श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 490 रागु गूजरी महला ३ घरु १ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ ध्रिगु इवेहा जीवणा जितु हरि प्रीति न पाइ ॥ जितु कमि हरि वीसरै दूजै लगै जाइ ॥१॥ ऐसा सतिगुरु सेवीऐ मना जितु सेविऐ गोविद प्रीति ऊपजै अवर विसरि सभ जाइ ॥ हरि सेती चितु गहि रहै जरा का भउ न होवई जीवन पदवी पाइ ॥१॥ रहाउ ॥ गोबिंद प्रीति सिउ इकु सहजु उपजिआ वेखु जैसी भगति बनी ॥ आप सेती आपु खाइआ ता मनु निरमलु होआ जोती जोति समई ॥२॥ बिनु भागा ऐसा सतिगुरु न पाईऐ जे लोचै सभु कोइ ॥ कूड़ै की पालि विचहु निकलै ता सदा सुखु होइ ॥३॥ नानक ऐसे सतिगुर की किआ ओहु सेवकु सेवा करे गुर आगै जीउ धरेइ ॥ सतिगुर का भाणा चिति करे सतिगुरु आपे क्रिपा करेइ ॥४॥१॥३॥ {पन्ना 490} पद्अर्थ: ध्रिगु = धिक्कार योग्य। जितु = जिस (जीने) में। जितु कंमि = जिस काम में। दूजै = माया (के मोह) में।1। मना = हे मन! जितु सेविअै = जिसकी सेवा करने से। अवर = और की (प्रीति)। सेती = साथ। गहि रहै = जुड़ा रहे। जरा = बुढ़ापा। पदवी = दर्जा।1। रहाउ। सिउ = साथ। सहजु = आत्मिक अडोलता। जैसी = आश्चर्य सी। सेती = साथ। आप सेती = मन से। आपु = स्वै भाव। जोती = परमात्मा की ज्योति में। जोति = सुरति। समई = समाई, लीन हो गई।2। सभु कोइ = हरेक जीव। कूड़ = झूठ, माया का मोह। पालि = दीवार।3। जीउ = जीवात्मा, स्वै। धरेइ = रख देता है। चिति = चित्त में।4। अर्थ: हे मेरे मन! ऐसे गुरू की शरण पड़ना चाहिए जिसकी शरण पड़ने से परमात्मा से प्यार पैदा हो जाए, और अन्य (माया आदि) का प्यार सारा भूल जाए, (जिसकी शरण पड़ने से) परमात्मा से चित्त सदा जुड़ा रहे, और ऐसे आत्मिक जीवन का दर्जा मिल जाए जिसे कभी बुढ़ापे का डर ना हो सके (जो आत्मिक दर्जा कभी कमजोर ना हो सके)।1। रहाउ। (हे मेरे मन!) ऐसा जीवन धिक्कारयोग्य है जिस जीवन में परमात्मा का प्यार ना बने, (ऐसा भी काम धिक्कार योग्य है) जिस काम में लगने से परमात्मा भूल जाए, और मनुष्य माया के मोह में जा फसे।1। हे भाई! परमात्मा से प्यार डालने पर (मनुष्य के अंदर) एक (आश्चर्य जनक) आत्मिक अडोलता पैदा होती है, हैरान करने वाली भगती (का रंग) बनता है। अंदर-अंदर ही (मनुष्य के अंदर से) स्वैभाव (अहंकार) समाप्त हो जाता है, (जब स्वैभाव खत्म होता है) तब मन पवित्र हो जाता है, तब मनुष्य की सुरति रॅबी नूर में लीन रहती है।2। (पर, हे भाई!) चाहे हरेक मनुष्य चाहता रहे किस्मत के बिना ऐसा गुरू नहीं मिलता (जिसके मिलने से मनुष्य के) अंदर से माया के मोह वाली दीवार दूर हो जाए। (जब यह दीवार निकल जाती है और हरी के साथ मिलाप हो जाता है) तब मनुष्य को सदा के लिए आनंद प्राप्त हो जाता है।3। हे नानक! (जिस सेवक को ऐसा गुरू मिल जाता है) वह सेवक ऐसे गुरू की क्या सेवा करता है? (बस, यही सेवा करता है कि) गुरू के आगे अपनी जीवात्मा भेटा कर देता है (भाव, वह सेवक) गुरू की मर्जी को अपने चित्त में टिका लेता है (गुरू के हुकम में चलता है। पर भाणा अर्थात जो ईश्वर कर रहा है दे रहा है– दुख या सुख, उसे मानना भी कोई आसान खेल नहीं, जिस मनुष्य पर) गुरू स्वयं कृपा करता है (वह मनुष्य गुरू के हुकम को सदा मानता है)।4।1।3। गूजरी महला ३ ॥ हरि की तुम सेवा करहु दूजी सेवा करहु न कोइ जी ॥ हरि की सेवा ते मनहु चिंदिआ फलु पाईऐ दूजी सेवा जनमु बिरथा जाइ जी ॥१॥ हरि मेरी प्रीति रीति है हरि मेरी हरि मेरी कथा कहानी जी ॥ गुर प्रसादि मेरा मनु भीजै एहा सेव बनी जीउ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि मेरा सिम्रिति हरि मेरा सासत्र हरि मेरा बंधपु हरि मेरा भाई ॥ हरि की मै भूख लागै हरि नामि मेरा मनु त्रिपतै हरि मेरा साकु अंति होइ सखाई ॥२॥ हरि बिनु होर रासि कूड़ी है चलदिआ नालि न जाई ॥ हरि मेरा धनु मेरै साथि चालै जहा हउ जाउ तह जाई ॥३॥ सो झूठा जो झूठे लागै झूठे करम कमाई ॥ कहै नानकु हरि का भाणा होआ कहणा कछू न जाई ॥४॥२॥४॥ {पन्ना 490} पद्अर्थ: जी = हे भाई! ते = से, साथ। मनहु चिंदिआ = मन से चितवा हुआ। बिरथा = व्यर्थ।1। रीति = जीवन जुगति। कथा कहानी = मन परचावे की बातें। प्रसादि = कृपा से। भीजै = भीग गए, पसीज जाए। बनी = फबी।1। रहाउ। बंधपु = रिश्तेदार। भाई = भ्राता। नामि = नाम से। त्रिपतै = तृप्त होता है। सखाई = साथी।2। रासि = राशि। कूड़ी = नाशवंत। हउ = मैं। जाउ = जाऊँ, मैं जाता हूँ।3। झूठे = नाशवंत पदार्थों में। लागै = प्यार डालता है। कमाई = कमाता है। भाणा = रजा।4। अर्थ: हे भाई! परमात्मा से प्यार मेरी जीवन-जुगति है। परमात्मा की सिफत सालाह मेरे लिए मनोरंजन है। बस! मुझे यही सेवा-भक्ति अच्छी लगती है कि गुरू की कृपा से मेरा मन परमात्मा की याद में पतीज जाए।1। रहाउ। हे भाई! सिर्फ परमात्मा की सेवा भक्ति करो किसी और (देवी-देवते आदि) की सेवा-पूजा ना करो। परमात्मा की सेवा-भक्ति करने से मन-इच्छित फल पा लेते हैं, किसी और (देवी-देवते आदि) की पूजा से अपनी जिंदगी ही व्यर्थ चली जाती है।1। हे भाई! परमात्मा का नाम ही मेरे वास्ते स्मृतियों की मर्यादा है और शास्त्रों की विचार है, परमात्मा ही मेरा रिश्तेदार है, परमात्मा ही मेरा भाई है। परमात्मा के सिमरन की मुझे भूख लगती है (मेरी आत्मिक जिंदगी की कायमी के लिए मुझे सिमरन की खुराक ही आवश्यक्ता है), परमात्मा के नाम में जुड़ने से मेरा मन (माया की ओर से) तृप्त हो जाता है।1। (हे भाई! दुनिया के धन-पदार्थों का क्या गुमान? परमात्मा के नाम के बिना और सरमाया झूठा है, (जगत से) चलने के वक्त (मनुष्य के) साथ नहीं जाता। (सो) परमात्मा का नाम ही मेरा धन है, ये धन मेरा साथ निभाता है, मैं जहाँ भी जाता हूँ ये धन मेरे साथ जाता है।3। हे भाई! जो मनुष्य साथ ना निभने वाले पदार्थों में प्रीति लगाए रखता है, उसका जीवन ही उन पदार्थों के साथ रच-मिच जाता है, वह नित्य उन नाशवंत पदार्थों की खातिर ही दौड़-भाग करता रहता है। (पर) नानक कहता है– ये परमात्मा की रजा ही है (कि कोई हरि-नाम में मस्त है और कोई झूठे पदार्थों में लिप्त है) इस रज़ा को अच्छा या बुरा नहीं कहा जा सकता।4।2।4। गूजरी महला ३ ॥ जुग माहि नामु दुल्मभु है गुरमुखि पाइआ जाइ ॥ बिनु नावै मुकति न होवई वेखहु को विउपाइ ॥१॥ बलिहारी गुर आपणे सद बलिहारै जाउ ॥ सतिगुर मिलिऐ हरि मनि वसै सहजे रहै समाइ ॥१॥ रहाउ ॥ जां भउ पाए आपणा बैरागु उपजै मनि आइ ॥ बैरागै ते हरि पाईऐ हरि सिउ रहै समाइ ॥२॥ सेइ मुकत जि मनु जिणहि फिरि धातु न लागै आइ ॥ दसवै दुआरि रहत करे त्रिभवण सोझी पाइ ॥३॥ नानक गुर ते गुरु होइआ वेखहु तिस की रजाइ ॥ इहु कारणु करता करे जोती जोति समाइ ॥४॥३॥५॥ {पन्ना 490} पद्अर्थ: जुग माहि = जगत में, जमाने में। दुलंभु = दुर्लभ, बड़ी मुश्किल से मिलने वाला। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ने से। मुकति = विकारों से मुक्ति। होवई = होता है। को = कोई भी पक्ष। विउपाइ = निर्णय करके।1। सद = सदा। मनि = मन में। सहजे = आत्मिक अडोलता में।1। रहाउ। जां = जब। भउ = भय, अदब। बैरागु = माया की तरफ से उपरामता। ते = से। सिउ = साथ।2। सेइ = वह लोग (बहुवचन)। मुकत = विकारोंसे आजाद। जि = जो। जिणहि = जीतते हैं। धातु = माया। लागै = चिपकती है। दुआरि = द्वार में। रहत = रिहाइश। त्रिभवण = तीनों भवनों में व्यापक प्रभू।3। गुर ते = गुरू से। तिस की: शब्द ‘तिसु’ में से ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है। रजाइ = रजा, मर्जी। करता = करतार।4। अर्थ: हे भाई! मैं अपने गुरू से सदा कुर्बान जाता हूँ, सदके जाता हूँ। अगर गुरू मिल जाए तो प्रभू मनुष्य के मन में आ बसता है, और, मनुष्य आत्मिक अडोलता में लीन रहता है।1। रहाउ। हे भाई! जगत में (और पदार्थ तो आसानी से मिल जाते हैं, पर) परमात्मा का नाम बड़ी मुश्किल से मिलता है, ये नाम गुरू की शरण पड़ने से ही मिलता है। और, जब तक हरि नाम ना मिले तब तक विकारों से खलासी नहीं होती, बेशक कोई भी कोई और अपाय करके (निर्णय कर के) देख ले।1। जब परमात्मा (किसी मनुष्य के हृदय में) अपना डर-अदब डालता है उसके मन में माया की ओर से उपरामता पैदा हो जाती है। इस उपरामता की ही बरकति से परमात्मा मिल जाता है, और, मनुष्य परमात्मा (के चरनों) से सुरति जोड़े रखता है।2। हे भाई! जो मनुष्य अपना मन जीत लेते हैं, वे माया के बंधनों से आजाद हो जाते हैं, उन पर दुबारा माया अपना जोर नहीं डाल सकती। जो मनुष्य (इन्द्रियों की पकड़ से ऊपर) चित्त-आकाश में (ऊँचे आत्मिक मण्डल में) अपना निवास बना लेता है, उसे तीन भवनों में व्यापक प्रभू की समझ आ जाती है।3। हे नानक! (कह– हे भाई!) देखो, परमात्मा की आश्चर्य मजÊ! (जो भी मनुष्य गुरू की शरण पड़ता है वह) गुरू की शरण पड़ने से गुरू का रूप बन जाता है। परमात्मा खुद ही ये सबब बनाता है, (गुरू की शरण पड़े मनुष्य की) आत्मा, परमात्मा की ज्योति में लीन हो जाती है।4।3।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |