवस्था।4।

अर्थ: जिस मनुष्य के अंदर से तृष्णा की आग बुझ जाती है और तृष्णा में से उठने वाली वासनाएंसमाप्त हो जाती हैं, उसे हर जगह एक प्रभू ही व्यापक दिखता है, प्रभू के बिना कोई और नहीं प्रतीत होता।1। रहाउ।

वह जीव-नट (जो पहले माया का नचाया हुआ नाच रहा था) अब (माया की ओर से) बेपरवाह हो गया है (इसलिए) भटकने से बच जाता है, उसकी सुरत (माया की ओर से) हट जाती है।1।

(जिस शारीरिक मोह में) फस के पहले मनुष्य अपना (असल करने वाला) काम खराब किए जा रहा था, अब वह शरीर मोह-रूपी रबाब बजता ही नहीं क्योंकि (तृष्णा के खत्म होने पर) मोह की तार टूट जाती है।2।

अब जब (जीवन की) सही समझ आ गई तो शरीर की खातिर ही वह पहली बातें, वह तरले, वह मिन्नतें, सब भूल गए।3।

कबीर कहता है– जो मनुष्य पाँचों कामादिकों को मार लेते हैं, उन मनुष्यों से ऊँची आत्मिक अवस्था दूर नहीं रह जाती।4।2।11।

आसा ॥ सुतु अपराध करत है जेते ॥ जननी चीति न राखसि तेते ॥१॥ रामईआ हउ बारिकु तेरा ॥ काहे न खंडसि अवगनु मेरा ॥१॥ रहाउ ॥ जे अति क्रोप करे करि धाइआ ॥ ता भी चीति न राखसि माइआ ॥२॥ चिंत भवनि मनु परिओ हमारा ॥ नाम बिना कैसे उतरसि पारा ॥३॥ देहि बिमल मति सदा सरीरा ॥ सहजि सहजि गुन रवै कबीरा ॥४॥३॥१२॥ {पन्ना 478}

पद्अर्थ: सुतु = पुत्र। अपराध = गलतियां, भूलें। जेते = जितने भी, चाहे कितने ही। जननी = माँ। चीति = चित्त में। तेते = वह सारे ही।1।

रामईआ = हे सुंदर राम! हउ = मैं। बारिकु = बालक, अंजान बच्चा। न खंडसि = तू नहीं नाश करता।1। रहाउ।

अति = बहुत। क्रोप = क्रोध, गुस्सा। करे करि = कर कर, बार बार करके। धाइआ = दौड़े। माइआ = माँ।2।

चिंत भवनि = चिंता के भवन में, चिंता के बवण्डर में।3।

बिमल मति = निर्मल बुद्धि, सुमति। सहजि = सहज अवस्था में टिक के। रवै = याद करे।4।

अर्थ: हे (मेरे) सुंदर राम! मैं तेरा अंजान बचा हूँ, तू (मेरे अंदर से) मेरी भूलों को क्यों दूर नहीं करता?।1। रहाउ।

पुत्र चाहे कितनी ही गलतियां क्यों ना करे, उसकी माँ वह सारी की सारी भुला देती है।1।

अगर (मूर्ख बच्चा) बड़ा क्रोध कर करके माँ को मारने भी लगे, तो भी माँ (उसके मूर्खपने को) याद नहीं रखती।2।

हे मेरे राम! मेरा मन चिंता के कूँए में पड़ा हुआ है (मैं सदा भूलें ही करता रहा हूँ) तेरा नाम सिमरन के बिना कैसे इस चिंता में से पार लांघू?।3।

हे प्रभू! मेरे इस शरीर को (भाव, मुझे) सदा कोई सुमति दे, जिससे (तेरा बच्चा) कबीर अडोल अवस्था में रहके तेरे गुण गाता रहे।4।3।12।

आसा ॥ हज हमारी गोमती तीर ॥ जहा बसहि पीत्मबर पीर ॥१॥ वाहु वाहु किआ खूबु गावता है ॥ हरि का नामु मेरै मनि भावता है ॥१॥ रहाउ ॥ नारद सारद करहि खवासी ॥ पासि बैठी बीबी कवला दासी ॥२॥ कंठे माला जिहवा रामु ॥ सहंस नामु लै लै करउ सलामु ॥३॥ कहत कबीर राम गुन गावउ ॥ हिंदू तुरक दोऊ समझावउ ॥४॥४॥१३॥ {पन्ना 478-479}

हरेक शबद का ठीक अर्थ समझने के लिए ये जरूरी है कि पहले ‘रहाउ’ की तुक को अच्छी तरह समझा जाय। ‘रहाउ’ की तुक, मानो, शबद का धुरा है, जिसके इर्द-गिर्द शबद के सारे बंद घूमते हैं।

इस शबद के ठीक अर्थ करने के लिए उपरोक्त लिखे गुर के अतिरिक्त शबद की आखिरी तुक की ओर ध्यान देना भी जरूरी हैइस तुक से पूर्णतया स्पष्ट होता हैकि कबीर जी सिर्फ मुसलमानों के ‘हज’ का ही जिक्र नहीं कर रहे, हिंदुओं के तीर्थों की ओर भी इशारा करते हैं, क्योंकि केवल ‘हज’ का वर्णन करने से ‘हिंदू तुरक दोऊ’ को उपदेश नहीं हो सकता।

‘गोमती’ नदी हिन्दुओं का तीर्थ है। भाई गुरदास जी जहाँ ‘गुर चरण हज’ को सारे तीर्थों से श्रेष्ठ बताते हैं वहीं और तीर्थों के साथ ‘गोमती’ का भी वर्णन करते हैं। नामदेव जी भी रामकली राग में ‘गोमती’ को हिन्दू-तीर्थ बताते हैं।

गंगा जउ गोदावरी जाईअै, कुंभि जउ केदार न्हाईअै, गोमती सहस गऊ दान कीजै॥ कोटि जउ तीरथ करै, तनु जउ हिवाले गारै, राम राम सरि तऊ न पूजै॥२॥४॥ (रामकली नामदेउ जी)

इसलिए कबीर जी की भी इस शबद में ‘हज’ के मुकाबले में ‘गोमती तीर’ को प्रवानगी नहीं दे रहे। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी का बाणी का हरेक शबद (चाहे किसी भगत जी ने उचारा है, चाहे सतिगुरू जी का अपना है) एक ही गुरमति की लड़ी में है।

शब्द ‘गोमती’ को तोड़-मोड़ के इसके कोई और अर्थ गुरमति अनुसार बनाने भी बेमायने हैं, क्योंकि उपरोक्त प्रमाण में ये ‘गोमती’ स्पष्ट तौर पर हिन्दू-तीर्थ का नाम है।

शबद का अर्थ करने से पहले खोजी-सज्जनों के लिए एक और शबद दिया जा रहा है, जो ऊपर दिए विचार को स्पष्ट करने में बहुत सहायक साबित होगा;

वरत न रहउ न मह रमदाना॥ तिसु सेवी जो रखै निदाना॥१॥
ऐक गुसाई अलहु मेरा॥ हिंदू तुरक दुहां नेबेरा॥१॥ रहाउ॥
हज काबै जाउ न तीरथ पूजा॥ ऐको सेवी अवर न दूजा॥२॥
पूजा करउ न निवाज गुजारउ॥ ऐक निरंकार ले रिदै नमसकारउ॥३॥
न हम हिंदू न मुसलमान॥ अलह राम के पिंड परान॥४॥
कहु कबीर इहु कीआ बखाना॥ गुर पीर मिलि खुदि खसमु पछाना॥५॥३॥ (भैरउ महला ५ घरु १)

जैसे जैसे इस शबद की हरेक तुक को ध्यान से पड़ें और विचारें तो उपरोक्त शबद के अर्थ स्पष्ट होते चले जाते हैं। हॅज और तीर्थ, दोनों का वर्णन करके मुसलमान और हिन्दुओं दोनों को उपदेश दिया है।

पद्अर्थ: वाहु वाहु = सिफत सालाह। खूबु = सुंदर। खूबु वाहु वाहु = सुंदर सिफत सालाह। मेरै मनि = मेरे मन में।1। रहाउ।

नोट: ये ‘रहाउ’ की तुक सारे शबद का, मानो, धुरा है। यहाँ प्रश्न उठता है– कौन ‘खूबु वाहु वाहु’ गाता है? ‘रहाउ’ की तुक के दूसरे हिस्से को ध्यान से पढ़ने पर क्रिया (verb) ‘गावता है’ का करता (Subject) मिल जाता है।

अर्थ करते समय तुक का साधारण पाठ (prose Order) इस तरह बनेगा– (मेरा मन) क्या खूबु वाहु वाहु गावता है, (और) हरि का नाम मेरै मनि भावता है।

अर्थ: (मेरा मन) क्या सुन्दर सिफत सालाह कर रहा है (और) हरी का नाम मेरे मन में प्यारा लग रहा है (इसलिए ये मेरा मनही तीर्थ है और यही मेरा हॅज है)।1। रहाउ।

पद्अर्थ: गोमती तीर = गोमती के किनारे। जहा = जहाँ। बसहि = बस रहे हैं। पीतंबर पीर = प्रभू जी।1।

नोट: ये पहले स्पष्ट किया जा चुका है कि कबीर जी ‘हॅज’ के मुकाबले में ‘गोमती तीर’ को अपना ईष्ट नहीं कह रहे।

‘पीतंबर पीर’ शब्द ‘कृष्ण जी’ के लिए भी नहीं है, क्योंकि कृष्ण जी का गोमती नदी से कोई संबंध नहीं है।

पहली तुक में किसी ऐसे ठिकाने की ओर इशारा है जिस की बाबत शब्द ‘जह’ (जहाँ) प्रयोग कर के कहा गया है कि ‘पीतांबर पीर’ वहाँ ‘बसहि’ बस रहे हैं।

अकाल पुरख के लिए शब्द ‘पीतंबर पीर’ का प्रयोग क्रिया (verb) बहुवचन (Plural Number) में केवल आदर वास्ते उपयोग की गई है, जैसे;

प्रभ जी बसहि साध की रसना॥

नानक जन का दासनि दसना॥ (सुखमनी साहिब)

‘रहाउ’ की तुक के साथ संबंध जोड़ने से पहली तुक का साधारण पाठ इस प्रकार है:

(हमारे) हज (और) हमारी गोमती तीर (यह मन ही है), जहां पीतंबर पीर बसहि॥

अर्थ: हमारा हॅज और हमारी गोमती का किनारा (ये मनही है), जहाँ श्री प्रभू जी बस रहे हैं।1।

पद्अर्थ: खवासी = टहल, चौबदारी। बीबी कवला = लक्षमी। दासी = सेविका।2।

अर्थ: नारद भगत की शारदा देवी भी उस श्री प्रभू जी की सेवा कर रही है (जो मेरे मन रूपी तीर्थ पे बस रहा है) और लक्ष्मी उसके पास सेविका बन के बैठी हुई है।2। मैं हजार नाम ले ले के प्रणाम करता हूँ।3।

पद्अर्थ: कंठे = गले में। सहंस = हजारों।3।

अर्थ: जीभ पर राम का सिमरन ही मेरे लिए गले की माला (सिमरनी) है, उस राम को (जो मेरे मन रूपी तीर्थ और जीभ पे बस रहा है) मैं हजार नाम ले ले के प्रणाम करता हूँ।3।

कबीर कहता है कि मैं हरी के गुण गाता हूँ और हिन्दू व मुसलमान दोनों को समझाता हूँ (कि मन ही तीर्थ और हॅज है, जहाँ ईश्वर बसता है और उसके अनेकों नाम हैं)।4।4।13।

भगत-बाणी के विरोधी सज्जन इस शबद के बारे में यूँ लिखते हैं– “भगत जी अपने स्वामी गुरू रामानंद जी की उपमा करते हैं। तब आप पीर-पीतांबर वैश्नव थे। गोमती नदी के किनारे स्वामी रामानंद के तीर्थों का हज करना उत्तम बताते हैं। वहाँ रहके योग-अभ्यास करते थे।

पर, पाठक सज्जन इस शबद के अर्थों को देख आए हैं कि यहाँ ना कहीं रामानंद जी का वर्णन है और ना ही किसी योगाभ्यास का।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh