श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 493 ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ रागु गूजरी महला ४ चउपदे घरु १ ॥ हरि के जन सतिगुर सत पुरखा हउ बिनउ करउ गुर पासि ॥ हम कीरे किरम सतिगुर सरणाई करि दइआ नामु परगासि ॥१॥ मेरे मीत गुरदेव मो कउ राम नामु परगासि ॥ गुरमति नामु मेरा प्रान सखाई हरि कीरति हमरी रहरासि ॥१॥ रहाउ ॥ हरि जन के वडभाग वडेरे जिन हरि हरि सरधा हरि पिआस ॥ हरि हरि नामु मिलै त्रिपतासहि मिलि संगति गुण परगासि ॥२॥ जिन्ह हरि हरि हरि रसु नामु न पाइआ ते भागहीण जम पासि ॥ जो सतिगुर सरणि संगति नही आए ध्रिगु जीवे ध्रिगु जीवासि ॥३॥ जिन हरि जन सतिगुर संगति पाई तिन धुरि मसतकि लिखिआ लिखासि ॥ धंनु धंनु सतसंगति जितु हरि रसु पाइआ मिलि नानक नामु परगासि ॥४॥१॥ {पन्ना 493} पद्अर्थ: हरि के जन = हे हरी के सेवक! सतपुरखा = हे महा पुरख! हउ = मैं। बिनउ = (विनय) बिनती। करउ = मैं करता हूँ। कीरे = कीड़े। किरम = कृमि, छोटे से कीड़े।1। मो कउ = मुझे। प्रान सखाई = प्राणों का साथी। कीरति = सिफत सालाह। रहरासि = राह की पूँजी।1। रहाउ। जिन = जिन को (बहुवचन)। त्रिपतासहि = तृप्त हो जाते हैं (बहुवचन)।2। जम पासि = जम के पास, जम के वश में। ध्रिगु = धिक्कारयोग्य। जीवासि = आगे का जीना।3। धुरि = धुर दरगाह से। मसतकि = माथे पर। लिखासि = लेख। जितु = जिस के द्वारा।4। अर्थ: हे मेरे मित्र सतिगुरू! मुझे परमात्मा का नाम (-रूप) प्रकाश दे। (मेहर कर) गुरमति द्वारा मिला हरि नाम मेरी जीवात्मा का साथी बना रहे, परमात्मा की सिफत सालाह मेरे वास्ते मेरे जीवन राह की पूँजी बनी रहे।1। रहाउ। हे सतिगुरू! हे परमात्मा के भगत! हे महा पुरुख गुरू! मैं तेरे पास विनती करता हूँ। हे सतिगुरु! मैं एक कीड़ा हूँ, छोटा सा कीड़ा हूँ। तेरी शरण आया हूँ। मेहर कर, मुझे परमात्मा के नाम का प्रकाश दे।1। हे भाई! जिन हरी-भक्तों के हृदय में परमात्मा के नाम की श्रद्धा है, नाम जपने की खींच है, वह बड़े भाग्यशाली हैं। जब उन्हें प्रभू का नाम प्राप्त होता है वह (वह माया की तृष्णा से) तृप्त हो जाते हैं। साध-संगति में मिल के उनके अंदर गुण प्रगट हो जाते हैं।2। पर, जिन मनुष्यों ने परमात्मा का नाम-रस हासिल नहीं किया, वे बद-किस्मत हैं, वे आत्मिक मौत के काबू में आए रहते हैं। जो मनुष्य गुरू की शरण नहीं आते, साध-संगति में नहीं आते, उन का अब तक जीवन और आगे का जीवन धिक्कारयोग्य है।3। हे भाई! जिन हरी-भक्तों ने गुरू की संगति प्राप्त कर ली, उनके माथे पर धुर दरगाह से लिखे लेख उघड़ पड़े। हे नानक! (कह–) साध-संगति धन्य है जिसके द्वारा मनुष्य परमात्मा का नाम-रस हासिल करता है, जिसमें मिलने से मनुष्य के अंदर परमात्मा का नाम रौशन हो जाता है।4।1। गूजरी महला ४ ॥ गोविंदु गोविंदु प्रीतमु मनि प्रीतमु मिलि सतसंगति सबदि मनु मोहै ॥ जपि गोविंदु गोविंदु धिआईऐ सभ कउ दानु देइ प्रभु ओहै ॥१॥ मेरे भाई जना मो कउ गोविंदु गोविंदु गोविंदु मनु मोहै ॥ गोविंद गोविंद गोविंद गुण गावा मिलि गुर साधसंगति जनु सोहै ॥१॥ रहाउ ॥ सुख सागर हरि भगति है गुरमति कउला रिधि सिधि लागै पगि ओहै ॥ जन कउ राम नामु आधारा हरि नामु जपत हरि नामे सोहै ॥२॥ दुरमति भागहीन मति फीके नामु सुनत आवै मनि रोहै ॥ कऊआ काग कउ अम्रित रसु पाईऐ त्रिपतै विसटा खाइ मुखि गोहै ॥३॥ अम्रित सरु सतिगुरु सतिवादी जितु नातै कऊआ हंसु होहै ॥ नानक धनु धंनु वडे वडभागी जिन्ह गुरमति नामु रिदै मलु धोहै ॥४॥२॥ {पन्ना 492-493} पद्अर्थ: गोविंदु = पृथ्वी का रक्षक। मनि = मन में। मिलि = मिल के। सबदि = शबद में। मोहै = मोह रहा है। देइ = देता है। ओहै = वही।1। गावा = मैं गाता हूँ। सोहै = सुंदर जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ। सागर = समुंद्र। कउला = लक्षमी। रिधि सिधि = करामाती ताकतें। लागै = लगती है। पगि ओहै = उस के पैर में। आधारा = आसरा। नामे = नामि, नाम में (जुड़ के)।2। दुरमति = बुरी मति वाले। रोहै = रोह, क्रोध। काग = कौआ। त्रिपतै = तृप्त हो जाता है। खाइ = खा के। मुखि = मुंह में।3। अंम्रितसरु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम जल का सरोवर। सतिवादी = सदा स्थिर हरी का नाम उच्चारने वाला। जितु = जिस में। नातै = स्नान करने से। होहै = हो जाता है। धोहै = धोता है।4। अर्थ: हे मेरे भाईयो! मुझे पृथ्वी का मालिक प्रभू मिल गया है, गोविंद मेरे मन को आकर्षित कर रहा है। मैं अब हर वक्त गोविंद के गुण गा रहा हूँ। (हे भाई!) गुरू को मिल के साध-संगति में मिल के (और, गोविंद के गुण गा के) मनुष्य सुंदर आत्मिक जीवन वाला बन जाता है।1। रहाउ। हे मेरे भाईयो! साध-संगति में मिल के, गुरू के शबद में जुड़ने के कारण प्रीतम गोविंद (मेरे) मन में (आ बसा है, और, मेरे) मन को आकर्षित कर रहा है। हे भाई! गोविंद भजन करो, हे भाई! गोविंद का ध्यान धरना चाहिए। वही गोविंद सब जीवों को दातें देता है।1। हे भाईयो! जिस मनुष्य को गुरू की मति की बरकति से सुखों के समुंद्र परमात्मा की भक्ति प्राप्त हो जाती है, लक्ष्मी उसके चरनों में आ लगती है, हरेक रिद्धी, हरेक सिद्धी उसके पैरों में आ पड़ती है। हे भाई! हरी के भगत को हरी के नाम का सहारा बना रहता है। परमात्मा का नाम जपते, परमात्मा के नाम में जुड़ के उसका आत्मिक जीवन सुंदर बन जाता है।2। हे भाईयो! बुरी मति पर चलने वाले बद्-किस्मत होते हैं, उनकी अपनी अकल भी हल्की ही रहती है। परमात्मा का नाम सुनते ही उनके मन में (बल्कि) क्रोध आता है। कौए के आगे कोई स्वादिष्ट भोजन रखें (तो उसको खाने की जगह) वह विष्टा खा के विष्टा मुंह में डाल के खुश होता है।3। हे भाईयो! सदा-स्थिर हरी का नाम जपने वाला सतिगुरू आत्मिक जीवन देने वाले नाम-जल का सरोवर है, उस गुरू-सरोवर में नहाने से (आत्मिक डुबकी लगाने से) कौआ भी (सदा विकारों के गंद में खुश रहने वाला मनुष्य भी) हंस बन जाता है (हरी-नाम-ज्योति का प्रेमी बन जाता है)। हे नानक! वो मनुष्य धन्य हैं, बड़े भाग्यशाली हैं, गुरमति से मिला हरी-नाम जिनके हृदय की मैल धोता है।4।2। गूजरी महला ४ ॥ हरि जन ऊतम ऊतम बाणी मुखि बोलहि परउपकारे ॥ जो जनु सुणै सरधा भगति सेती करि किरपा हरि निसतारे ॥१॥ राम मो कउ हरि जन मेलि पिआरे ॥ मेरे प्रीतम प्रान सतिगुरु गुरु पूरा हम पापी गुरि निसतारे ॥१॥ रहाउ ॥ गुरमुखि वडभागी वडभागे जिन हरि हरि नामु अधारे ॥ हरि हरि अम्रितु हरि रसु पावहि गुरमति भगति भंडारे ॥२॥ जिन दरसनु सतिगुर सत पुरख न पाइआ ते भागहीण जमि मारे ॥ से कूकर सूकर गरधभ पवहि गरभ जोनी दयि मारे महा हतिआरे ॥३॥ दीन दइआल होहु जन ऊपरि करि किरपा लेहु उबारे ॥ नानक जन हरि की सरणाई हरि भावै हरि निसतारे ॥४॥३॥ {पन्ना 493} पद्अर्थ: हरि जन = परमात्मा के भगत। मुखि = मुंह से। बोलहि = बोलते हैं। पर उपकारे = दूसरों की भलाई करने के लिए। सेती = साथ। निसतारे = (संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है।1। राम = हे राम! मेलि = मेल, मिलाप। गुरि = गुरू ने।1। रहाउ। गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य। अधारे = आसरा। अंम्रितु = आत्मिक जीवन देने वाला नाम-जल। भंडारे = खजाने।2। ते = वह लोग। जमि = जम के, आत्मिक मौत ने। से = वह लोग। कूकर = कुत्ते। सूकर = सूअर। गरधभ = खोते। पवहि = पड़ते हैं। दयि = प्यारे प्रभू ने। मारे = आत्मिक मौत मारे हुए हैं। हतिआरे = निर्दई।3। लेहु उबारे = बचा ले। भावै = पसंद आता है।4। अर्थ: हे प्यारे राम! मुझे अपने संत जन मिला। हे भाई! पूरा सतिगुरू मुझे अपने प्राणों जितना प्यारा है। मुझ पापी को गुरू ने (संसार समुंद्र से) पार लंघा लिया है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा के संत जन ऊँचे जीवन वाले होते हैं; उनके बचन श्रेष्ठ होते हैं, ये श्रेष्ठ वचन वे अपने मुंह से लोगों की भलाई के लिए बोलते हैं। जो मनुष्य संत जनों के उत्तम वचन श्रद्धा से सुनता है प्यार से सुनता है, परमात्मा कृपा करके उसको (भव-सागर से) पार लंघा देता है।1। हे भाई! गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्य बड़े भाग्यों वाले बन जाते हैं क्योंकि परमात्मा का नाम उनकी जिंदगी का आसरा बन जाता है, वह आत्मिक जीवन देने वाला हरी-नाम-रस प्राप्त कर लेता है। गुरू की मति पर चलने से (उनके अंदर) प्रभू-भक्ति के खजाने भर जाते हैं।2। पर जिन मनुष्यों ने महापुरुष सतिगुरू के दर्शन नहीं किए वे अपनी किस्मत हार बैठते हैं, आत्मिक मौत ने उन्हें मार लिया होता है। वह मनुष्य कुत्ते, सूअर, गधे आदि जूनियों में पड़े रहते हैं, उन निर्दयी मनुष्यों को परमात्मा ने आत्मिक मौत मार दिया होता है।3। हे नानक! (कह–) हे दीनों पर दया करने वाले प्रभू! अपने दास पर मेहर कर, और, दास को (संसार समुंद्र से) बचा ले। हे भाई! परमात्मा के सेवक परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, जब परमात्मा को अच्छा लगता है वह उन्हें (संसार समुंद्र से) पार लंघा लेता है।4।3। गूजरी महला ४ ॥ होहु दइआल मेरा मनु लावहु हउ अनदिनु राम नामु नित धिआई ॥ सभि सुख सभि गुण सभि निधान हरि जितु जपिऐ दुख भुख सभ लहि जाई ॥१॥ मन मेरे मेरा राम नामु सखा हरि भाई ॥ गुरमति राम नामु जसु गावा अंति बेली दरगह लए छडाई ॥१॥ रहाउ ॥ तूं आपे दाता प्रभु अंतरजामी करि किरपा लोच मेरै मनि लाई ॥ मै मनि तनि लोच लगी हरि सेती प्रभि लोच पूरी सतिगुर सरणाई ॥२॥ माणस जनमु पुंनि करि पाइआ बिनु नावै ध्रिगु ध्रिगु बिरथा जाई ॥ नाम बिना रस कस दुखु खावै मुखु फीका थुक थूक मुखि पाई ॥३॥ जो जन हरि प्रभ हरि हरि सरणा तिन दरगह हरि हरि दे वडिआई ॥ धंनु धंनु साबासि कहै प्रभु जन कउ जन नानक मेलि लए गलि लाई ॥४॥४॥ {पन्ना 493} पद्अर्थ: लावहु = लगाओ, जोड़ो। हउ = मैं। अनदिनु = हर रोज, हर वक्त। धिआई = मैं सिमरता रहूँ। सभि = सारे। निधान = खजाने। जितु जपीअै = जिस का नाम जपने से। लहि जाई = उतर जाती है।1। मन = हे मन! सखा = मित्र। भाई = भ्राता। गावा = मैं गाता हूँ। अंति = आखिरी समय।1। रहाउ। प्रभू = मालिक। अंतरजामी = दिल की जानने वाला। लोच = तमन्ना। मनि = मन में। मै तनि = मेरे हृदय में। सेती = साथ। प्रभि = प्रभू ने।2। पुंनि = पुन्य, भले कर्म, अच्छी किस्मत। ध्रिगु = धिक्कार योग्य। बिरथा = व्यर्थ। रस कस = कई किसम के पदार्थ। मुखि = मुंह पर। थुक पाई = थूकती है, फिटकार डालती है।3। तिन = उनको। दे = देता है। गलि = गले से। लाई = लगा के।4। अर्थ: हे मेरे मन! परमात्मा का नाम मेरा मित्र है मेरा भाई है। मैं गुरू की शिक्षा की बरकति से परमात्मा के सिफत सालाह के गीत गाता हूँ। आखिरी वक्त पर परमात्मा का नाम ही मददगार बनता है, प्रभू की हजूरी में नाम ही सुर्खरू करवाता है।1। रहाउ। हे प्रभू! मेरे पर दयावान होवो, मेरा मन (अपने चरणों में) जोड़े रखो, मैं हर समय सदा तेरा ही नाम सिमरता रहूँ। हे मेरे मन! सारे सुख सारे खजाने उस परमात्मा के ही पास हैं, जिसका नाम जपने से सारे दुख (दूर हो जाते हैं), (माया की) सारी भूख उतर जाती है।1। हे हरी! तू खुद ही सब दातें देने वाला है, तू खुद ही (सबका) मालिक है, तू सबके दिल की जानने वाला है। तूने खुद ही मेहर करके मेरे मन में अपनी भक्ति की चाहत पैदा की हुई है। हे भाई! मेरे मन में मेरे हृदय में परमात्मा के साथ मिलाप की चाहत पैदा हुई पड़ी है। परमात्मा ने मुझे सतिगुरू की शरण में ला कर मेरी चाहत पूरी कर दी है।2। हे भाई! मानस जनम बड़ी किस्मत से मिलता है, पर परमात्मा के नाम सिमरन के बिना (मानस जन्म) धिक्कार-योग्य हो जाता है, नाम के बिना व्यर्थ चला जाता है। मनुष्य प्रभू का नाम भुला के दुनिया के अनेकों किस्म के पदार्थ खाता रहता है, दुख ही सहेड़ता है, मुंह से फीके बोल बोलता रहता है, दुनिया इसे धिक्कारें ही डालती है।3। हे भाई! जो मनुष्य परमात्मा की शरण पड़े रहते हैं, उनको परमात्मा अपनी हजूरी में आदर मान देता है। हे नानक! परमात्मा अपने सेवक को ‘धन्य धन्य’ कहता है, ‘शाबाश’ कहता है, अपने सेवक को अपने गले से लगा के अपने चरणों में जोड़ लेता है।4।4। गूजरी महला ४ ॥ गुरमुखि सखी सहेली मेरी मो कउ देवहु दानु हरि प्रान जीवाइआ ॥ हम होवह लाले गोले गुरसिखा के जिन्हा अनदिनु हरि प्रभु पुरखु धिआइआ ॥१॥ मेरै मनि तनि बिरहु गुरसिख पग लाइआ ॥ मेरे प्रान सखा गुर के सिख भाई मो कउ करहु उपदेसु हरि मिलै मिलाइआ ॥१॥ रहाउ ॥ जा हरि प्रभ भावै ता गुरमुखि मेले जिन्ह वचन गुरू सतिगुर मनि भाइआ ॥ वडभागी गुर के सिख पिआरे हरि निरबाणी निरबाण पदु पाइआ ॥२॥ सतसंगति गुर की हरि पिआरी जिन हरि हरि नामु मीठा मनि भाइआ ॥ जिन सतिगुर संगति संगु न पाइआ से भागहीण पापी जमि खाइआ ॥३॥ आपि क्रिपालु क्रिपा प्रभु धारे हरि आपे गुरमुखि मिलै मिलाइआ ॥ जनु नानकु बोले गुण बाणी गुरबाणी हरि नामि समाइआ ॥४॥५॥ {पन्ना 493-494} पद्अर्थ: गुरमुखि = गुरू के सन्मुख रहने वाले। सखी सहेली मेरी = हे मेरी सखियो सहेलियो! मो कउ = मुझे। प्रान जीवाइआ = जिंदा रखने वाला, आत्मिक जीवन देने वाला! हम होवह = हम होएंगे, मैं होता हूँ। लाले = दास। गोले = गुलाम। अनदिनु = हर रोज, हर समय।1। मनि = मन में। तनि = तन में। बिरहु = प्रेम, लगन। पग = पैर। सखा = मित्र।1। रहाउ। वचन गुरू = गुरू के बचन। भाइआ = अच्छे लगते। निरबाणी = निर्लिप। निरबाण पदु = वासना रहित आत्मिक दर्जा।2। संगु = मेल, साथ। जमि = जम ने, आत्मिक मौत ने।3। जनु नानकु बोले = दास नानक बोलता है। गुण बाणी = परमात्मा के गुणों से भरी बाणी। नामि = नाम में।4। अर्थ: हे गुरू के सन्मुख रहने वाले सिखो! हे मेरी सखी सहेलियो! मुझे आत्मिक जीवन देने वाले हरि-नाम की दाति दो। मैं उन सिखों का दास हूँ, गुलाम हूँ, जो हर समय सर्व-व्यापक परमात्मा को सिमरते रहते हैं।1। हे मेरी जीवात्मा के साथी गुरसिखो! हे भाईयो! (मेरे सौभाग्य से परमात्मा ने) मेरे मन में मेरे हृदय में गुरसिखों के चरणों का प्रेम पैदा कर दिया है। तुम मुझे इस तरह का उपदेश करो, (जिसकी बरकति से) तुम्हारा मिलाया परमात्मा मुझे मिल जाए।1। रहाउ। हे भाईयो! जब परमात्मा को अच्छा लगता है तब उन गुरू के सन्मुख रहने वाले मनुष्यों का मिलाप कराता है जिन्हें गुरू के वचन अपने मन में प्यारे लगते हैं। गुरू के वह प्यारे सिख बहुत भाग्यशाली हैंजो निर्लिप परमात्मा को मिल के वासना-रहित आत्मिक दर्जा हासिल कर लेते हैं।2। हे भाईयो! जिन मनुष्यों को परमात्मा का मीठा नाम अपने मन में प्यारा लगता है उनको सतिगुरू की साध-संगति भी प्यारी लगती है। पर जिन मनुष्यों को सतिगुरू की साध-संगत का साथ पसंद नहीं आता, वह बद्-किस्मत रह जाते हैं, उन पापियों को आत्मिक मौत ने समूचा खा लिया होता है।3। हे भाईयो! जब दयावान परमात्मा खुद किसी मनुष्य पर दया करता है, तब वह खुद ही उस मनुष्य को मिलाया हुआ मिल जाता है। दास नानक भी परमात्मा की सिफत-सालाह वाली बाणी गुरबाणी ही (नित्य) उचारता है। गुरबाणी की बरकति से मनुष्य परमात्मा के नाम में लीन हो जाता है।4।5। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |