श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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आसा ॥ हरि हरि हरि हरि हरि हरि हरे ॥ हरि सिमरत जन गए निसतरि तरे ॥१॥ रहाउ ॥ हरि के नाम कबीर उजागर ॥ जनम जनम के काटे कागर ॥१॥ निमत नामदेउ दूधु पीआइआ ॥ तउ जग जनम संकट नही आइआ ॥२॥ जन रविदास राम रंगि राता ॥ इउ गुर परसादि नरक नही जाता ॥३॥५॥ {पन्ना 487}

पद्अर्थ: हरि...हरे हरि सिमरत = बार बार स्वास स्वास हरि नाम सिमरते हुए। जन = (हरी के) दास। गए तरे = तैर गए, संसार समुंद्र से पार लांघ गए। निसतरि = अच्छी तरह तैर के।1। रहाउ।

हरि के नाम = हरि नाम की बरकति से। उजागर = मशहूर। कागर = कागज। जनम के कागर = कई जन्मों के किए कर्मों के लेखे।1।

निमत = (सं: निमित्त, the instrumental or efficient cause. ये शब्द किसी ‘समास’ के आखिर में बरता जाता है और इसका अर्थ होता है ‘इस कारण करके’; जैसे किन्निमित्तोयमातंक: भाव, इस रोग के क्या कारण हैं) के कारण, की बरकति से। (हरि को नाम) निमत = हरि नाम की बरकति से। तउ = तब, हरि नाम सिमरन से। संकट = कष्ट।

राम रंगि = प्रभू के प्यार में। राता = रंगा हुआ। इउ = इस तरह, प्रभू के रंग में रंगे जाने से। परसादि = कृपा से।3।

अर्थ: स्वास-स्वास हरि नाम सिमरन से हरी के दास (संसार समुंद्र से) पूर्ण तौर पर पार लांघ जाते हैं।1। रहाउ।

हरि-नाम सिमरन की बरकति से कबीर (भगत जगत में) मशहूर हुआ, और उसके जन्मों-जन्मों के किए कर्मों के लेखे समाप्त हो गए।1।

हरि नाम सिमरण के कारण ही नामदेव ने (‘गोबिंद राय’) को दूध पिलाया था, और, नाम जपने से ही वह जगत के जन्मों के कष्टों में नहीं पड़ा।2।

हरी का दास रविदास (भी) प्रभू के प्यार में रं्रगा गया है। इस रंग की बरकति से सतिगुरू की मेहर सदका, रविदास नर्कों में नहीं जाएगा।3।5।

नोट: हरेक शबद का केन्द्रिय भाव ‘रहाउ’ की तुक में हुआ करता है। यहाँ हरि सिमरन की उपमा बताई गई है कि जिन लोगों ने स्वास–स्वास प्रभू को याद रखा, उन्हें जगत की माया नहीं व्याप सकी। ये असूल बताते हुए दो भक्तों की मिसाल देते हैं। कबीर ने भक्ति की, वह जगत में प्रसिद्ध हुआ; नामदेव ने भक्ति की, और उसने प्रभू को वश में कर लिया।

इस विचार में दो बातें बिल्कुल साफ हैं, कि नामदेव ने किसी ठाकुर–मूर्ति को दूध नहीं पिलाया; दूसरी, दूध पिलाने के बाद नामदेव को भक्ति की लाग नहीं लगी, पहले ही वह प्रवान भक्त था। किसी मूर्ति को दूध पिला के, किसी मूर्ति की पूजा करके, नामदेव भगत नहीं बना, बल्कि ये स्वास–स्वास हरि–सिमरन की ही बरकति थी, कि प्रभू ने कई कौतक दिखा के नामदेव के कई काम सवारे और उसे जगत में मशहूर किया।

भाव: नाम-सिमरन की बरकति से नीची जाति वाले लोग भी संसार-समुंदर से पार लांघ जाते हैं।

माटी को पुतरा कैसे नचतु है ॥ देखै देखै सुनै बोलै दउरिओ फिरतु है ॥१॥ रहाउ ॥ जब कछु पावै तब गरबु करतु है ॥ माइआ गई तब रोवनु लगतु है ॥१॥ मन बच क्रम रस कसहि लुभाना ॥ बिनसि गइआ जाइ कहूं समाना ॥२॥ कहि रविदास बाजी जगु भाई ॥ बाजीगर सउ मुोहि प्रीति बनि आई ॥३॥६॥ {पन्ना 487}

पद्अर्थ: को = का। पुतरा = पुतला। कैसे = कैसे, आश्चर्यजनक रूप से, हास्यास्पद रूप से।1। रहाउ।

कछु = कुछ माया। पावै = हासिल करता है। गरबु = अहंकार। गई = गायब हो जाने पर। रोवनु लगतु = रोने लगता है, दुखी होता है।1।

बच = बचन, बातें। क्रम = करम, करतूत। रस कसहि = रसों कसों में, स्वादों में, चस्कों में। लुभाना = मस्त। बिनसि गइआ = जब ये पुतला नाश हो गया। जाइ = जीव यहाँ से जा के। कहूँ = (प्रभॅ चरणों के अलावा) किसी और जगह।2।

कहि = कहे, कहता है। भाई = हे भाई! सउ = से, साथ। मुोहि = मुझे (अक्षर ‘म’ में दो मात्राएं हैं– ‘ो’ और ‘ु’। असल शब्द है ‘मोहि’, पर यहाँ पढ़ना है ‘मुहि’)। 3।

अर्थ: (माया के मोह में फस के) ये मिट्टी का पुतला कैसे हास्यापद हो के नाच रहा है (भटक रहा है); (माया को ही) चारों ओर ढूँढता है; (माया की ही बातें) सुनता है (भाव, माया की ही बातें सुननी इसे अच्छी लगती हैं), (माया कमाने ही की) बातें करता है, (हर वक्त माया की ही खातिर) दौड़ा फिरता है।1। रहाउ।

जब (इसको) कुछ धन मिल जाता है, तो ये (अहंकार करने लग जाता है), पर अगर गायब हो जाए तो रोता है, दुखी होता है।1।

अपने मन से, बचनों से, करतूतों से, चस्कों में फसा हुआ है, (आखिर मौत आने पर) जब ये शरीर गिर जाता है तो जीव (शरीर में से) जा के (प्रभू चरणों में पहुँचने की जगह) कहीं और ही गलत जगह जा टिकता है।2।

रविदास कहता है–हे भाई! ये जगत एक खेल ही है, मेरी प्रीत तो (जगत की माया की जगह) इस खेल के बनाने वाले से लग गई है (सो, इस मजाकिए नाच से बच गया हूँ)।3।6।

शबद का भाव: माया में फंसा हुआ जीव भटकता है और मजाक बन के रह जाता है, इस जलालत से सिर्फ वही बचता है जो माया के रचनहार परमात्मा से प्यार पाता है।6।

आसा बाणी भगत धंने जी की    ੴ सतिगुर प्रसादि ॥

भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने तनु मनु धनु नही धीरे ॥ लालच बिखु काम लुबध राता मनि बिसरे प्रभ हीरे ॥१॥ रहाउ ॥ बिखु फल मीठ लगे मन बउरे चार बिचार न जानिआ ॥ गुन ते प्रीति बढी अन भांती जनम मरन फिरि तानिआ ॥१॥ जुगति जानि नही रिदै निवासी जलत जाल जम फंध परे ॥ बिखु फल संचि भरे मन ऐसे परम पुरख प्रभ मन बिसरे ॥२॥ गिआन प्रवेसु गुरहि धनु दीआ धिआनु मानु मन एक मए ॥ प्रेम भगति मानी सुखु जानिआ त्रिपति अघाने मुकति भए ॥३॥ जोति समाइ समानी जा कै अछली प्रभु पहिचानिआ ॥ धंनै धनु पाइआ धरणीधरु मिलि जन संत समानिआ ॥४॥१॥ {पन्ना 487}

पद्अर्थ: भ्रमत = भटकते हुए। बिलाने = गुजर गए। नही धीरे = नहीं टिकता। बिखु = जहर। लुबध = लोभी। राता = रंगा हुआ। मनि = मन में से। रहाउ।

चार = सुंदर। ते = से, की ओर से हट के। अन भांती = और और किस्म की।1।

जुगति = जीवन जुगति। निवासी = टिकाई। जलत = (तृष्णा में) जलते। संगि = एकत्र करके।2।

गुरहि = गुरू ने। मनु = यकीन, श्रद्धा। अघाने = तृप्त हो गया।3।

जा कै = जिस मनुष्य में। अछली = ना छले जाने वाला। धंनै = धन्ने ने। मिलि जन = संत जनों को मिल के।4।

अर्थ: (माया के मोह में) भटकते हुए कई जनम गुजर जाते हैं, ये शरीर नाश हो जाता है, मन भटकता रहता है और धन भी टिका नहीं रहता। लोभी जीव जहर-रूपी पदार्थों की लालच में, काम-वासना में, रंगा रहता है, इसके मन में से अमोलक प्रभू बिसर जाता है। रहाउ।

हे कमले मन! ये जहर रूपी फल तुझे मीठे लगते हैं, तुझमें अच्छे विचार नहीं पनपते, गुणों से अलग और ही किस्म की प्रीति तेरे अंदर बढ़ रही है, और तेरे जनम-मरण का ताना तना जा रहा है।1।

हे मन! अगर तूने जीवन की जुगति समझ के यह जुगति अपने अंदर पक्की ना की, तो तृष्णा में जलते हुए (तेरे अस्तित्व) को जमों का जाल, जमों के फाहे बर्बाद कर देंगे। हे मन! तू अब तक विषौ-रूप जहर के फल ही इकट्ठे करके संभालता रहा, और ऐसा संभालता रहा कि तुझे परम-पुरख प्रभू भूल गया।2।

जिस मनुष्य को गुरू ने ज्ञान का प्रवेश-रूप धन दिया, उसकी सुरति प्रभू में जुड़ गई, उसके अंदर श्रद्धा बन गई, उसका मन प्रभू से एक-मेक हो गया; उसे प्रभू का प्यार, प्रभू की भक्ति अच्छी लगी, उसकी सुख से सांझ बन गई, वह माया की ओर से अच्छी तरह तृप्त हो गया, और बंधनों से मुक्त हो गया।3।

जिस मनुष्य के अंदर प्रभू की सर्व-व्यापक ज्योति टिक गई, उसने माया में ना छले जाने वाले प्रभू को पहचान लिया।

मैं धन्ने ने भी उस प्रभू का नाम-रूपी धन कोढूँढ लिया है जो सारी धरती का आसरा है; मैं धन्ना भी संत-जनों को मिल के प्रभू में लीन हो गया हूँ।4।1।

नोट: भगत धन्ना जी अपनी जुबानी कहते हैं कि मुझे गुरू ने नाम–धन दिया है, संतों की संगति में मुझे धरणीधर मिला है। पर, स्वार्थी लोगों ने अपना धार्मिक जुल्ला अंजान लोगों के कंधे पर डाले रखने के लिए ये कहानी चला दी कि धन्ने ने एक ब्राहमण से एक ठाकुर ले के उसकी पूजा की, और उस ठाकुर–पूजा से उसे परमात्मा मिला।

इस भुलेखे को दूर करने के लिए और भगत धन्ना जी के शबद की आखिरी तुक को अच्छी तरह सिखों के सामने स्पष्ट करने के लिए गुरू अरजन साहिब जी ने अगला शबद अपनी ओर से उचार के दर्ज किया है।

भगत–बाणी के विरोधी धन्ना जी के आसा राग में दर्ज शबद के बारे में यूँ लिखते हैं:“तीन शबद राग आसा में आए हैं जो इस तरह हैं।

‘पहला शबद ‘भ्रमत फिरत बहु जनम बिलाने, तनमन धन नहीं धीरे’ से आरंभ होता है। दूसरा, जिसमें भगत जी अपने गुरू रामानंद जी के आगे जोदड़ी करते हैं। अंत में गोसाई रामानंद जी से मेल होने पर, ‘धंनै धनु पाइआ धरणीधरु, मिलि जन संत समाइआ’ की खुशी प्रगट करते हैं।

‘गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मन लीना’ वाले शबद का शीर्षक ‘महला ५’ से आरम्भ होता है, जिसमें कई भक्तों का नाम ले के बताया गया है कि अमुक–अमुक नाम जपने के कारण पार लांघ गए। पर, उन भक्तों को जात–पात के ध्रुवों से याद किया है। सारे भक्तों को गिन के आखिर में निर्णय किया गया है, ‘इह बिधि सुनि कै जाटरो, उठि भगती लागा। मिले प्रतखि गुसाईआ धंना वडभागा।4।’ जाटरों के लिए ‘प्रतखि गुसाईआ’ स्वामी रामानंद था। पर ये शबद भगत जी के मुख पर फबता नहीं था। इसी लिए महला ५ लिखा है। भगतों की प्रसिद्धि के लिए बाद में भी उनके नाम पर उनके श्रद्धालु करते रहते थे।

‘भगत धन्ना जी के कई सिद्धांत गुरमति के विरुद्ध हैं।’

इस शबद में धन्ना जी साफ शब्दों में कह रहे हैं कि मुझे गुरू ने नाम–धन दिया है। पर पाठकों की नजरों में भगत जी के बरते गए गुरू पद की कद्र घटाने की खातिर विरोधी सज्जन जान–बूझ के शब्द ‘गुरू रामानंद’, गुसाई रामानंद’ बरत रहा है। वरना, इस शबद का कोई भी सिद्धांत गुरमति विरोधी नहीं है। पता नहीं, इस सज्जन को कौन से ‘कई सिद्धांत गुरमति विरुद्ध’ दिख रहे हैं।

अगले शबद को गुरू अरजन साहिब का शबद मानने से साफ इन्कार किया गया है, चाहे इसका शीर्षक ‘महला ५’ है। दलील बड़ी आश्चर्यपूर्ण दी है कि ‘जाति–पात के ध्रुवों से भक्तों को याद किया गया है। क्या जहाँ कहीं भी गुरू साहिब ने किसी भगत की जाति लिख के वर्णन किया है, हमारा ये विरोधी सज्जन उस शबद को नहीं मानेगा? देखें;

“नीच जाति हरि जपतिआ, उतम पदवी पाइ। पूछहु बिदर दासी सुतै, किसनु उतरिआ घरि जिसु जाइ।1।

... ... ... ... ...

रविदासु चमारु उसतति करे, हरि कीरति निमख इक गाइ। पतित जाति उतमु भइआ, चार वरन पऐ पगि आइ।2।1।8। (सूही महला ४ घरु ६)

नामा छीबा कबीरु जुोलाहा, पूरे गुर ते गति पाई। ब्रहम के बेते सबदु पछाणहि, हउमै जाति गवाई। सुरि नर तिन की बाणी गावहि, कोइ न मेटै भाई।3।5।22। (स्री रागु महला ३ असटपदीआ)

आखिरी तुक ‘मिले प्रतखि गुसाईआ, धंना वडभागा’, लिख के विरोधी सज्जन ने झट–पट साथ ही लिख दिया है ‘जाटरो’ के लिए ‘प्रतखि गुसाईआ’ रामानंद था। सज्जन जी! गुरमत के विरुद्ध मन–घड़ंत कहानियों के लिए तो बेशक मुंह मोड़ें, पर ये दलीलबाजी कोझी और खोटी है। क्या गुरू ग्रंथ साहिब के शबदों में आए शब्द ‘गोसाई’ का अर्थ भी ‘गुसाई रामानंद’ ही करोगे?

हउ गोसाई का पहिलवानड़ा। मै गुर मिलि उच दुमालड़ा। सभ होई छिंझ इकठीआ, दयु बैठा वेखै आपि जीउ।17। (सिरी रागु महला ५ पन्ना 74)

पहले तो ‘महला ५’ शीर्षक होते हुए भी इस शबद को गुरू अरजन देव जी का शबद मानने से इन्कार किया है, फिर इसको भगत धन्ना जी का भी नहीं माना और कह दिया कि ‘ये शबद भगत जी के मुख पर फबता नहीं था। इसी लिए ‘महला ५’ लिख दिया है। भक्तों की प्रसिद्धि के लिए बाद में भी उनके नामों पर उनके श्रद्धालु रचना करते रहते थे।

यहाँ ये विरोधी सज्जन कहानी साजों की कहानी का ही आसरा ले के कह रहा है कि भगत तो कहाँ रहे, आम लोगों की रचना भी किसी ढंग से श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज कर ली गई थी।

पाठक सज्जन अगले शबद के अर्थ और उसकी व्याख्या ध्यान से पढ़ें;

महला ५ ॥ गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि नामदेउ मनु लीणा ॥ आढ दाम को छीपरो होइओ लाखीणा ॥१॥ रहाउ ॥ बुनना तनना तिआगि कै प्रीति चरन कबीरा ॥ नीच कुला जोलाहरा भइओ गुनीय गहीरा ॥१॥ रविदासु ढुवंता ढोर नीति तिनि तिआगी माइआ ॥ परगटु होआ साधसंगि हरि दरसनु पाइआ ॥२॥ सैनु नाई बुतकारीआ ओहु घरि घरि सुनिआ ॥ हिरदे वसिआ पारब्रहमु भगता महि गनिआ ॥३॥ इह बिधि सुनि कै जाटरो उठि भगती लागा ॥ मिले प्रतखि गुसाईआ धंना वडभागा ॥४॥२॥ {पन्ना 487}

पद्अर्थ: गोबिंद गोबिंद गोबिंद संगि = हर समय गोबिंद के साथ, बार बार गोबिंद के साथ। लीणा = लीन हुआ, जुड़ा। आढ = आधी। दाम = कौडी। को = का। छीपरो = गरीब छींबा, धोबी। रहाउ।

जोलाहरा = गरीब जुलाहा। गहीरा = गंभीर, गहरा (समुंद्रवत्)। गुनीय गहीरा = गुणों का समुंद्र।1।

तिनि् = उस ने। (अक्षर ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है)। साध संगि = सत्संग में।2।

बुतकारीआ = बुक्तियां कढ़ने वाला, दूर नजदीक के छोटे-मोटे काम करने वाला। घरि घरि = घर घर में, हरेक घर में। सुनिआ = सुना गया, शोभा हुई।3।

इह बिधि = इस तरह (की बात)। जाटरो = गरीब जाट। प्रतखि = साक्षात तौर पर।4।

अर्थ: (भगत) नामदेव जी का मन सदा परमात्मा के साथ जुड़ा रहता था (उस हर वक्त की याद की बरकति से) आधी कौड़ी का गरीब छींबा (धोबी), मानो, लखपति बन गया (क्योंकि उसे किसी की मुथाजी ना रही)।1। रहाउ।

(कपड़ा) उनने (ताना) तानने (की लगन) छोड़ के कबीर ने प्रभू-चरणों से लगन लगा ली; नीच जाति का गरीब जुलाहा था, गुणों का समुंद्र बन गया।1।

रविदास (पहले) नित्य मरे हुए पशु ढोता था, (पर जब से) उसने माया (का मोह) त्याग दिया, साध-संगति में रहके प्रसिद्ध हो गया, उसको परमात्मा के दर्शन हो गए।2।

सैण (जाति का) नाई लोगों के अंदर-बाहर के छोटे-मोटे काम करता था, उसकी घर-घर शोभा हो चली, उसके हृदय में परमात्मा बस गया और वह भक्तों में गिना जाने लगा।3।

इस तरह (की बात) सुन के गरीब धन्ना जट भी उठके भक्ति करने लगा, उसको पामात्मा के साक्षात दीदार हुए और वह अति भाग्यशाली बन गया।4।2।

नोट: इस शबद से पहले के शबद का शीर्षक ‘आसा बाणी भगत धंने की’। इस शीर्षक तले 3 शबद है; पर इस दूसरे शबद का एक और शीर्षक है ‘महला ५’। इस का भाव ये है कि इन तीनों शबदों में ये दूसरा शबद गुरू अरजन साहिब का अपना उचारा हुआ है। इसमें उन्होंने शब्द ‘नानक’ आखिर में नहीं बरता। भगतों के शबद शलोकों के संबंध में उचारे हुए और भी ऐसे वचन मिलते हैं जिनमें गुरू जी ने ‘नानक’ शब्द का इस्तेमाल नहीं किया।

(देखें शलोक फरीद जी नं: 75, 82, 83, 105, 108, 109, 110, 111)

शीर्षक ‘महला ५’ इस विचार के बारे में किसी भी शक की गुंजायश नहीं रहने देता कि इस शबद के उचारने वाले गुरू अरजन साहिब जी हैं। आसा राग में गुरू अरजन साहिब के अपने सिर्फ शबद ही 163 है। (देखें 1430सफे वाली बीड़ पन्ना 300 से 411)

फिर ये शबद धन्ने भगत के शबदों में क्यों दर्ज किया गया? शबद के आखिर लाइन में ‘नानक’ की जगह ‘धंना’ क्यों बरता गया? इसका उक्तर स्पष्ट है: फरीद जी के शलोकों में गुरू अरजन साहिब ने कुछ शलोक ‘फरीद’ जी के नाम पर उचारे हैं, उनकी पहचान सिर्फ यही है कि उनके ऊपर शीर्षक ‘महला ५’ लिखा है; वे शलोक फरीद जी के उचारे शलोकों के साथ संबंध रखते हैं। इसी तरह गुरू अरजन देव जी का उच्चारा ये शबद धन्ने भगत जी के साथ संबंध रखता है।

वह कौन सा संबंध है? ये ढूँढने के लिए शबद के चौथे बंद की पहिली तुक ध्यान से पढ़ें: ‘इह बिधि सुनि कै जाटरो उठि भगती लागा’। क्या सुन के? इस प्रश्न का उक्तर पाठको हरेक बंद पढ़ने पर मिलता जाएगा। सो हरेक बंद पढ़ के ‘इह बिधि’ वाली तुक से जोड़ें। धंने ने नामदेव की शोभा सुनी, कबीर का हाल सुना; ये सुन केउसे भी चाव पैदा हुआ भक्ति करने का। इस शबद को जान–बूझ के धन्ने भगत की बाणी में दर्ज करने से स्पष्ट होता है कि उस समय धन्ना जी की भगती में लगन बारे अंजान लोगों में स्वार्थी मूर्ति–पूजक पण्डित लोगों ने मन–घड़ंत कहानियां उड़ाई हुई थीं; उन कहानियों की जोरदार तरदीद इस शबद में की गई है; लिखा है कि धन्ने की प्रभू–भक्ति में लगन लगने के असल कारण थे नामदेव, कबीर, रविदास और सैण की सुनी हुई शोभा।

अगर हमने गुरू ग्रंथ साहिब की बाणी में से सही राह तलाशना है, तो लोगों की लिखीं कहानियों को मिला के शबद के अर्थ करने की बजाय सीधे शबद का ही आसरा लें; वरना, गलती होने की पूरी संभावना बनी रहती है।

अगर धंने भगत ने पत्थर पूज के ईश्वर को पाया होता, तो इसका भाव ये निकलता कि पत्थर पूज के ईश्वर को मिलने वाले की बाणी दर्ज करके गुरू अरजन साहिब इस असूल को प्रवान कर बैठे हैं कि पत्थर पूजने से भी ईश्वर मिल सकता है; पर उनका अपना हुकम ऐसे है;

‘जिस पाहन कउ ठाकुरु कहता। उहु पाहनु लै उस कउ डुबता।2।
गुनहगारु लूण हरामी। पाहन नाव न पारगरामी।3। (सूही महला ५)

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh