श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 486 आसा ॥ पारब्रहमु जि चीन्हसी आसा ते न भावसी ॥ रामा भगतह चेतीअले अचिंत मनु राखसी ॥१॥ कैसे मन तरहिगा रे संसारु सागरु बिखै को बना ॥ झूठी माइआ देखि कै भूला रे मना ॥१॥ रहाउ ॥ छीपे के घरि जनमु दैला गुर उपदेसु भैला ॥ संतह कै परसादि नामा हरि भेटुला ॥२॥५॥ {पन्ना 486} पद्अर्थ: जि = जो मनुष्य। चीन्सी = पहचानते हैं, जान पहचान डालते है। न भावसी = अच्छी नहीं लगती। भगतह = (जिन) भक्तों ने। अचिंत = चिंता रहित।1। बिखै को बना = विषौ विकारों का पानी (बन = पानीं)।1। रहाउ। दैला = दिया (प्रभू ने)। भैला = मिल गया। परसादि = कृपा से। भेटुला = मिल गया।2। अर्थ: हे (मेरे) मन! संसार-समुंद्र से कैसे पार उतरेगा? इस (संसार समुंद्र) में विकारों का पानी (भरा पड़ा) है। हे मन! ये नाशवान मायावी पदार्थ देख के तू (परमात्मा की तरफ से) टूट गया है।1। रहाउ। जो मनुष्य परमात्मा के साथ जान-पहिचान बना लेते हैं, जिन संत-जनों ने प्रभू को सिमरा है, उन्हें और-और आशाएं अच्छी नहीं लगती। प्रभू उनके मन को चिंता से बचाए रखता है।1। मुझ नामदेव को (चाहे जैसे भी) धोबी के घर जनम दिया, पर (उसकी मेहर से) मुझे सतिगुरू का उपदेश मिल गया; अब संत जनों की कृपा से मुझे (नामदेव) को ईश्वर मिल गया है।2।5। नोट: स्वार्थी लोगों की घड़ी हुई कहानियों की तरफ जाएं या भगत नामदेव जी के अपने वचनों पर ऐतबार करें? घड़ी कहानी कहती है कि पिता कहीं काम गए, पीछे नामदेव ने ठाकुर को दूध पिला लिया, तो इस तरह नामदेव को रॅब मिल गया। पर, नामदेव जी स्वयं ये कहते हैं कि मुझ नामे को ‘संतह कै परसादि हरि भेटुला’, क्योंकि मुझे ‘गुरू उपदेसु भैला’। हमारी लापारवाही की कोई तो सीमा होनी चाहिए। हमारे शहिनशाह गुरू राम दास जी भी हामी भरते हैं कि ‘हरि जपतिआ उतॅम पदवी पाइ’। कौन कौन? ‘रविदास चमार उसतति करै, हरि कीरति निमख इक गाइ’ और “नामदेइ प्रीत लगी हरि सेती” (सूही महला ४) क्या ये सब कुछ निरा पढ़ने के लिए ही है? क्या इस पर हमने ऐतबार नहीं करना? संभल के विचारो कि जिसके दो–सदियों के बने धार्मिक रसूख और मुफत की रोटी के वसीले पर नामदेव, कबीर, रविदास जैसे शूरवीर मर्दों ने करारी चोट मारी, उसने ये चोट नत्मस्तक हो के नहीं सहनी थी, उसने भी अपना वार करना था और अपना रसूख पुनः कायम करना था। तभी ये सारे भक्त, ठाकुरों के पुजारी और ब्राहमण देवतों के चेले बना दिये गए। भाव: विकारों से बचने के लिए सिमरन ही एक मात्र तरीका है। ये सिमरन मिलता है गुरू के द्वारा साध-संगति में। आसा बाणी स्री रविदास जीउ की ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ म्रिग मीन भ्रिंग पतंग कुंचर एक दोख बिनास ॥ पंच दोख असाध जा महि ता की केतक आस ॥१॥ माधो अबिदिआ हित कीन ॥ बिबेक दीप मलीन ॥१॥ रहाउ ॥ त्रिगद जोनि अचेत स्मभव पुंन पाप असोच ॥ मानुखा अवतार दुलभ तिही संगति पोच ॥२॥ जीअ जंत जहा जहा लगु करम के बसि जाइ ॥ काल फास अबध लागे कछु न चलै उपाइ ॥३॥ रविदास दास उदास तजु भ्रमु तपन तपु गुर गिआन ॥ भगत जन भै हरन परमानंद करहु निदान ॥४॥१॥ {पन्ना 486} पद्अर्थ: म्रिग = हिरन। मीन = मछली। भ्रिंग = भौरा। पतंग = पतंगा। कुंचर = हाथी। दोख = अैब (हिरन को घंडेहेड़े का नाद सुनने का रस; मछली को जीभ का चस्का; भौरे को फूल सूंघने की चाहत; पतंगे को दीए पे जल मरना, आँखों से देखने का चस्का; हाथी को काम वासना)। असाध = जो वश में ना आ सके। जा महि = जिस (मनुष्य) में।1। माधो = (माधव) हे माया के पति प्रभू! अबिदिआ = अज्ञानता। हित = मोह, प्यार। मलीन = मैला, धुंधला।1। रहाउ। त्रिगध जोनि = उन जूनियों के जीव जो टेढ़े हो के चलते हैं, प्शु आदि। अचंत = गाफल, ईश्वर की ओर से गाफिल, विचार हीन। असोच = सोच रहित, बेपरवाह। संभव = मुमकिन, कुदरती। अवतार = जनम। पोच = नीच। तिही = इस की भी।2। जाइ = जनम ले के, पैदा करके। अबध = अ+बध, जो नाश ना हो सके। उपाइ = उपाय।3। निदान = आखिर। उदास = विकारों से उपराम।4 अर्थ: हे प्रभू जीव अज्ञानता से प्यार कर रहे हैं, इस वास्ते इनके विवेक का दीपक धुंधला हो गया है (भाव, परख-हीन हो रहे हैं, भले बुरे की पहचान नहीं करते)।1। रहाउ। हिरन, मछली, भौरा, पतंगा, हाथी- एक एक ऐब के कारण इनका नाश हो जाता है, पर इस मनुष्य में ये पाँचों असाध रोग हैं, इसे बचने की कब तक उम्मीद की जा सकती है?।1। पशु आदि टेढ़े चलने वालों की जूनों के जीव विचार-हीन हैं, उनका पाप-पुंन की ओर से बेपरवाह रहना कुदरती है; पर मनुष्य को ये जनम मुश्किल से मिला है, इसकी संगति भी नीच विकारों के साथ ही है (इसे तो सोचना चाहिए था)।2। किए कर्मों के अधीन जनम ले के जीव जहाँ-जहाँ भी हैं, सारे जीव-जंतुओं को काल की (आत्मिक मौत की) ऐसी फाही पड़ी हुई है जो काटी नहीं जा सकती, इनकी कुछ पेश नहीं चलती।3। हे रविदास! हे प्रभू के दास रविदास! तू तो विकारों के मोह में से निकल; ये भटकना छोड़ दे, सतिगुरू का ज्ञान कमा, यही तपों का तप है। भक्त जनों के भय दूर करने वाले हे प्रभू! आखिर मुझ रविदास को भी (अपने प्यार का) परम-आनंद बख्शो (मैं तेरी शरण आया हूँ)।4।1। भाव: विकार तो एक ही इतना खतरनाक है, मनुष्य को तो पाँचों ही चिपके हुए हैं। अपने उद्यम से मनुष्य अपनी समझ का दीपक साफ नहीं रख सकता। प्रभू की शरण पड़ कर ही विकारों से बच सकता है आसा ॥ संत तुझी तनु संगति प्रान ॥ सतिगुर गिआन जानै संत देवा देव ॥१॥ संत ची संगति संत कथा रसु ॥ संत प्रेम माझै दीजै देवा देव ॥१॥ रहाउ ॥ संत आचरण संत चो मारगु संत च ओल्हग ओल्हगणी ॥२॥ अउर इक मागउ भगति चिंतामणि ॥ जणी लखावहु असंत पापी सणि ॥३॥ रविदासु भणै जो जाणै सो जाणु ॥ संत अनंतहि अंतरु नाही ॥४॥२॥ {पन्ना 486} पद्अर्थ: तुझी = तेरा ही। तनु = शरीर, स्वरूप। प्रान = जिंद जीन। जानै = पहचान लेता है। देवादेव = हे देवताओं के देवते!।1। ची = की। रसु = आनंद। माझै = मुझे। दीजै = देह।1। रहाउ। आचरण = करणी, करतब। चो = का। मारगु = रास्ता। च = के। ओल्ह ओल्हगणी = दासों की सेवा। ओल्ग = दास। ओल्गणी = सेवा। भणै = कहता है। जाणु = सियाना। अंतरु = दूरी।4। अर्थ: हे देवताओं के देवते प्रभू! मुझे संतों की संगति बख्श, मेहर कर, मैं संतों की प्रभू-कथा का रस ले सकूँ; मुझे संतों का (भाव, संतों से) प्रेम (करने की दाति) दे।1। रहाउ। हे देवों के देव प्रभू! सतिगुरू की मति ले के संतों (की उपमा) को (मनुष्य) समझ लेता है कि संत तेरा ही रूप हैं, संतों की संगति तेरी जिंद-जान है।1। हे प्रभू! मुझे संतों वाली करणी, संतों का रास्ता, संतों के दासों की सेवा बख्श।2। मैं तुझसे एक और (दाति भी) मांगता हूँ, मुझे अपनी भक्ति दे, जो मन-चिंदे फल देने वाली मणि है; मुझे विकारियों और पापियों के दर्शन ना कराना।3। रविदास कहता है–असल में समझदार वह मनुष्य है जो यह जानता है कि संतों और बेअंत प्रभू में कोई अंतर नहीं है।4।2। भाव: प्रभू दर से अरदास- हे प्रभू! साध-संगत का मिलाप बख्शो।1। आसा ॥ तुम चंदन हम इरंड बापुरे संगि तुमारे बासा ॥ नीच रूख ते ऊच भए है गंध सुगंध निवासा ॥१॥ माधउ सतसंगति सरनि तुम्हारी ॥ हम अउगन तुम्ह उपकारी ॥१॥ रहाउ ॥ तुम मखतूल सुपेद सपीअल हम बपुरे जस कीरा ॥ सतसंगति मिलि रहीऐ माधउ जैसे मधुप मखीरा ॥२॥ जाती ओछा पाती ओछा ओछा जनमु हमारा ॥ राजा राम की सेव न कीनी कहि रविदास चमारा ॥३॥३॥ {पन्ना 486} पद्अर्थ: बापुरे = बिचारे, निमाणे। संगि तुमारे = तेरे साथ। बासा = वास। रूख = पौधा। सुगंध = सुगंधि। निवासा = वश पड़ी है।1। माधउ = (सं: माधव माया लक्ष्म्याधव:)। मा = माया, लक्षमी। धव = पति। लक्ष्मी का पति, कृष्ण जी का नाम, हे माधो! हे प्रभू! अउगन = अवगुण, बुरे कर्मों वाला। उपकारी = भलाई करने वाला, मेहर करने वाला।1। रहाउ। मखतूल = रेशम। सुपेद = सफेद। सपीअल = पीला। जस = जैसे। कीरा = कीड़े। मिलि = मिल के। रहीअै = टिके रहें, टिके रहने का चाहत है। मधुप = शहिद की मक्खी। मखीरा = शहद का छत्ता।2। ओछा = नीच, हलका। पाती = पात, कुल। राजा = मालिक, खसम। कीनी = (शब्द ‘न’ के नीचे आधा ‘ह’ है) कीन्ही, मैंने की। कहि = कहे, कहता है।3। अर्थ: हे माधो! मैंने तेरी साध-संगति की ओट पकड़ी है (मुझे यहाँ से विछुड़ने ना देना), मैं बुरे कामों वाला हूँ (तेरा सत्संग छोड़ के दुबारा बुरी तरफ चल पड़ता हूँ, पर) तू मेहर करने वाला है (और फिर जोड़ लेता है)।1। रहाउ। हे माधो! तू चंदन का पौधा है, मैं निमाणा सा हरिण्ड हूँ (पर तेरी मेहर से) मुझे तेरे (चरणों) में रहने के लिए जगह मिल गई है, तेरी सुंदर मीठी वासना मेरे अंदर बस गई है, अब मैं नीचे पौधे से ऊँचा बन गया हूँ।1। हे माधो! तू सफेद पीला (सुंदर सा) रेशम है, मैं निमाणा (उस) कीड़े की तरह हूँ (जो रेशम को छोड़ के बाहर निकल जाता है और मर जाता है), माधो! (मेहर कर) मैं तेरी साध-संगति में जुड़ा रहूँ, जैसे शहिद की मक्खियां शहद के छत्ते में (टिकी रहती हैं)।2। रविदास चमार कहता है– (लोगों की नजरों में) मेरी जाति नीच, मेरा कुल नीच, मेरा जनम नीच (पर, हे माधव! मेरी जाति, जनम और कुल सचमुच नीच ही रह जाएंगे) अगर मैंने, हे मेरे मालिक प्रभू ! तेरी भक्ति ना की।3।3। नोट: इस शबद में इस्तेमाल हुए शब्द ‘राजा राम’ से ये अंदाजा लगाना गलत है कि रविदास जी श्री राम अवतार के पुजारी थे। जिस सर्व–व्यापक मालिक को वे आखीरी तुक में ‘राजा राम’ कहते हैं उसे ही वे ‘रहाउ’ की तुक में ‘माधव’ कहते हैं। अगर अवतार–पूजा की तंग–दिली की तरफ जाएं तो ‘माधव’ कृष्ण जी का नाम है। श्री राम चंद्र जी का पुजारी अपने पूज्य अवतार को श्री कृष्ण जी के किसी नाम के साथ नहीं बुला सकता। रविदास जी की नजरों में ‘राम’ और ‘माधव’ उस प्रभू के ही नाम हैं, जो माया में व्यापक (‘राम’) है और माया का पति (माधव’) है। भाव: प्रभू-दर पे अरदास- हे प्रभू! साध-संगति की शरण में रख। आसा ॥ कहा भइओ जउ तनु भइओ छिनु छिनु ॥ प्रेमु जाइ तउ डरपै तेरो जनु ॥१॥ तुझहि चरन अरबिंद भवन मनु ॥ पान करत पाइओ पाइओ रामईआ धनु ॥१॥ रहाउ ॥ स्मपति बिपति पटल माइआ धनु ॥ ता महि मगन होत न तेरो जनु ॥२॥ प्रेम की जेवरी बाधिओ तेरो जन ॥ कहि रविदास छूटिबो कवन गुन ॥३॥४॥ {पन्ना 486-487} पद्अर्थ: कहा भइओ = क्या हुआ? कोई परवाह नहीं। जउ = अगर। तनु = शरीर। छिनु छिनु = पल पल, टुकड़े टुकड़े । तउ = तब, तब ही। डरपै = डरता है। जनु = दास।1। तुझहि = तेरे। अरबिंद = (सं: अर्विन्द) कमल का फूल। चरन अरबिंद = चरण कमल, कमल फूल जैसे सुंदर चरण। भवन = ठिकाना। पान करत = पीते हुए। पाइओ पाइओ = मैं पा लिया मैंने पा लिया। रामईआ धनु = सुंदर राम का (नाम रूपी) धन।1। रहाउ। संपति = (सं: संपत्ति, prosperity, increase of wealth) धन की बहुलता। बिपति = (सं: विपत्ति = a calamity, misforune) बिपता, मुसीबत। पटल = पर्दे। ता महि = इन में।2। जेवरी = रस्सी (से)। कहि = कहे, कहता है। छूटिबो = छूटने का। कवन गुन = क्या लाभ? क्या जरूरत, मुझे जरूरत नहीं, मेरा जी नहीं करता।3। अर्थ: (हे सुंदर राम!) मेरा मन कमल फूल जैसे सुंदर तेरे चरणों को अपने रहने की जगह बना चुका है; (तेरे चरण-कमलों में नाम-रस) पीते-पीते मैंने पा लिया है मैंने पा लिया है तेरा नाम-धन।1। रहाउ। (ये नाम-धन ढूँढ के अब) अगर मेरा शरीर नाश भी हो जाए तो भी मुझे कोई परवाह नहीं। हे राम! तेरा सेवक तभी घबराएगा अगर (इसके मन में से तेरे चरणों का) प्यार दूर होगा।1। सुख, बिपता, धन- ये माया के पर्दे हैं (जो मनुष्य की बुद्धि पर पड़े रहते हैं); हे प्रभू! तेरा सेवक! (माया के) इन पर्दों में (अब) नहीं फसता।2। रविदास कहता है– हे प्रभू! (मैं) तेरा दास तेरे प्यार की रस्सी से बंधा हुआ हूँ। इसमें से निकलने को मेरा जी नहीं करता।3।4। शबद का भाव: जिस मनुष्य को प्रभू चरणों का प्यार प्राप्त हो जाय, उसको दुनिया के हर्ष-सोग नहीं सताते।4। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |