श्री गुरू ग्रंथ साहिब दर्पण । टीकाकार: प्रोफैसर साहिब सिंह । अनुवादक भुपिन्दर सिंह भाईख़ेल |
Page 498 गूजरी महला ५ दुपदे घरु २ ੴ सतिगुर प्रसादि ॥ पतित पवित्र लीए करि अपुने सगल करत नमसकारो ॥ बरनु जाति कोऊ पूछै नाही बाछहि चरन रवारो ॥१॥ ठाकुर ऐसो नामु तुम्हारो ॥ सगल स्रिसटि को धणी कहीजै जन को अंगु निरारो ॥१॥ रहाउ ॥ साधसंगि नानक बुधि पाई हरि कीरतनु आधारो ॥ नामदेउ त्रिलोचनु कबीर दासरो मुकति भइओ चमिआरो ॥२॥१॥१०॥ {पन्ना 498} पद्अर्थ: पतित = विकारों में गिरे हुए लोग। लीऐ करि = बना लिए। बरनु = (ब्राहमण खत्री आदि) वर्ण। कोऊ = कोई भी। बाछहि = चाहते हैं, मांगते हैं। रवारो = धूड़।1। ठाकुर = हे ठाकुर! अैसो = ऐसी समर्था वाला। धणी = मालिक। कहीजै = कहलवाता है। जन को = दास का। अंगु = पक्ष। निरारो = निराला, अनोखा।1। रहाउ। बुधि = सद् बुद्धि। आधारो = आसरा। दासरो = निमाणा सा सेवक। मुकति = विकारों से खलासी। चंमिआरो = रविदास चमार।2। अर्थ: हे मालिक प्रभू! तू अपने येवक का अनोखा ही पक्ष करता है, तेरा नाम आश्चर्यजनक शक्ति वाला है (तेरे नाम की बरकति से तेरा सेवक) सारी दुनिया का मालिक कहलवाने लग पड़ता है।1। रहाउ। हे भाई! विकारों में गिरे हुए जिन लोगों को पवित्र करके परमात्मा अपने (दास) बना लेता है, सारी दुनिया उनके आगे सिर झुकाती है। कोई नहीं पूछता उनका वर्ण कौन सा है उनकी जाति क्या है। सब लोग उनके चरणों की धूड़ मांगते हैं।1। हे नानक! जो मनुष्य साध-संगति में आ के (सद्) बुद्धि प्राप्त कर लेता है, परमात्मा की सिफत सालाह उसकी जिंदगी का आसरा बन जाती है। (सिफत-सालाह की बरकति से ही) नामदेव, त्रिलोचन, कबीर, रविदास चमार- हरेक ने (माया के बंधनों से) निजात प्राप्त कर ली।2।1।10। गूजरी महला ५ ॥ है नाही कोऊ बूझनहारो जानै कवनु भता ॥ सिव बिरंचि अरु सगल मोनि जन गहि न सकाहि गता ॥१॥ प्रभ की अगम अगाधि कथा ॥ सुनीऐ अवर अवर बिधि बुझीऐ बकन कथन रहता ॥१॥ रहाउ ॥ आपे भगता आपि सुआमी आपन संगि रता ॥ नानक को प्रभु पूरि रहिओ है पेखिओ जत्र कता ॥२॥२॥११॥ {पन्ना 498} पद्अर्थ: कोऊ = कोई भी। बूझनहारो = समझने की समर्था वाला। कवनु = कौन? भता = भांति, किस्म। बिरंचि = ब्रहमा। अरु = और। गहि न साकहि = पकड़ नहीं सकते। गता = गति, हालत।1। अगम = अपहुँच। अगाधि = गहरी। सुनीअै = सुना जाता है। अवर बिधि = और तरीके। बुझीअै = समझा जाता है। रहता = परे, बगैर।1। रहाउ। आपे = स्वयं। संगि = साथ। रता = मस्त। को = का। जत्र कता = जहाँ तहां, हर जगह।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा कैसा है– इस बात की समझ मनुष्य (की समझ) से परे है (मनुष्यी समझ के लिए) बहुत गहरी है। (उसके स्वरूप के बारे में लोगों से) सुनते कुछ और हैं, और समझते किसी और तरह हैं, क्योंकि (उसका स्वरूप) बताने से बयान करने से बाहर है।1। हे भाई! कोई भी ऐसा मनुष्य नहीं है जो परमात्मा के सही रूप को समझने की ताकत रखता हो। कौन जान सकता है कि वह कैसा है? शिव, ब्रहमा और सारे ऋषी मुनी भी उस परमात्मा के स्वरूप को नहीं समझ सकते।1। हे भाई! परमात्मा स्वयं ही (अपना) भक्त है, खुद ही मालिक हैं, खुद ही अपने आप में मस्त है (क्योंकि, हे भाई!) नानक का परमात्मा सारे संसार में व्यापक है, (नानक ने) उसको हर जगह देखा है।2।2।11। गूजरी महला ५ ॥ मता मसूरति अवर सिआनप जन कउ कछू न आइओ ॥ जह जह अउसरु आइ बनिओ है तहा तहा हरि धिआइओ ॥१॥ प्रभ को भगति वछलु बिरदाइओ ॥ करे प्रतिपाल बारिक की निआई जन कउ लाड लडाइओ ॥१॥ रहाउ ॥ जप तप संजम करम धरम हरि कीरतनु जनि गाइओ ॥ सरनि परिओ नानक ठाकुर की अभै दानु सुखु पाइओ ॥२॥३॥१२॥ {पन्ना 498} पद्अर्थ: मता = सलाह। मसूरति = मश्वरा। अवर = और। जन = दास, सेवक। जह जह = जहाँ जहाँ। अउसरु = समय, मौका।1। प्रभ को बिरदाइओ = प्रभू का बिरद, परमात्मा की आदि कदीमों का स्वभाव। भगति वछलु = भगती (करने वालों) का प्यार। प्रतिपाल = पालना, रक्षा। बारिक = बालक, बच्चा। निआई = जैसा। कउ = को।1। रहाउ। संजम = इन्द्रियों को वश करने के यतन। जप = (देवताओं को प्रसन्न करने के लिए खास मंत्रों के) जाप। तप = धूणियां तपाना। करम धरम = (शास्त्रों के अनुसार निहित) धार्मिक कर्म। जनि = जन ने, सेवक ने। अभै दानु = निर्भैता की दाति।2। अर्थ: हे भाई! परमात्मा का मूल-कदीमी स्वभाव है कि वह भगती (करने वालों) का प्यारा है। वह (सबकी) बच्चों की तरह पालना करता है, और अपने सेवक को लाड लडाता है।1। रहाउ। हे भाई! परमात्मा के सेवक को कोई सलाह मश्वरा, कोई समझदारी वाली बात- यह सब कुछ भी नहीं जरूरत। जहाँ-जहाँ (कोई मुश्किल) आ बनती है, वहाँ वहाँ (परमात्मा का सेवक) परमात्मा का ही ध्यान धरता है।1। हे भाई! परमात्मा के सेवक ने (सदा) परमात्मा के सिफत-सालाह का ही गीत गाया है, (सेवक के लिए ये सिफत सालाह ही) जप-तप है, संजम है, और (निहित) धार्मिक कर्म है। हे नानक! परमात्मा का सेवक परमात्मा की ही शरण पड़ा रहता है, (प्रभू के दर से ही वह) निडरता की दाति प्राप्त करता है, आत्मिक आनंद हासिल करता है।2।3।12। गूजरी महला ५ ॥ दिनु राती आराधहु पिआरो निमख न कीजै ढीला ॥ संत सेवा करि भावनी लाईऐ तिआगि मानु हाठीला ॥१॥ मोहनु प्रान मान रागीला ॥ बासि रहिओ हीअरे कै संगे पेखि मोहिओ मनु लीला ॥१॥ रहाउ ॥ जिसु सिमरत मनि होत अनंदा उतरै मनहु जंगीला ॥ मिलबे की महिमा बरनि न साकउ नानक परै परीला ॥२॥४॥१३॥ {पन्ना 498} पद्अर्थ: पिआरो = प्यारे (हरी) को। निमख = निमेष, आँख झपकने जितना समय। ढीला = ढील। संत = गुरू। करि = कर के। भावनी = श्रद्धा। लाईअै = बनानी चाहिए। तिआगि = त्याग के। हाठीला = हठ।1। सोहनु = सुंदर प्रभू। प्रान मान = प्राणों पर गर्व। रागीला = रंगीला, सदा खुश मिजाज। हीअरे कै संगे = (मेरे) हृदय के साथ। हीअरा = हृदय। पेखि = देख के। लीला = करिश्मा।1। रहाउ। मनि = मन में। (शब्द ‘मनु’ और ‘मनि’ में फर्क देखें)। मनहु = मन से। जंगीला = जंगाल, मैल। मिलबे की = (उस परमात्मा को) मिलने की। महिमा = वडिआई। साकउ = सकूँ।2। अर्थ: हे भाई! सुंदर हरी सदा खुश स्वभाव वाला है, मेरे प्राणों का माण है। वह सुंदर हरी (सदा) मेरे हृदय के साथ बस रहा है, मेरा मन उसके करिश्में देख-देख के मस्त हो रहा है।1। रहाउ। हे भाई! उस प्यारे हरी को हर समय दिन-रात सिमरते रहा करो, आँख झपकने जितने समय के लिए भी (इस काम में) ढील नहीं करनी चाहिए। (हे भाई! अपने मन में से) अहंकार और हॅठ त्याग के, गुरू की बताई हुई सेवा करके (परमात्मा के चरणों में) श्रद्धा बनानी चाहिए।1। हे नानक! (कह– हे भाई!) जिस परमात्मा का सिमरन करने से मन में आनंद पैदा होता है, और मन में से (विकारों की) मैल उतर जाती है, उसके चरणों में जुड़ने की महानता मैं बयान नहीं कर सकता, महानता परे से परे है (परला छोर नहीं ढूँढ सकता)।2।4।13। गूजरी महला ५ ॥ मुनि जोगी सासत्रगि कहावत सभ कीन्हे बसि अपनही ॥ तीनि देव अरु कोड़ि तेतीसा तिन की हैरति कछु न रही ॥१॥ बलवंति बिआपि रही सभ मही ॥ अवरु न जानसि कोऊ मरमा गुर किरपा ते लही ॥१॥ रहाउ ॥ जीति जीति जीते सभि थाना सगल भवन लपटही ॥ कहु नानक साध ते भागी होइ चेरी चरन गही ॥२॥५॥१४॥ {पन्ना 498-499} पद्अर्थ: मुनि = समाधि लगा के चुप टिके रहने वाले। जोगी = योगाभ्यास करने वाले। सासत्रगि = शास्त्रज्ञ, शास्त्रों के जानने वाले। कहावत = कहलाते हैं। बसि = वश में। कीने = किए हैं। तीनि देव = ब्रहमा विष्णु शिव। अरु = और। कोड़ि = करोड़। हैरति = हैरानगी।1। बलवंति = बलवती माया, प्रबल माया। बिआपि रही = अपना जोर डाल रही है। मही = धरती। मरमा = भेत। अवरु = और। ते = से। लही = पाया।1। रहाउ। जीति जीति जीते = सदा से ही जीतती आ रही है (देखें ‘गुरबाणी व्याकरण’)। सभि = सारे। लपटही = चिपकी हुई है। साध ते = गुरू से। होइ चेरी = दासी बन के। गही = पकड़ती है।2। अर्थ: हे भाई! प्रबल माया सारी धरती पर अपना जोर डाल रही है, कोई और मनुष्य (इससे बचने का) भेद नहीं जानता। (ये भेद) गुरू की कृपा से मिलता है।1। रहाउ। कोई अपने आप को मुनि कहलवाते हैं, कोई शास्त्र-वेत्ता कहलवाते हैं–इन सभी को प्रबल माया ने अपने वश में किया हुआ है। (ब्रहमा-विष्णु-शिव ये बड़े) तीन देवते और (बाकी के) तैंतीस करोड़ देवते- (माया का इतना बल देख के) इन सब की हैरानगी की कोई सीमा ना रह गई।1। हे भाई! यह प्रबल माया सदा ही हर जगह जीतती आ रही है, यह सारे भवनों (के जीवों) को चिपकी हुई है। हे नानक! कह–यह प्रबल माया गुरू से दूर भागी है, (गुरू की) दासी बन के (गुरू के) चरण पकड़ती है।2।5।14। |
Sri Guru Granth Darpan, by Professor Sahib Singh |