श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 484 आसा ॥ मेरी बहुरीआ को धनीआ नाउ ॥ ले राखिओ राम जनीआ नाउ ॥१॥ इन्ह मुंडीअन मेरा घरु धुंधरावा ॥ बिटवहि राम रमऊआ लावा ॥१॥ रहाउ ॥ कहतु कबीर सुनहु मेरी माई ॥ इन्ह मुंडीअन मेरी जाति गवाई ॥२॥३॥३३॥ {पन्ना 484} नोट: इस शबद के अर्थ करने के संबंध में कई विद्वान सज्जन यूँ समझते हैं; इस शबद की पहली चार तुकें कबीर जी की माँ के तरफ से हैं, पिछली दो कबीर जी की। उत्तर है–पूर्व में ठाकरों से ब्याही हुई मंदिरों में रहती सि्त्रयों को राम जनियां कहते हैं; ये सि्त्रयां वेश्वा का ही काम करती हैं। साधू तो कबीर जी की पत्नी को ‘राम जनिया’ अर्थात भगतनी कह के बुलाते थे, पर कबीर जी की माँ ‘राम जनियां’ का दूसरा अर्थ समझ के दुखी होती थी। जो तब्दीली घर में आ गई, वह कबीर जी की माता को पसंद नहीं। श्री गुरू गं्रथ साहिब जी की बाणी मुर्दा रूहों को पुनर्जीवित करने के स्मर्थ है। जीवित लोग ही औरों को जिंदा कर सकते हैं और ‘जीवते कउ जीवता मिलै’ के हुकम अनुसार जीवितों बाणी में जीवितों की ही बाणी मिल सकती है। कबीर जी की माँ की उचारी हुई किसी कविता को इन हंस–उड़ानों में कहीं जगह नहीं थी मिल सकती। भला कच्ची बातों का यहाँ क्या काम? सो, इस शबद में कबीर जी के बिना किसी और के बोल नहीं हो सकते। ये बात और भी सोचने वाली है। कबीर जी की पत्नी का नाम ‘लोई’ था। पर यह ‘धनिया’ कौन आ गई? क्या कबीर जी की दो पत्नियां थीं? जब इस धुर से आई बाणी को साखियों के आसरे समझने पर आ टिकेंगे तो फिर कई कहानियां बनने लग पड़ती हैं। सन 1924 की बात है। मैं तब शिरोमणी गुरद्वारा प्रबंधक कमेटी का उप–सचिव था। अमृतसर शहर में बसते एक पुराने गुरसिख प्रचारक के साथ मेरी सांझ बन गई। वे अच्छे विद्वान सज्जन थे। एक दिन मुझे कहने लगे कि कबीर जी ने दो विवाह किए थे, पहिली बद्शकल और कुलक्षणी थी, उसे उन्होंने तलाक दे दिया था। मैं इस विद्वान सज्जन के मुंह की ओर देखने लग पड़ा; उन्होंने फट यह शबद सुनाया; पहिली करूपि कुजाति कुलखनी साहुरै पेईअै बुरी॥ .... लहुरी संगि भई अब मेरै जेठी अउरु धरिओ॥३२॥ इसशबद नं:33 में इस्तेमाल हुए शब्द ‘माई, बिटवहि, बहुरीआ’ को पढ़ के ख्याल बन गया कि कबीर जी का माँ शब्द ‘राम जनियां’ पर गुस्सा हो रही है। पर शब्द ‘माई’ तो गुरू ग्रंथ साहिब के कई शब्दों में आया है और प्यार व बिरह के जज़बातों की टोह देता है। अभी ही शबद न:31 में हमने कबीर जी का अपने वास्ते बरता हुआ शब्द ‘बहुरीआ’ पढ़ आए हैं। ‘हरि मेरो पिरु, हउ हरि की बहुरीआ।’ कबीर जी की इस अपने मुंह से उचारी गई गवाही के होते हुए किसी और कहानी की जरूरत नहीं पड़ती। कबीर जी की माँ के ये बोल उचारे फर्ज करके शब्द ‘बहुरीआ’ का अर्थ ‘बहू’ कहने की भी जरूरत नहीं, क्योंकि उसका नाम लोई था, धनिया नहीं। पद्अर्थ: बहुरीआ = अंजान दुल्हन, मेरी अंजान जिंद-रूप पत्नी। को = का। धनीया = धन वाली, धन से प्यार करने वाली, माया से मोह करने वाली। ले = ले के, अपने असर तले ला के। राम जनीआ = राम की दासी, परमात्मा की भक्तिन।1। इन्: (शब्द ‘न = के नीचे आधा ‘ह’ है)। मुंडीअन = साधूओं ने, सत्संगियों ने। मेरा घरु = वह घर जिसमें मेरी धनीया रहती थी, वह हृदय रूपी घर जिसमें माया के साथ मोह करने वाली जिंद रहती थी। धुंधरावा = धुंध वाला कर दिया है, उजाड़ कर दिया है, मिट्टी में मिला दिया है, नाश कर दिया है। (बिटवहि = मेरे अंजान बेटे को, मेरे अंजान बालक को, मेरे अंजाने मन को)। नोट: ‘बिटवा’ और ‘बेटा’ में फर्क है। ‘बिटवा’ का अर्थ ‘अंजान बेटा’। गुरू नानक साहिब ने भी ‘मन’ को ‘बालक’ कहा है; जैसे; ‘राजा बालकु, नगरी काची, दुसटा नालि पिआरो।’ (बसंत म: १) जाति = नीची जाति। गवाई = खत्म कर दी है।2। अर्थ: मेरी जिंदड़ी-रूपी पत्नी पहले धन की प्यारी कहलवाती थी, (भाव, मेरी जिंद पहले माया से प्यार किया करती थी)। (मेरे सत्संगियों ने इस जिंद को) अपने असर तले ला के इस काम रामदासी रख दिया (भाव, इस जिंद को परमात्मा की दासी कहलवाने योग्य बना दिया)।1। इन सत्संगियों ने मेरा (वह) घर उजाड़ दिया है (जिसमें माया के साथ मोह करने वाली जिंद रहती थी), (क्योंकि अब इन्होंने) मेरे अंजान मन को परमात्मा के सिमरन की चिंगारी लगा दी है।1। रहाउ। कबीर कहता है– हे मेरी माँ! सुन, इन सत्संगियों ने मेरी (नीच) जाति (भी) खत्म कर दी है (अब लोग मुझे शूद्र जान के वह शूद्रों वाला सलूक नहीं करते)।2।3।33। आसा ॥ रहु रहु री बहुरीआ घूंघटु जिनि काढै ॥ अंत की बार लहैगी न आढै ॥१॥ रहाउ ॥ घूंघटु काढि गई तेरी आगै ॥ उन की गैलि तोहि जिनि लागै ॥१॥ घूंघट काढे की इहै बडाई ॥ दिन दस पांच बहू भले आई ॥२॥ घूंघटु तेरो तउ परि साचै ॥ हरि गुन गाइ कूदहि अरु नाचै ॥३॥ कहत कबीर बहू तब जीतै ॥ हरि गुन गावत जनमु बितीतै ॥४॥१॥३४॥ {पन्ना 484} नोट: जैसे पिछले शबद में हमारे कई विद्वान कबीर जी की माँ को अपनी बहू के लिए दुखी बता रहे हें, वैसे ही यहाँ कबीर जी खुद अपनी बहू के घूंघट करने से नाराज होते बताए जा रहे हैं। हम शब्द ‘बहुरीआ’ का अर्थ करने के लिए कबीर जी के ही शबद नं:31 का आसरा लेंगे। पद्अर्थ: रहु = बस कर, ठहर। री बहुरीआ = हे मेरी जिंद रूपी पत्नी! जिनि = शायद, ना। जिनि काढै = शायद निकाले, ना निकाल। घूंघटु = घूंघट, पति प्रभू से पर्दा। अंत की बार = आखिर में, ये जीवन खत्म होने पर। लहैगी न आढै = आधी दमड़ी भी तुझे नहीं मिलनी, तेरा मूल्य आधी दमड़ी भी नहीं पड़ना, तेरा सारा जीवन व्यर्थ चला जाएगा।1। रहाउ। उन की = उनकी । (नोट: शब्द ‘उन’ बताता है कि इससे पहली तुक में किसी एक का वर्णन नहीं है, बहुतों का जिक्र है। इस तुक में से कबीर जी के प़ुत्र की किसी दूसरी पत्नी का ख्याल बनाना बिल्कुल ही गलत है)। गैलि = वादी, आदत। तोहि = तुझे। जिनि लागै = कहीं लग ना जाए। आगै = तुमसे पहले। तेरी = तेरी बुद्धि वाली कई जिंदें। घूंघट काढि = प्रभू से घूंघट कर के, पति प्रभू को विसार विसार के।1। तउ परि = तब ही। कूदहि नाचै = (हे जिंदे) अगर तू कूदे और नाचे, अगर तेरे अंदर उत्साह पैदा हो, यदि तेरे अंदर खिड़ाव पैदा हो।3। बहू = जिंद पत्नी।4। अर्थ: हे मेरी अंजान जिंदे! अब बस कर, प्रभू पति से घूंघट करना छोड़ दे, (अगर सारी उम्र प्रभू से तेरी दूरी ही रही, तो) तेरा सारा जीवन व्यर्थ चला जाएगा (इस जीवन का आखिर आधी दमड़ी भी मूलय नहीं पड़ना)।1। रहाउ। तुझसे पहले (इस जगत में कई जिंद-पत्नियां प्रभू से) घूंघट किए हुए चली गई, (देखना) कहीं उनका वाला स्वभाव तुम्हे भी ना पड़ जाय।1। (प्रभू-पति से) घूंघट करके (और माया से प्रीत जोड़ के, इस जगत में लोगों द्वारा) पाँच-दस दिन के लिए इतनी शोहरत ही मिलती है कि ये जिंद-पत्नी अच्छी आई (भाव, लोग इतना ही कहते हैं कि फलाणा बंदा बढ़िया कमाऊ पैदा हुआ, बस! मर गया तो बात भूल गई)।2। (पर, हे जिंदे! ये तो था झूठा घूंघट जो तूने प्रभू-पति से निकाले रखा, और चार दिन जगत में माया कमाने की शोहरत कमाई), तेरा सच्चा घूंघट तभी हो सकता है अगर (माया के मोह से मुंह छुपा के) प्रभू के गुण गाए, प्रभू की सिफत सालाह का उल्लास तेरे अंदर उठे।3। कबीर कहता है–जिंद पत्नी तभी मानस जनम की बाजी जीतती है अगर इसकी सारी उम्र प्रभू की सिफत सालाह करते हुए गुजरे।4।1।34। आसा ॥ करवतु भला न करवट तेरी ॥ लागु गले सुनु बिनती मेरी ॥१॥ हउ वारी मुखु फेरि पिआरे ॥ करवटु दे मो कउ काहे कउ मारे ॥१॥ रहाउ ॥ जउ तनु चीरहि अंगु न मोरउ ॥ पिंडु परै तउ प्रीति न तोरउ ॥२॥ हम तुम बीचु भइओ नही कोई ॥ तुमहि सु कंत नारि हम सोई ॥३॥ कहतु कबीरु सुनहु रे लोई ॥ अब तुमरी परतीति न होई ॥४॥२॥३५॥ {पन्ना 484} नोट: इस शबद का अर्थ करते समय विद्वान सज्जन एक अजीब सी कहानी यूँ लिखते हैं: कबीर जी की घरवाली माई लोई पहले तो इन तब्दीलियों के विरुद्ध अड़ी रही, फिर खिमा मांगती है, पर कबीर जी नाराज ही रहते हैं और कहते हैं कि अब तेरे पर ऐतबार नहीं रहा। लोई के किसी संत की प्रसाद से सेवा ना करने पर कबीर जी रंज करके बैठ गए। लोई ने ये विनती की; पिछली दो तुकें कबीर जी की हैं, बाकी लोई जी की। श्री गुरू ग्रंथ साहिब जी की बाणी सिख के जीवन का स्तम्भ है। ये ऐसे आत्मिक जज़बात हैं, जो हरेक सिख के अंदर उठने जरूरी हैं। यहाँ किसी ऐसी घटित बातों का वर्णन नहीं, जो अब हमारे जीवन में नहीं घटित हो सकतीं अथवा नहीं घटित होनी चाहिए। बाणी में जीवन के वह तरंग और वह नियम दिए हैं, जो, जब तक जगत बना रहेगा इन्सानी जीवन पर फिट बैठते रहेंगे, और अंधकार में चलते जीवों को सही राह बताते रहेंगे। अगर कोई शबद इस वक्त मानस जीवन में ठीक फबता नहीं प्रतीत होता, तो इसका मतलब ये नहीं कि उसका अर्थ करने के लिए कोई बीती कहानी जोड़ के घर पूरा किया जाय। पूर्ण श्रद्धावान सिख के अंदर ये ख्याल उठना कुदरती है कि इस वक्त ये शबद मुझे क्या रौशनी दे रहा है। इस ऊपर दी कहानी में से एक ही बात स्पष्ट होती है कि लोई पर उनके पति कबीर जी नाराज हो गए, माई लोई मनाने के लिए बड़ी मिन्नतें कीं, पर कबीर जी ना माने। घरों में, कहते हैं बर्तन भी खड़क जाते हैं, कोई विरला ही घर होगा जहाँ पति–पत्नी कभी आपस में नाराज ना होते हों। तो, क्या इस शबद ने यही हमारी अगवाई करनी है, कि अगर एक बार पत्नी पर गुस्से हो गए, और वह बिचारी रहे करती मिन्नतें हमने उस पर दुबारा एतबार करना ही नहीं? तो फिर, ऐसे घरों का बसेरा कैसा बन जाएगा? सिख धर्म के इतिहास में अभी तक कहीं भी ये बात लिखी नहीं मिलती कि सतिगुरू जी ने माई लोई को भक्तों की श्रेणी में शामिल कर लिया था। तो फिर, माई लोई की कोई कविता बाणी का दर्जा नहीं रख सकती थी। जिस स्त्री पर उसका अपना ही पति अविश्वास जाहिर कर रहा बताया जाता है, उसके शब्द रॅबी–ज्योति के खजाने श्री गुरू ग्रंथ साहिब में दर्ज नहीं हो सकते। किसी भी शबद को समझने के लिए साखियों का सहारा लेना कई बार गलत रास्ते पर डाल सकता है, जैसे कि इस शबद के बारे में स्पष्ट दिख रहा है। दरअसल, यहाँ कोई भी झगड़ा कबीर जी का माई लोई के साथ नहीं हो रहा। कबीर जी ने शब्द ‘लोई’ और भी कई शबदों में बरता है, पर हर जगह उसको ‘माई लोई’ समझना भारी भूल है। इस शबद में बरता शब्द ‘लोई’ किसी औरत के लिए है या ‘पुलिंग पदार्थ’ के लिए, ये निर्णय शब्द ‘रे’ से हो रहा है। ‘रे’ सदा ही पुलिंग के लिए इस्तेमाल होता है, और ‘री’ स्त्रीलिंग के लिए। जैसे; ‘रे’ पुलिंग के लिए: ‘रे नर गरभ कुंडल जब आछत....।’ ‘काहे रे नर गरबु करतु हहु.....। ‘रे नर काहे पपोरहु देही.....। ‘कहत कबीरु सुनहु रे लोई भरमि न भूलहु कोई। किआ कांसी किआ ऊखरु मगहरु रामु रिदै जउ होई।’ (धनासरी कबीर जी) ‘लंका सा कोटु समंदु सी खाई...। कहत कबीर सुनहु रे लोई। राम नाम बिनु मुकति न होई।5।8। (आसा) ‘री’ स्त्री के लिए: रहु रहु री बहुरीआ घूंघटु जिनि काढै.....।34। (आसा कबीर जी) गाउ गाउ री दुलहनी मंगलचारा.......।2।4। (आसा कबीर जी) अरी बाई गोबिंद नामु मति बीसरै....।2। (गुजरी त्रिलोचन जी) री बाई बेढी देणु ना जाई.......। (सोरठि नामदेव जी) सतिगुरू नानक देव जी ने भी शब्द ‘लोई’ अपनी बाणी में बरता है, और इसका अर्थ है ‘जगत’; जो दीसै सो आपे आपि॥ आपि उपाइ आपे घट थापि॥ आपि अगोचरु धंधै ‘लोई’॥ जोग जुगति जगजीवनु सोई॥१५ लोई–जगत (रामकली महला १ दखॅणी, ओअंकार) पद्अर्थ: करवतु = (संस्कृत: कर्वत्र) आरा। करवट = पीठ।1। हउ वारी = मैं तुझसे सदके। पिआरे = हे प्यारे प्रभू!।1। रहाउ। अंगु = शरीर। न मोरउ = मैं नीछे नहीं हटाउंगा, मैं नहीं मोड़ूंगा। पिंडु परै = अगर मेरा शरीर गिर भी पड़ेगा, अगर शरीर नाश भी हो जाएगा।2। बीचु = दूरी। तुमहि = तू ही। सोई = वही।3। रे लोई = हे लोक! हे जगत! हे दुनिया के मोह!।4। अर्थ: हे प्यारे प्रभू! मैं तुझसे कुर्बान! मेरी ओर देख; मुझे पीठ दे के क्यों मार रहा है? (भाव, अगर तू मेरे पर मेहर की नजर ना करे, तो मैं जी नहीं सकता)।1। रहाउ। दाता! तेरे पीठ देने से मुझे (तेरे मुख मोड़ने से) (शरीर पर) आरा सह लेना बेहतर है (भाव, आरे से शरीर चिरवा लेने में इतनी पीड़ा नहीं होती, जितनी तेरी मेहर की निगाह से वंचित रहने में है); (हे सज्जन प्रभू!) मेरी आरजू सुन और मेरे गले लग (भाव, तेरी याद मेरे गले का हार बनी रहे)।1। हे प्रभू! अगर मेरा शरीर चीर दे तो भी मैं (इसे बचाने की खातिर) पीछे नहीं हटूँगा; इस शरीर के नाश हो जाने पर भी मेरा तेरे से प्यार खत्म नहीं होगा।2। हे प्यारे! मेरे तेरे में कोई दूरी नहीं है, तू वही पति-प्रभू है और मैं जीव-स्त्री तेरी नारी हूँ।3। (ये दूरी डलवाने वाला चंदरा जगत का मोह था, सो) कबीर कहता है– सुन, हे जगत! (हे जगत के मोह!) अब कभी मैं तेरा ऐतबार नहीं करूँगा (हे मोह! अब मैं तेरे जाल में नहीं फसूँगा, तू ही मुझे मेरे पति से विछोड़ता है)।4।2।35। शबद का भाव: जगत का मोह जीव को प्रभू से विछोड़ता है, इससे बचने के लिए सदा प्रभू के दर पे अरदास करनी जरूरी है।35। आसा ॥ कोरी को काहू मरमु न जानां ॥ सभु जगु आनि तनाइओ तानां ॥१॥ रहाउ ॥ जब तुम सुनि ले बेद पुरानां ॥ तब हम इतनकु पसरिओ तानां ॥१॥ धरनि अकास की करगह बनाई ॥ चंदु सूरजु दुइ साथ चलाई ॥२॥ पाई जोरि बात इक कीनी तह तांती मनु मानां ॥ जोलाहे घरु अपना चीन्हां घट ही रामु पछानां ॥३॥ कहतु कबीरु कारगह तोरी ॥ सूतै सूत मिलाए कोरी ॥४॥३॥३६॥ {पन्ना 484} नोट: कबीर जी बनारस के रहने वाले थे, जाति के जुलाहे। ब्राहमण की नजर में वे एक शूद्र थे, जिसे शास्त्र भजन की आज्ञा नहीं देते। फिर, वे लोग तो डूबे हुए हैं मूर्ति–पूजा में, और कबीर जी हरि–सिमरन की मौज में मगन। उन्हें ये बात कैसे भाए? उनके लिए ये कुदरती था कि कबीर जी को ‘जुलाहा जुलाहा’ कह–कह के अपने दिल की भड़ास निकालें। कबीर इनकी इस नफरत की मजाक उड़ाते हैं कि अकेला मैं ही जुलाहा नहीं, परमात्मा भी जुलाहा ही है। देखें रविदास जी के शबद सोरठि राग में–‘चमरटा गाठि न जनई’। पद्अर्थ: कोरी = जुलाहा। को = का। मरमु = भेद। काहू = किसी ने। आनि = ला के, पैदा करके।1। रहाउ। जब = जब तक। सुनि ले = सुन ले। तब = तब तक। पसरिओ = तान लिया।1। धरनि = धरती। करगह = कंघी, कपड़ा बुनने के वक्त जो आगे पीछे करती है, इसे जुलाहा बारी बारी हरेक हाथ में रखता है। साथ = जुलाहे की नालें।2। पाई जोरि = पायदान की जोड़ी, जिनपे दोनों पैर रख के जुलाहा बारी बारी हरेक पैर को दबा के कपड़ा उनता है। बात इक = ये जगत खेल। तह = उस जुलाहे में। तांती मनु = (मैं) जुलाहे का मन। घरु = सरूप। चीना = पहचान लिया है। घट ही = हृदय में ही।3। कारगह = (जगत रूपी) कंघी। तोरी = तोड़ दी, तोड़ देता है। सूतै = सूत्र में।4। अर्थ: (हे पण्डित जी!) जब तक आप वेद-पुरान सुनते रहे, मैंने तब तक थोड़ा सा ताना तान लिया (भाव, तुम वेद-पुराणों के पाठी होने का माण करते हो, पर तुमने इस विद्या को उसी तरह रोजी के लिए बरता है जैसे मैंने ताना तानने और काम को बरतता हूँ, दोनों में कोई फर्क ना पड़ा। पर, फिर विद्वान होने का और ब्राहमण होने का गुमान झूठा ही है)।1। (तुम सभी मुझे ‘जुलाहा-जुलाहा’ कह के छुटिआने का यतन करते हो, पर तुम्हें पता नहीं कि परमात्मा भी जुलाहा ही है) तुममें से किसी ने उस जुलाहा का भेद नहीं पाया, जिसने ये सारा जगत पैदा करके (मानो) ताना तान दिया है।1। रहाउ। (उस प्रभू-जुलाहे ने) धरती और आकाश की कंघी बना दी है, चाँद और सूरज को वह (उस कंघी के साथ) नालां बना के बरत रहा है।2। जुलाहे पायदान की जोड़ी उस जुलाहे-प्रभू ने (जगत की जनम-मरण की) खेल रच दी है, मुझ जुलाहे का मन उस प्रभू-जुलाहे में टिक गया है, जिसने ये खेल रची है। मुझ जुलाहे ने (उस जुलाहे-प्रभू के चरणों में जुड़ के) अपना घर ढूँढ लिया है, और मैंने अपने हृदय में ही उस परमात्मा को बैठा पहचान लिया है।3। कबीर कहता है– जब वह जुलाहा (इस जगत-) कंघी को तोड़ देता है तो सूत्र में सूत्र मिला देता है (भाव, सारे जगत को अपने में मिला लेता है)।4।3।36। आसा ॥ अंतरि मैलु जे तीरथ नावै तिसु बैकुंठ न जानां ॥ लोक पतीणे कछू न होवै नाही रामु अयाना ॥१॥ पूजहु रामु एकु ही देवा ॥ साचा नावणु गुर की सेवा ॥१॥ रहाउ ॥ जल कै मजनि जे गति होवै नित नित मेंडुक नावहि ॥ जैसे मेंडुक तैसे ओइ नर फिरि फिरि जोनी आवहि ॥२॥ मनहु कठोरु मरै बानारसि नरकु न बांचिआ जाई ॥ हरि का संतु मरै हाड़्मबै त सगली सैन तराई ॥३॥ दिनसु न रैनि बेदु नही सासत्र तहा बसै निरंकारा ॥ कहि कबीर नर तिसहि धिआवहु बावरिआ संसारा ॥४॥४॥३७॥ {पन्ना 484} पद्अर्थ: अंतरि = मन में। मैलु = विकारों की मैल। पतीणे = पतीजने से।1। देवा = प्रकाश रूप। नावणु = स्नान।1। रहाउ। मजनि = स्नान से, चुभी से। गति = मुक्ति। नावहि = नहाते हैं।2। कठोरु = कड़ा, कोरा। न बांचिआ जाई = बचा नहीं जा सकता। हाड़ंबै = मगहर की कलराठी धरती में। सैन = सेना, प्रजा, लुकाई।3। रैनि = रात। तहा = उस आत्मिक अवस्था में। बसै = बसता है, जीव को मिलता है। कहि = कहे, कहता है। नर = हे मनुष्य!।4। अर्थ: अगर मन में विकारों की मैल (भी टिकी रहे, और) कोई मनुष्य तीर्थों पर नहाता फिरे, तो इस तरह उसने स्वर्ग में नहीं जा पहुँचना; (तीर्थों पर नहाने से लोग तो कहने लग पड़ेंगे कि ये भगत है, पर) लोगों के पतीजने से कोई लाभ नहीं होता, क्योंकि परमात्मा (जो हरेक के दिल की जानता है) अंजान नहीं है।1। गुरू के बताए मार्ग पर चलना ही असल (तीर्थ) स्नान है। सो, एक परमात्मा देव का भजन करो।1। रहाउ। पानी में डुबकियां लगाने से अगर मुक्ति मिल सकती होती तो मेंडक सदा ही नहाते हैं। जैसे वह मेंढक हैं वैसे वे मनुष्य समझो; (पर, नाम के बिना वो) सदा जूनियों में पड़े रहते हैं।2। अगर मनुष्य काशी में शरीर त्यागे, पर मन में कठोर हो, तो इस तरह उसका नर्क (में जाना) छूट नहीं सकता। (दूसरी तरफ) परमात्मा का भगत मगहर की श्रापित धरती में भी अगर जा मरे, तो वह बल्कि और सारे लोगों को भी पार लंघा लेता है।3। कबीर कहता है– हे मनुष्यो! हे कमले लोगो! उस परमात्मा को ही सिमरो। वह वहाँ बसता है जहाँ दिन और रात नहीं, जहाँ वेद नहीं, जहाँ शास्त्र नहीं (भाव, वह प्रभू उस आत्मिक अवस्था में पहुँच के मिलता है, जो आत्मिक अवस्था किसी खास समय की मुहताज नहीं, किसी खास धर्म-पुस्तक की मुहताज नहीं)।4।4।37। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |