श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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रे चित चेतसि की न दयाल दमोदर बिबहि न जानसि कोई ॥ जे धावहि ब्रहमंड खंड कउ करता करै सु होई ॥१॥ रहाउ ॥ जननी केरे उदर उदक महि पिंडु कीआ दस दुआरा ॥ देइ अहारु अगनि महि राखै ऐसा खसमु हमारा ॥१॥ कुमी जल माहि तन तिसु बाहरि पंख खीरु तिन नाही ॥ पूरन परमानंद मनोहर समझि देखु मन माही ॥२॥ पाखणि कीटु गुपतु होइ रहता ता चो मारगु नाही ॥ कहै धंना पूरन ताहू को मत रे जीअ डरांही ॥३॥३॥ {पन्ना 488}

पद्अर्थ: चेतसि की न = तू क्यों याद नहीं करता? दमोदर = (संस्कृत: दामोदर, an epithet of ज्ञrishna) परमात्मा। बिबहि = और। न जानसि = तू ना जानना। धावहि = तू दौड़ेगा। ब्रहमंड खंड कउ = सारी सृष्टि के अलग अलग देशों में। रहाउ।

जननी = माँ। केरे = के। उदर = पेट। उदक = पानी। पिंडु = शरीर। दस दुआरा = दस दरवाजों वाला ( 2कान, 2 आँखें, 2 नासिकाएं, 1 मुंह, 1 गुदा, 1 लिंग, 1 तालू)। देइ = दे के। अहारु = खुराक।1।

कुंमी = कुछआ। माहि = में। तिसु तन = उसके बच्चे। पंख = खंभ। खीरु = दूध (वाले थन)। तिन् = उनको। मनोहर = सुंदर। समझि = समझ के।2।

पाखणि = पत्थर में। कीट = कीड़ा। गुपतु = छुपा। ता चो = उसका। मारगु = (निकलने का) राह। ताहू को = उस कीड़े का भी। रे जीअ = हे जीव!3।

अर्थ: हे (मेरे) मन! दया के घर परमात्मा को तू क्यों नही सिमरता? (देखना) किसी और की आस ना लगाए रखना। अगर तू सारी सृष्टि के देसों-परदेसों में भी भटकता फिरेगा, तो भी वही कुछ होगा जो करतार करेगा।1। रहाउ।

माँ के पेट के जल में उस प्रभू ने हमारा दस सोतों वाला शरीर बना दिया; खुराक दे के माँ के पेट की आग में वह हमारी रक्षा करता है (देख, हे मन!) वह हमारा मालिक ऐसा (दयालु) है।1।

कछुआ पानी में रहता है, उसके बच्चे बाहर (रेत पर रहते हैं), ना (बच्चों के) पंख हैं (कि उड़ के कुछ खा लें), ना (कछुए के) थन (हैं कि बच्चों को दूध पिलाए); (पर हे जीवात्मा!) मन में विचार के देख, वह सुंदर परमानंद पूर्ण प्रभू (उनकी पालना करता है)।2।

पत्थर में कीड़ा छुपा हुआ रहता है (पत्थर में से बाहर जाने के लिए) उसका कोई रास्ता नहीं; पर उसको (पालने वाला) भी पूर्ण परमात्मा है; धंना कहता है– हे जीवात्मा! तू भी ना डर।3।3।

नोट: ये तीनों शबद राग आसा में हैं। पहला और तीसरा शबद भगत धंना जी के हैं। यहाँ कोई भी सिद्धांत गुरमति के विरुद्ध नहीं दिख रहा।

आसा सेख फरीद जीउ की बाणी    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

दिलहु मुहबति जिंन्ह सेई सचिआ ॥ जिन्ह मनि होरु मुखि होरु सि कांढे कचिआ ॥१॥ रते इसक खुदाइ रंगि दीदार के ॥ विसरिआ जिन्ह नामु ते भुइ भारु थीए ॥१॥ रहाउ ॥ आपि लीए लड़ि लाइ दरि दरवेस से ॥ तिन धंनु जणेदी माउ आए सफलु से ॥२॥ परवदगार अपार अगम बेअंत तू ॥ जिना पछाता सचु चुमा पैर मूं ॥३॥ तेरी पनह खुदाइ तू बखसंदगी ॥ सेख फरीदै खैरु दीजै बंदगी ॥४॥१॥ {पन्ना 488}

पद्अर्थ: जिन् मुहबति = जिन की मुहब्बत। सचिआ = सच्चे आशिक, सच्ची मुहबत करने वाले। सेई = वही लोग। जिन्मनि = जिन के मन में। मुखि = मुंह में। कांढे = कहे जाते हैं। कचिआ = कच्ची प्रीत वाले।1।

रते = रंगे हुए। इसक = प्यार, मुहबत। रंगि = रंग में। भुइ = जमीन पे। थीऐ = हो गए हैं।1। रहाउ।

लड़ि = पल्ले से। दरि = (प्रभू के) दर से। से = वही लोग। जणेदी = पैदा करने वाली। धंनु = भाग्यों वाली। माउ = माँ।2।

परवदगार = हे पालनहार! अगम = अपहुँच! तू = तुझे। सचु = सदा सिथर रहने वाले को। मूं = मैं।3।

पनह = ओट, पनाह। खुदाइ = हे खुदा! हे प्रभू! बखसंदगी = बख्शने वाला। फरीदै = फरीद को।4।

अर्थ: जो मनुष्य रॅब के प्यार में रंगे हुए हैं, जो लोग रॅब के दीदार में रते हुए हैं, (वही असल मनुष्य हैं); पर जिन्हें रॅब का नाम भूल गया है वह मनुष्य धरती पर निरे भार ही हैं।1। रहाउ।

जिन मनुष्यों का रॅब से दिल से प्यार है, वही सच्चे आशिक हैं; पर जिनके मन में और है और मुंह में से कुछ और ही कहते हैं वह कच्चे (आशिक) कहे जाते हैं।1।

वही मनुष्य (रॅब के) दरवाजे पर दरवेश हैं (वही मनुष्य रॅब के दर से इश्क की खैर मांग सकते हैं) जिन्हें रॅब ने स्वयं अपने लड़ लगाया है, उनकी पैदा करने वाली माँ भाग्यों वाली है, उनका (जगत में) आना मुबारक है।2।

हे पालणहार! हे बेअंत! हे अपहुँच! जिन्होंने ये समझ लिया है कि तू सदा कायम रहने वाला है, मैं उनके पैर चूमता हूँ।3।

हे खुदा! मुझे तेरा ही आसरा है, तू बख्शने वाला है; मुझ शेख फरीद को अपनी बंदगी की ख़ैर डाल।4।1।

आसा ॥ बोलै सेख फरीदु पिआरे अलह लगे ॥ इहु तनु होसी खाक निमाणी गोर घरे ॥१॥ आजु मिलावा सेख फरीद टाकिम कूंजड़ीआ मनहु मचिंदड़ीआ ॥१॥ रहाउ ॥ जे जाणा मरि जाईऐ घुमि न आईऐ ॥ झूठी दुनीआ लगि न आपु वञाईऐ ॥२॥ बोलीऐ सचु धरमु झूठु न बोलीऐ ॥ जो गुरु दसै वाट मुरीदा जोलीऐ ॥३॥ छैल लंघंदे पारि गोरी मनु धीरिआ ॥ कंचन वंने पासे कलवति चीरिआ ॥४॥ सेख हैयाती जगि न कोई थिरु रहिआ ॥ जिसु आसणि हम बैठे केते बैसि गइआ ॥५॥ कतिक कूंजां चेति डउ सावणि बिजुलीआं ॥ सीआले सोहंदीआं पिर गलि बाहड़ीआं ॥६॥ चले चलणहार विचारा लेइ मनो ॥ गंढेदिआं छिअ माह तुड़ंदिआ हिकु खिनो ॥७॥ जिमी पुछै असमान फरीदा खेवट किंनि गए ॥ जालण गोरां नालि उलामे जीअ सहे ॥८॥२॥ {पन्ना 488}

पद्अर्थ: बोलै = कहता है। पिआरे = हे प्यारे! अलह लगे = अल्लाह के साथ लग, रॅब के चरणों में जुड़। होसी = हो जाएगा। गोर = कबर।1।

आजु = आज, इस मानस जनम में ही। फरीद = हे फरीद! टाकिम = रोक, काबू कर। कूंजड़ीआ = (भाव) इन्द्रियों को। मनहु मचिंदड़ीआ = मन को मचाने वाली। रहाउ।

जे जाणा = जब ये पता है। घुमि = मुड़ के, फिर। लगि = लग के। आपु = अपने आप को। न वञाईअै = ख्वार नहीं करना चाहिए, परेशान नहीं करना चाहिए।2।

वाट = रास्ता। मुरीदा = मुरीद बन के, सिख बन के। जोलीअै = चलना चाहिए।3।

छैल = बाँके जवान, संत जन। गोरी मनु = (कमजोर) स्त्री का मन। धीरिआ = हौसला पकड़ता है। कंचन वंने पासे = जो धन पदाथ्र की तरफ लग गए। कलवति = कलवत्र से, आरे से।4।

सेख = हे शेख फरीद! हैयाती = उम्र। जगि = जगत में। थिरु = सदा कायम। आसणि = जगह पे। केते = कई। बैसि गइआ = बैठ के चले गए हैं।5।

चेति = चेत्र (के महीने) में। डउ = जंगल की आग। सावणि = सावन के महीने में। सोहंदीआं = सोहणी लगती हैं। पिर गलि = पति के गले में। बाहड़ीआ = सुंदर बाँहें।6।

चले = चले जा रहे हैं। चलणहार = नाशवंत जीव। छिअ माह = छे महीने। हिकु खिनो = एक पल।7।

खेवट = मल्लाह, बड़े बड़े आगू। किंनि = कितने ही। गऐ = गुजर गए हैं। जालण = दुख सहने। गोरां नालि = कब्रों से। जीअ = जिंद, जीव।8।

अर्थ: हे शेख फरीद! इस मानस जन्म में ही (ईश्वर से) मेल हो सकता है (इस वास्ते इन) मन को मचाने वाली इन्द्रियों को काबू में रख।1। रहाउ।

शेख फरीद कहता है– हे प्यारे! रॅब (के चरणों) में जुड़; (तेरा) ये जिस्म छोटी सी कब्र में पड़ के मिट्टी हो जाएगा।1।

(हे प्यारे मन!) जब तुझे पता है कि आखिर मरना है और दुबारा (यहाँ) नहीं आना, तो इस नाशवंत दुनिया के साथ प्रीति लगा के अपना आप गवाना नहीं चाहिए; सच और धर्म ही बोलना चाहिए, झूठ नहीं बोलना चाहिए, जो रास्ता गुरू बताए उस रास्ते पे मुरीदों की तरह चलना चाहिए।2,3।

(किसी दरिया से) जवानों को पार होते देख के (कमजोर) स्त्री का मन भी (हौसला पकड़ लेता है) (और पार होने की कोशिश करती है; इसी तरह संत-जनों को संसार-समुंद्र में से पार लांघता देख के कमजोर दिल मनुष्य में भी हिम्मत आ जाती है, इसलिए हे मन! तू संत-जनों की संगति कर! देख) जो मनुष्य निरे सोने-चाँदी की ओर (भाव, माया जोड़ने की तरफ लग) जाते हैं वे आरे से चीरे जाते हैं (भाव, बहुत दुखी जीवन व्यतीत करते हैं)।4।

हे शेख फरीद! जगत में कोई सदा के लिए उम्र नहीं भोग सका (देख) जिस (धरती की इस) जगह पर हम (अब) बैठे हैं (इस धरती पर) कई बैठ के चले गए।5।

कार्तिक के महीने कूँजें (आती हैं); चेत्र में जंगलों को आग (लग पड़ती है), सावन में बिजलियां (चमकती हैं), ठंड में (सि्त्रयों की) सुहानी बाँहें (अपने) पतियों के गले में शोभती हैं (इसी तरह जगत की सारी कार अपने-अपने समय सिर हो के चलती जा रही है; जगत से) चले जाने वाले जीव (अपना-अपना समय गुजार के) चले जा रहे हैं; हे मन! विचार के देख, जिस शरीर के बनने में छह महीने लगते हैं उसके नाश होने में एक पल ही लगता है।6।7।

हे फरीद! इस बात के जमीन व आसमान गवाह हैं कि वो बेअंत बंदे यहाँ से चले गए जो अपने आप को बड़े आगू कहलवाते थे। शरीर तो कब्रों में गल जाते हैं, (पर किए कर्मों के) दुख-सुख जिंद सहती है।8।2।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh