श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

Page 491

गूजरी महला ३ ॥ राम राम सभु को कहै कहिऐ रामु न होइ ॥ गुर परसादी रामु मनि वसै ता फलु पावै कोइ ॥१॥ अंतरि गोविंद जिसु लागै प्रीति ॥ हरि तिसु कदे न वीसरै हरि हरि करहि सदा मनि चीति ॥१॥ रहाउ ॥ हिरदै जिन्ह कै कपटु वसै बाहरहु संत कहाहि ॥ त्रिसना मूलि न चुकई अंति गए पछुताहि ॥२॥ अनेक तीरथ जे जतन करै ता अंतर की हउमै कदे न जाइ ॥ जिसु नर की दुबिधा न जाइ धरम राइ तिसु देइ सजाइ ॥३॥ करमु होवै सोई जनु पाए गुरमुखि बूझै कोई ॥ नानक विचहु हउमै मारे तां हरि भेटै सोई ॥४॥४॥६॥ {पन्ना 491}

पद्अर्थ: सभु को = हरेक जीव। कहै = (जीभ से) कहता है। न होई = (सफलता) नहीं मिलती। परसादी = कृपा से। मनि = मन में। कोइ = कोई मनुष्य।1।

अंतरि = हृदय में। जिसु अंतरि = जिस मनुष्य के अंदर। तिसु = उस मनुष्य को। करहि = (वह मनुष्य) करते हैं (बुह वचन)। मनि = मन मे। चीति = चित्त में।1। रहाउ।

हिरदै = हृदय में। कपटु = धोखा। कहाहि = कहलवाते हैं। न चुकई = नही खत्म होती। अंति = अंत के समय। गए = जब चल पड़े। पछुताहि = (तब) पछताते हैं।2।

अंतर की = अंदर की (शब्द ‘अंतरि’ और ‘अंतर’ में फर्क याद रखें। देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)।

दुबिधा = दुचित्ता पन, मन का बिखराव। देइ = देता है।3।

करमु = बख्शिश। गुरमुखि = गुरू की शरण पड़ के। भेटै = मिल जाता है।4।

अर्थ: (हे भाई!) जिस मनुष्य के हृदय में परमात्मा के लिए प्यार बनता है, परमात्मा उस मनुष्य को कभी भूलता नहीं। (जिन मनुष्यों के अंदर प्यार बनता है) वह सदा अपने मन में चित्त में परमात्मा को याद करते रहते हैं।1। रहाउ।

(अगर) हरेक मनुष्य (सिर्फ जीभ के साथ ही) परमात्मा का नाम कहता रहे, (तो निरी जीभ से) परमात्मा का नाम कहने से (सफलता) नहीं मिलती। जब किसी मनुष्य के मन में गुरू की कृपा से परमात्मा आ बसे, तब उसे उस सिमरन का फल मिलता है।1।

(हे भाई!) जिन मनुष्यों के हृदय में ठॅगी बसती है, पर बाहरी भेष से (अपने आप को वे) संत कहलवाते हैं उनके अंदर माया की तृष्णा कभी नहीं खत्म होती, आखिर जब वे जगत से चल पड़ते हैं तब हाथ मलते हैं।2।

(हे भाई!) अगर कोई मनुष्य अनेकों तीर्थों पर स्नान का यत्न करता रहे तो भी इन यत्नों से उसके अंदर की अहंकार की मैल नहीं उतरती। और, जिस मनुष्य के मन का बिखराव दूर नहीं होता (वह माया के मोह में भटकता रहता है) उसको धर्मराज सजा देता है।3।

(हे भाई! जिस मनुष्य पर परमात्मा की) बख्शिश हो वही मनुष्य परमात्मा को मिलता है। (पर वैसे) कोई विरला मनुष्य ही गुरू की शरण पड़ के (ये भेद) समझता है। हे नानक! (कह–) जब कोई मनुष्य अपने मन में से अहंकार को मार देता है तब वही मनुष्य परमात्मा को मिलता है।4।4।6।

गूजरी महला ३ ॥ तिसु जन सांति सदा मति निहचल जिस का अभिमानु गवाए ॥ सो जनु निरमलु जि गुरमुखि बूझै हरि चरणी चितु लाए ॥१॥ हरि चेति अचेत मना जो इछहि सो फलु होई ॥ गुर परसादी हरि रसु पावहि पीवत रहहि सदा सुखु होई ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुरु भेटे ता पारसु होवै पारसु होइ त पूज कराए ॥ जो उसु पूजे सो फलु पाए दीखिआ देवै साचु बुझाए ॥२॥ विणु पारसै पूज न होवई विणु मन परचे अवरा समझाए ॥ गुरू सदाए अगिआनी अंधा किसु ओहु मारगि पाए ॥३॥ नानक विणु नदरी किछू न पाईऐ जिसु नदरि करे सो पाए ॥ गुर परसादी दे वडिआई अपणा सबदु वरताए ॥४॥५॥७॥ {पन्ना 491}

पद्अर्थ: निहचल = अडोल। निरमलु = पवित्र। जि = जो। गुरमुखि = गुरू की ओर मुंह करके।1।

जिस का: शब्द ‘जिसु’ की ‘ु’ मात्रा संबंधक ‘का’ के कारण हट गई है।

चेति = याद कर, सिमर। अचेत = हे गाफ़ल! इछहि = तू चाहेगा। पावहि = तू प्राप्त करेगा। पीवत रहहि = (अगर) तू पीता रहेगा।1। रहाउ।

भेटे = मिल जाए। पारसु = लोहे को सोना बना देने वाला पत्थर। पूज = आदर मान। दीखिआ = शिक्षा। साचु = सदा स्थिर रहने वाला परमात्मा।2।

होवई = होगी, होती है। मारगि = (सही) रास्ते पर।3।

नदरी = मेहर की नजर। परसादी = कृपा से। सबदु = सिफत सालाह की बाणी। वरताऐ = बाँटता है, बसाता है।4।

अर्थ: हे (मेरे गाफिल मन!) परमात्मा को याद करता रह, तुझे वही फल मिलेगा जो तू मांगेगा। (गुरू की शरण पड़) गुरू की कृपा से तू परमात्मा के नाम का रस हासिल कर लेगा, और तू उस रस को पीता रहेगा, तो तूझे सदा आनंद मिलता रहेगा।1। रहाउ।

हे भाई! परमात्मा जिस मनुष्य का अहंकार दूर कर देता है, उस मनुष्य को आत्मिक शांति प्राप्त हो जाती है, उसकी बुद्धि (माया-मोह में) डोलने से हट जाती है। जो मनुष्य गुरू की शरण पड़ के (ये भेद) समझ लेता है, और, परमात्मा के चरणों में अपना चित्त जोड़ता है, वह मनुष्य पवित्र जीवन वाला बन जाता है।1।

हे भाई! जब किसी मनुष्य को गुरू मिल जाता है तब वह पारस बन जाता है (वह और मनुष्यों को भी ऊँचे जीवन वाला बनाने के लायक हो जाता है), जब वह पारस बनता है तब लोगों से आदर-मान पाता है। जो भी मनुष्य उसका आदर करता है वह (उच्च आत्मिक जीवन-रूप) फल प्राप्त करता है। (पारस बना हुआ मनुष्य औरों को उच्च जीवन की) शिक्षा देता है।, और, सदा स्थिर रहने वाले प्रभू के सिमरन की बुद्धि देता है।2।

(पर, हे भाई!) पारस बने बिना (दुनिया से) आदर-मान नहीं मिलता, (क्योंकि) अपना मन सिमरन में पतीजे बिना ही वह मनुष्य औरों को (सिमरन की) शिक्षा देता है। जो मनुष्य खुद तो ज्ञान से वंचित है, खुद तो माया के मोह में अंधा हुआ पड़ा है, पर अपने आप को गुरू कहलवाता है वह किसी और को (सही रास्ते पर) नहीं डाल सकता।3।

हे नानक! (किसी के वश की बात नहीं) परमात्मा की मेहर की निगाह के बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता (आत्मिक जीवन की दाति नहीं मिलती)। जिस मनुष्य पर मेहर की नजर करता है वह मनुष्य ये दाति हासिल कर लेता है। गुरू की कृपा की बरकति से परमात्मा (जिस मनुष्य को) वडिआई बख्शता है उसके हृदय में अपनी सिफत सालाह की बाणी बसाता है।4।5।7।

गूजरी महला ३ पंचपदे ॥ ना कासी मति ऊपजै ना कासी मति जाइ ॥ सतिगुर मिलिऐ मति ऊपजै ता इह सोझी पाइ ॥१॥ हरि कथा तूं सुणि रे मन सबदु मंनि वसाइ ॥ इह मति तेरी थिरु रहै तां भरमु विचहु जाइ ॥१॥ रहाउ ॥ हरि चरण रिदै वसाइ तू किलविख होवहि नासु ॥ पंच भू आतमा वसि करहि ता तीरथ करहि निवासु ॥२॥ मनमुखि इहु मनु मुगधु है सोझी किछू न पाइ ॥ हरि का नामु न बुझई अंति गइआ पछुताइ ॥३॥ इहु मनु कासी सभि तीरथ सिम्रिति सतिगुर दीआ बुझाइ ॥ अठसठि तीरथ तिसु संगि रहहि जिन हरि हिरदै रहिआ समाइ ॥४॥ नानक सतिगुर मिलिऐ हुकमु बुझिआ एकु वसिआ मनि आइ ॥ जो तुधु भावै सभु सचु है सचे रहै समाइ ॥५॥६॥८॥ {पन्ना 491}

पद्अर्थ: ऊपजै = पैदा होती है। जाइ = चली जाती है। सतिगुर मिलिअै = अगर गुरू से मिल पड़ें। सोझी = समझ।1।

मंनि = मन में। थिरु = अडोल। भरमु = भटकना।1। रहाउ।

किलविख = पाप। पंचभू = (कामादिक) पाँचों के वश में आए हुए को। वसि = वश में।2।

मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला। मुगधु = मूर्ख। बुझई = बूझे, समझता ।3।

सभि = सारे। सतिगुरि = गुरू ने। अठसठि = (आठ और साठ) अढ़सठ। संगि = साथ। जिन हिरदै = जिनके हृदय में।4।

हुकमु = रजा। ऐकु = एक परमात्मा ही। मनि = मन में। सचु = अटल। सचे = सदा स्थिर हरी में।5।

अर्थ: हे मेरे मन! तू परमात्मा की सिफत सालाह सुना कर। हे भाई! गुरू के शबद को अपने मन में बसाए रख। जब (सिफत सालाह की बरकति से, गुरू के शबद की बरकति से) तेरी यह बुद्धि माया के मोह में डोलने से बची रहेगी, तब तेरे अंदर से भटकना दूर हो जाएगी।1। रहाउ।

हे भाई! ना ही काशी (आदि तीर्थों पर) जाने से सद्-बुद्धि पैदा होती है, ना ही काशी (आदि तीर्थों पर) ना जाने से सद्-बुद्धि दूर हो जाती है गुरू को मिलने से (मनुष्य के अंदर) सबुद्धि पैदा होती है, तब मनुष्य को यह समझ आती है।1।

हे भाई! तू परमात्मा के चरण अपने हृदय में संभाल, तेरे पाप नाश हो जाएंगे। अगर तू (प्रभू-चरणों की बरकति से) कामादिक पाँचों के वश में आए हुए मन को अपने वश में कर ले, तो (समझ ले कि) तू तीर्थों पर ही निवास कर रहा है।2।

हे भाई! अपने मन के पीछे चलने वाले मनुष्य का यह मन (सदा) मूर्ख (ही टिका रहता) है, उसको (उच्च आत्मिक जीवन की) थोड़ी सी भी समझ नहीं पड़ती। वह परमात्मा के नाम (की कद्र) को नहीं समझता, आखिर वह हाथ मलता ही (जगत से) चला जाता है।3।

हे भाई! जिस मनुष्य को सतिगुरू ने (आत्मिक जीवन की) सूझ बख्श दी (उसके वास्ते) यह मन ही काशी है, ये मन ही सारे तीर्थ है, ये मन ही सारी स्मृतियां हैं, उस मनुष्य के साथ अढ़सठ ही तीर्थ बसते हैं।

हे भाई! जिन मनुष्यों के मन में सदा परमात्मा बसा रहता है (उनके वास्ते ये मन ही काशी है)।4।

हे नानक! अगर मनुष्य गुरू को मिल जाए तो वह परमात्मा की रजा को समझ लेता है, तो एक परमात्मा उसके मन में आ बसता है। (वह मनुष्य सदा यूँ यकीन रखता है और कहता है– हे प्रभू!) जो कुछ तुझे ठीक लगता है वह सदा अटल नियम है। (हे भाई! यदि मनुष्य को गुरू मिल जाए तो वह) सदा-स्थिर रहने वाले परमात्मा में लीन रहता है।5।6।8।

नोट: ये शबद और अगला शबद दोनों पाँच–पाँच बंदों वाले हैं।

TOP OF PAGE

Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh