श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 485 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ आसा बाणी स्री नामदेउ जी की एक अनेक बिआपक पूरक जत देखउ तत सोई ॥ माइआ चित्र बचित्र बिमोहित बिरला बूझै कोई ॥१॥ सभु गोबिंदु है सभु गोबिंदु है गोबिंद बिनु नही कोई ॥ सूतु एकु मणि सत सहंस जैसे ओति पोति प्रभु सोई ॥१॥ रहाउ ॥ जल तरंग अरु फेन बुदबुदा जल ते भिंन न होई ॥ इहु परपंचु पारब्रहम की लीला बिचरत आन न होई ॥२॥ मिथिआ भरमु अरु सुपन मनोरथ सति पदारथु जानिआ ॥ सुक्रित मनसा गुर उपदेसी जागत ही मनु मानिआ ॥३॥ कहत नामदेउ हरि की रचना देखहु रिदै बीचारी ॥ घट घट अंतरि सरब निरंतरि केवल एक मुरारी ॥४॥१॥ {पन्ना 485} पद्अर्थ: पूरक = भरपूर। जत = जिधर। देखउ = मैं देखता हूँ। तत = उधर। सोई = वह प्रभू ही। चित्र = मूर्तियां, तस्वीरें। बचित्र = रंग विरंगी। बिमोहित = अच्छी तरह मोहे जाते हैं।1। सभु = हर जगह। सूतु = धागा। मणि = मणके। सत = शत, सैकड़े । सहंस = हजारों। ओति पोति = (संस्कृत: ओत प्रोत, उना हुआ, परोया हुआ) उने हुए में परोए हुए में, ताने पेटे में।1। रहाउ। तरंग = लहरें। फेन = झाग। बुदबुदा = बुलबुला। भिंन = अलग। परपंचु = (सं: प्रपंच) ये दिखाई देता तमाशा रूपी संसार। लीला = खेल। बिचरत = विचार करने से। आन = अलग, बेगाना।2। मिथिआ = झूठा। भरमु = वहिम, गलत ख्याल। मनोरथ = वह चीजें जिन की खातिर मन दौड़ता फिरता है। सति = सदा कायम रहने वाले। सुक्रित = नेकी। मनसा = समझ। मानिआ = पतीज गया, तसल्ली हो गई।3। रचना = सृष्टि। बीचारी = विचार के। अंतरि = अंदर। निरंतरि = एक रस सब में।4। अर्थ: एक परमात्मा अनेक रूप धार के हर जगह मौजूद है; मैं जिधर देखता हूँ, वह परमात्मा ही मौजूद है। पर (इस भेद को) कोई विरला आदमी ही समझता है, क्योंकि जीव आम तौर पर माया के रंग-बिरंगे रूपों में अच्छी तरह मोहे हुए हैं।1। हर जगह परमात्मा है, हर जगह परमात्मा है, परमात्मा से वंचित (बची हुई) कोई जगह नहीं। जैसे एक धागा हो और (उसमें) सैकड़ों-हजारों मनके (परोए हुए हों) (इसी तरह सब जीवों में परमात्मा की ही जीवन-सत्ता मिली हुई है, जैसे) ताने पेटे में (धागे मिले हुए हैं, वैसे) वही परमात्मा (सब में मिला हुआ) है।1। रहाउ। पानी की लहरें, झाग और बुलबुले- ये सारे पानी से अलग नहीं होते, वैसे ही ये दिखाई देता तमाशा-रूपी संसार परमात्मा की रची हुई खेल है, ध्यान से सोचने पर (ये समझ आ जाती है कि ये उससे) अलग नहीं है।2। (ये परपंच देख के जीवों को) गलत ख्याल बन गया है (कि इस का हमारा साथ पक्का निभने वाला है); ये पदार्थ यूँ ही हैं जैसे सुपने में देखे हुए पदार्थ; पर जीवों ने इन्हें सदा (अपने साथ) टिके रहने वाला ही समझ लिया है। जिस मनुष्य को सतिगुरू भली समझ बख्शता है वह इस वहिम में से जाग पड़ता है और उसके मन को तसल्ली हो जाती है (कि हमारा और इन पदार्थों का साथ सदा के लिए नहीं है)।3। नामदेव कहता है– (हे भाई!) अपने हृदय में विचार के देख लो कि ये परमात्मा की रची हुई खेल है, इसमें हरेक घट के अंदर हर जगह सिर्फ एक परमात्मा ही बसता है।4।1। भाव: परमात्मा अपनी इस रची हुई सृष्टि में हर जगह मौजूद है। गुरू की कृपा से मनुष्य को ये सूझ पड़ती है। नोट: पर भगत–बाणी के विरोधी सज्जनों को इसमें ‘वेदांत मत की झलक’ दिख रही है। हर हाल विरोधता जो करनी हुई। आसा ॥ आनीले कु्मभ भराईले ऊदक ठाकुर कउ इसनानु करउ ॥ बइआलीस लख जी जल महि होते बीठलु भैला काइ करउ ॥१॥ जत्र जाउ तत बीठलु भैला ॥ महा अनंद करे सद केला ॥१॥ रहाउ ॥ आनीले फूल परोईले माला ठाकुर की हउ पूज करउ ॥ पहिले बासु लई है भवरह बीठल भैला काइ करउ ॥२॥ आनीले दूधु रीधाईले खीरं ठाकुर कउ नैवेदु करउ ॥ पहिले दूधु बिटारिओ बछरै बीठलु भैला काइ करउ ॥३॥ ईभै बीठलु ऊभै बीठलु बीठल बिनु संसारु नही ॥ थान थनंतरि नामा प्रणवै पूरि रहिओ तूं सरब मही ॥४॥२॥ {पन्ना 485} पद्अर्थ: आनीले = लाए। कुंभ = घड़ा। भराईले = भराया। ऊदक = पानी। ठाकुर = (सं: ठाकुर = an idol, deity) मूर्ती, बुत। कउ = को। करउ = मैं कराऊँ। जी = जीव। बीठलु = (विष्ठल = one who is at a distance) माया के प्रभाव से परे हरी। भैला = भइला (सं: भु = to live, exist, stay, abide. मराठी बोली ‘भूत काल’ बनाने के लिए क्रिया-धातु के आखिर में ‘ला’ लगाते हैं जैसे ‘आ’ से ‘आइला’, ‘कुप’ से ‘कोपिला’ आदिक; वैसे ही ‘भू’ से ‘भइला’ या ‘भैला’) बसता था, मौजूद था। काइ = किस लिए? क्यूँ?।1। जत्र = जहाँ। जाउ = मैं जाता हूँ। केला = आनंद, चोज तमाशे।1। रहाउ। परोईले = परो ली। हउ = मैं। बासु = सुगंधी, वासना। भवरह = भौरे ने।2। रीधाईले = पका ली। नैवेदु = (सं: नैवेद्य = an offering of eatables presented to a deity or idol) मूर्ति के आगे रखने वाले पदार्थों की भेट। बिटारिओ = झूठा किया। बछरै = बछरे ने।3। ऊभै = ऊपर। ईभै = नीचे। थनंतरि = थान+अंतरि। थान थनंतरि = स्थान स्थान अंतर, हर जगह में। प्रणवै = विनती करता है। मही = धरती। सरब मही = सारी सृष्टि में।4। अर्थ: घड़ा ला के (उस में) पानी भरा के (अगर) मैं मूर्ति को स्नान कराऊँ (तो वह स्नान परवान नहीं, पानी झूठा है, क्योंकि) पानी में बयालिस लाख (जूनियों के) जीव रहते हैं। (पर मेरा) निर्लिप प्रभू तो पहले ही (उन जीवों में) बसता था (और स्नान कर रहा था, तो फिर मूर्ति को) मैं किस लिए स्नान करवाऊँ?।1। मैं जिधर जाता हूँ, उधर ही निर्लिप प्रभू मौजूद है (सब जीवों में व्यापक हो के) बड़े आनंद-चोज-तमाशे कर रहा है।1। रहाउ। फूल ला के और उसकी माला परो के अगर मैं मूर्ति की पूजा करूँ (तो वह फूल झूठे होने के कारण वह पूजा परवान नहीं, क्योंकि उन फूलों की) सुगंधि तो पहले भौरे ने ले ली; (पर मेरा) बीठल तो पहले ही (उस भौरे में) बसता था (और सुगंधि ले रहा था, तो फिर इन फूलों से) मूर्ति की पूजा मैं किस लिए करूँ?।2। दूध ला के खीर पका के अगर मैं यह खाने वाला उत्तम पदार्थ मूर्ति के आगे भेटा रखूँ (तो दूध झूठा होने के कारण भोजन परवान नहीं, क्योंकि दूध दूहने के समय) पहले बछड़े ने दूध झूठा कर दिया था; (पर मेरा) बीठल तो पहले ही (उस बछड़े में) बसता था (और दूध पी रहा था, तो इस मूर्ति के आगे) मैं क्यों नैवेद भेटा करूँ?।3। (जगत में) नीचे ऊपर (हर जगह) बीठल ही बीठल है, बीठल से वंचित जगत रह ही नहीं सकता। नामदेव उस बीठल के आगे विनती करता है– (हे बीठल!) तू सारी सृष्टि में हर जगह पर भरपूर है।4।2। नोट: किसी पहुँचे हुए लिखारी व कवि के ख्याल की गहराई को सही तरह से समझने के लिए ये जरूरी हुआ करता है कि उसके बरते शब्दों के भाव को उसके अपने रचना–भण्डार में से ध्यान से देखा जाय। कई बार उसके अपने इस्तेमाल किए शब्दों के चुनाव में विशेष भेद हुआ करता है, ये बात इतनी हल्की नहीं हुआ करती। इस शबद में देखें शब्द ‘ठाकुर’ और ‘बीठल’ का प्रयोग। जहाँ ‘स्नान पूजा नैवेद’ का वर्णन है, वहाँ शब्द ‘ठाकुर’ बरता है, पर जहाँ सर्व–व्यापकता बताई है वहाँ ‘बीठल’ लिखा है। मूर्ति का वर्णन तीन बार किया है, तीनों ही बार उसे ‘ठाकुर’ ही कहा है और ‘बीठल’ का नाम सर्व–व्यापक परीपूर्ण परमात्मा को दिया है। लोगों की घड़ी हुई कहानियों से हमने ये यकीन नहीं बनाना कि नामदेव जी किसी बीठल–मूर्ति के पुजारी थे; नामदेव जी के बीठल को हमने नामदेव जी की अपनी बाणी में से देखना है कि कैसा है; वह बीठल है ‘थान थनंतरि’। भाव: मूर्ति पूजा का खण्डन; सर्व व्यापक प्रभू की भक्ति का उपदेश। आसा ॥ मनु मेरो गजु जिहबा मेरी काती ॥ मपि मपि काटउ जम की फासी ॥१॥ कहा करउ जाती कह करउ पाती ॥ राम को नामु जपउ दिन राती ॥१॥ रहाउ ॥ रांगनि रांगउ सीवनि सीवउ ॥ राम नाम बिनु घरीअ न जीवउ ॥२॥ भगति करउ हरि के गुन गावउ ॥ आठ पहर अपना खसमु धिआवउ ॥३॥ सुइने की सूई रुपे का धागा ॥ नामे का चितु हरि सउ लागा ॥४॥३॥ {पन्ना 485} पद्अर्थ: गजु = (कपड़ा नापने वाला) गज़। काती = कैंची। मपि मपि = नाप नाप के। काटउ = मैं काट रहा हूँ। फासी = फाही।1। कहा करउ = मैं क्या (परवाह) करता हूँ? मुझे परवाह नहीं। पाती = गोत। जाती = (अपनी नीच) जाति।1। रहाउ। रांगनि = वह बर्तन जिसमें लिलारी कपड़े रंगता है, मट्टी। रांगउ = मैं रंगता हूँ। सीवनि = सिलना, नाम की सिलाई। सीवउ = मैं सिलता हूँ। घरीअ = एक घड़ी भी। न जीवउ = मैं जीअ नहीं सकता।2। करउ = मैं करता हूँ। गावउ = मैं गाता हूँ। धिआवउ = मैं ध्याता हूँ।3। सुइने की सुई = गुरू का शबद-रूपी कीमती सुई। रुपा = चांदी। रुपे का धागा = (गुर शबद की बरकति से) शुद्ध निर्मल हुई बिरती रूपी धागा।4। नोट: भगत रविदास जी को ऊँची जाति वालों ने बोली मारी कि तू है तो चमार ही। तो, भगत जी ने बताया कि अपने कर्मों से सारे जीव चमार ही बने पड़े हें– देखें, ‘चमरटा गाठि न जनई”। भगत कबीर जी को जुलाहा होने का ताना मारा तो कबीर जी ने कहा कि परमात्मा भी जुलाहा ही है। ये कोई ताना मारने वाली बात नहीं है–देखें, ‘कोरी को काहू मरम ना जाना’। इस शबद में नामदेव जी ऊँची जाति का गुमान करने वालों को कह रहे हैं कि तुम्हारे लिए मैं नीच जाति का धोबी हूँ, पर मुझे अब डर खतरा व नामोशी नही रही। अर्थ: मुझे अब किसी (ऊँच-नीच) जाति-गोत की परवाह नहीं रही, क्योंकि मैं दिन-रात परमात्मा का नाम सिमरता हूँ।1। रहाउ। मेरा मन गज़ (बन गया है), मेरी जीभ कैंची (बन गई है), (प्रभू के नाम को मन में बसा के और जीभ से जप के) मैं (अपने मन रूपी गज़ से) नाप-नाप के (जीभ कैंची से) मौत के डर की फाही काटे जा रहा हूँ।1। (इस शरीर) मट्टी (रंगने वाले बर्तन) में मैं (अपने आप को नाम से) रंग रहा हूँ और प्रभू के नाम की सिलाई सी रहा हूँ। परमात्मा के नाम के बिना मैं एक घड़ी भर भी नहीं जी सकता।2। मैं प्रभू की भक्ति कर रहा हूँ, हरी के गुण गा रहा हूँ, आठों पहर अपने पति-प्रभू को याद कर रहा हूँ।3। मुझे (गुरू का शबद) सोने की सुई मिल गई है, (उसकी बरकति से मेरी सुरति शुद्ध-निर्मल हो गई है, ये, जैसे, मेरे पास) चाँदी का धागा है; (इस सुई-धागे से) मुझ नामे (नामदेव) का मन प्रभू के साथ सिला गया है।4।3। भाव: सिमरन की महिमा- नीच जाति वाला भी अगर नाम जपे, तो उसे दुनिया के डर तो कहाँ रहे, मौत का डर भी नहीं रहता। उसकी चित्त-बिरती निर्मल हो जाती है, और वह सदा प्रभू की याद में मस्त रहता है। आसा ॥ सापु कुंच छोडै बिखु नही छाडै ॥ उदक माहि जैसे बगु धिआनु माडै ॥१॥ काहे कउ कीजै धिआनु जपंना ॥ जब ते सुधु नाही मनु अपना ॥१॥ रहाउ ॥ सिंघच भोजनु जो नरु जानै ॥ ऐसे ही ठगदेउ बखानै ॥२॥ नामे के सुआमी लाहि ले झगरा ॥ राम रसाइन पीओ रे दगरा ॥३॥४॥ {पन्ना 485} पद्अर्थ: कुंच = केंचुली, ऊपरी पतली झिल्ली। बिखु = जहिर। उदक = पानी। माहि = में। बगु = बगला। धिआनु माडै = ध्यान जोड़ता है।1। जपंना कीजै = जाप करते हैं। जब ते = जब तक। सुधु = पवित्र। रहाउ। सिंघच = (सिंह+च) शेर का, शेर वाला, निदर्यता वाला। अैसे = ऐसे (लोगों) को। ठग देउ = ठगों का देवता, बड़ा ठॅग। बखानै = (जगत) कहता है।2। नामे के सुआमी = नाम देव के मालिक प्रभू ने; हे नामदेव! तेरे परमात्मा ने। लाहिले = उतार दिया, खत्म कर दिया है। रे = हे भाई! दगरा = पत्थर (मराठी)। रे दगरा = हे पत्थर चित्त!।3। अर्थ: साँप केंचुली उतार देता है पर अंदर से जहिर नही त्यागता; पानी में (खड़े हो के) जैसे बगुला समाधि लगाता है (इस तरह अगर अंदर तृष्णा है तो बाहर से भेख बनाने से आँखें बंद करने से कोई आत्मिक लाभ नहीं है)।1। हे भाई! जब तक (अंदर से) अपना मन पवित्र नहीं है, तब तक समाधि लगाने व जाप करने का क्या लाभ है? । रहाउ। जो मनुष्य जुलम वाली रोजी ही कमानी जानता है, (और बाहर से आँखे बंद करता है, जैसा समाधि लगाए बैठा हो) जगत ऐसे बंदे को बड़ा ठॅग कहता है।2। हे नामदेव! तेरे मालिक प्रभू ने (तेरे अंदर से ये पाखण्ड वाला) झगड़ा खत्म कर दिया है। हे कठोर चित्त मनुष्य! परमात्मा के नाम का अमृत पी (और पाखण्ड छोड़)।3।4। शबद का भाव: उसी मनुष्य की बंदगी सफल हो सकती है, जो रोजी कमाने में भी कोई छल-कपट नहीं करता और किसी का हक नहीं मारता। नोट: यहाँ धार्मिक पाखण्ड की निंदा की गई है। देखें भगत बेणी जी– ‘तनि चंदनु मसतकि पाती’। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |