श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल

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गूजरी महला ३ तीजा ॥ एको नामु निधानु पंडित सुणि सिखु सचु सोई ॥ दूजै भाइ जेता पड़हि पड़त गुणत सदा दुखु होई ॥१॥ हरि चरणी तूं लागि रहु गुर सबदि सोझी होई ॥ हरि रसु रसना चाखु तूं तां मनु निरमलु होई ॥१॥ रहाउ ॥ सतिगुर मिलिऐ मनु संतोखीऐ ता फिरि त्रिसना भूख न होइ ॥ नामु निधानु पाइआ पर घरि जाइ न कोइ ॥२॥ कथनी बदनी जे करे मनमुखि बूझ न होइ ॥ गुरमती घटि चानणा हरि नामु पावै सोइ ॥३॥ सुणि सासत्र तूं न बुझही ता फिरहि बारो बार ॥ सो मूरखु जो आपु न पछाणई सचि न धरे पिआरु ॥४॥ सचै जगतु डहकाइआ कहणा कछू न जाइ ॥ नानक जो तिसु भावै सो करे जिउ तिस की रजाइ ॥५॥७॥९॥ {पन्ना 492}

नोट: शीर्षक का अंक ‘3 तीजा’ ध्यान से देखें। ये इशारे मात्र हिदायत है कि ‘महला १,२,३,४’ आदि को पहला, दूजा, तीजा, चौथा आदि पड़ना है। (पन्ना492)

पद्अर्थ: निधानु = खजाना। पंडित = हे पंडित! सिखु = (इस नाम को) समझ। सचु = सदा स्थिर रहने वाला। सोई = वह (परमात्मा) ही। दूजै भाइ = माया के प्यार में। पढ़हि = तू पढ़ता है।1।

सबदि = शबद द्वारा। रसना = जीभ (से)। निरमलु = पवित्र।1। रहाउ।

संतोखीअै = संतोष हासिल करता है। पर घरि = पराए घर में, किसी और आसरे की तलाश में।2।

बदनी = मुंह से (वदन = मुंह)। कथनी बदनी = मुंह से ही की हुई बातें। मनमुखि = अपने मन के पीछे चलने वाला मनुष्य। घटि = हृदय में।3।

सुणि = सुन के। न बुझई = तू नहीं समझता। बारो बार = बारं बार। आपु = अपने आप को। पछाणई = पहचानता। सचि = सदा स्थिर प्रभू में।4।

डहकाइआ = भटकना में डाला। तिसु भावै = उस प्रभू को भाता है।5।

तिस की: शब्द ‘तिसु’ की ‘ु’ की मात्रा संबंधक ‘की’ के कारण हट गई है।

अर्थ: हे पण्डित! गुरू के शबद में जुड़ के तू परमात्मा के चरणों में टिका रह, तो तुझे (सुचॅजे आत्मिक जीवन की) समझ पड़ेगी। हे पंडित! परमात्मा के नाम का रस अपनी जीभ से चखता रह, तो तेरा मन पवित्र हो जाएगा।1। रहाउ।

हे पंडित! एक हरि नाम ही (सारे गुणों का, सारे पदार्थों का) खजाना है, इस हरि नाम को सुना कर, इस हरि नाम को जपने की जाच सीख। हे पंडित! वह हरी ही सदा कायम रहने वाला है। तू माया के प्यार में (फसा रह के) जितना कुछ (जितने भी धार्मिक पुस्तक) पढ़ता है, उनको पढ़ते और विचारते तुझे सदा दुख ही लगा रहता है।1।

हे पण्डित! गुरू को मिल के मन संतोख प्राप्त कर लेता है, फिर मनुष्य को माया की प्यास, माया की भूख नहीं व्यापती। (जिस मनुष्य को गुरू से) परमात्मा का नाम-खजाना मिल जाता है वह (आसरे के वास्ते) किसी और घर में नहीं जाता (वह किसी और देवी-देवते आदि का आसरा नहीं ढूँढता)।2।

पर अगर कोई मनुष्य निरी मुंह की बातें ही करता रहे, और वैसे अपने मन के पीछे ही चलता रहे उसको आत्मिक जीवन की समझ नहीं पड़ती। हे पंडित! गुरू की मति पर चलने से ही हृदय में (सदाचारी जीवन का) प्रकाश पैदा होता है, गुरमति लेने वाला मनुष्य परमात्मा का नाम हासिल कर लेता है।3।

हे पण्डित! शास्त्रों को सुन-सुन के भी तूं (आत्मिक जीवन को) नहीं समझता, तभी तो तू बार-बार भटकता फिरता है। हे पण्डित! जो मनुष्य अपने आत्मिक जीवन को नहीं पड़तालता वह (स्मृतियां-शास्त्र पढ़ के भी) मूर्ख (ही) है। वह मनुष्य सदा कायम रहने वाले परमात्मा में कभी प्यार नहीं डाल सकता।4।

(पर, हे पंडित! परमात्मा की रजा के बारे में) कुछ कहा नहीं जा सकता, उस सदा-स्थिर रहने वाले प्रभू ने खुद ही जगत को माया की भटकना में डाला हुआ है। हे नानक! जो कुछ परमात्मा को अच्छा लगता है वह वही कुछ करता है। जैसे परमात्मा की रजा है (वैसे ही जगत लगा हुआ है)।5।7।9।

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Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh