श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा स्री कबीर जीउ के पंचपदे ९ दुतुके ५    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

पाती तोरै मालिनी पाती पाती जीउ ॥ जिसु पाहन कउ पाती तोरै सो पाहन निरजीउ ॥१॥ भूली मालनी है एउ ॥ सतिगुरु जागता है देउ ॥१॥ रहाउ ॥ ब्रहमु पाती बिसनु डारी फूल संकरदेउ ॥ तीनि देव प्रतखि तोरहि करहि किस की सेउ ॥२॥ पाखान गढि कै मूरति कीन्ही दे कै छाती पाउ ॥ जे एह मूरति साची है तउ गड़्हणहारे खाउ ॥३॥ भातु पहिति अरु लापसी करकरा कासारु ॥ भोगनहारे भोगिआ इसु मूरति के मुख छारु ॥४॥ मालिनि भूली जगु भुलाना हम भुलाने नाहि ॥ कहु कबीर हम राम राखे क्रिपा करि हरि राइ ॥५॥१॥१४॥ {पन्ना 479}

पद्अर्थ: पाती = पत्र, पत्ती। पाती पाती = हरेक पत्र में। जीउ = जीवन। पाहन = पत्थर। निरजीउ = निर्जीव।1।

ऐउ = इस तरह।1। रहाउ।

ब्रहमु = ब्रहमा। डारी = डाली, टहनी। संकर = शिव। प्रतखि = प्रत्यक्ष, सामने। तोरहि = तोड़ रही है। सेउ = सेवा।2।

पाखान = पत्थर। गढि कै = घड़ के। पाउ = पाँव, पैर।3।

भातु = चावल। पहिति = दाल। लापसी = पतला कड़ाह। करकरा कासारु = खस्ता पंजीरी। छारु = राख। मुखि छारु = मुंह में राख; भाव, कुछ ना मिला।4।

क्रिपा करि = कृपा करके। राखे = रख लिया है, भुलेखे से बचा लिया है।5।

अर्थ: (मूर्ति के आगे भेटा धरने के लिए) मालिनि पत्तियां तोड़ती है, (पर ये नहीं जानती कि) हरेक पत्ती में जीव है। जिस पत्थर (की मूर्ति) की खातिर (मालनि) पत्तियां तोड़ती है, वह पत्थर (की मूर्ती) निर्जीव है।1।

(ये निर्जीव मूर्ति की सेवा करके) इस तरह (ये) मालनि भूल रही है, (असली ईष्ट) सतिगुरू तो (जीता) जागता देवता है।1। रहाउ।

(हे मालिनि!) पत्तियां ब्रहमा रूप हैं, डाली विष्णु रूप और फूल शिव रूप। इन तीनों देवाताओं को तो तू अपने सामने ही नाश कर रही है, (फिर) सेवा किस की करती है?।2।

(मूर्ति घड़ने वाले ने) पत्थर घड़ के, और (घड़ने के समय मूर्ति की) छाती पर पैर रख कर मूर्ति तैयार की है। अगर ये मूर्ति असल देवता है तो (इस निरादरी के कारण) बनाने वाले को ही खा जाती।3।

चावल, दाल, हलवा और करकरी पंजीरी तो खाने वाला (पुजारी ही) खा जाता है, इस मूर्ति के मुंह में कुछ भी नहीं पड़ता (क्योंकि ये तो निर्जीव है, खाए कैसे?)।4।

हे कबीर! कह–मालिनि (मूर्ति पूजने के) भुलेखे में पड़ी हुई है, जगत भी यही गलती कर रहा है, पर हमने ये भुलेखा नहीं खाया, क्योंकि परमात्मा ने अपनी मेहर करके हमें इस गलती से बचा लिया है।5।1।14।

नोट: कुछ सज्जन आजकल यह नई रीति चला रहे हैं कि श्री गुरू ग्रंथ साहिब की हजूरी में रोटी का थाल ला के रखते हैं, और भोग लगवाते हैं। क्या इस तरह श्री गुरू ग्रंथ साहिब को मूर्ति का दर्जा दे के निरादरी नहीं की जा रही? पंथ को सुचेत रहने की आवश्यक्ता है।

आसा ॥ बारह बरस बालपन बीते बीस बरस कछु तपु न कीओ ॥ तीस बरस कछु देव न पूजा फिरि पछुताना बिरधि भइओ ॥१॥ मेरी मेरी करते जनमु गइओ ॥ साइरु सोखि भुजं बलइओ ॥१॥ रहाउ ॥ सूके सरवरि पालि बंधावै लूणै खेति हथ वारि करै ॥ आइओ चोरु तुरंतह ले गइओ मेरी राखत मुगधु फिरै ॥२॥ चरन सीसु कर क्मपन लागे नैनी नीरु असार बहै ॥ जिहवा बचनु सुधु नही निकसै तब रे धरम की आस करै ॥३॥ हरि जीउ क्रिपा करै लिव लावै लाहा हरि हरि नामु लीओ ॥ गुर परसादी हरि धनु पाइओ अंते चलदिआ नालि चलिओ ॥४॥ कहत कबीर सुनहु रे संतहु अनु धनु कछूऐ लै न गइओ ॥ आई तलब गोपाल राइ की माइआ मंदर छोडि चलिओ ॥५॥२॥१५॥ {पन्ना 479}

पद्अर्थ: बालपन = अंजानपना।1।

मेरी मेरी करते = इन ख्यालों में ही कि ये चीज मेरी है यह धन मेरा है, ममता में ही। साइरु = समुंद्र, सागर। सोखि = सूख के, सूख जाने पर। भुजं बलइओ = भुजाओं का बल, बाहों की ताकत।1। रहाउ।

सरवरि = तालाब में। पालि = दीवार। लूणै खेति = कटे हुए खेत में। हथ = हाथों से। वारि = वाड़। मुगधु = मूर्ख।2।

कर = हाथ। कंपन = कंबणी। असार = खुद ब खुद, विना रुकने के। रे = हे भाई!।3।

लाहा = लाभ। परसादी = किरपा से।4।

तलब = सदा। मंदर = घर। अनु धनु = कोई और धन।5।

अर्थ: (उम्र के पहले) बारह साल अंजानपने में गुजर गए, (और) बीस बरस (गुजर गए, भाव, तीस सालों को पार कर गया, तब तक भी) कोई तप ना किया; तीस साल (और बीत गए, उम्र साठ को पार कर गई, तो भी) कोई भजन-बंदगी ना की, अब हाथ मलने लगा (क्योंकि) बुड्ढा हो गया।1।

‘ममता’ में ही (जवानी की) उम्र बीत गई, शरीर रूपी समुंद्र सूख गया, और बाहों की ताकत (भी समाप्त हो गई)।1। रहाउ।

(अब बुढ़ापा आने पर भी मौत से बचने के उपाय करता है, पर इसके उद्यम ऐसे हैं जैसे) सूखे हुए तालाब के किनारे बाँध रहा है (ता कि पानी तालाब में से बाहर ना निकल जाए), और कटे हुए खेत के किनारे बाड़ दे रहा है। मूर्ख मनुष्य जिस शरीर को अपना बनाए रखने के यत्न करता फिरता है, पर (पर जब जम रूप) चोर (भाव, चुप करके ही जम) आता है और (जीवन को) ले के चला जाता है।2।

पैर, सिर, हाथ काँपने लग जाते हैं, आँखों में से खुद-ब-खुद पानी बहता जाता है, जीभ में से कोई शब्द साफ नहीं निकलता। हे मूर्ख! (क्या) उस वक्त तू धर्म कमाने की बात करता है?

जिस मनुष्य पर परमात्मा मेहर करता है, उसकी सुरति (अपने चरणों में) जोड़ता है, वह मनुष्य परमात्मा का नाम-रूप लाभ कमाता है। जगत से चलने के वक्त भी यही नाम-धन (मनुष्य के) साथ जाता है (पर) ये धन मिलता है सतिगुरू की कृपा से।4।

कबीर कहता है– हे संत जनों! सुनो, (कोई भी जीव मरने के वक्त) कोई और धन-पदार्थ अपने साथ नहीं ले जाता, क्योंकि जब परमात्मा की ओर से निमंत्रण आता है तो मनुष्य दौलत के घर (सब कुछ यहीं) छोड़ के चल पड़ता है।5।2।15।

आसा ॥ काहू दीन्हे पाट पट्मबर काहू पलघ निवारा ॥ काहू गरी गोदरी नाही काहू खान परारा ॥१॥ अहिरख वादु न कीजै रे मन ॥ सुक्रितु करि करि लीजै रे मन ॥१॥ रहाउ ॥ कुम्हारै एक जु माटी गूंधी बहु बिधि बानी लाई ॥ काहू महि मोती मुकताहल काहू बिआधि लगाई ॥२॥ सूमहि धनु राखन कउ दीआ मुगधु कहै धनु मेरा ॥ जम का डंडु मूंड महि लागै खिन महि करै निबेरा ॥३॥ हरि जनु ऊतमु भगतु सदावै आगिआ मनि सुखु पाई ॥ जो तिसु भावै सति करि मानै भाणा मंनि वसाई ॥४॥ कहै कबीरु सुनहु रे संतहु मेरी मेरी झूठी ॥ चिरगट फारि चटारा लै गइओ तरी तागरी छूटी ॥५॥३॥१६॥ आसा ॥ {पन्ना 479-480}

पद्अर्थ: पटंबर = पट के अंबर, पट के कपड़े। गरी गोदरी = गली फटी हुई गोदड़ी, जुल्ली। परारा = पराली। खान = घरों में।1।

अहिरख = हिरख, ईष्या, गिला। वादु = झगड़ा। सुक्रितु = नेक कमाई।1। रहाउ।

बहु बिधि = कई किस्मों की। बानी = रंगत, वन्नी। मुकताहल = मुक्ताहल, मोतियों की माला। बिआधि = मध,शराब आदि रोग लगाने वाली चीजें।2।

मूंड = सिर।3।

मनि = मान के। सति = अटॅल। मंनि = मन में।4।

चिरगट = पिंजरा। चटारा = चिड़ा। तरी तागरी = कुज्जी और ठूठी। छूटी = छूट जाती है, धरी ही रह जाती है।5।

अर्थ: (परमात्मा ने) कई लोगों को रेशम के कपड़े (पहनने को) दिए हैं और निवारी पलंघ (सोने के लिए); पर, कई (बिचारों) को सड़ी-गली जुल्ली भी नहीं मिलती, और कई घरों में (बिस्तरों की जगह) पराली ही है।1।

(पर) हे मन! ईष्या और झगड़ा क्यों करता है? नेक कमाई किए जा और तू भी ये सुख हासिल कर ले।1। रहाउ।

कुम्हार ने एक ही मिट्टी गूँदी और उसे कई किस्म के रंग लगा दिए (भाव, कई तरह के बर्तन बना दिए)। किसी बर्तन में मोती और मोतियों की माला (मनुष्य ने) डाल दीं और किसी में (शराब आदि) रोग लगाने वाली चीजें।2।

कंजूस धन जोड़ने जुटा हुआ है, (और) मूर्ख (कंजूस) कहता है–ये धन मेरा है। (पर जिस वक्त) जम का डण्डा सिर पर आ बजता है तब एक पलक में फैसला कर देता है (कि दरअसल ये धन किसी का भी नहीं)।3।

जो मनुष्य परमात्मा का सेवक (बन के रहता) है, वह परमात्मा का हुकम मान के सुख भोगता है और जगत में नेक भगत कहलवाता है (भाव, शोभा पाता है), प्रभू की रजा मन में बसाता है, जो प्रभू को भाता है उसको ही ठीक समझता है।4।

कबीर कहता है– हे संत जनो! सुनो, ‘ये धन-पदार्थ मेरा है’-ये ख्याल झूठा है (भाव, दुनिया के पदार्थ सदा के लिए अपने नहीं रह सकते); (जैसे, अगर) पिंजरे को फाड़ के (कोई बिल्ला) चिड़े को पकड़ के ले जाए तो (उस पिंजरें वाले पक्षी की) कुज्जी और ठूठी ही रह जाती है (वैसे ही मौत आने पर बंदे के खाने-पीने वाले पदार्थ यहीं धरे रह जाते हैं)।5।3।16।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh